तीसरी साँस / कामतानाथ

Gadya Kosh से
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मोबिल ऑयल में भीगे हुए जूट में उसने माचिस दिखाई तो वह गहरा काला धुआं छोड़ता हुआ जलने लगा। लकड़ियों को उसने पहले ही जालीदार आकार में सजा दिया था। अब वह कोयले के छोटे-बड़े ठीकरों से अंगीठी पर पिरामिड बनाने लगा। एक क्षण उसने उसमें पंखे से हवा दी, तब उसे उठाकर बरामदे के बाहर रख आया।

सामने फौलाद की पटरियां बिछी थीं, जो दोनों ओर दूर तक एक-दूसरे के समानांतर चली गई थीं। इन्हें वह रेल की आत्मा कहा करता था। पता नहीं, यह उपमा उसके दिमाग में कब और क्यों सूझी थी। उसने सुना था कि आत्मा अमर होती है। शरीर एक प्रकार से उसका वस्त्र होता है। जब वस्त्र जीर्ण-शीर्ण हो जाता है तो आत्मा उसे त्याग देती है। इसी प्रकार ये रेल की पटरियां हैं। अपने स्थान पर मजबूती से बिछी हुई। अनेकानेक डिब्बे, इंजन तथा गाड़ियां इनके ऊपर से गुजरते रहते हैं। डिब्बे टूटते-बदलते रहते हैं। इंजन भी मरम्मत के लिए जाते रहते हैं। परंतु पटरियां अपने स्थान पर निश्चिंत लेटी रहती हैं। अगर ये न हों तो सब कुछ बिखर जाए। एक क्षण में रेलवे का सारा खेल धराशायी हो जाए। हल्का-हल्का धुंधलका अभी भी आसमान में था। चार-साढ़े चार का समय होगा, उसने अनुमान लगाया, और लोटे में पानी लेकर सिग्नल की ओर चल दिया। सिग्नल की लाल बत्ती दूर से चमक रही थी। सवा पांच की डाक निकलने के कुछ देर बाद तक यह जलती रहती है। वह पटरी के किनारे-किनारे चलने लगा।

पटरी के किनारे लगे नरकुलों में हवा सीटी बजा रही थी। खजूर के पेड़ में बया के घोंसले लटक रहे थे। आज से दो-तीन वर्ष पहले कुल जमा एक घोंसला था। उसके देखते-देखते एक से पांच हो गए। अगर एक चिड़िया मर जाती है तो क्या दूसरी उसमें रहने लगती है या वह खाली पड़ा रहता है? उसने मन-ही-मन सोचा, परंतु बिना किसी निष्कर्ष पर पहुंचे आगे बढ़ गया।

गड्ढों का पानी लगभग सूख गया था। इस बार फिर बरसात को देर हो गई थी। लगता है फिर सूखा पड़ेगा, उसने सोचा। पूरा कलयुग आ गया है। न पहले जैसी बरसात होती है, न जाड़ा, न गर्मी। असाढ़ लगभग समाप्त होने को आया, मगर पानी का कहीं नाम नहीं।

पटरी फलांग कर वह मंदिर की ओर आ गया जिघर अब भी कुछ झाड़-झंखाड़ शेष थे। आज फिर मंदिर की दीवार पर उल्लू बैठा था। यह साला कहां से आ गया? उसने मन-ही-मन उसे गाली दी और झुककर पटरी की बगल से एक बड़ा-सा पत्थर उठाकर उसकी ओर फेंका। उल्लू दीवार पर से उड़कर सिग्नल पर जा बैठा।

पुजारी भी अजीब आदमी हैं! महीने भर के लिए कह गए थे और आज तीन महीने से ऊपर हो गए, उनका कहीं नाम-निशान नहीं। शुरू में वह उनके कहे अनुसार सुबह-शाम दोनों वक्त मंदिर में जाकर आरती-पूजा करता था। भगवान का भोग लगाता था। केवल एक महीने के लिए वह कह गए थे, जिस पर दो-ढाई महीनों तक वह ऐसा करता रहा। आखिर जब पुजारी नहीं लौटे, तो उसने आरती-पूजा बंद कर दी। उसके बस का यह सब होता, तो वह रेलवे का कैबिनमैन क्यों होता? किसी मंदिर में पुजारी होता और सुबह-शाम भगवान की आरती-पूजा करके दिन भर मौज में दंड पेलता। हां, शाम को भगवान की मूर्ति के पास दीया वह अभी भी जला आता है।

