तीसमारखां / नवीन सागर

Gadya Kosh से
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नगरपालिका बनी तो सरकार ने प्रशासनिक अधिकारी भेजा। अधिकारी युवा था। लम्बे बाल रखता था और गजलें गाता था। बोलता कम था। उसकी आंखों का भाव अच्छा नहीं था। जब से यहां नगर-पालिका बनी है, बस्ती भर के महत्त्वाकांक्षी लोग वार्ड मेम्बर और चेयरमेन बनने के सपने देख रहे हैं। मगर महादेव महाराज सपने से बहुत आगे निकल गए हैं। उन्हें लोग और वे खुद भी चेयरमेन कहते हैं। उनका एक नाम एम. पी. शायर भी है। वे तत्क्षण बना-बनाकर ग़ज़लें गाते हैं। उनकी पकड़ में जो भी शब्द आ जाए, उसे गा देते हैं।

नगरपालिका के नये प्रशासनिक अधिकारी ने पहले महीने में बस्ती के लोगों से कोई वास्ता नहीं रखा। गम्भीरता अख़्तियार कर ली। धीरे-धीरे लोगों को उसकी गम्भीरता से चिंता होने लगी। ऐसा न हो कि कुछ उल्टा-सीधा करने लगे। आढ़तियों को विशेष चिंता हुई। वज़नकसी का बारह लाख रूपया नगर-पालिका को इन आढ़तियों से लेना है। नगरपालिका अधिकारी यदि अपनी पर आ जाए तो खड़े-खड़े वसूली कर ले। लिहाजा आढ़तियों ने अधिकारी के आगे-पीछे घूम के ईओसा- ईओसाब करके उसे मिलनसार बनाया। फिर तो दो-चार महीनों में ये हालत हो गई कि बस्ती के बड़े व्यापारी, ठेकेदार और गुण्डे ईओसाब के खास दोस्त बन गये। चूंकि ईओसाब का गला अच्छा था और वे गा भी लेते थे इसलिए स्थानीय रसिक और गवैये भी उनके साथ उठने-बैठने लगे। आठ महीने के भीतर-भीतर उच्चस्तरीय संपर्कों का ताना-बाना बहुत मजबूत हो गया।

सेठों के लड़के, ढोरों और मनुष्यों के सरकारी डॉक्टर, खाद्य निगम के अधिकारी, इंटर कॉलेज के युवा अध्यापक, वकील, बैंक मैंनेजर, नेता और भूतपूर्व राज परिवार के युवजन, ईओ साहब की मैजोरिटी बन गये यानी सोसायटी की टीम संगठित हो गई। ये लोग पार्टियां करने लगे, जिनमें जम के शराब पी जाती, मुर्गा कटता और आधी-आधी रात तक आढ़तियों की बगिया में जलसा चलता। हफ़्ते में एक पार्टी हो जाना मामूली बात थी। इन पार्टियों में कभी-कभी थानेदार भी शरीक हो जाता। सहज ही प्रश्न उठता है कि ईओ साहब को धुरी बनाकर इतने आकार-प्रकार वाले लोग क्यों इकट्ठा हो गये ? बस्ती में ऐसा ग्रुप इससे पहले क्यों नहीं बना ? ये प्रश्न कुछ लोगों के मन में उठे ही थे कि उत्तर भी मिलने लगे। तम्बाकू वाले सेठ के लड़कों ने सड़कों की मरम्मत का ठेका लिया। नेता कुंदनलाल हरिजन मोहल्ले की गलियों में मुरम डालने का ठेका ले भगे। आढ़तियों की दुकानें सड़क की तरफ पैर पसारने लगीं। मकानों में बाहर की तरफ टट्टियां बनने लगीं। वज़नकसी का मामला बुरी तरह दब गया। पार्टियां और भी खर्चीली होने लगी। ज़मीनों और मकानों के जो मामले नगरपालिका में विचाराधीन थे, उन पर ऐसे निर्णय लिए जाने लगे कि बड़े लोगों को संतोष का अनुभव होने लगा। सड़कों और गलियों की मरम्मत के बाद पैदल चलना और भी दूभर हो उठा। दफ़्तरों, बैंक, अस्पताल और थाने में मैजोरिटी की तूती बोलने लगी। सरकारी नौकरों को जनता का कोई संकोच नहीं रह गया।

सुखी और सन्तुष्ट, लोभी और उद्दण्ड, पाखंडी और हिंसक लोगों की यह मित्र मण्डली उस छोटी-सी बस्ती पर छा गई। बाज़ार और बस स्टैण्ड पर शाम को ये लोग मंडराते रहते। किसी रपटा होटल में बैठ जाते और हंसी ठट्ठा, गाना-बजाना और चुटकुलेबाजी करते रहते। कभी ट्रक में भरकर आसपास के देहातों में चले जाते और रात भर बेड़नियों का नाच देखते। कभी शहर चल देते सिनेमा देखने और कभी कोई फड़कती आर्केस्ट्रा पार्टी को बुलवाकर बड़ा ही उत्तेजक कार्यक्रम करवा डालते। उन लोगों में ऐसे शिकारी भी थे, जो बस्ती के दरिद्र कोनों में से स्त्री पदार्थ का शिकार कर लाते और बांट लेते। मगर रासरंग में वे इतने भी नहीं डूब गये थे कि जेबें भरने का समय न निकाल पाते। वे दिन भर पैसा कमाते। पारस्परिकता के कारण उन्हें आसान रास्तों से भरपूर पैसा मिल जाता। और बस्ती इतनी मुर्दा कि उस मंडली के उन्माद से आक्रांत भी रहती और उसके आगे दांत भी निपोरती रहती। देश में पाई जाने वाली विभिन्न रूप-रंगों वाली राजनीतिक पार्टियों की शाखाएं यद्यपि वहाँ थीं, मगर उनमें ज्यादातर वहीं लोग थे जो इस मण्डली के प्रादुर्भाव से बहुत प्रसन्न हुए थे। कुछ नेतागण मण्डली में शामिल भी थे। इसलिए मण्डली के कारगुजारियों पर उंगली उठाने वाला कोई न था, एक महादेव महाराज को छोड़कर। लेकिन उसे पागल करारा जा चुका था। लोग उससे मज़ाक करते। उसकी बातें बनावटी गम्भीरता से सुनकर हँसी में उड़ा देते। उसे उठाईगिरा, बदमाश, नाकारा, नरोलची और इसलिए अविश्वसनीय मानते।

