तीसरा प्रकरण / विश्वप्रपंच / एर्न्स्ट हेक्केल / रामचंद्र शुक्ल
तीसरा प्रकरण -हमारा जीवन
उन्नीसवीं शताब्दी में ही मनुष्यजीवन सम्बन्धी ज्ञान को वैज्ञानिक रूप प्राप्त हुआ है। सजीव व्यापारों का अन्वेषण करनेवाली विद्या को शरीर व्यापारविज्ञान1 कहते हैं। यह विद्या आजकल अत्यंत उन्नत अवस्था को पहुँच गई है। प्राचीन काल में ही लोगों का ध्यान सजीव व्यापारों की ओर गया था। वे जीवों का इच्छानुसार हिलना डोलना, हृदय का धड़कना, साँस खींचना, बोलना आदि देखकर इन व्यापारों का कारण जानना चाहते थे। अत्यंत प्राचीन काल में तो सजीव पदार्थों के हिलने में और निर्जीव पदार्थों के हिलने डोलने में विभेद करना सहज नहीं था। नदियों का बहना, हवा का चलना, लपट का भभकना आदि जंतुओं के चलने फिरने के समान ही जान पड़ते थे। अत: इन निर्जीव पदार्थों में भी उस काल के लोगों को एक स्वतन्त्र जीव मानना पड़ता था। पर पीछे जीवन के सम्बन्ध में जिज्ञासा आंरभ हुई। 1700 वर्ष हुए कि युरोप में पहले पहल यूनानी हकीम गैलन का ध्यान शरीरव्यापार के कुछ तत्वों की ओर गया। इन तत्वों का पता उसने जीते हुए कुत्तों, बन्दरों आदि को चीरफाड़कर लगाया था। पर जीवित जंतुओं का चीरना फाड़ना एक अत्यंत निर्दयता का काम समझा जाता था। परन्तु बिना इस प्रकार की चीरफाड़ किए शरीर के व्यापारों का रहस्य नहीं खुल सकता। सच पूछिए तो सोलहवीं शताब्दी में ही शरीर के व्यापारों की ठीक ठीक जाँच युरोप में कुछ डॉक्टरों के द्वारा आंरभ हुई। सन् 1628 में हार्वे ने अपने रक्तसंचार सम्बन्धी आविष्कार का विवरण प्रकाशित करके यह दिखलाया कि हृदय एक प्रकार का पम्प या नल है जो अचेतनरूप से क्षण क्षण पर
1 अंगविच्छेदशास्त्र केवल भीतरी अवयवों के स्थान और उनकी बनावट बतलाता है पर शरीर व्यापार विज्ञान उनके व्यापारों और कार्यों की व्यवस्था प्रकट करता है। अंगविच्छेदशास्त्र केवल यही बतलायेगा कि अमुम अवयव शरीर के अमुक स्थान पर होता है और इस आकार का होता है, वह यह न बतलायेगा कि वह अवयव क्या काम करता है।
अपनी पेशियों के आकुंचन द्वारा निरन्तर लाल रंग के खून की धारा धामनियों के मार्ग से छोड़ा करता है। जीवधारियों के प्रसव विधान के सम्बन्ध में उसने जो अन्वेषण किए वे भी बड़े काम के थे। पहले पहल उसी ने इस नियम का प्रतिपादन किया कि 'प्रत्येक जीवनधारी गर्भांड से उत्पन्न होता है।' अठारहवीं शताब्दी के अन्त में हालर ने शरीर व्यापारसम्बन्धी विद्या को चिकित्साशास्त्र से अलग करके स्वतन्त्र वैज्ञानिक आधार पर स्थिर किया, पर उसने संवेदनात्मक चेतनाव्यापारों के लिए एक विशेष 'संविद् शक्ति' का प्रतिपादन किया जिससे 'अभौतिक शक्ति' माननेवालों को भी सहारा मिल गया। