तीसरी मौत / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
पेंशन बँध जाने पर उसकी गृहस्थी की गाड़ी चल निकलेगी। आज बड़े साहब के साइन होने हैं। इस दफ्तर के चक्कर काटते–काटते उसे हौसले पस्त हो गए हैं। अगर आज भी काम न हुआ तो...घर का खर्च कैसे चलेगा? अलका को अच्छे डॉक्टर को कैसे दिखाएँगे? यह सोचकर निर्मला का सिर घूम गया। पास में बैठी अलका व्याकुलता से माँ की ओर देख रही थी।
बीच–बीच में निर्मला बड़े बाबू की ओर प्रश्न भरी दृष्टि से देखती तो उसका उत्तर होता–"आज साहब बहुत बिजी हैं। देख रही हो न, हेड आफिस वाले साहब तीन बजे से जमकर बैठे हैं। वे जाएँ, तब तुम्हारी फाइल आगे बढ़ाऊँ।"
"घर लौटने में देर हो जाएगी। आखिरी बस साढ़े पाँच पर जाती है। शहर में कोई ठौर–ठिकाना होता तो देर तक रुकी रहती।"
बाबू ने कोई जवाब नहीं दिया। चार महीने से टरका रहा था। छह सौ रुपए लेने पर फाइल आगे बढ़ाने के लिए तैयार हुआ है।
मोचेर्ं पर लड़ते–लड़ते पति ने प्राण–न्योछावर कर दिए. उसका पुरस्कार यही मिलना था कि फैमिली पेंशन बंधवाने के लिए भी घूस देा। निर्मला का हृदय सुलग उठा। उसके जी में आया कि घूस लेने वाले बाबू के गटले कर डाले। मजबूरी में उसे खून का घूंट पीकर रह जाना पड़ा। अभी फंड्स के पेपर्स भी लटके हुए हैं। एकमुश्त पैसा मिल जाए तो बेटी के हाथ पीले कर दे।
ज्यों–ज्यों घड़ी की सुई आगे खिसक रही थी, निर्मला की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। जैसे वह घड़ी की सुई न होकर मछली के गले में फंसा कांटा हो। दफ्तर लगभग खाली हो चुका था। साहब कुछ फाइलें निपटाने में लगे थे।
निर्मला के साथ बड़े बाबू चैम्बर में घुसे–' सर, आज इनका काम ज़रूर कर दीजिए. "
"ठीक है। तुम सब पेपर्स पर इनके साइन करा लो। मैं अभी आया। कहीं कोई एण्ट्री न छूट जाए." होठों पर जीभ फेरते हुए साहब उठ खड़े हुए.
बाबू बार–बार फाइल के पन्ने पलटता रहा। वह उठने को हुई तो बाबू रुखाई से बोला–"अब सारा काम होने को है, तुम बैठने को भी तैयार नहीं।"
वह अनसुना करके बाहर चली आई. अलका वहाँ अकेली बैठी ऊब रही होगी। लिपिक–कार्यालय के बंद दरवाजे़ को देखकर उसके पाँव कांपने लगे। चीख उसके गले में फँसकर रह गई.
पसीने से सराबोर साहब दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल रहे थे।