बच्चों से लेकर बूढ़े तक उसे देखकर चंचल हो जाते। कोई उससे कहता- फड़कती ग़ज़ल सुनाओ, कोई कहता फाग सुनाओ, मन से बनाकर सुनाओ, मान लो तुम देश के राष्ट्रपति हो गये हो और जनता को संदेश दे रहे हो, मान लो तुम जज हो गए तो और पिछले साल वाले हरिजन-हत्याकाण्ड पर बीस पेज लम्बा फैसला पढ़ रहे हो, मान लो तुम भगवान कृष्ण हो और गोपियों से घिर गये हो और घिरकर उनके अंगों का खुलासा कर रहे हो। मान लो तुम...यानी जिसके मन में जो आता फरमाइश कर डालता और महादेव महाराज फौरन शुरू हो जाते। उसे सब आता था, पक्का गाना, कच्चा गाना, ग़ज़ल बनाना, फागेगारियां बनाना, और सब कुछ फ़ौरन बनाना, भाषण देना, कव्वाली गाना, नाचना। बस्ती

में न सिनेमा-थिएटर था न मनोरंजन का कोई और ज़रिया इसलिए महादेव महाराज पर काफी बोझ आ पड़ा। वह सुबह जो घर से निकलता तो फिर रात एक-दो बजे से पहले न लौटता। बीच में खाना खाने पहुँच गया तो पहुँच गया। घर में सिर्फ़ माँ थी। पिता मर चुके थे और दो भाई बाहर नौकरियां करते थे। पाँच-सात बीघा जमीन थी। उस पर माँ हाड़ तोड़ती और कभी-कभी महादेव भी पसीना बहा आता। आय का यही एक ज़रिया था। महादेव एक बार में पन्द्रह-बीस रोटियां खाता था जबकि अनाज की हमेशा कमी बनी रहती थी। इसलिए आये दिन वह अधपेट रह जाता और ख़ूब पानी पीता रहता। फिर भी वह तन्दुरूस्त था। उसकी आवाज़ भारी और तेज़ थी ठीक पिता की तरह। उसके पिता गायक थे और इलाके भर में संगीत-सभाओं में जाते थे। उनका आलाप आज भी लोगों के दिलो-दिमाग में गूंजता है। महादेव भी कभी-कभी अपने पिता की तरह आलाप लेता है। मगर गांजे और बीड़ी के कारण उसकी सांस जवाब दे जाती है।

पिछले चार महीने से महादेव महाराज नगरपालिका का चेयरमेन है. सचमुच का चेयरमेन नहीं. हंसी-मजाक का. एक दिन बस्ती के कुछ खुड़पेंचियों ने महादेव महाराज को इस बात के लिए राजी कर लिया कि वह चेयरमेन है. लोगों ने उसे लोकप्रियता की दुहाईयां दीं और एक अच्छे चेयरमेन की आवश्यकता पर जोर दिया. महादेव ने तमक कर स्वीकृति दे दी. वह उठ खड़ा हुआ और हुंकार भर के बोला- "ठीक है, यदि ऐसा है तो यही सही. मैं हूं चेयरमेन इस नगरपालिका का. अब संभल जाओ ईओ साब !"

लोगों ने उसे मालाएं पहनाई, ढोल वाले को बुलाया और बस्ती भर में महादेव महाराज को लिए-लिए घूमे. महादेव मालाएं पहने ढोल वाले के पीछे चला आ रहा है. दुकानदारों और राहगीरों का हाथ जोड-ज़ोड़कर अभिवादन कर रहा है. उसके चेहरे पर यथोचित गर्व और उत्तरदायित्व की भावना है. उसके पीछे खुड़पेंचियों का झुंड है जो चेयरमेन महादेव की जयजयकार कर रहा है. लोग हंस रहे हैं. बस्ती एक नया तमाशा देख पुलकित हो रही है.

लोगों के लिए भले ही यह मजाक रहा हो मगर महादेव के लिए सच था. वह पूरी गंभीरता से स्वयं को चेयरमेन अनुभव करने लगा. बस्ती भर के लिए पितृत्व की भावना से उसका हृदय भर उठा. वह टूटी-फूटी सड़कों, गिरे-अधगिरे मकानों, मलबों, घूरों और पीड़ित प्रताड़ित लोगों को चिंता से देखने लगा. अब घर से निकलता तो उसके बाल खूब तेलिया और कायदे से ओंछे हुए होते. उसका फटा और तंग कुरता पाजामा धुला हुआ होता. वह मंथर और बोझिल चाल से चलता. लोगों से बड़प्पन भरी आत्मीयता से मुस्कराकर नमस्ते करता- दोनों हाथ जोड़कर.

एक दिन ईओ साब को बाजार में रोककर बोला, " मैं कुछ कहता नहीं हूं इसका यह मतलब नहीं कि आप काला पीला कुछ भी करते रहे. शेर की मांद में तो शेर भी कायदे से घुसता है आप तो लगते कहां है."