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक शरीर व्यापारविज्ञान में यही सिद्धांत ग्राह्य रहा कि जीवों के कुछ व्यापार तो भौतिक और रासायनिक कारणों से होते हैं पर कुछ ऐसे हैं जो एक विशेष शक्ति द्वारा होते हैं। यह शक्ति समस्त भूतों से परे तथा द्रव्य की भौतिक और रासायनिक क्रिया से सर्वथा स्वतन्त्र मानी गई है। यह स्वयंप्रकाश शक्ति जड़ पदार्थों में नहीं होती और भूतों को अपने आधार पर चलाती है। संवेदनसूत्रों की वेदनात्मक क्रिया, चेतना, उत्पत्ति, वृद्धि आदि ऐसी बातें थीं जिनके लिए भौतिक और रासायनिक कारण बतलाना अत्यंत कठिन था। इस अभौतिक शक्ति का व्यापार उद्देश्यात्मक1 माना गया जिससे दर्शनशास्त्र में उद्देश्यवाद का समर्थन हुआ। प्रसिद्ध दार्शनिक कांट ने भी कह दिया कि यद्यपि सिद्धांतदृष्टि से सृष्टि के व्यापारों का भौतिक कारण बतलाने में बुद्धि में अपार सामर्थ्य है पर जीवधारियों के चेतन व्यापारों का भौतिक कारण बतलाना वास्तव में उसकी सामर्थ्य के बाहर है, अत: हमें उनका एक ऐसा कारण मानना ही पड़ता है जो उद्देश्यात्मक अर्थात भूतों से परे है। फिर तो उद्देश्यवाद एक प्रकार निर्विवाद सा मान लिया गया। बात स्वाभाविक ही थी; क्योंकि शरीर के भीतर रक्तसंचार आदि व्यापारों का भौतिक और पाचन आदि क्रियाओं का रासायनिक हेतु तो बतलाया जा सकता था पर पेशियों और संवेदन सूत्रों की अद्भुत क्रियाओं तथा अन्त:करण (मन) की विलक्षण वृत्तियों का कोई समाधान कारक हेतु निरूपित नहीं हो सकता था। इसी प्रकार किसी प्राणी में भिन्न भिन्न शक्तियों की जो उपयुक्त योजना देखी जाती है उसे भी भूतों के द्वारा सम्पन्न नहीं मानते बनता था। ऐसी दशा में शरीर व्यापारसम्बन्धी विज्ञान में भी पूरी द्वैतभावना स्थापित हुई। निरिन्द्रिय जड़ प्रकृति और सेन्द्रिय सजीव सृष्टि के बीच, आधिभौतिक और आध्यात्मिक विधानों के बीच, शरीर और आत्मा के बीच, द्रव्यशक्ति और जीवशक्ति के बीच पूरा पूरा प्रभेद माना गया। उन्नीसवीं शताब्दी के आंरभ में भूतातिरिक्तशक्तिवाद की जड़ शरीर व्यापारविज्ञानों में अच्छी तरह जम गई। सत्राहवीं शताब्दी के मध्य में प्रसिद्ध फ्रांसीसी तत्ववेत्ता डेकार्ट ने हार्वे केरक्त
1 यह सिद्धांत कि सृष्टि के व्यापार उद्देश्य रखनेवाली एक चेतन शक्ति के विधान द्वारा होते हैं।
संचार सम्बन्धी सिद्धांत को लेकर यह प्रतिपादित किया कि और जंतुओं की भाँति मनुष्य का शरीर भी एक कल है और उसका संचालन भी उन्हीं भौतिक नियमों के अनुसार होता है जिनके अनुसार मनुष्य की बनाई हुई मशीन का होता है। साथ ही उसने मनुष्य में एक भूतातीत आत्मा1 का होना भी बतलाया और कहा कि स्वयं अपने ही व्यापारों का जो अनुभव आत्मा को होता है (अर्थात विचार) केवल वही संसार में ऐसी वस्तु है जिसका हमें निश्चयात्मक बोध होता है। उसका सूत्र है कि-'मैं विचार करता हूँ इसलिए मैं हूँ। 2 पर यह द्वैत सिद्धांत रखते हुए भी उसने शरीर व्यापार सम्बन्धी हमारे भौतिक ज्ञान को बहुत कुछ बढ़ाया। डेकार्ट के बाद ही एक वैज्ञानिक ने प्राणियों के अंग संचालन को शुद्ध भौतिक नियमों का अनुसारी सिद्ध किया और दूसरे ने पाचन और श्वास3 की क्रिया का रासायनिक विधान बतलाया। पर उनके युक्तिवाद पर उस समय लोगों ने ध्यान न दिया। शक्तिवाद का प्रचार बढ़ता ही गया। उसका पूर्णरूप से खंडन तब हुआ जब भिन्न भिन्न जीवों के शरीर व्यापारों का मिलान करने वाले विज्ञान का उदय हुआ।
