तीसरा दृश्य / अंक-4 / संग्राम / प्रेमचंद

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स्थान: स्वामी चेतनदास की कुटी।

समय: संध्या।

चेतनदास : (मन में) यह चाल मुझे खूब सूझी। पुलिस वाले अधिक-से-अधिक कोई अभियोग चलाते। सबलसिंह ऐसे कांटों से डरने वाला मनुष्य नहीं है। पहले मैंने समझा था। उस चाल से यहां उसका खूब अपमान होगी। पर वह अनुमान ठीक न निकला। दो घंटे पहले शहर में सबल की जितनी प्रतिष्ठा थी, अब उससे सतगुनी है। अधिकारियों की दृष्टि में चाहे वह फिर गया हो, पर नगरवासियों की दृष्टि में अब वह देव-तुल्य है। यह काम हलधर ही पूरा करेगी। मुझे उसके पीछे का रास्ता साफ करना चाहिए ।

ज्ञानी का प्रवेश।

ज्ञानी : महाराज, आप उस समय इतनी जल्दी चले आए कि मुझे आपसे कुछ कहने का अवसर ही न मिला। आप यदि सहाय न होते तो आज मैं कहीं की न रहती। पुलिस वाले किसी दूसरे व्यक्ति की जमानत न लेते। आपके योगबल ने उन्हें परास्त कर दिया ।

चेतनदास : माई, सब ईश्वर की महिमा है। मैं तो केवल उसका तुच्छ सेवक हूँ।

ज्ञानी : आपके सम्मुख इस समय मैं बहुत निर्लज्ज बनकर आई हूँ।

मैं अपराधिनी हूँ, मेरा अपराध क्षमा कीजिए। आपने मेरे

पतिदेव के विषय में जो बातें कहीं थीं वह एक-एक अक्षर सच निकलीं। मैंने आप पर अविश्वास किया। मुझसे यह घोर अपराध हुआ। मैं अपने पति को देव-तुल्य समझती थी।

मुझे अनुमान हुआ कि आपको किसी ने भ्रम में डाल दिया है। मैं नहीं जानती थी कि आप अंतर्यामी हैं। मेरा अपराध क्षमा कीजिए।

चेतनदास : तुझे मालूम नहीं है, आज तेरे पति ने कैसा पैशाचिक काम कर डाला है। मुझे इसके पहले कहने का अवसर नहीं प्राप्त हुआ।

ज्ञानी : नहीं महाराज, मुझे मालूम है। उन्होंने स्वयं मुझसे सारा वृत्तांत कह सुनाया। भगवान् यदि मैंने पहले ही आपकी चेतावनी पर ध्यान दिया होता तो आज इस हत्याकांड की नौबत न आती। यह सब मेरी अश्रद्वा का दुष्परिणाम है। मैंने आप जैसे महात्मा पुरूष का अविश्वास किया, उसी का यह दंड है। अब मेरा उद्वार आपके सिवा और कौन कर सकता है। आपकी दासी हूँ, आपकी चेरी हूँ। मेरे अवगुणों को न देखिए। अपनी विशाल दया से मेरा बेड़ा पार लगाइए।

चेतनदास : अब मेरे वश की बात नहीं मैंने तेरे कल्याण के लिए, तेरी मनोकामनाओं को पूरा करने के लिए बड़े-बड़े अनुष्ठान किए थे।मुझे निश्चय था। कि तेरा मनोरथ सिद्व होगी। पर इस पापाभिनय ने मेरे समस्त अनुष्ठानों को विफल कर दिया । मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि यह कुकर्म तेरे कुल का सर्वनाश कर देगी।

ज्ञानी : भगवान्, मुझे भी यही शंका हो रही है। मुझे भय है कि मेरे पतिदेव स्वयं पश्चात्ताप के आवेग में अपना प्राणांत न कर देंब उन्हें इस समय अपनी दुष्कृति पर अत्यंत ग्लानि हो रही है। आज वह बैठे-बैठे देर तक रोते रहै। इस दु:ख और निराशा की दशा में उन्होंने प्राणों का अंत कर दिया तो कुल का सर्वनाश हो जाएगी। इस सर्वनाश से मेरी रक्षा आपके सिवा और कौन कर सकता है ? आप जैसा दयालु स्वामी पाकर अब किसकी शरण जाऊँ ? ऐसा कोई यत्न कीजिए कि उनका चित्त शांत हो जाए। मैं अपने देवर का जितना आदर और प्रेम करती थी वह मेरा ह्रदय ही जानता है। मेरे पति भी अपने भाई को पुत्र के समान समझते थे।वैमनस्य का लेश भी न था।पर अब तो जो कुछ होना था।, हो चुका। उसका शोक जीवन-पर्यंत रहेगी। अब कुल की रक्षा कीजिए। मेरी आपसे यही याचना है।

चेतनदास : पाप का दण्ड ईश्वरीय नियम है। उसे कौन भंग कर सकता है?

ज्ञानी : योगीजन चाहें तो ईश्वरीय नियमों को भी झुका सकते हैं।

चेतनदास : इसका तुझे विश्वास है ?