जो लोग सुन रहे थे सब ठहाका मारकर हंस पड़े. ईओ साब ने हाथ जोड़ लिये बोले, "कोई गलती हुई क्या इस सेवक से चेयरमेन साहब."--कहकर ईओ साब भी हंस पड़े.

महादेव का पारा चढ़ गया. उसने त्योरियां चढ़ाईं, आंखे निकाली और चिल्ला पड़ा, "मजाक करते हो मुझसे. मैं डेढ़ मिनट में ठंडा कर दूंगा हरामखोर कहीं के."

यह बात ईओ साब को अखर गई. वे दो कदम बढ़कर बोले, "आप होते कौन है मुझसे बकवास करने वाले."

"मैं? मैं चेयरमेन हूं समझे. जनता जनार्दन ने मुझे चेयरमेन बनाया है." महादेव गरजा.

"बनाया होगा, मुझे तो सिर्फ इतना पता है कि आज अव्वल दरजे के हरामी हैं."

"सुन बे ई ओ तू हरामी, तेरा बाप हरामी और सुन तेरी औलाद हरामी और सुन मैं तुझे अभी खड़े-खड़े जिंदा गाड़ दूंगा साले."

महादेव महाराज का इतना कहना था कि लगै लगै, लोग जुट पड़े. ई ओ साब हालांकि मना करते रहे. मगर उनके खैरख्वाह न माने. वह शायद पहला मौका था जब महादेव महाराज पिटा हो. वह भौंचक रह गया. उसे मारने वाले वे ही लोग थे जो उसके पास घंटों बैठे उसका मजाक उड़ाते रहते थे, उससे गाना सुनते रहते थे और उसे अपनी पार्टियों महफिलों में आमंत्रित करते थे. जो उसे पूरी बस्ती की तरह चेयरमेन कहते और मानते थे. उन्होंने मारा. महादेव को बहुत धक्का लगा. वह नहीं पिटा या, उसके भेष में उसके शरीर में आखिर बस्ती का चेयरमेन पिटा था. चेयरमेन भूख हड़ताल पर बैठेगा. मन में संकल्प आया और महादेव वहीं सड़क के किनारे पालथी मारकर प्रतिकार की गंभीर मुद्रा में अड़ कर बैठ गया.

ईओ साब अपने साथियों सहित चले गये. और वहां अच्छा-खासा ठठ्ठा लग गया. जो सुनता कि महादेव महाराज पिट गया और भूख हड़ताल पर बैठा है, वही तमाशा देखने भागा चला आता. देखते न देखते पूरी सड़क लोगों से भर गई.

महादेव महाराज लोगों को देखकर भाव विहल हो गया. आखिर चेयरमेन पिटा है कोई और नहीं. मैं नहीं पिटा हूं इन लोगों की भावना पिटी है, ऐसा विचार मन में आते ही महादेव उठ खड़ा हुआ और बिना खखारे जोर से बोला," सज्जनों आप लोगों ने भावना में पड़कर मुझे चेयरमेन बनाया. मैं अयोग्य था मगर आप लोगों की भावना की इज्जत करता था, इसलिए मैं चेयरमेन बन गया. जब बन गया तो मुझ पर नगर को अच्छा बनाने का भार आ गया. अब जहां देखो वहां लूट मची है. जितने सरकारी लोग है, उनने सेठों और गुण्डों से सांठगांठ कर ली है और जनता को लूट रहे हैं. आढ़तिये नगरपालिका का पन्द्रह लाख रूपए दबाए हैं. अब अगर ये पैसा मिल जाता तो जनता का कितना काम निकलता. और सोचो ये वजनकसी का पैसा, ये बनिए किसानों से तभी ले लेते हैं जब उनसे माल खरीदते हैं. यह जो ईओ यहां आया है, बनियों से माहवारी पाता है. इसने जनता जर्नादन के पन्द्रह लाख रूपयों का सौदा कर लिया है. सड़के देखिए, ठेका हो गया कागजों पे सुधर गईं और देखो तो पहले से ज्यादा बुरी हो गई. इस ईओ के जमाने में कितने गरीबों के मकान-जमीन सेठों ने दबा लिए हैं, सबको पता है. अस्पताल में बड़ों के लिए सब कुछ है और छोटों के लिए कुछ नहीं. थाने में अलग धंधा चल रहा है. स्कूल में अलग चल रहा है. ईओ ने जो टीम बनाई है वह क्या-क्या कहर ढा रही है इस जनता पर, सब जानते हैं. मैं चेयरमेन हूं यह सब देखा नहीं जाता...."

लोगों ने हो-हो किया फिर भगदड़ मच गई. पुलिस के चार सिपाही भगदड़ से बने रास्ते होकर महादेव के पास पहुंचे और उसे धकेलते हुए थाने की तरफ ले चले. पीछे-पीछे चलते लोग हो-हो करते, कभी चेयरमेन जिंदाबाद के नारे लगाते और हंस पड़ते.

इस घटना के कुछ ही दिन बाद जनार्दन छुट्टियों में घर गया. बस से उतरकर वह लल्लू होटल में बस्ती के हालचाल पूछने के बाद ही घर जाता है. होटल में लल्लू मक्खियां उड़ा रहा था. उसे देखते ही सम्मान से खड़ा हो गया और शिकायती चेहरे से हंसते हुए बोला, "इस बार इतने दिनों बाद आये भैया."

जनार्दन ने उसके कंधे पर हाथ रखा और हंस पड़ा- "और यहां के क्या हालचाल रहे." लल्लू ने ईओ मंडल का बखान किय, फिर चेयरमेन की पिटाई की घटना सुनाई.