लगता है पुजारी ने इस बार अच्छी आमदनी कर ली है। तभी इतने दिन लगा रहे हैं गांव में। शादी-ब्याह, रामलीला आदि में उनका हाथी चलता ही था, चुनाव में भी उसकी कोई उपयोगिता हो सकती है, यह पुजारी जी ने भी नहीं सोचा था। बात यह थी कि पिछले चुनाव में कोई राधेश्याम वैद्य खड़े हुए थे। उनका चुनाव निशान हाथी था। पूरे एक महीने के लिए उन्होंने पुजारी जी का हाथी बुक करा लिया था। पुजारी जी सुबह-सुबह हाथी लेकर निकल जाते और रात देर से लौटते। उन दिनों भी वही मंदिर में आरती पूजा करता था। और अगर वह न होता तो क्या पुजारी जी हाथी का धंधा छोड़कर पूजा में लगे रहते? पेट की पूजा से बढ़कर और भी कोई पूजा होती है? तभी तो लोग कहते हैं-‘भूखे भजन न होय गोपाला।’ उसे अपनी ही बात पर हंसी आई। आखिर जब पेट-पूजा ही सबसे बड़ी पूजा है, तो लोग यह सब ढोंग क्यों करते हैं? शायद यह भी पेट-पूजा का एक तरीका हो। खैर, राधेश्याम जी की तो जमानत जब्त हो गई। परंतु पुजारी जी ने अच्छी रकम बना ली। तभी उसके बाद एक दिन वह हाथी पर सवार होकर अपने गांव चले गए। जाते तो खैर वह हर वर्ष थे। परंतु इस बार कुछ ज्यादा ही समय लगा गए।

पुजारी जी जब यहां थे, तो उसका समय अच्छा कट जाया करता था। शाम को तो नित्य प्रति ही, और वैसे भी जब कभी दिन में उसे समय मिलता, पुजारी जी के पास जाकर बैठ जाता। वह उसे ज्ञान की बातें बताते थे। श्रीमद्भागवत की कथाएं सुनाते थे, कि किस प्रकार राजा परीक्षित के मुकुट में कलयुग आ कर बैठ गया था, जो अभी तक बैठा हुआ है। या किस प्रकार भगवान ने गज को ग्राह के मुख से बचा लिया। या इसी प्रकार की अन्य पौराणिक कथाएं कि किस प्रकार इंद्र ने छल करके अहिल्या का सतीत्व भंग किया और गौतम ऋषि के शाप से वह पत्थर बन गई। अहिल्या तो बिल्कुल निर्दोष थी, वह कभी-कभी सोचता, फिर उसे क्यों सजा मिली? फिर वह टाल जाता। ऋषियों-मुनियों का मामला, वही जानें। उसको क्या करना!

जब तक वह दिशा-मैदान से लौट कर आया, तब तक अंगीठी पूरी तरह सुलग चुकी थी। उसने मिट्टी से हाथ मले और लोटा मांज कर उसी में चाय के लिए पानी डाल कर अंगीठी पर चढ़ा दिया। पानी चढ़ा कर वह अंदर जाकर चाय और गुड़ का डिब्बा उठा लाया। गुड़ तोड़ कर उसे भी उसने लोटे में डाल दिया और पानी उबलने की प्रतिक्षा करने लगा। पानी उबल गया तो उसने उसमें चाय की पत्ती डाली और गिलास में छान कर पीने बैठ गया। चाय पी रहा था, तभी साढ़े पांच वाली डाक का सिग्नल आ गया। उसने चाय वहीं रख दी और बोर्ड से कुंजी लेकर फाटक बंद करने चला गया।