ज्ञानी : हां, महाराज ! मुझे पूरा विश्वास है।

चेतनदास : श्रद्वा है ?

ज्ञानी : हां, महाराज, पूरी श्रद्वा है।

चेतनदास : भक्त को अपने गुरू के सामने अपना तन-मन-धन सभी समर्पण करना पड़ता है। वही अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष के प्राप्त करने का एकमात्र साधन है। भक्त गुरू की बातों पर, उपदेशों पर, व्यवहारों पर कोई शंका नहीं करता। वह अपने गुरू को ईश्वर-तुल्य समझता है। जैसे कोई रोगी अपने को वैद्य के हाथों में छोड़ देता है, उसी भांति भक्त भी अपने शरीर को, अपनी बुद्वि को और आत्मा को गुरू के हाथों में छोड़ देता है। तू अपना कल्याण चाहती है तो तुझे भक्तों के धर्म का पालन करना पड़ेगा।

ज्ञानी : महाराज, मैं अपना तन-मन-धन सब आपके चरणों पर समर्पित करती हूँ।

चेतनदास : शिष्य का अपने गुरू के साथ आत्मिक संबंध होता है। उसके और सभी संबंध पार्थिव होते हैं। आत्मिक संबंध के सामने पार्थिव संबंधों का कुछ भी मूल्य नहीं होता। मोक्ष के सामने सांसारिक सुखों का कुछ भी मूल्य नहीं है। मोक्षपद-प्राप्ति ही मानव-जीवन का उद्देश्य है। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए प्राणी को ममत्व का त्याग करना चाहिए । पिता-माता, पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री, शत्रु-मित्र यह सभी संबंध पार्थिव हैं। यह सब मोक्षमार्ग की बाधाएं हैं। इनसे निवृत्त होकर ही मोक्ष-पद प्राप्त हो सकता है। केवल गुरू की कृपा-दृष्टि ही उस महान् पद पर पहुंचा सकती है। तू अभी तक भ्रांति में पड़ी हुई है। तू अपने पति और पुत्र, धन और संपत्ति को ही जीवन सर्वस्व समझ रही है। यही भ्रांति तेरे दु: ख और शोक का मूल कारण है। जिस दिन तुझे इस भ्रांति से निवृत्ति होगी उसी दिन तुझे मोक्ष मार्ग दिखाई देने लगेगी। तब इन सासांरिक सुखों से तेरा मन आप-ही-आप हट जाएगा। तुझे इनकी असारता प्रकट होने लगेगी। मेरा पहला उपदेश यह है कि गुरू ही तेरा सर्वस्व है। मैं ही तेरा सब कुछ हूँ।

ज्ञानी : महाराज, आपकी अमृतवाणी से मेरे चित्त को बड़ी शांति मिल रही है।

चेतनदास : मैं तेरा सर्वस्व हूँ। मैं तेरी संपत्ति हूँ, तेरी प्रतिष्ठा हूँ, तेरा पति हूँ, तेरा पुत्र हूँ, तेरी माता हूँ, तेरा पिता हूँ, तेरा स्वामी हूँ, तेरा सेवक हूँ, तेरा दान हूँ, तेरा व्रत हूँ। हां, मैं तेरा स्वामी हूँ और तेरा ईश्वर हूँ। तू राधिका है, मैं तेरा कन्हैया हूँ,तू सती है, मैं तेरा शिव हूँ,तू पत्नी है, मैं तेरा पति हूँ,तू प्रकृति है, मैं तेरा पुरूष हूँ,तू जीव है, मैं आत्मा हूँ, तू स्वर है, मैं उसका लालित्य हूँ, तू पुष्प है, मैं उसकी सुगंध हूँ।

ज्ञानी : भगवन्, मैं आपके चरणों की रज हूँ। आपकी सुधा-वर्षा से मेरी आत्मा तृप्त हो गई।

चेतनदास : तेरा पति तेरा शत्रु है, जो तुझे अपने कुकृत्यों का भागी बनाकर तेरी आत्मा का सर्वनाश कर रहा है।

ज्ञानी : (मन में) वास्तव में उनके पीछे मेरी आत्मा कलुषित हो रही है। उनके लिए मैं अपनी मुक्ति क्यों बिगाडूं। अब उन्होंने अधर्म-पथ पर पग रखा है, मैं उनकी सहगामिनी क्यों बनूं ? (प्रकट) स्वामीजी, अब मैं आपकी शरण आई हूँ, मुझे उबारिए।

चेतनदास : प्रिये, हम और तुम एक हैं, कोई चिंता मत करो। ईश्वर ने तुम्हें मंझधार में डूबने से बचा लिया। वह देखो सामने ताक पर बोतल है। उसमें महाप्रसाद रखा हुआ है। उसे उतारकर अपने कोमल हाथों से मुझे पिलाओ और प्रसाद-स्वरूप स्वयं पान करो। तुम्हारा अंत: करण आलोकमय हो जाएगी। सांसारिकता की कालिमा एक क्षण में कट जाएगी और भक्ति का उज्ज्वल प्रकाश प्रस्फुटित हो जाएगा। यह वह सोमरस है जोर ऋषिगण पान करके योगबल प्राप्त किया करते थे।