"महादेव महाराज थाने में भी पिटा. लेकिन एक बात मानना पड़ेगी दूसरे दिन से वह ईओ साब के पीछे पड़ गया. रोज कच्चा चिट्ठा खोलता फिरता है. गाना छोड़ दिया है. कहता है अब गाना तभी होगा जब इस कलंक को मिटा दूंगा. चेयरमेन हूं. पहले बस्ती को संभालना है, फिर गाना कव्वाली देखी जाएगी."

जनार्दन यह सुनकर दुखी हो गया. महादेव महाराज को सार्वजनिक करने का काम जनार्दन ने ही किया था और वह भी औरों की तरह महादेव को मनोरंजन का साधन बनाए हुए था मगर उससे लगाव भी था. महादेव के भीतर कलाकार और एक ईमानदार और सहज मनुष्य का अनुभव उसे तो था. वह और की तरह घृणित नहीं मानता था. और न ही उसे यह डर रहता था कि महादेव कभी पैसा न मांग बैठे. उसे पता था कि वह पैसा कभी मांग ही नहीं सकता. महादेव लोगों से प्यार चाहता था और उसके बदले में वह कुछ भी कहने-करने के लिए तैय्यार रहता था. वह लोगों के शब्दों के पीछे ताक झांक किये बिना ही यह मान बैठता यह कि वह चेयरमेन है, वह देश का सबसे बड़ा शायर है, तानसेन से बड़ा गायक है, उसके पास करोड़ों रूपया है, एक बहुत बड़े मंत्री की लड़की उससे शादी करने की जिद ढाती है. इसी तरह की ढेर असंभव बातें. महादेव पर जो थोप दिया जाये वह उसी को अपनी निधी, अपनी वास्तविकता मान लेता था. लोग उसे और-और अजूबा बनाते रहने के लिए उस पर कुछ भी पोत देते, फेंक देते, लपेट देते और वह सब कुछ स्वीकार करता जाता. और कैसी विडंबना है कि वह कपोल कल्पित बातों को अपने विश्वास में अंगीकृत करता जाता. उसकी इसी अंधी गंभीरता, इसी बुद्धिहीन भावलीला को देखकर लोगों के पेट में बल पड़ जाते. वे उससे खेलते जाते और विकृत से विकृत नये खेल ईजाद करते जाते. जनार्दन ही ऐसे खेलों का प्रथम संयोजक था. उसने छ: माह में महादेव को बस्ती के कोने-कोने में गवा-नचा दिया. रपटों की बैठकों का उसे जरूरी हिस्सा बना दिया. उसे यह विश्वास दिलाया कि वह मामूली आदमी नहीं है और वह कुछ करने के लिए पैदा हुआ है, लोगों को उससे बहुत उम्मीदें है. उसी महादेव की पिटाई का सुनकर जनार्दन को बहुत बुरा लगा. उसने खुद को इसके लिए दोषी अनुभव किया और उसका वह विश्वास भी टूट गया कि महादेव से लोग सचमुच प्यार करने लगे है. वह पिटता रहा और लोगों ने कुछ नहीं किया. जबकि वह खुद को लोगों की भावना का चेयरमेन मानकर उनके लिए पिट रहा था.

जनार्दन क्षुब्ध हो गया. घर की ओर जाते हुए उसे बस्ती के लोगों को देखकर क्रोध आता रहा. वह किसी जगह नहीं रूका. लोगों से फिर मिलने का कहकर सीधा घर पहुंचा. मां ने जल्दी ही पानी गरम कर दिया. उसने खूब नहाया. मन कुछ हल्का हुआ. खाने का मन नहीं था मगर मां की जिद से उसने थोड़ा सा खाया और मां से बाते करने लगा. मां हंस पड़ी. उसकी अन्यमनस्कता का कारण उन्हें पता था, बोली " दीपक के घर जाने का मन है और मन लगा रहे हो यहां बातों में. जाओ पहले हो आओ."

वह सचमुच दीपक से मिलने की बेकरारी में बैठा था. मां की उदारता से पुलकित होकर वह उठ खड़ा हुआ. दीपक का घर पास ही था. और चूंकि दोपहर का समय था, इसलिए तय था कि वह फैक्ट्री में नहीं, घर में ही होगा. दीपक के यहां हैण्डलूम का अच्छा-खासा काम था. हर साल खड्डियां बढ़ती ही जाती थी. उसका पिता और वह स्वयं भी मेहनती था. झगड़ों-झांसों से दूर वे अपने धंधे में मन लगाए हुए थे. दीपक का एक ही दोस्ता था जनार्दन और जनार्दन को भी उस बस्ती में दीपक के अलावा किसी से वैसा नहीं था. हालांकि दोनों ही बस्ती भर में फैले हुए थे. खूब बड़ा उन लोगों का दायरा था. अभी दो साल से जब से जनार्दन नौकरी पर गया तो दीपक का अपना एक नया दायरा बन गया. वह ईओ मंडल का बड़ा ही सम्मानित सदस्य है. चूंकि वह ईओ से या किसी दूसरे सरकारी आदमी से कोई लाभ नहीं लेता तथा उसका घर बहुत ही सुसंस्कृत और सत्कारी है, इसलिए उसका विशिष्ट बेदाग स्थान उस मंडल में है. सब उसकी इज्जत करते है और उसकी बुद्धि का लोहा मानते है.

उसे पीने का शौक है. पार्टियों में शामिल होकर अपनी धाक जमाने का नशा भी उसे है. धंधे की और घर की अंदरूनी दुख के तनाव से वह इसी तरह मुक्त हो सकता था इसलिए न जाने वह कैसे उस मंडल में शामिल हो गया. जनार्दन जब पिछली बार आया था तब दीपक के संबंध ईओ साब से बने ही बने थे और दो एक पार्टियों में वह अंधाधुंध पी चुका था. जनार्दन ने उसे धिक्कारते हुए कहा था "ये लोग इस लायक नहीं है कि तुम इनके साथ पियो खाओ. मेरी समझ में नहीं आता तुम क्यों इन लोगों को इतनी लिफ्ट दे रहे हो. होगा साला ईओ फीओ."