तारतम्यिक शरीर व्यापारविज्ञान का प्रादुर्भाव उन्नीसवीं शताब्दी में हुआ। बर्लिन विश्वविद्यालय के जोंस मूलर नामक उद्भट प्राणिवेत्ता ने ही पहले पहल इस विषय को अपने हाथ में लिया और 25 वर्ष तक लगातार परिश्रम किया। उसने मनुष्य से लेकर कीटपतंग तक सारे जीवों के अंगों और शरीरव्यापारों को लेकर दार्शनिक रीति से मिलान किया और इस प्रकार वह अपने पूर्ववत्तरी आचार्यों से प्राणतत्व सम्बन्धी ज्ञान में बहुत बढ़ गया। मूलर भी अपने सहयोगी शरीर विज्ञानियों के समान शक्तिवादी ही रहा। पर उसके हाथ में पड़ कर शक्तिवाद का कुछ रूप ही और हो गया। उसने जीवों के समस्त व्यापारों के भौतिक हेतु निरूपण का प्रयत्न किया। उसने जिस शक्ति का रूपान्तर से प्रतिपादन किया वह प्रकृति के भौतिक और रासायनिक नियमों से परे नहीं थी; उससे सर्वथा बद्ध थी। उसने इन्द्रियों और मन की क्रियाओं का उसी प्रकार भौतिक हेतु बतलाने का प्रयत्न किया जिस प्रकार पेशियों की क्रियाओं का। मूलर की सफलता का कारण यह था कि वह सदा अत्यंत निम्नकोटि के जीवों के प्राणव्यापार को लेकर चलता और क्रम क्रम से उन्नत जीवों की ओर अपनी अनुसंधान परम्परा को बढ़ाता हुआ मनुष्य तक ले जाता था। मूलर की मृत्यु के पीछे सन् 1858 में उसके विस्तृत विषय के कई विभाग हो गए - मानव और तारतम्यिक अंगविच्छेद परीक्षा, चिकित्सासम्बन्धी अंगविच्छेद परीक्षा, शरीर व्यापारविज्ञान और विकासक्रम का इतिहास।
1 पशुओं में इस प्रकार की आत्मा डेकार्ट नहीं मानता था। 2 कामिटो इरगो सम (आई थिंक देयर फोर आइ एम्) 3 जिससे शरीर के भीतर ऑक्सिजन या प्राणवायु जाती और कार्बन निकलता है।
मूलर के अनेक शिष्यों में से थिउडरश्वान को सबसे अधिक सफलता हुई। 1838 में जब प्रसिद्ध उदि्भद्विज्ञानवेत्ता थिउडरश्वान ने घटक को सारे पौधों का संयोयक अवयव बतलाया और सिद्ध किया कि पौधों का सारा तन्तुजाल इन्हीं घटकों के योग से बना है, मूलर ने इस आविष्कार से लाभ उठाने की चेष्टा की। उसने प्राणियों के शरीरतन्तुओं को भी इसी प्रकार के योग से संघटित सिद्ध करना चाहा। पर यह कठिन कार्य उसके शिष्य श्वान ने किया। इस प्रकार घटक सिद्धांत की नींव पड़ी जिसका महत्व अंगविच्छेद शास्त्र और शरीर व्यापारविज्ञान में दिन पर दिन स्वीकृत होता गया। इसके अतिरिक्त अर्न्स्ट ब्रुक और एलबर्ट कालिकर नामक मूलर के दो दूसरे शिष्यों ने यह दिखलाया कि विश्लेषण करने पर जीवों की समस्त क्रियाएँ शरीरतन्तु को संघटित करनेवाले इन्हीं सूक्ष्म घटकों की क्रियाएँ ठहरती हैं। ब्रुक ने इन घटकों को 'मूलजीव' कहा और बतलाया कि समवाय रूप से ये ही जीव विधान के कारण हैं। कालिकर ने सिद्ध किया कि जीवधारियों का गर्भांड एक शुद्ध घटक मात्र है।
'घटकात्मक शरीरव्यापार विज्ञान' की पूर्णरूप से प्रतिष्ठा सन् 1889 में जर्मनी के मैक्स वरवर्न द्वारा हुई। उसने अनेक परीक्षाओं के उपरान्त दिखलाया कि मेरा उपस्थित किया हुआ घटकात्मा1 सम्बन्धी सिद्धांत एक घटकात्मक अणुजीवों के पर्यालोचन से पूर्णरूप से प्रतिपादित हो जाता है और इन अणुजीवों के चेतन व्यापारों का मेल जलसृष्टि की रासायनिक क्रियाओं से मिल जाता है। उसने बतलाया कि मूलर की मिलानवाली प्रणाली तथा घटक की सूक्ष्म आलोचना द्वारा ही हम तत्व को यथार्थ रूप में समझ सकते हैं।
