तीसरा पहर / पूनम चौधरी

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-दिवस का तीसरा पहर, सूर्य का तेज भी जब मद्धिम होने लगे, एक नीरव उदासी हवाओं में व्याप्त हो, ये वही पहर है जब दिन और रात्रि के बीच की दूरी सबसे छोटी लगती है, जब प्रकाश और अँधेरा एक दूसरे को छूने लगते है, इसी छूने की संवेदना का नाम है 'तीसरा पहर'।

—एक ऐसा समय, जब जीवन का कोलाहल धीरे-धीरे मौन में बदलने लगता है और आदमी अपने भीतर लौटने की यात्रा शुरू कर देता है। यह संग्रह न केवल कविताओं का संकलन है; बल्कि मनुष्य की आत्मा का स्वगत संवाद है। हर कविता जैसे समय के तीसरे पहर में लिखी गई कोई लहर हो, जो न पूरी तरह दिन की है, न पूरी तरह रात की—बस एक शांत रोशनी है, जो दु: ख के भीतर भी सौंदर्य खोजती है।

'हिमांशु' जी के यहाँ कविता किसी वाद, मत या विचारधारा का प्रतिफलन नहीं; बल्कि अनुभव की ऊष्मा से उपजी है। वे कविता को जीवन से अलग नहीं देखते—बल्कि जीवन के ही सबसे सच्चे क्षण के रूप में देखते है। उनके शब्दों में बनावटीपन नहीं; बल्कि वे इतने स्वाभाविक ढंग से बहते हैं कि पाठक भूल जाता है कि वह कविता पढ़ रहा है—लगता है जैसे वह स्वयं अपनी किसी पुरानी स्मृति में उतर गया हो। यही 'तीसरा पहर' की सबसे बड़ी शक्ति है—वह हमें हमारे भीतर की उस जगह पर ले जाता है, जहाँ सब कुछ थम जाता है, पर भीतर कुछ गहरा हिलने लगता है।

इस संग्रह का नाम ही अपने भीतर एक अद्भुत प्रतीक है। तीसरा पहर—दिन का वह हिस्सा, जब सूर्य ढलने को होता है, जब रोशनी धीरे-धीरे पीली पड़ती जाती है और हवा में थकान का स्वर घुल जाता है। यह समय केवल प्रकृति का नहीं, मनुष्य के जीवन का भी रूपक है। हर मनुष्य अपने जीवन के किसी न किसी तीसरे पहर से गुजरता है—जब उत्साह की जगह विवेक ले लेता है, जब उम्मीदों की जगह स्मृतियाँ भर जाती हैं और जब भीतर एक प्रश्न जन्म लेता है: अब आगे क्या? 'हिमांशु' का यह संग्रह इसी प्रश्न का उत्तर खोजने की यात्रा है।

उनकी कविता विस्तार नहीं चाहती। वे अपनी लघुता में भी भाव संप्रेषण में सफल है, उन्होंने जापानी काव्य-रूपों—ताँका, सेदोका और चोका को हिन्दी के भावलोक में इस सहजता से उतारा है कि वे अब विदेशी नहीं लगते। ताँका की पाँच पंक्तियाँ, सेदोका की छह और चोका की 9 से अधिक विषम पंक्तियों की मुक्त लय—सब मिलकर मानो संवेदना की एक नई भाषा बनाते हैं। इन कविताओं में कोई कृत्रिमता नहीं; वे ऐसे लगते हैं जैसे मनुष्य की आत्मा स्वयं बोल रही हो। कवि लिखता है—

ओ मेरे मन!

तू सभी से प्यार की

आशा न रख

पाहन पर दूब

कभी जमती नहीं।

इन पाँच पंक्तियों में एक पूरा युग बस गया है। 'मन के पास सब कुछ है, पर भीतर एक सन्नाटा है।' यह वही अनुभव है जो आधुनिक मनुष्य की नियति बन चुका है। भीड़ के बीच भी हम अकेले हैं, संवादों के बीच भी मौन हैं और उपलब्धियों के बीच भी अधूरे। यह ताँका जीवन की उसी विडंबना का साक्षी है—कि सुख की परिधि जितनी फैलती जाती है, भीतर का रिक्त उतना ही गहराता जाता है।

साथी है कौन

अम्बर भी है मौन

एकाकी पथ

दूर तक सन्नाटा

किसने दुःख बाँटा

'हिमांशु' जी का कवि मन अधूरेपन इन रिक्तताओं से भागता नहीं; वह उन्हें समझता है, उन्हें शब्द देता है। उसकी कविता में शोर नहीं, एक गहरी शांति है। वह चुपचाप जीवन को देखता है—और फिर उस देखने को लिखता है। यही उसकी आधुनिकता है। आधुनिक कविता अक्सर विद्रोह या अस्वीकार से पहचानी जाती है, पर 'तीसरा पहर' में आधुनिकता का स्वर स्वीकृति में है। यहाँ कवि हर दु: ख को स्वीकार करता है। वह कहता है—