यही इस बार हुआ. दोस्ते से मिलते ही जनार्दन ने महादेव की पिटाई को लेकर ईओ को गाली दी. दीपक ने ईओ का पक्ष लिया. जनार्दन तिलमिला गया. वह बोला "दीपक तुम्हारा पतन शुरू हो गया है."

"मैं उस टुच्चे महादेव का पक्ष नहीं ले रहा हूं इसलिए मेरा तो पतन हो गया है और तुम ईओ को गाली देकर बड़ा ऊंचा काम कर रहे हो. तुम्हे मालूम है महादेव चेयरमेन बना फिरता है और चाहता है ईओ उसके अंडर में काम करें. है न मजाक. ऐसे आदमी को पागलखाने में डाल देना चाहिए लेकिन जब तक यह नहीं होता वह गली-गली जूते खाएगा ही. चाहे फिर तुम्हें बुरा ही क्यों न लगे."

दीपक का यह दो टूक लहजा जनार्दन को बहुत बुरा लगा. उसे आश्चर्य हुआ कि ये दीपक के विचार है. हालांकि महादेव से वह हमेशा चिढ़ता रहा मगर ईओ जैसे लोगों का पक्ष लेना उसने हाल में ही शुरू किया होगा. जनार्दन नहीं चाहता था कि शुरूआत कटुता से हो. इसलिए उसने ठंडेपन से एक सवाल पूछा, " दीपक क्या तुम्हें यह नहीं लगता कि सकारी लोग बस्ती में मुअज्जिसों और गुण्डों से संबंध बनाकर लोगों को लूटते है. वे बस्ती की ताकत को अपनी ताकत बना लेते है. और फिर बस्ती का कचूमर बना देते है. इसलिए समझदार लोगों को इनका कवच और हथियार बनने से बचना चाहिए. तुम्हारी इस बारे में क्या राय है?"

जनार्दन की बात सुनकर दीपक मुस्कराया. और उसने उसी गंभीरता से कहा- "जनार्दन बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है. यह तुम्हें पता ही होगा. और यह भी पता होगा, जो जहां है वहां लूट रहा है. महादेव अपनी मां को लूट रहा है. वह जमीन तोड़ती है और मांगती है तब महादेव का कुआं भरता है. दरअसल तुम्हें यह पता नहीं है कि लोग जानवर हैं. एक से दिखने वाले अलग-अलग किस्म के जानवर. ताकतवर जानवर भोग कर रहे है. ताकतवर रहना पड़ेगा. या मर जाना चाहिए. तुम्हारा इस बारे में क्या ख्याल है?"

जनार्दन उसकी बात सुनकर तिलमिला गया. यह उसका दोस्त कैसी बातें कर रहा है. क्या यह स्वयं को भी पशु मान चुका होगा. और क्या मुझे भी ऐसा ही मानता होगा. यह जो चारों तरफ हो रहा है, इसे लेकर क्या इसमें जरा भी बैचेनी नहीं होती होगी.

" दीपक तुमने जो कुछ कहा, यदि यह सही भी है, यदि ताकत जीत रही है और यह जीत मनुष्य को पशुता की तरफ धकेल रही है तो हमारा तुम्हारा क्या फर्ज बनता है, मैं यह पूछ रहा था."

"अच्छा..... जहां तक फर्ज का सवाल है मैं यह सोचता हूं कि यह एक किस्म से खुद को धोखा देने वाली चीज है. जीतना ताकत की भूख है और जीतकर भोगने में है. ताकत को नहीं रोका जा सकता."

जनार्दन तमतमा गया- "कैसे नहीं रोका जा सकता. लेकिन सिर्फ तब जब इस ताकत में नहीं इसके विरूद्ध एक नई ताकत में खुद को दे दिया जाये."

"एक बहुत ही अच्छी किताबी बात तुम कह रहे हो." दीपक ने ताली बजाई और फिर जनार्दन को एक धौल जमाते हुए बोला, "ये ऊंची बाते रहने दो. अपना दिमाग नहीं चलता. कुछ और सुनाओ."

मगर जनार्दन खोया रहा. दीपक के तर्क उसे बहुत ही भयानक लग रहे थे. उसे लग रहा था जैसे उसकी कोई बहुत ही पवित्र चीज दुश्मनों की होकर उसे चिढा रही हो. दीपक यह सब समझ रहा था. आखिर उसने उमड़ते हुए कहा, " भाड़ में जाएं ईओ और महादेव और सब. साला अपन क्यों अपना दिमाग खराब करें. तुम यदि ये चाहते हो कि मैं ईओ मंडल में न रहूं तो नहीं रहूंगा. मगर ये तुम्हारी खाम ख्याली है कि वहां मेरे न रहने से जनता का कोई बड़ा भला हो जाएगा. लेकिन तुम्हें लगता है कि मेरा वहां रहना ठीक नहीं है तो हटाओ सालों को इधर क्या."

दीपक ने यह बात बड़ी भावना से की थी. जनार्दन खुश हो गया, बोला "ये तर्क तुम यो ही कर रहे थे न."

दीपक कुछ देर सोचकर बोला "हां. तर्क मैं यों ही कर रहा था. मगर तुम्हारा ये महादेव को लेकर जो पागलपन है वह मुझे बेतुका लगता है. यह ... रहे."

दोनों मित्रों ने हल्के होकर अभी बातें शुरू की ही थी कि ईओ साब चौरसिया और ठाकुर के साथ दीपक के यहां पहुंच गये. जनार्दन को तीनों ने विशेष सम्मान देकर प्रसन्नता व्यक्त की कि "अच्छे मौके पर आये."