ज्ञानी बोतल उतारकर चेतनदास के कमंडल में उंड़ेलती है, चेतनदास पी जाते हैं।

चेतनदास : यह प्रसाद तुम भी पान करो।

ज्ञानी : भगवन्, मुझे क्षमा कीजिए।

चेतनदास : प्रिये, यह तुम्हारी पहली परीक्षा है।

ज्ञानी : (कमंडल मुंह से लगाकर पीती है। तुरंत उसे अपने शरीर में एक विशेष स्फूर्ति का अनुभव होता है।) स्वामी, यह तो कोई अलौकिक वस्तु है।

चेतनदास : प्रिये, यह ऋषियोंका पेय पदार्थ है। इसे पीकर वह चिरकाल तक तरूण बने रहते थे।उनकी शक्तियां कभी क्षीण न होती थीं।थोड़ा-सा और दो। आज बहुत दिनों के बाद यह शुभअवसर प्राप्त हुआ है।

ज्ञानी बोतल उठाकर कमंडल में ड़ड़ेलती है। चेतनदास पी जाते हैं। ज्ञानी स्वयं थोड़ा-सा निकालकर पीती है।

चेतनदास : (ज्ञानी के हाथों को पकड़कर) प्रिये, तुम्हारे हाथ कितने कोमल हैं, ऐसा जान पड़ता है मानो फूलकी पंखड़ियां हैं। (ज्ञानी झिझककर हाथ खींच लेती है) प्रिये, झिझको नहीं, यह वासनाजनित प्रेम नहीं है। यह शुद्व, पवित्र प्रेम है। यह तुम्हारी दूसरी परीक्षा है।

ज्ञानी : मेरे ह्रदय में बड़े वेग से धड़कन हो रही है।

चेतनदास : यह धड़कन नहीं है, विमल प्रेम की तरंगें हैं जो वक्ष के किनारों से टकरा रही हैं। तुम्हारा शरीर फूल की भांति कोमल है। उस वेग को सहन नहीं कर सकता। इन हाथों के स्पर्श से मुझे वह आनंद मिल रहा है जिसमें चंद्र का निर्मल प्रकाश, पुष्पों की मनोहर सुगंध, समीर के शीतल मंद झोंके और जल-प्रवाह का मधुर गान सभी समाविष्ट हो गए हैं।

ज्ञानी : मुझे चक्कर-सा आ रहा है। जान पड़ता है लहरों में बही जाती हूँ।

चेतनदास : थोड़ा-सा सोमरस और निकालो।संजीवनी है।

ज्ञानी बोतल से कमंडल में उंड़ेलती है, चेतनदास पी जाता है, ज्ञानी भी दो-तीन घूंट पीती है।

चेतनदास : आज जीवन सफल हो गया। ऐसे सुख के एक क्षण पर समग्र जीवन भेंट कर सकता हूँ (ज्ञानी के गले में बांहें डालकर आलिंगन करना चाहता है, ज्ञानी झिझककर पीछे हट जाती है।) प्रिये, यह भक्ति मार्ग की तीसरी परीक्षा है !

ज्ञानी अलग खड़ी होकर रोती है।

चेतनदास : प्रिये!

ज्ञानी : (उच्च स्वर से) कोचवान, गाड़ी लाओ।

चेतनदास : इतनी अधीर क्यों हो रही हो ? क्या मोक्षपद के निकट पहुंचकर फिर उसी मायावी संसार में लिप्त होना चाहती हो ? यह तुम्हारे लिए कल्याणकारी न होगा।

ज्ञानी : मुझे मोक्षपद प्राप्त हो या न हो, यह ज्ञान अवश्य प्राप्त हो गया कि तुम धूर्त, कुटिल, भ्रष्ट, दुष्ट, पापी हो, तुम्हारे इस भेष का अपमान नहीं करना चाहती, पर यह समझ रखो कि तुम सरला स्त्रियों को इस भांति दगा देकर अपनी आत्मा को नर्क की ओर ले जा रहे हो, तुमने मेरे शरीर को अपने कलुषित हाथों से स्पर्श करके सदा के लिए विकृत कर दिया । तुम्हारे मनोविकारों के संपर्क से मेरी आत्मा सदा के लिए दूषित हो गई। तुमने मेरे व्रत की हत्या कर डाली। अब मैं अपने ही को अपना मुंह नहीं दिखा सकती। सतीत्व जैसी अमूल्य वस्तु खोकर मुझे ज्ञात हुआ कि मानव-चरित्र का कितना पतन हो सकता है। अगर तुम्हारे ह्रदय में मनुष्यत्व का कुछ भी अंश शेष है तो मैं उसी को संबोधित करके विनय करती हूँ कि अपनी आत्मा पर दया करो और इस दुष्टाचरण को त्याग कर सद्वृत्तियों का आवाफ्न करो।

कुटी से बाहर निकलकर गाड़ी में बैठ जाती है।

कोचवान : किधर से चलूं ?

ज्ञानी : सीधे घर चलो।