ये सुख साथी

कब रहा किसी का

ये हरजाई

थोड़ा अपना दुःख

तुम मुझको दे दो।

कवि के लिए प्रकृति बाहरी दृश्य नहीं; बल्कि आत्मा की परछाई है। उसकी कविताओं में झीलें, पेड़, बादल, सूरज, बारिश—सब मनुष्य की आंतरिक स्थिति के प्रतीक हैं। वह प्रकृति के माध्यम से अपने भीतर की व्यथा कहता है। जब वह लिखता है—

काटें पहाड़

झरना बहाएँगे

भोर लालिमा

चेहरे पर लाएँगे

सूरज उगाएँगे।

'हिमांशु' की कविताएँ भावनात्मक हैं, पर भावुक नहीं, उनके यहाँ दु: ख किसी त्रासदी की तरह नहीं आता; बल्कि ज्ञान की तरह। वे जानते हैं कि दु: ख जीवन का अभिन्न हिस्सा है और उसे नकारने का अर्थ है जीवन को नकार देना। वे लिखते हैं-

कर दूँ तुम्हें

मैं सुख समर्पित

अपने दुःख

मुझे सब दे देना

वही आनंद मेरा।

'तीसरा पहर' के केंद्र में अकेलापन है—पर यह अकेलापन शून्य नहीं, अनुभव से भरा हुआ है। कवि इस अकेलेपन से संवाद करता है।

अकेलापन

टीसता पल पल

प्राण विकल

सुनने को तरसे

रोम-रोम कलपें।

यह उस पीड़ा की गूँज है जो आज के हर व्यक्ति के भीतर है।

होती ही गई

तार-तार जिंदगी

इतना छला

प्राण हिम से गले

मिल न सके गले।

'तीसरा पहर' केवल व्यक्ति का नहीं, समाज का भी आत्मचित्र है। इसमें मनुष्य की आत्मा और समय का चेहरा दोनों दिखाई देते हैं। कवि अपने समय की थकान को समझता है—वह देखता है कि आधुनिकता ने जीवन को गति दी, पर संवेदना को जड़ कर दिया। उसकी कविता चेतावनी नहीं देती, बस आइना दिखाती है।

किसे दिखाते

निर्मल मन-दर्पण

निपट अंधे

करें रोज़ फ़ैसला

हमको यही गिला।

'तीसरा पहर' के कवि की भाषा सरल है, पर उसकी सरलता छल नहीं, सादगी है। वह कठिन भावों को भी सहज शब्दों में कह देता है। उसकी भाषा में लोक की मिठास है और आत्मा की पारदर्शिता। वह शब्दों को जटिल बनाकर अर्थ नहीं पैदा करता; बल्कि अर्थ को इतना पारदर्शी बना देता है कि वह सीधे हृदय में उतरता है। उसकी कविताओं को पढ़ते हुए लगता है जैसे कोई बूढ़ी नदी धीरे-धीरे बह रही हो—बिना आवेग के, पर अपने भीतर अनगिनत कथाएँ लिये।

'तीसरा पहर' की कविताओं में समय का एक विशिष्ट बोध है। यहाँ अतीत, वर्तमान और भविष्य एक-दूसरे में घुलते-मिलते हैं। कवि कभी बीते समय को याद करता है, कभी वर्तमान की उदासी को स्वीकारता है और कभी भविष्य की अनिश्चितता को गले लगाता है। उसके लिए समय कोई रेखा नहीं, एक वृत्त है; जिसमें हर अनुभव लौटकर अपने स्रोत तक पहुँचता है। यही कारण है कि 'तीसरा पहर' की हर कविता में स्मृति का एक धागा जुड़ा है। स्मृति यहाँ केवल याद नहीं, अनुभव का पुनर्जन्म है।

इस काव्य संग्रह की अगर शिल्पगत पक्ष पर बात करें तो, रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' का काव्य-संग्रह 'तीसरा पहर' हिन्दी कविता में लघु रूपों की सुंदरतम प्रयोगधर्मी प्रस्तुति है। यह संग्रह अपने भीतर केवल कविताओं का क्रम नहीं; बल्कि एक सुविचारित रचना-योजना भी समेटे हुए है। कवि ने इसमें जापानी काव्य-रूपों—ताँका, सेदोका और चोका—को आधार बनाया है और उन्हें अपनी भारतीय संवेदना के अनुरूप ढाला है। यह वर्गीकरण केवल औपचारिक नहीं है; बल्कि प्रत्येक रूप अपने साथ एक विशिष्ट भावभूमि और अभिव्यक्ति का तरीक़ा लेकर आता है।