ईओ साब को देखते ही दीपक को याद आ गया कि आज पार्टी है. ईओ साब के लड़के का पहला जन्मदिन है. पार्टी गुप्ता की बगिया में है. दीपक बोला "आप क्या मुझे याद दिलाने आये है?"

" नहीं आपको क्या याद दिलाना. पता चला कि जनार्दन भाई आये है. सोचा रिक्वेस्ट करता चलूं." फिर जनार्दन की तरफ देखकर बोला "जनार्दन भाई दीपक के साथ आपको भी आना है. आप नहीं आये तो मैं समझूंगा आप मुझसे नाराज है."

जनार्दन विचलित सा हो गया. ईओ से पहले कभी भेंट नहीं हुई थी. यह पहली मुलाकात थी. ईओ की विनम्रता और आत्मीयता उसे बहुत सहज लगी. वह एकदम युवा था. उसके बाल लम्बे और कद मझोला था. उसकी आंखों का भाव यद्यपि बुरा था मगर उनमें चंचलता नहीं थी. ईओ चला गया तो जनार्दन की ओर देखकर दीपक हंस पड़ा अब?

जनार्दन थोड़ी देर चुप रहा फिर बोला, "अब क्या. तुम जाना मेरा तो सवाल ही नहीं उठता."

"तो यह तुम्हें उसी से कहना चाहिए था."

"तुम कह देना."

"मैं क्यों कह दूं? अपनी बात खुद बोलना चाहिए."

"खुद तो मैं बहुत कुछ बोल सकता हूं."

दीपक ने स्थिर हो जनार्दन की आंखों में देखा और बोला " जनार्दन तुम अब नहीं बोल सकते. जब वह आया था सिर्फ तभी बोल सकते थे."

जनार्दन बोला, "तुम न जाने यार कहां की तोप समझते हो उस ईओ को. मैं अपनी में आ जाऊ तो अभी पता चल जाएगा."

दीपक चुप रह गया. जनार्दन उत्तेजित और आहत होकर बकने लगता है. और ऐसा करते समय वह ओछा सा लगता है क्षुद्र सा. दीपक को अच्छा नहीं लगता. इसलिए वह ऐसे मौकों को टाल जाना चाहता है "अच्छा ठीक है मत जाना. मैं भी नहीं जाऊंग" कहकर दीपक ने जनार्दन का हाथ पकड़कर उसे उठाया "जनार्दन तुम दो चार दिन के लिए आये तो अब ये फालतू की बाते अपन छोड़े. एंजाय करें. तुम्हारे आने को सेलिब्रेट करें."

इसी बीच दीपक को बुलाने नौकर आ गया. फैक्ट्री में कोई नहीं था. पिताजी बाहर गये थे. दीपक ने जनार्दन को बहुत मनाया कि फैक्ट्री चले मगर वह नहीं माना. उसे बस्ती में घूम-फिर कर और लोगों से मिलने की इच्छा हो रही थी.

जनार्दन बाजार में कहीं इस दुकान में खड़ा हो जात, कहीं उस चबूतरे पर बैठ जाता. जो उसे देखता वही या तो राम-राम करता या उसके पास रूक जाता. थोड़ी देर बातें करता. बसस्टैण्ड पर वह इंटरकालेज के मास्टरों के झुंड से मिलकर लल्लू होटल की ओर बढ़ ही रहा था कि महादेव महाराज ने उसे पुकारा "जनार्दन भाई."और आकर महादेव उससे लिपट गया. उसे अटपटा लग रहा था. क्योंकि इससे पहले महादेव कभी उससे लिपटा विपटा नहीं था. मगर उसने उसकी पीठ थपथपाई.

"जनार्दन भाई. आपका यह महादेव अब यहां का चेयरमेन है."महादेव ने उचित ही गर्व किया और बोला "आपको पता चला होगा कि मैंने गाना छोड़ दिया है. मगर आप आये है तो आज गाऊंगा. और ऐसा गाऊंगा कि तानसेन भी घबड़ा जाए."

दो चार लोग जो खड़े थे हंस पडे. महादेव को कोई फर्क नहीं पड़ा.

"जनार्दन भाई. आपको सड़क पर चलने में परेशानी हो रही होगी. यह मेरे लिए शर्म की बात है. मैंने कहीं-कहीं कोशिश की है अपने हाथ में ठीक करने की मगर कहां तक ठीक करूं. ये ईओ कागजों में दो बार ठीक करवा चुका है. लेकिन मैं उसे छोड़ूगा नहीं."

जनार्दन उसके साथ लल्लू होटल में बैठ गया. कुछ और लोग भी आ बैठे. महादेव की लनतरानियां शुरू हो गईं. उसने चेयरमेन के रूप में अपनी प्रतिष्ठा के कई किस्से सुनाए. बस्ती के बड़े लोगों के कर्मों का रोजनामचा खोला. ईओ मंडल की गतिविधियों का भीषण दृश्य खींचा और अंत में जनार्दन से बोला, " जनार्दन भाई एक लेख लिख दो इस सब पर छपवा मैं लूंगा. अखबार का टंटा भी करना पड़ेगा."

जनार्दन ने लिखने का वादा किया. महादेव ने विदा होते समय यह वादा किया कि शाम को यहीं लल्लू होटल में बैठा मिलेगा और जम के गाएगा.

जनार्दन घर जाकर मां के पास बैठ गया. उसका मन बुरी तरह उलझ चुका था. इसलिए बातों का कोई सिलसिला ही ढंग से नहीं बन पाया. आखिर मां ने खाट बिछा दी और बोली"थोड़ी देर सो लो."