उसके फाटक बंद करके लौटते-लौटते दो ट्रक, एक कार और एक स्कूटर दाहिने वाले फाटक पर पहुंच चुके थे। कार वाला ही सबसे पहले पहुंचा था। उसने उसे फाटक बंद करते देखकर हार्न भी बजाया। परंतु उसने उसकी ओर कोई ध्यान दिए बिना फाटक बंद कर दिया। शुरू में वह ऐसी स्थिति में प्रतीक्षा कर लिया करता था। परंतु दो-एक बार उसके ऐसा करने में और ट्रैफिक भी वहां पहुंच गया और तब उसे परेशानी हुई थी। वैसे भी कार वालों से उसे कुछ चिढ़-सी हो गई थी। एक मिनट रुकना भी वे अपनी शान के खिलाफ समझते थे। गाड़ी निकल जाने के बाद यदि एक क्षण की देर भी उसे फाटक खोलने में होती, तो वे बिगड़ने लगते। खामख्वाह हार्न बजाने लगते। अक्सर वे गालियां भी बकने लगते। और कार वाले ही क्यों, मोटरसाइकिल या स्कूटर वाले भी कभी-कभी उससे उलझ जाते। शुरू-शुरू में उसने दो-एक बार उनसे झख भी लड़ाई। परंतु, पिछले काफी दिनों से उसने अपना स्वभाव बना लिया था कि कोई कुछ भी कहे, उसे ध्यान नहीं देना है। वह चुपचाप कुंजी लेकर जाता और फाटक बंद करके वापस चला आता। लोग बकते तो बकते रहते। पहले वह दक्षिण वाला फाटक बंद करता, तब उत्तर वाला। वैसे ऐसा करने के पीछे कोई विशेष कारण नहीं था। महज उसकी एक आदत-सी बन गई थी। कभी-कभी ऐसा भी होता कि जब वह दक्षिण वाला फाटक बंद करता होता, तब तक उत्तर की ओर से कोई स्कूटर या मोटरसाइकिल वाला अंदर धुस आता। परंतु, उसने उन लोगों की ओर भी ध्यान देना बंद कर दिया। और जब-जब ऐसा होता, तब ऐसे दुस्साहसी लोगों के लिए अपना स्कूटर या मोटरसाइकिल लेकर गेट के अंदर ही एक ओर खड़ा रह कर गाड़ी निकल जाने की प्रतीक्षा करने के अलावा कोई चारा नहीं होता। कोई कितनी ही खुशामद करे, या गाली दे, उसने अपना नियम बना लिया था-एक बार फाटक बंद करने के बाद तभी खोलता, जब गाड़ी निकल चुकी होती।

वैसे शुरू में यहां बहुत कम ट्रैफिक था। ट्रकों का तो आज से आठ-दस वर्ष पहले तक प्रश्न ही नहीं उठता था। कारें और स्कूटर भी कभी-कभी ही निकलते थे। हां, बैलगाड़ियां जरूर थीं उन दिनों। परंतु, जब से गंगा का नया पुल बना है, तब से सारी काया पलट गई है। सड़क की नए सिरे से मरम्मत हुई है और चौबीस घंटे उस पर ट्रैफिक चलने लगा है। अब यह सड़क गंगा के पुल को जी. टी. रोड से जोड़ती है और इस मायने में एक महत्त्वपूर्ण मार्ग बन गई है। यही कारण है कि शहर ने अपने पंजे अब यहां तक फैला लिए हैं और धीरे-धीरे सारे गांव को अपने आधिपत्य में ले लिया है। अब यहां खेत, तालाब और खलिहानों की जगह ऊंची-ऊंची इमारतें बन गईं हैं। स्कूल और पार्क बन गए हैं। एक अस्पताल भी बन गया है, तथा दो-एक सरकारी दफ्तर भी खुल गए हैं। पुराने जमींदार और किसान अपनी-अपनी जमीनें बेच कर जाने कहां चल गए हैं। बल्कि पुजारी जी भी पिछले दो-तीन महीनों से अब कहां हैं? अब तो केवल वह, उसकी यह गुमटी और फौलाद की ये पटरियां। इंजन और डिब्बे। माल और डाक गाड़ियां। दूर से ही आवाज सुन कर वह बता सकता है कि डाकगाड़ी है, पैसिंजर या माल। खलीक के इंजन की तो वह सीटी तक पहचानता है। खलीक की ही बदौलत उसे जूट और कोयला मिल जाता है। उसे इशारा करने भर की देर होती है। बस। दस-बीस किलो कोयला पटरी पर गिरा देना खलीक के लिए कौन बड़ी बात है! और जूट तो वह उसके कहे बिना ही फेंक जाता है।

आज से अट्ठारह-बीस बरस पहले जब वह यहां पहली बार आया था तो आसपास लगभग जंगल था। रात में नरकुलों में सियार बोलते थे। कभी-कभी भेड़िए भी नजर आ जाते थे। पास के गांव से बदलू सुनार की बकरी उठा कर भेड़िए ने उसकी गुमटी के पीछे ही खाई थी। रात के सन्नाटे में वह हड्डियों के चटखने की आवाज सुनता रहा था। सुबह वहां आधी खाई हुई बकरी मिली थी, जिसे दुखी चमार उठा ले गया था और घर में कलिया बनाया था। बदलू तो भगत थे। गले में कंठी पहनते थे।

