तीसरा दृश्य / अंक-2 / संग्राम / प्रेमचंद
स्थान : मधुबन गांव।
समय : बैशाख, प्रात: काल।
फत्तू : पांचों आदमियों पर डिगरी हो गई। अब ठाकुर साहब जब चाहें उनके बैल-बधिये नीलाम करा लें।
एक किसान : ऐसे निर्दयी तो नहीं हैं। इसका मतलब कुछ और ही है।
फत्तू : इसका मतलब मैं समझता हूँ। दिखाना चाहते हैं कि हम जब चाहें असामियों को बिगाड़ सकते हैं। असामियों को घमंड न हो, फिर गांव में हम जो चाहें करें, कोई मुंह न खोले।
सबलसिंह के चपरासी का प्रवेश।
चपरासी : सरकार ने हुक्म दिया है कि असामी लोग जरा भी चिंता न करें। हम उनकी हर तरह मदद करने को तैयार हैं। जिनके लोगों ने अभी तक लगान नहीं दिया है उनकी माफी हो गई। अब सरकार किसी से लगान न हुई। अगले साल के लगान के साथ यह बकाया न वसूल की जायेगी। यह छूट सरकार की ओर से नहीं हुई है। ठाकुर साहब ने तुम लोगों की परवरिश के खयाल से यह रिआयत की है। लेकिन जो असामी परदेश चला जाएगा उसके साथ यह रिआयत न होगी। छोटे ठाकुर साहब ने देनदारों पर डिगरी कराई है। मगर उनका हुक्म भी यही है कि डिगरी जारी न की जाएगी। हां, जो लोग भागेंगे उनकी जायदाद नीलाम करा ली जाएगी। तुम लोग दोनों ठाकुरों को आशीर्वाद दो।
एक किसान : भगवान दोनों भाइयों की जुगुल जोड़ी सलामत रखें।
दूसरा : नारायन उनका कल्यान करें। हमको जिला लिया, नहीं तो इस विपत्ति में कुछ न सूझता था।
तीसरा : धन्य है उनकी उदारता को। राजा हो तो ऐसा दीनपालक हो, परमात्मा उनकी बढ़ती करे।
चौथा : ऐसा दानी देश में और कौन है। नाम के लिए सरकार को लाखों रूपये चंदा दे आते हैं, हमको कौन पूछता है। बल्कि वह चंदा भी हमीं से ड़डे मार-मारकर वसूल कर लिया जाता है।
पहला : चलो, कल सब जने डेवढ़ी की जय मना आएं।
दूसरा : हां, कल त्तेरे चलो।
तीसरा : चलो देवी के चौरे पर चलकर जय-जयकार मनाएं।
चौथा : कहां है हलधर, कहो ढोल-मजीरा लेता चले।
फत्तू हलधर के घर जाकर खाली हाथ लौट आता है।
पहला किसान : क्या हुआ ? खाली हाथ क्यों आए ?
फत्तू : हलधर तो आज दो दिन से घर ही नहीं आया।
दूसरा किसान : उसकी घरवाली से पूछा, कहीं नातेदारी में तो नहीं गया।
फत्तू : वह तो कहती है कि कल सबेरे खांचा लेकर आम तोड़ने गए थे।तब से लौटकर नहीं आए।
सब-के-सब हलधर के द्वार पर आकर जमा हो जाते हैं। सलोनी और फत्तू घर में जाते हैं।
सलोनी : बेटा, तूने उसे कुछ कहा-सुना तो नहीं। उसे बात बहुत लगती है, लड़कपन से जानती हूँ। गुड़ के लिए रोए, लेकिन मां झमककर गुड़ का पिंड़ा सामने फेंक दे तो कभी न उठाए। जब वह गोद में प्यार से बैठाकर गुड़ तोड़-तोड़ खिलाए तभी चुप हो,
फत्तू : यह बेचारी गऊ है, कुछ नहीं कहती-सुनती।
सलोनी : जरूर कोई-न-कोई बात हुई होगी, नहीं तो घर क्यों न आता ? इसने गहनों के लिए ताना दिया होगा, चाहे महीन साड़ी मांगी हो, भले घर की बेटी है न, इसे महीन साड़ी अच्छी लगती है।
राजेश्वरी : काकी, क्या मैं इतनी निकम्मी हूँ कि देश में जिस बात की मनाही है वही करूंगी।
फत्तू बाहर आता है।
मंगई : मेरे जान में तो उसे थाने वाले पकड़ ले गए।
फत्तू : ऐसा कुमारगी तो नहीं है कि था ने वालों की आंख पर चढ़ जाए।
हरदास : थाने वालों की भली कहते हो, राह चलते लोगों को पकड़ाकरते हैं। आम लिए देखा होगा¼ कहा - ' होगा, चल थाने पहुंचा आ।
फत्तू : ऐसा दबैल तो नहीं है, लेकिन थाने ही पर जाता तो अब तक लौट आना चाहिए था।
मंगई : किसी के रूपये-पैसे तो नहीं आते थे।
फत्तू : और किसी के नहीं, ठाकुर कंचनसिंह के दो सौ रूपये आते हैं।
मंगई : कहीं उन्होंने गिरफ्तारी करा लिया हो,
फत्तू : सम्मन तक तो आया नहीं, नालिस कब हुई, डिगरी कब हुई औरों पर नालिस हुई तो सम्मन आया, पेशी हुई, तजबीज सुनाई गई।
हरदास : बड़े आदमियों के हाथ में सब कुछ है, जो चाहें करा देंब राज उन्हीं का है, नहीं तो भला कोई बात है कि सौ-पचास रूपये के लिए आदमी गिरफ्तारी कर लिया जाए, बाल-बच्चों से अलगकर दिया जाए, उसका सब खेती-बारी का काम रोक दिया जाए।