जनार्दन आंखे भींचे पड़ा रहा. थोड़ी देर झपकी भी ली. उतने में ही अजीब सा बदमजा सपना आया. सपना तो वह भूल गया. लेकिन सपने के प्रभाव से वह और भी उखड़ गया. सपने को याद करने की कोशिश करता वह पड़ा था, तभी दीपक आ पहुंचा. वह भी खाट पर पसर गया.

जनार्दन ने आंखे खोलकर अपने जागने का संकेत दिया और फिर बंद कर ली.

मां ने चाय रखकर दोनों को पुकारा " उठो शाम को भी सोया जाता है."दोनों उठ बैठे और चाय पीने लगे. जनार्दन और दीपक साथ हो और इतनी देर तक चुप रहें, मां को यह बड़ा ही अटपटा लग रहा था. फिर जनार्दन जब से आया था तभी से उखड़ा-उखड़ा था. बच्चों की बातें और अपने दफ्तर के लतीफे भी उसने नहीं सुनाये थे. दीपक भी अपने स्वभाव के विपरीत चुपचाप-सा था. मां को आशंका हुई कहीं दोनों लड़ तो नहीं पड़े.

"तुम दोनों में झगड़ा हो गया है क्या?"मां से न रहा गया तो वह पूछ बैठी.

"हम दोनों में झगड़ा!"जनार्दन बोला "हम दोनों में क्यों झगड़ा होने लगा."

दीपक हंसने लगा, फीकी हंसी. जनार्दन ने उसकी हंसी देखी और समझ गया अब यह चुप रहना चाहेगा.

चाय पीकर वे बाहर निकल गये. बाजार की तरफ थोड़ा चले फिर लौट कर दीपक के घर चले गये. घर के बाहर मैदान में कुर्सियां डालकर बैठ गये. दोनों चुप. आखिर जनार्दन बोला "दीपक तुम्हें मेरी कोई बात बुरी लग गई है." दीपक के पास कहने के लिए कुछ नहीं था. जनार्दन उत्तर की प्रतीक्षा में उसे देखे जा रहा था. दीपक देर तक कुछ नहीं बोला."दीपक कुछ बोलो या मैं चला जाऊं."

दीपक ने जनार्दन की ओर देखा और मुस्कराकर बोला, "मुझे तुम्हारी कोई बात बुरी नहीं लगी. तुमने ऐसा कहा भी क्या है. बस यूं ही मन खराब है."

"फिर भी कोई बात तो होगी जिससे मन खराब हुआ होगा."

"कोई भी बात नहीं. न जाने क्यों ऐसा लग रहा है जैसे अब मैं तुम्हारे लायक नहीं हूं. मेरा पतन हो गया है.' कहकर दीपक ने करीब आते लोगों को देखा और कुर्सी से उठ खड़ा हुआ. पांच सात लोगों ने आते ही दीपक को उलाहना देना शुरू कर दिया. वे सब नौकरीपेशा लोग थे. दो डाक्टर और तीन मंडी समिति वगैरह के लोग.

"आप यहां बैठे हैं और वहां आपके बिना गिलास सूखे पड़े है. चलिए फौरन. और जनार्दन भाई आप भी. इनके बिना तो चल ही जाएगा. आपके बिना पार्टी ही नहीं होगी ईओ साब ने कहा है."

दीपक और जनार्दन एक दूसरे को देखने लगे. डाक्टर ने जिसके बाएं गाल पर मस्सा था, उत्साह में भरकर कहा "चलिए तो आप लोग, देखिए कैसा ऊंचा मामला है. जितनी जिसे पीना हो पिये."

दीपक बोला, "'हम लोग नहीं जा सकेंगे."

पांचों एक साथ चौंककर बोले "क्या नहीं जा सकेंगे?" फिर डाक्टर बोला-"पता है आपको इस पार्टी को लेकर ईओ कितना सेंटीमेंटल है. फील कर जाएगा भाई."

दीपक बोला, "बताया न, हम लोग नहीं जा सकेंगे" जनार्दन भी अब कुर्सी से उठ खड़ा हुआ और बोला, "दीपक तुम जाओ. मेरी तबीयत ठीक होती तो मैं भी चलता. आप लोग इसे ले जाइए." इतना कहकर जनार्दन तेजी से अपने घर की ओर चल दिया. दीपक उसके पीछे भागा. थोड़ा आगे उसे रोककर बोला "तुम नहीं जाओगे तो मैं भी नहीं जाऊंगा."

जनार्दन ने दबी लेकिन भीषण आवाज में कहा "तुम नहीं गए तो अभी शहर वापस चला जाऊंगा समझे. चुपचाप चले जाओ."

जनार्दन ने पलटकर देखा और जाते-जाते ताकीद कर गया "जाओगे नहीं तो ठीक नहीं होगा."

वे पांचों कुछ भी न समझ सके कि मामला क्या है. दीपक को साथ लेकर वे चले गये.

जनार्दन घर जाकर एक अलमारी से जूझने लगा. उसमें उसकी किताबें और कागजात रखे थे. उस उसने नीचे पटक लिए और फिर पलट-पलटकर देखने लगा. मगर उसका मन कहीं और ही था. कल जब ईओ पूछेगा कि क्यों नहीं आये तब क्या वह असली कारण बता पाएगा? और यदि नहीं बता पाएगा तो क्या कहकर उसकी आत्मीयता का उत्तर देगा. उसने कैसे अपनत्व से कहा था. और किस तरह उसने लोगों को यह कहकर भेजा कि जनार्दन भाई नहीं पहुंचे तो पार्टी नहीं होगी.

तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. सामने ईओ खड़ा था "आपको लेने आया हूं. सभी लोग आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं."

जनार्दन बिना कुछ बोले बाहर निकल आया. ईओ के साथ यंत्रवत चल पड़ा. चलते-चलते बोला, "दरअसल मेरी तबीयत ठीक नहीं थी...."