बदलू के घर पर ही उसने पहली बार चांद को देखा था। चांद यानी फजलू मनिहार की लड़की। गांव में तो वह पहले ही चक्कर लगाया करता था और पंचमसिंह के कोल्हू से गन्ने की फसल के दिनों के ढेरों रस पी आता था। गुड़ भी ले आता था वहां से। मगर जिस दिन बदलू की बकरी को भेड़िया उठा लाया था और सुबह आधी खाई हुई बकरी की लाश पर बदलू उसके सामने अपना सिर धुनता रहा था, उस दिन से उसका बदलू के यहां आना-जाना भी होने लगा था। अक्सर फुर्सत में वह बदलू के पास बैठकर उसे चांदी और सोने को गला कर जेवरों के आकार में ढालते देखा करता। उन दिनों गाड़ियां भी इतनी नहीं थीं। मालगाड़ियां तो नहीं के बराबर थीं। डाक भी कम ही थीं। इसीलिए दिन में उसे रोज ही दो-चार घंटे का समय घूमने-फिरने के लिए मिल जाता था।

तभी एक दिन जब वह बदलू के यहां बैठा था, तो चांद वहां आई थी। लहंगा और सलूका पहने। अल्हड़ और जवान। यह तो उसे बाद में पता चला कि वह विधवा है और एक बच्चे की मां है। उस समय तो उसे लगा था कि अभी उसकी शादी भी नहीं हुई। चांद बदलू के यहां अपने लच्छे गिरवी रखने आई थी। डेढ़ किलो के बीस लच्छे बदलू ने बीस रुपये में गिरवी रखे थे। चांद के चले जाने के बाद उसने बदलू से चांदी का भाव पूछा था, तो बदलू ने बताया था, डेढ़-दो सौ से कम नहीं होगा। पता नहीं क्यों, उसी दिन से उसके मन के किसी कोने में बदलू के प्रति घृणा पनप गई थी।

इसी के कुछ दिनों बाद उसने चांद को रेल की पटरी के पास कोयला बीनते देखा था और चांद उसे देखते ही बिना हुआ कोयला वहीं छोड़ कर भागने लगी थी। उसने चांद को आवाज देकर रोक लिया था और उसे कोयला ले जाने की अनुमति दे दी थी। बल्कि उसे गुमटी पर लाकर उसने अपने पास से भी कुछ कोयला दे दिया था। इस घटना के बाद से ही वह चांद के यहां आने-जाने लगा था। चांद, यानी फजलू के यहां। फजलू को वह ‘काका’ कहा करता था। वह दुबले शरीर के ढलती उम्र के आदमी थे। उनके छोटी, खिचड़ी दाढ़ी थी और प्राय: चारखाने की तहमद और पूरी आस्तीन की बंडी पहनते थे। अपने बाहर के बरामदे में फूस के छप्पर के नीचे बैठे अंगीठी में कोयला सुलगाए वह लाख की चूड़ियां बनाया करते। कभी गांव के दो-एक लड़के आ जाते तो उनके लिए गोलियां या फिर लड़कियों के लिए गुट्टे भी बना देते।

अब तो खैर उसे ठीक से याद नहीं कि यह सब कैसे हुआ था परंतु, धीरे-धीरे वह चांद के निकट आता चला गया था। फजलू भी उसे अपने बेटे की तरह मानने लगे थे। बदलू के यहां बीस रुपए में गिरवी रखे चांद के लच्छे भी वह छुड़वा लाया था। चांद फजलू की अकेली लड़की थी। फजलू चाहते थे कि चांद दोबारा ब्याह कर ले। कभी-कभी वह उससे भी कहते कि वह चांद को इस बारे में समझाए। वह हंस कर टाल देता। चांद भी कभी-कभी उसके यहां आ जाती और घंटों वहीं बनी रहती। उसकी गुमटी के पीछे लगी साग-सब्जी में पानी देती रहती। उसकी अंगीठी सुलगा देती। उसे खाना बनाने में मदद कर देती। वह उसके बच्चे को गोद में लिए खिलाता रहता।

अक्सर सांझ ढले देर तक चांद उसके यहां रह जाती और वह उसे उसके घर तक छोड़ने जाता। परंतु गांव वालों को यह अच्छा नहीं लगा और उन्होंने इस पर आपत्ति करना शुरू कर दिया। पहले तो उन लोगों ने फजलू से कहा कि अपनी बेटी को रोके और जब फजलू इसमें कामयाब नहीं हुए या जान-बूझ कर उन्होंने इसके लिए कोई प्रयत्न नहीं किया, तो बात यहां तक बढ़ी कि एक दिन पंचायत जुड़ी इस बात पर। वैसे चांद उसके साथ हमेशा-हमेशा रहने के लिए तैयार थी, और उसे भी उन दिनों यही लगता था कि उसकी जिंदगी भी चांद के बिना अधूरी है। परंतु चांद से ब्याह करने की बात उन दिनों उसके मन में कभी आई ही नहीं। शायद इसलिए कि उनके बीच धर्म की दीवार जो थी। जो भी हो, मामला पंचायत में पहुंचा और पंचों ने फैसला दिया कि यह गांव की इज्जत का सवाल है। फजलू इस बारे में अंतिम निर्णय लें और यदि वह कुछ नहीं करते तो गांव छोड़कर चले जाएं।