कवि की यह विशेषता है कि वह रूप का अनुशासन निभाते हुए भी उसकी आत्मा को जीवित रखता है। 'तीसरा पहर' में यह अनुशासन दिखाई देता है, पर साथ ही एक सहज प्रवाह भी है। ताँका में कवि क्षणिक भावों को पकड़ता है; सेदोका में संवाद और आत्ममंथन की प्रवृत्ति है; जबकि चोका में विचार, स्मृति और दर्शन का विस्तार मिलता है। यह रूपात्मक विविधता संग्रह को एक गतिशीलता प्रदान करती है।

ताँका का क्षेत्र सबसे सूक्ष्म है। पाँच पंक्तियों में कवि अपने अनुभव की झिलमिलाहट को समेट लेता है। वह किसी दृश्य या भाव को ऐसे कहता है कि वह क्षण स्थायी बन जाता है। उदाहरण के लिए—

रेत-सी झरी

भरी-पूरी जिंदगी

कुछ न बचा

था सुनसान वन

कि पार था चमन

सब कुछ होते हुए भी जो नहीं है, वही उसकी कविता का केंद्र बन जाता है। यही ताँका की शक्ति है—थोड़े में बहुत कह देना, अनुभव को उसकी मूल चमक के साथ पकड़ लेना।

सेदोका का संसार थोड़ा अलग है। यह रूप दो खंडों में बँटा होता है—5-7-7 तीन पंक्तियाँ + 5-7-7 तीन पंक्तियाँ—और प्रायः यह आत्मसंवाद या स्मृति का रूप ले लेता है। यह संवाद कहीं बाहर का नहीं, भीतर का है—मनुष्य और उसके समय के बीच का संवाद। एक सेदोका में कवि लिखता है

मन की झील,

चुन-चुन पत्थर

फेंके हैं अनगिन,

साँस लें कैसे

घायल हैं लहरें

तट गूँगे बहरे।

यही 'तीसरा पहर' की विशिष्ट दृष्टि है—यह संग्रह न दु: ख को नकारता है, न उसे महिमामंडित करता है; वह दु: ख को जीवन का स्वाभाविक हिस्सा मानता है।

खाए हैं घाव

चलो उनको धो लें

दुःख के पन्ने खोलें

करता है जी

गले से लगकर

जीभर हम रो लें।

तीसरा रूप चोका है, जो लघुता से थोड़ा बाहर आता है। इसमें भावों को फैलने का अवसर मिलता है, पर फिर भी शब्दों की मितव्ययिता बनी रहती है। चोका में कवि की दृष्टि दार्शनिक हो जाती है। यहाँ कवि मृत्यु और जीवन के सम्बंध को बहुत शांति से स्वीकार करता है। वह किसी भय या शोक से नहीं लिखता; बल्कि एक गहरी आत्मीयता से। उसके जीवन में सुख का जितना महत्त्व है दु: ख को भी वह उसी भाव के साथ स्वीकार करता है, यह दृष्टि बताती है कि कवि जीवन को एक सतत प्रवाह के रूप में देखता है, जहाँ हर अंत किसी नए आरंभ की भूमिका है।

पीर-तरी से

निकले सागर में

तुमसे कैसे

अपने दुःख बाँटू

इन तीनों रूपों—ताँका, सेदोका, चोका—के माध्यम से कवि ने 'तीसरा पहर' की संरचना को स्वाभाविक वर्गीकरण दिया है। प्रत्येक रूप अपनी भाव-भूमि लेकर आता है, पर संग्रह में सभी एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। यही 'तीसरा पहर' का सौंदर्य है—यह कोई बिखरा हुआ संग्रह नहीं; बल्कि एक संगठित अनुभूति है।

रचना की दृष्टि से यह पुस्तक एक क्रमिक यात्रा की तरह लगती है। शुरुआत में कवि अनुभवों को छोटे-छोटे ताँका के रूप में दर्ज करता है; फिर वही अनुभव सेदोका में स्मृति और विचार का रूप लेते हैं; और अंततः चोका में वे दार्शनिक निष्कर्ष बन जाते हैं।

इस तरह 'तीसरा पहर' केवल रूपों का संग्रह नहीं; बल्कि जीवन की यात्रा का मानचित्र है—जहाँ अनुभव से लेकर आत्मज्ञान तक का क्रम दिखाई देता है।