"वो सब ठीक हो जाएगी वहां. आप समझ नहीं सकते कि आपसे मिलने को सब लोग कितने बेकरार हैं. आपके बारे में दीपक बताता रहता है. इसी से सबको आपके साथ बैठने की बड़ी उत्सुकता है."ईओ बोला.

जनार्दन चलता रहा. बाजार आ गया. और बाजार की अंतिम दुकानें भी आ गई. फिर बस स्टैण्ड और लल्लू का होटल. वहां पहुंचते ही जनार्दन को याद आया महादेव महाराज प्रतीक्षा कर रहा होगा. और वाकई लल्लू होटल में हजम्मा जुड़ा था. महादेव बाहर खड़ा पानी के कुल्ले कर रहा था. उसने जनार्दन को देखते ही हाथ हिलाया. जनार्दन ने हाथ हिलाकर उत्तर दिया और सीधा चलता रहा. महादेव को अजीब लगा. ईओ के साथ चले जा रहे है जनार्दन भाई. और अब तो सचमुच चले ही गये. जब तक वे दोनों मुड़ नहीं गये, महादेव महाराज सकते की हालत में उन्हें देखते ही रहे.

जनार्दन अब तेज कदम बढ़ रहा था. वह जल्दी से जल्दी वहां पहुंचकर पी लेना चाहता था. वरना उसका माथा फट जाता.

बगिया में गैस की चार-पांच लालटेने पेड़ों पर टंगी थी. उनके प्रकाश में कई कुर्सियां, बेंचे, तखत और खाटें पड़ी थीं. बीच में एक तखत पर ढेर गिलास रखे थे. बड़ी-बड़ी प्लेटों में सलाद भरा पड़ा था. चार बोतलें रखी थीं. एक ओर ईंटो के चूल्हे पर डेग चढ़ी थी. चूल्हे के आसपास तीन चार पल्लेदार काम में लगे थे. करीब बीस-पच्चीस लोग जिन्हें ईओ मंडल के नाम से जाना जाता था, कुर्सियों पर बैठे, खाटों पर लेटे यहां वहां टहलते उन दोनों की प्रतीक्षा कर रहे थे. उनके पहुंचते ही उत्साह का संचार हो गया. ओमी ने बोतल खोली और गिलासों में ढालना शुरू कर दिया. लोगों ने सिगरेटें सुलगा लीं. जनार्दन का एक एक से परिचय कराया जाने लगा. अधिकांश लोग उसे जानते ही थे. वे उससे मिलकर और उसे पार्टी में पाकर बहुत प्रसन्न हुए. इस बीच गिलास हाथों में आ गये और पीना शुरू हो गया.

जनार्दन को दीपक ने अपने पास बिठा लिया. जनार्दन के दायें तरफ कुंअर साहब बैठे थे. उन्होंने एक सांस में गिलास खाली कर दिया. जनार्दन ने भी जल्दी ही निबटाकर दूसरी बार ले ली और एकदम पी गया. लोग चुटकलों, गजलों के मूड में आ गए. बेहद गंदे चुटकुले चलने लगे.

जनार्दन कुंअर साहब की और मुखातिब होकर बोला, " कुंअर साहब सुना है आप कांग्रेस आई में हैं."

कुंअर साहब ने हामी में सिर हिलाया.

"आप जैसे आदमी को जब मैं इस पार्टी में देखता हूं तो मुझे बहुत दुख होता है. आप जैसे दमदार लोगों को तो किसी क्रांतिकारी पार्टी में होना चाहिए. आखिर राजा साब आजादी की लड़ाई में शामिल हुए थे न." कुंअर साहब इतने गंभीर वार्तालाप के लिए शायद तैयार न थे. टालते हुये बोले, "हां मगर अब जो है सो ठीक है."

"ठीक कैसे है कुंअर साहब. गरीब आदमी की तरफ से आप जैसे लोग नहीं लडेंगे तो कौन लड़ेगा."

दीपक ने हस्तक्षेप किया, "इस मुद्दे पर अपन बाद में बात करेंगे. पहले उन लोगों की बात सुनो वे तुमसे कविताएं सुनना चाहते हैं."

मस्से वाला डाक्टर बोला, "हम लोग महीनों से आपके इंतजार में हैं. सुनाइए."

फिर सब लोग उसके पीछे ही पड़ गये. जनार्दन को नशा चढ़ गया था इसलिए सारा दृश्य नजर आ रहा था और लोगों की आवाजें धीमी लग रही थीं. उसने गिलास बढ़ा दिया. लोगों ने उत्साह में खूब डाल दी. वह नीट ही पी गया. फिर सिगरेट सुलगाकर बोला, " अगर आप लोग कविता सुनना चाहते है, अपनी तो याद नहीं है. एक बहुत बड़े कवि को सुनाता हूं."

लोग उत्सुक हो उसकी ओर देखने लगे. जनार्दन का सिर चकराने लगा. उसे लल्लू होटल दिखा. महादेव महाराज देखकर सकते में उसे देखता. जनार्दन गों गों करते कुछ बोला. लोग हंस पड़े. तो उसने तैश में गरदन झटकी. दीपक ने उसकी पीठ पर हाथ फेरा और बोला "सुनाओ जनार्दन"जनार्दन बोला " सुनो-

ओ मेरे आदर्शवादी मन

ओ मेरे सिद्धांतवादी मन

अब तक क्या किया

जीवन क्या जिया

उदरम्भरि बन..."

यहां तक आते-आते जनार्दन की जीभ ऐंठ गई. दूसरे ही क्षण उसने उल्टी कर दी. वह कुर्सी पर गिर पड़ा. फिर कुर्सी जमीन पर गिर पड़ी. वह धूल में औंधा पड़ा ओंकने लगा.