आखिर फजलू ने निर्णय लिया और चांद की मर्जी के खिलाफ उसका ब्याह हबीब बिसाती से कर दिया, जिसकी उम्र पचास के आस-पास थी, और हबीब ने चांद को ले जाकर अपने घर में बंद कर दिया। बाकायदा ताला-कुंजी में।

उसे यह सब अच्छा नहीं लगा था। परंतु कहीं कुछ गलत हो रहा है, यह बात भी उसके मन में नहीं आई थी। तभी एक रात चांद ने आकर उसका दरवाजा खटखटाया। बच्चे को गोद में लिए हुए दरवाजा खुलते ही उसने कहा कि वह उसे लेकर कहीं चला जाए। उसके बिना वह जिंदगी जीना नहीं चाहती। और तब पहली बार उसे लगा कि कहीं कुछ बहुत गलत हो गया है। हालांकि कोई निर्णय वह फिर भी नहीं ले सका। रात भर चांद उसकी बाहों में सिसकती रही, बच्चा अलग चारपाई पर सोता रहा और उसका मन अनेक दुविधाओं के बीच भटकता रहा।

आखिर जब सुबह उसने दरवाजा खोला तो हबीब, फजलू के साथ, उसकी गुमटी के सामने खड़ा था। अगर चांद तुरंत हबीब के पैरों पर न गिर पड़ती और फजलू बीच में न आ जाते, तो वह दिन शायद उसकी जिंदगी का आखिरी दिन होता।

इसी के तीसरे या शायद चौथे दिन सुबह साढ़े पांच वाली डाक, जो उन दिनों शायद छह बजे निकलती थी, अचानक ब्रेक लगा कर रुक गई। गार्ड और कुछ मुसाफिर भी अपने डिब्बों से उतर आए। वह भी दौड़ा-दौड़ा गया तो देखा, पटरी पर चांद की लाश पड़ी थी। खून से लथपथ।

साढ़े पांच वाली डाक निकल गई तो उसने जाकर फाटक खोल दिया और लौटकर अपनी गुमटी के पीछे बनी सब्जी की क्यारियों में पानी देने लगा। आम के पेड़ पर कोयल कूकने लगी थी। यह पेड़ उसकी गुमटी के पास कूड़े के ढेर पर अपने आप उग आया था। बाद में उसने उसकी देखभाल करके उसे इतना बड़ा किया था। पहली बार उसमें फल आया तो हरी-हरी, छोटी-छोटी अमियां डालों से लटकने लगीं। उसका सारा दिन अमियों की रखवाली में निकल जाता। जरा-सा वह इधर-उधर हुआ नहीं कि आस-पास के लड़के आकर ढेलेबाजी करने लगते।

क्यारियों में पानी देकर वह फिर अपनी गुमटी में लौट आया और चारपाई बाहर निकाल कर उस पर बैठ कर बीड़ी पीने लगा। पश्चिम की तरफ सिग्नल की बत्ती बुझ गई थी। सूर्य निकल आया था और उसके उजाले में रेल की पटरियां दूर-दूर तक चमकने लगी थीं। बया अपने घोसलों से निकलकर अपने बच्चों को दाना चुगाने लगी थीं।

पूर्व की ओर बना नया पुल भी सूर्य के प्रकाश में चमक रहा था। यह पुल पिछले दो-तीन वर्षों में बनकर तैयार हुआ था। सैकड़ों मजदूर इस काम में लगे थे। परंतु, आज जब यह पुल बनकर तैयार हो गया था, वे मजदूर कहीं नहीं थे। शायद अब कहीं और किसी दूसरे पुल की तामीर में लगे होंगे, उसने सोचा।

इस पुल के बन जाने का अर्थ था कि अब उसकी गुमटी बंद कर दी जाएंगी। सड़क को पुल से जोड़ दिया गया था। और वह अब थोड़ी-सी घूम कर ऊपर से निकल जाएगी। अब ट्रैफिक को उसके फाटक पर रुकने की असुविधा नहीं उठानी होगी। पिछले कई महीनों में वह एक प्रकार से अपने दिन गिन रहा था। उसने सुना था कि मंत्री जी इस पुल का उद्घाटन करने आने वाले हैं। तभी उसने देखा, पानी छिड़कने वाला इंजन पुल के ऊपर बनी सड़क पर पानी का छिड़काव कर रहा था। अभी तक इस पुल के दोनों ओर सड़क पर कोलतार के ड्रम रख कर पुल का रास्ता बंद कर दिया गया था। पानी छिड़कने वाले इंजन के पुल पर आने के मायने थे, कम से कम एक ओर के ड्रम हटा दिए गए होंगे।