इस घटकवाद से चिकित्साशास्त्र को भी बहुत लाभ पहुँचा। मूलर के एक दूसरे शिष्य विरशे ने रुग्ण घटकों का स्वस्थ घटकों से मिलान करके रुग्ण होने पर उनकी दशा के उन सूक्ष्म परिवर्तनों को दिखलाया जो उन विस्तृत परिवर्तनों के मूल स्वरूप होते हैं जिनसे रोग या मृत्यु होती हैं। उसने यह सिद्ध कर दिया कि रोग किसी अलौकिक कारण से नहीं होते बल्कि भौतिक और रासायनिक परिवर्तनों के ही कारण होते हैं। आधुनिक जंतुविभाग विद्या के अन्तर्गत जितने जीव हैं सब में स्तनपायी जीव प्रधान हैं। मनुष्य इसी स्तन्यवर्ग के अन्तर्गत है अत: उसमें वे सब लक्षण होने चाहिए जो और स्तन्य जीवों में होते हैं। मनुष्यों में भी रक्तसंचालन तथा श्वास क्रिया उसी प्रकार और ठीक उन्हीं नियमों के अनुसार होती है जिस प्रकार और जिन नियमों के अनुसार और स्तन्य जीवों में। ये दोनों क्रियाएँ हृत्कोश और फुफ्फुस (फेफड़े) की विशेष बनावट के अनुसार होती हैं। केवल स्तन्य जीवों में रक्त हृदय के बाएँ कोठे से धमनी की वाम कंडरा (शाखा) में प्रवाहित होता है। पक्षियों में यह रक्त
1 सन् 1866 में हेकल ने यह सिद्धांत उपस्थित किया था।
धमनी की दक्षिण कंडरा से होकर और सरीसृपों में दोनों कंडराओं से होकर जाता है। दूधा पिलानेवाले जीवों के रक्त में और दूसरे रीढ़वाले जीवों के रक्त से यह विशेषता पाई जाती है कि उसके सूक्ष्म घटकों के मध्य में गुठली (नूक्लस) नहीं होती। इसी वर्ग के जीवों की श्वासक्रिया अन्तरपट (डाइफागम) के योग से होती है क्योंकि इन्हीं जीवों में उदराशय और वक्षाशय के बीच यह परदा होता है। बड़ी भारी विशेषता तो माता के स्तनों में दूध उत्पन्न होने और बच्चों को पालने के ढंग की है। दूधा की बड़ी भारी ममता होती है इसी से स्तन्य जीवों में शिशु पर माता का बहुत अधिक स्नेह देखा गया है।
स्तन्य जीवों में बनमानुस ही मनुष्य से सबसे अधिक समानता रखता है, अत: उसमें वे सब लक्षण मिलते हैं जो मनुष्य में पाए जाते हैं। सब लोग देखते हैं कि किस प्रकार बनमानुसों की रहन सहन, स्वभाव, समझ, बच्चों के पालने पोसने का ढंग आदि मनुष्य के से होते हैं। शरीर व्यापार विज्ञान ने और बातों में भी सादृश्य दिखलाया है जो साधारणा दृष्टि से देखने में नहीं आता-हृत्पिंड की क्रिया में, स्तनों के विभाग में, दाम्पत्य विधान में। दोनों के स्त्री पुरुष धर्म मिलते जुलते हैं। बनमानुसों की बहुत सी ऐसी जातियाँ होती हैं जिनकी मादा के गर्भाशय से उसी प्रकार सामयिक रक्तश्राव होता है जिस प्रकार स्त्रियों को मासिकधर्म होता है। बनमानुस की मादा में दूध उसी प्रकार उतरता है जिस प्रकार स्त्रियों में। दूधा पिलाने का ढंग भी एक ही सा है।
सबसे बढ़कर ध्यान देने योग्य बात तो यह है कि मिलान करने पर बनमानुसों की बोली मनुष्य की वर्णात्मक वाणी के विकास की आदिम अवस्था प्रतीत होती है। एक प्रकार का बनमानुस होता है जो कुछ कुछ मनुष्यें की तरह गाता और सुर निकालता है। कोई निष्पक्ष भाषातत्वविद् इस बात को मानने में आगापाछा न करेगा कि मनुष्य की विचार व्यंजक विशद वाणी पूर्वज बनमानुसों की अपूर्ण बोली से क्रमश: धीरे धीरे निकली है।