अब यदि हम भाषा और शिल्प की बात करें, तो 'हिमांशु' की कविता में सबसे बड़ी विशेषता संयम है। वे शब्दों के साथ बहुत सावधान रहते हैं। उनकी भाषा सरल है, पर उसमें गहराई और माधुर्य दोनों हैं। वह अलंकारों या कठिन शब्दों से अर्थ नहीं बनाते; उनका सौंदर्य शब्दों की सहजता में है। उनके वाक्य छोटे हैं, पर उनमें अर्थ का विस्तार बहुत बड़ा है। यह वही विशेषता है जो हिन्दी कविता में कबीर या मुक्तिबोध जैसी प्रामाणिकता को जन्म देती है—कि शब्द जितना छोटा हो, प्रभाव उतना गहरा।

कवि के यहाँ भाव और विचार के बीच एक सूक्ष्म संतुलन है। वह भावना को बहने नहीं देता; उसे थामकर एक रूप देता है। यही कारण है कि 'तीसरा पहर' की कविताएँ पढ़ने के बाद केवल ' अच्छी" नहीं लगतीं; बल्कि देर तक मन में गूंजती रहती हैं। उनमें एक ध्वनि है जो शब्दों के बाद भी सुनाई देती रहती है।

'हिमांशु' का यह संग्रह इस दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है कि उसने जापानी लघु कविताओं की परंपरा को हिन्दी में स्वाभाविकता से रूपांतरित किया है। उसने टांका, सईदोका और चोका को सिर्फ़ तकनीक के रूप में नहीं लिया; बल्कि उनके भीतर की आत्मा को समझा—वह आत्मा जो कहती है कि कविता कम में भी पूरी हो सकती है कि भाव गहराई से व्यक्त करने के लिए शब्दों की भीड़ नहीं चाहिए; बल्कि सही जगह पर सही मौन चाहिए।

' तीसरा पहर" का अंत भी किसी निष्कर्ष की तरह नहीं आता। यह संग्रह अपने पाठक को प्रश्नों और अनुभवों के साथ छोड़ देता है। यही उसकी सच्ची सफलता है। हर कविता अपने भीतर एक छोटा-सा प्रकाश लेकर चलती है, जो धीरे-धीरे पाठक के भीतर जलने लगता है। वह प्रकाश बाहर की चमक नहीं, भीतर की समझ है—कि जीवन में जो कुछ भी होता है, वह अर्थहीन नहीं होता।

यह संग्रह इसलिए भी आधुनिक है; क्योंकि इसमें कोई शोर नहीं है। यह अपने समय की बेचैनी को दिखाता है, पर शांति के स्वर में। यह उस युग का साक्षी है जहाँ मनुष्य सब कुछ पा लेने के बाद भी भीतर खाली है और कविता ही उसे उसके भीतर लौटना सिखाती है।

‘तीसरा पहर’ इस दृष्टि से एक साधना है —यह हमें बताता है कि कविता केवल भावनाओं की अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि जीवन को समझने की प्रक्रिया है। कवि ने इसे शब्दों में नहीं, मौन में रचा है। वह मौन जो सूर्यास्त के ठीक पहले फैलती रोशनी की तरह है — हल्की, पर गहरी।

पुस्तक के अंत तक पहुँचते-पहुँचते पाठक समझ जाता है कि ‘तीसरा पहर’ केवल समय का नाम नहीं, एक मानसिक अवस्था है —वह अवस्था जब मनुष्य भीतर लौटता है, जब वह अपने अनुभवों का अर्थ खोजता है, और जब वह यह जान लेता है कि हर अंत में एक नई शुरुआत छिपी होती है।

रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ का यह संग्रह हिंदी कविता में लघु रूपों की सादगी, करुणा और आत्मदर्शन — तीनों का सुंदर संगम है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह कविता को जीवन से जोड़ देता है। यह संग्रह हमें याद दिलाता है कि कविता को समझने के लिए भाषा नहीं, संवेदना चाहिए।

‘तीसरा पहर’ पढ़ने के बाद मन में बस यही भावना रह जाती है —कि दिन ढल गया है, पर उसकी रोशनी अब भी भीतर बची हुई है। और वही बची हुई रोशनी ही कविता है, वही ‘तीसरा पहर’ है —जहाँ हर शब्द एक दीपक बन जाता है।

-0- तीसरा पहर (ताँका-सेदोका-चोका)- रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' पृष्ठ: 80, पेपर बैक, मूल्य: सौ रुपये, वर्ष: 2020, अयन प्रकाशन , महरौली, नई दिल्ली-110030

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