अंगीठी बुझने लगी थी। उसने उस में नए सिरे से कोयला डाला और दो-चार हाथ पंखे की हवा देकर पतीली में दाल डाल कर चढ़ा दी। दाल चढ़ाकर वह पीछे की ओर लगे हैंडपाइप पर नहाने चला गया। नहा कर उसने अपनी धोती निचोड़ी और उसे वहीं सब्जी की क्यारियों के पास घास पर ही फैला कर गुमटी में लौट आया। दाल में एक उबाल आ चुका था। वह दूसरे उबाल की प्रतीक्षा करने लगा। दूसरा उबाल आने पर उसने दाल उतार दी और चावल चढ़ा दिए। पीछे सब्जी की क्यारी से लौकी तोड़ कर, उसे काट कर एक बरतन में रखा और आटा निकाल कर तसले में गूंथने लगा।

खाना पका कर उसने गुमटी में लाकर ढक दिया और मंदिर की ओर निकल गया। काफी देर तक अब कोई गाड़ी आने वाली नहीं थी। आज वैसे ही उसका मन हो आया, अन्यथा दिन में उसने मंदिर जाना लगभग छोड़ दिया था। मंदिर में शंकर जी की मूर्ति पर किसी ने दो-चार कनेर के फूल चढ़ा दिए थे। हो सकता है, कोई भक्त इधर निकल आया हो, या फिर बच्चों ने ही यह हरकत की हो। कहीं पुजारी जी तो नहीं लौट आए? परंतु नहीं, वह आए होते तो उनका हाथी भी होता।

थोड़ी देर वह मंदिर के अहाते में इधर-उधर टहलता रहा, तब वहां से लौटकर साढ़े ग्यारह वाली पैसेंजर के निकलने की प्रतीक्षा करने लगा। पौने दस की डाक, वह खाना बना रहा था, तभी जा चुकी थी। साढ़े ग्यारह की गाड़ी निकलने के बाद उसने खाना खाया और आम के पेड़ के नीचे चारपाई डालकर आराम करने लगा। गर्मियों में प्रायः उसकी यही दिनचर्या रहती थी। खाना खाने के बाद कम-से-कम दो घंटे सोना। वैसे हवा में काफी गर्मी थी, परंतु पेड़ के नीचे अब भी कुछ गनीमत थी।

कोई तीन बजे वह सोकर उठा तो आसमान में हल्के-हल्के बादल जमा होने लगे थे। हो सकता है आज बारिश हो, उसने आसमान की ओर देखकर मन-ही-मन अनुमान लगाया। कल आंधी आई थी। परंतु आज आंधी के कोई आसार नहीं थे। केवल हल्के स्लेटी रंग के बादलों के टुकड़े आसमान में तैर रहे थे। एक टुकड़ा बिल्कुल पुजारी जी के हाथी की तरह लग रहा था। उसे मन-ही-मन हंसी आई। क्या पुजारी जी ने अब अपना धंधा इस लोक से उस लोक तक बढ़ा लिया है?

उसने चारपाई वहीं पेड़ के नीचे पड़ी रहने दी और गुमटी में आकर चाय बनाने के लिए दोबारा अंगीठी सुलगाने लगा। तभी उसने देखा, नए पुल पर एक ट्रैफिक कांस्टेबल खड़ा था। कुछ और लोग पुल को रंग-बिरंगी झंडियों से सजा रहे थे। इसके मायने आज ही उद्घाटन होगा, उसने सोचा। उसके उत्तर वाले फाटक पर भी एक ट्रैफिक कांस्टेबल तैनात था, यानी आज से उसका दाना-पानी यहां से खत्म! कल से अब जाने कहां ड्यूटी लगे।

साढ़े तीन पर फिर पैसेंजर थी। उसके निकल जाने के बाद वह वैसे ही इधर-उधर टहलने लगा। एक बार पुल तक भी हो आया। वहां पता चला कि पांच बजे मंत्री जी आने वाले थे-पुल का उद्घाटन करने। साढ़े पांच पर एक डाक गुजरती थी। शायद अब उसे इस डाक के आने पर फाटक बंद करने की जरूरत न पड़े। खैर, फाटक तो उसे बंद करना ही पड़ेगा। परंतु अब इसकी कोई अहमियत नहीं रह गई थी! दो-एक दिन में उसकी नई पोस्टिंग का ऑर्डर आ जाएगा, और तब रेलवे के मजदूर आएंगे और उसकी गुमटी के खिड़की, दरवाजे, टेलीफोन, कीबोर्ड-सब उखाड़ ले जाएंगे। अंग्रेजी के बड़े-बड़े अक्षरों में उसकी दीवाल पर एबंडंड लिख दिया जाएगा। तब कौन जानेगा कि उसने जिंदगी के अट्ठारह-बीस वर्ष इस गुमटी में गुजारे हैं! इस आम के पेड़ और सब्जी की क्यारियों का क्या होगा? खैर, उसे क्या करना! उसका तो बस इतने ही दिनों का नाता था।