मंगई : आदमी चोरी या और कोई कुन्याव करता है तब उसे कैद की सजा मिलती है। यहां महाजन बेकसूर हमें थोड़े-से रूपयों के लिए जेहल भेज सकता है। यह कोई न्याव थोड़े ही है।
हरदास : सरकार न जाने ऐसे कानून क्यों बनाती है। महाजन के रूपये आते हैं, जयदाद से ले, गिरफ्तारी क्यों करे।
मंगई : कहीं डमरा टापू वाले न बहका ले गए हों।
फत्तू : ऐसा भोला नहीं है कि उनकी बातों में आ जाए।
मंगई : कोई जान-बूझकर उनकी बातों में थोड़े ही आता है। सब ऐसी-ऐसी पक्री पढ़ाते हैं कि अच्छे-अच्छे धोखे में आ जाते हैं। कहते हैं, इतना तलब मिलेगा, रहने को बंगला मिलेगा, खाने को वह मिलेगा जो यहां रईसों को भी नसीब नहीं, पहनने को रेशमी कपड़े मिलेंगे, और काम कुछ नहीं, बस खेत में जाकर ठंढे-ठंढे देख-भाल आए।
फत्तू : हां, यह तो सच है। ऐसी-ऐसी बातें सुनकर वह आदमी क्यों न धोखे में आ जाए जिसे कभी पेट-भर भोजन न मिलता हो, घास-भूसे से पेट भर लेना कोई खाना है। किसान पहर रात से पहर रात तक छाती गाड़ता है तब भी रोटी-कपड़े को नहीं होता, उस पर कहीं महाजन का डर, कहीं जमींदार की धौंस, कहीं पुलिस की डांट-डपट, कहीं अमलों की नजर-भेंट, कहीं हाकिमों की रसद-बेगारब सुना है जो लोग टापू में भरती हो जाते हैं उनकी बड़ी दुर्गत होती है। झोंपड़ी रहने को मिलती है और रात-दिन काम करना पड़ता है। जरा भी देर हुई तो अफसर कोड़ों से मारता है। पांच साल तक आने का हुकुम नहीं है, उस पर तरह-तरह की सखती होती रहती है। औरतों की बड़ी बेइज्जती होती है, किसी की आबई बचने नहीं पाती। अफसर सब गोरे हैं, वह औरतों को पकड़ ले जाते हैं। अल्लाह न करे कि कोई उन दलालों के गंदे में गंसे ! पांच-छ: साल में कुछ रूपये जरूर हो जाते हैं¼ पर उस लतखोरी से तो अपने देश की ईखी ही अच्छी। मुझे तो बिस्सास ही नहीं आता कि हलधर उनके गांसे में आ जाए।
हरदास : साधु लोग भी आदमियों को बहका ले जाते हैं।
फत्तू : हां, सुना तो है, मगर हलधर साधुओं की संगत में नहीं बैठाब गांजे-चरस की भी चाट नहीं कि इसी लालच से जा बैठता हो,
मंगई : साधु आदमियों को बहकाकर क्या करते हैं ?
फत्तू : भीख मंगवाते हैं और क्या करते हैं। अपना टहल करवाते हैं, बर्तन मंजवाते हैं, गांजा भरवाते हैं। भोले आदमी समझते हैं, बाबाजी सिद्व हैं, प्रसन्न हो जाएंगे तो एक चुटकी राख में मेरा भला हो जाएगा, मुकुत बन जाएगी वह घाते मेंब कुछ कामचोर निखट्टू ऐसे भी हैं जो केवल मीठे पदार्थो के लालच में साधुओं के साथ पड़े रहते हैं। कुछ दिनों में यही टहलुवे संत बन बैठते हैं और अपने टहल के लिए किसी दूसरे को मूंड़ते हैं। लेकिन हलधर न तो पेटू ही है, न कामचोर ही है।
हरदास : कुछ तुम्हारा मन कहता है वह किधर गया होगा? तुम्हारा उसके साथ आठों पहर का उठना-बैठना है।
फत्तू : मेरी समझ में तो वह परदेश चला गया। दो सौ रूपये कंचनसिंह के आते थे।ब्याज समेत ढाई सौ रूपये होंगे।लगान की धौंस अलग। अभी दुधमुंहा बालक है, संसार का रंग-ढ़ंग नहीं देखा, थोड़े में ही फूल उठता है और थोडे। में ही हिम्मत हार बैठता है। सोचा होगा, कहीं परदेश चलूं और मेहनत-मजूरी करके सौ-दो सौ ले आऊँ। दो-चार दिन में चिट्ठी-पत्तर आएगी।
मंगई : और तो कोई चिंता नहीं, मर्द है, जहां रहेगा, वहीं कमा खाएगा, चिंता तो उसकी घरवाली की है। अकेले कैसे रहेगी ?
हरदास : मैके भेज दिया जाए।
मंगई : पूछो, जाएगी ?
फत्तू : पूछना क्या है, कभी न जाएगी। हलधर होता तो जाती। उसके पीछे कभी नहीं जा सकती।
राजेश्वरी : (द्वार पर खड़ी होकर) हां काका, ठीक कहते हो, अभी मैके चली जाऊँ तो घर और गांव वाले यही न कहेंगे कि उनके पीछे गांव में दस-पांच दिन भी कोई देख-भाल करने वाला नहीं रहा तभी तो चली आई। तुम लोग मेरी कुछ चिंता न करो। सलोनी काकी को घर में सुला लिया करूंगी। और डर ही क्या है ? तुम लोग तो हो ही।