तीसरा बटन / सुशील यादव

Gadya Kosh से
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आज कालेज केम्पस में गजब का सन्नाटा पसरा है। तीन छात्र की पिकनिक मनाते हुए नदी में डूब जाने से अकस्मात मौत हो गई। सभी होनहार थे| हमेशा खुशमिजाज रहना दूसरों की मदद करना उनकी दिनचर्या थी।

वे हमारे सीनियर्स हुआ करते थे। कालिज का फर्स्ट इयर ,यानी न्यू कमर्स के लिए भीगी बिल्ली बने हुए रहना होता था। न्यू कमर्स का ड्रेस कोड ,रोज शेविंग करना,सीनियर्स को देख के निगाह चुपचाप कमीज के तीसरे बटन पर ले जाना अनिवार्य सा अघोषित नियम था।

इस नियम से पंगा करने का मतलब सीनियर्स की धुलाई से ताल्लुक रखता होता था। इस वजह से हम सब उन नियमों के हामी और पाबंद थे।

हम लोगो को ये नसीहते भी दी गई थी, कि सीनियर्स की डाट –फटकार से,उनकी कही गई हरकतों को मान लेने से, आदमी के व्यवहार में गजब का आत्म-विश्वास पैदा होता है।

इस रेगिग से ,जीवन के किसी भी फील्ड में निर्णायक निर्णय लेने की क्षमता पैदा हो जाती है|हर प्रकार की झिझक खत्म हो जाती है। किसी इंटरव्यू को फेस करने में घबराहट, नाम मात्र को नहीं होती। पूरा काम अनैतिक होते हुए भी व्यक्तित्व के निर्माण के लिए मजबूत नीव बनाती है।

हम जूनियर्स ने अपने आप को अघोषित इनके हवाले कर रखा था। जो कहते हुक्म बजा लाते। खुद की भावना और सोच को परे रख देने में दूर कहीं भलाई है,ये समझने लग गए थे हम लोग...।

एक दिन एक सीनियर ग्रोसरी-शाप में दिखे। परंपरा मुताबिक़ मेरी निगाह तीसरे बटन पर थी| -- तो पापड खरीद रहे हो...?

मैंने निगाह नीची किये कहा, जी सर...

‘बला’ मात्र संक्षेप में आई थी, टल गई...साँसे वापस लौटी...|मैंने लिस्ट में उस शाप का नाम दर्ज कर लिया ,भूले से ,दुबारा नहीं जाना। इलाका सीनियर का था...|

पापड की इतनी सी घटना ने,सीनियर्स के दिमाग में नया फितूर भर दिया।

वे जूनियर्स को अगले दिन शाम चार बजे इकठ्ठा किये। सब को श्मसान चलने को कहा। हम जूनियर्स नीची निगाहों से एक दूसरे का मुह देखने लगे क्या नई आफत आने वाली है का डर भीता-भीतर समाने लगा। रास्ते में एक सीनियर ने पापड खरीदा। श्मसान में दो तीन चिताएं जल रही थी। लगभग सभी चिताओं की लकडियाँ सुलग-खप चुकी थी। उन चिताओं के दावेदार ,सगे सबन्धी ,रिश्तेदार ‘आग’ देकर बिदा हो गए थे। सन्नाटा पसरा हुआ था। सीनियर ने सब के हाथ में एक –एक पापड दिया। ये पापड सेक कर खाना है ? समझे...?

हम लोग सन्न रह गए...?हमारे संस्कार आड़े आने लगे...|रुलाई छूटने को हुई...|मन में लगा छोडो बी ई का चक्कर...|कहीं क्लर्की कर लेगे। हम भागने –कतराने की तरकीब में दबी जुबान से सीनीयर्स से पहली बार भिडने की हिम्मत जुटा के कहने लगे ये नहीं होगा सर...हम ब्राम्हण हैं...हमारा जनेऊ है...|

इत्तिफाकन सीनियर में एक शर्मा सर भी थे...|उसने अपनी शर्ट खोली ,जनेऊ उतारा जेब में रखा। पापड माँगा ,भुना और खा लिया...|

हम सब भौचक्क उनको देखते रह गए। एक –एक टुकड़ा प्रसाद जैसे बाटा,स्वाद में कोई फर्क था नहीं।

उसने कहा, यही होता है। विचार हमारे मन की बाधाएं हैं। हमें जो संस्कार में दिया गया है उससे ऊपर की हम सोचते नहीं। एक सांचे में हमे ढालने की कोशिशे हो जाती है हम उससे जुदा कुछ बनने की ,करने की सोचते नहीं...|

स्वाद में देखा कोई फर्क है...?

अब हम लोगो के पास कोई रास्ता बाकी न था। उसके प्रवचन ने जाने क्या असर किया...सबने वही किया...अपने-अपने पापड गटक लिए।

सीनीयर्स ने कहा आज तुम लोगों की अंतिम परीक्षा थी। तुम सब पास हुए। आज से हम सब फेंड्स...|

आन्वर्डस... नो आईस... ओन योवर्स शर्टस थर्ड बटन...ओ के...|

हम सब ने राहत की सांस ली...|

तब से हम दोस्तों के बीच ‘कोड- वर्ड’ शुरू हो गया है ‘पापड-पार्टी’...।

न घर में न कालिज में किसी को खबर नहीं है कि ये ‘पापड-पार्टी ;क्या बला है...?

इस पापड –पार्टी के गुजरे बमुश्किल तीन महीने गुजरे हैं। ये हादसा हो गया।

वही श्मशान ,वही जगह ,वही सीनीयर्स ,...|

चिता में लिटाये जाते वक्त लगता था, कमीज न होते हुए भी ,वे सब तीसरे बटन की ओर देख रहे हैं...|