अचानक उसे चांद की याद हो आई। आज चांद होती तो वह उसे ले कर कहीं भी चला जाता। शायद उनके दो-तीन बच्चे भी होते। चार-पांच हजार फंड तो उसका हो ही गया होगा। नौकरी छोड़कर कोई दुकान कर लेता। मगर यह सब उसके भाग्य में नहीं था। उसकी किस्मत में तो बस ये रेल की पटरियां हैं। न ये पटरियां सही, दूसरी पटरियां सही। कभी-कभी तो उसे स्वप्न में भी ये पटरियां दिखाई देती हैं, धरती के एक सिरे से दूसरे सिरे तक बिछी हुई, एक-दूसरे को काटती, एक-दूसरे के समानांतर या फिर ऐसे ही कोई अकेली पटरी किसी अजनबी दिशा की ओर क्षितिज तक जाती हुई।

वह गुमटी में वापस आया तो उसका मन कुछ अजीब उचटा हुआ-सा था। एक निगाह उसने गुमटी में फैले हुए अपने सामान पर डाली। मिट्टी के तेल की कुप्पी, छोटे-मोटे डिब्बे और कनस्तर, एक कोने में लगा हुआ कोयले का ढेर, उसी के पास दफ्ती के एक डिब्बे में जूट का छोटा-सा अंबार, बांस की चारपाई पर लिपटा हुआ मुख्तसर-सा बिस्तर, उसी के नीचे पड़ा टीन का पुराना संदूक, खूंटी पर टंगा हुआ खाकी गर्म ओवरकोट, जिसे वह जाड़े के दिनों में पहनता है। इस वर्ष शायद नया मिले, उसने सोचा। दो-एक अन्य खूंटियों पर कुछ और गंदे कपड़े। बस, यही गृहस्थी थी उसकी। हां, एक ताक पर जगन्नाथ जी के धुआं खाए हुए पट रखे थे, जिन्हें वह बरसों पहले कभी पुरी गया था, तब वहां से लाया था। उसी की बगल में गुटका रामायण और बियर की एक टूटी हुई बोतल रखी थी। जिसे आज से चार-पांच वर्ष पहले, जब वह सड़क का फाटक बंद करके अपनी गुमटी के सामने खड़ा गाड़ी निकलने की प्रतीक्षा कर रहा था, फर्स्ट क्लास के किसी मुसाफिर ने अपने डब्बे से फेंका था, और वह उसके सिर में आकर लगी थी। हफ्तों उसे पट्टी बांधनी पड़ी थी। टांके लगे थे, जिनका निशान आज तक उसके माथे पर है। एक और ताक पर किस्सा तोता-मैना और आल्हा की किताब, दो-एक पुरानी फिल्मों के गानों की किताबें, जो उसने बरसों पहले कभी खरीदी थीं।

एक बार उसके मन में आया कि वह सारा सामान समेटने का प्रबंध करे। परंतु फिर वह टाल गया और पेड़ के नीचे से चारपाई उठाकर अपनी गुमटी के सामने डालकर उस पर बैठ कर बीड़ी पीने लगा। आसमान में बादल अभी भी टुकड़े-टुकड़े ही थे, परंतु हवा में गर्मी काफी कम हो गई थी।

पुल पर चहल-पहल बढ़ गई थी। दक्षिण वाले सिरे पर सड़क के आर-पार लाल फीता बांध दिया गया था। लोग वहां जमा होने लगे थे। लाउडस्पीकर भी लग गया था, जिस पर कोई ‘हलो, एक, दो, तीन...टेस्टिंग, टेस्टिंग,’ चिल्ला रहा था। कुछ मोटरें भी रेल के फाटक से निकल कर पुल के उस ओर जमा होने लगी थीं। पांच बजने वाले होंगे, उसने मंदिर के कलश पर पड़ती हुई धूप की लाइन से अंदाज लगाया। यानी मंत्री जी अब आने ही वाले होंगे। सामने टेलीफोन के तार पर उल्लू बैठा था।

सड़क पर ट्रैफिक बढ़ने लगा था। दफ्तरों के छूटने का वक्त था यह और प्रायः इस समय तथा सुबह नौ और दस के बीच ट्रैफिक का जोर कुछ ज्यादा ही होता था। बल्कि, पिछले दो-चार वर्षों से हो गया था। शुरू में तो ट्रैफिक के नाम पर उसके लिए बस यही गाड़ियां थीं, डाक और पैसेंजर, या फिर कभी कोई भूली-भटकी मालगाड़ी आ जाती थी।

सहसा उसे टेलीफोन की घंटी सुनाई दी, तो वह लपक कर गुमटी में गया। साढ़े पांच वाली पैसेंजर की सूचना थी। उसने बोर्ड से कुंजी उतारी और धीमे कदमों से फाटक बंद करने चला गया। उत्तर वाले फाटक पर ताला लगा रहा था तभी उसने देखा, कोई दस गज की दूरी पर मंत्री जी की कार आ रही थी। वहां फाटक पर खड़े ट्रैफिक पुलिस वाले ने उससे हड़बड़ी में कुछ कहा भी था, परंतु वह दक्षिण वाला फाटक पहले ही बंद कर चुका था। गाड़ी किसी भी क्षण आ सकती थी। वह चुपचाप फाटक बंद करके अपनी गुमटी में लौट आया।

मंत्री जी की कार और उसके साथ आया हुआ सारा काफिला उत्तर वाले फाटक पर ही रुक गया। पुल पर जमा भीड़ में मंत्री जी की कार आते ही हलचल-सी मच गई। लोग पुल से नीचे झांकने लगे। उनमें से कुछ के हाथों में फूलमालाएं थीं। लाउडस्पीकर पर लोगों से व्यवस्थित रहने के लिए अपील की जा रही थी। घोषणा हो रही थी कि मंत्री जी आ गए हैं। उनकी गाड़ी रेल के फाटक पर खड़ी है। लोग अपने-अपने स्थानों पर रहें। खबरदार कोई लाल फीते के पार न जाए! फिर भी कुछ लोग फीते के पार नजर आ रहे थे। हो सकता है, वे प्रबंध करने वालों में से हों।

उसे लगा, गाड़ी आने में कुछ अनावश्यक देर हो रही है। फाटक के दोनों ओर ट्रैफिक की लाइनें लंबी होती जा रही थीं। पुल पर जमा भीड़ में कुछ बेचैनी भी नजर आने लगी थी। मंत्री जी के साथ आए हुए पुलिस-अधिकारी आदि अपनी-अपनी गाड़ियों से उतर कर फाटक के पास खड़े हो गए और पटरी के दोनों ओर झांकने लगे। तभी उसके मन में एक बात आई। अच्छा, अगर वह गाड़ी निकल जाने के बाद भी फाटक न खोले तो? मान लो, थोड़ी देर के लिए वह चाबी लेकर कहीं चला जाए? अचानक उसके दिल के हलके में भयानक दर्द उठा और उसके दोनों हाथ अपने आप सीने पर पहुंच गए।

लड़खड़ाता हुआ-सा वह अपनी चारपाई पर बैठ गया। साथ ही डीजल इंजन की घहराती हुई आवाज उसके कान में पड़ी और एक क्षण में लोहे की पटरियों पर फौलाद के पहिए फिसलने लगे। उल्लू टेलीफोन के तार से उड़कर उसकी गुमटी के ऊपर से गुजर गया।

उसने चाहा कि वह उठकर खड़ा हो जाए। परंतु उसे लगा जैसे उसके शरीर की सारी शक्ति निचुड़ गई हो और वह चुपचाप अपनी चारपाई पर लुढ़क गया। गाड़ी के डिब्बे उसकी आंखों के सामने से गुजर रहे थे, परंतु उनका आकार उसकी दृष्टि में धुंधला-सा पड़ने लगा था। जैसे कोई वस्तु कैमरे के फोकस से हट जाए।

गाड़ी गुजरे बीस-पचीस सेकंड हो गए, परंतु वह अपनी चारपाई पर चुपचाप लेटा रहा। फाटक के दोनों ओर खासा ट्रैफिक पहले से ही जमा हो चुका था। लोग उतावले होने लगे। कुछ लोगों ने उसे आवाजें भी दीं। परंतु वह अपनी जगह से हिला तक नहीं। तभी दोनों ओर से कुछ लोग फाटक के बीच से या उसके बगल में पैदल चलने वाले लोगों के लिए बने रास्ते से निकल कर उसकी गुमटी की ओर बढ़ने लगे। उसमें मंत्री जी के साथ आए पुलिस-अधिकारी भी थे। परंतु वह सब से बेखबर अपनी चारपाई पर शांत लेटा हुआ था। उसके निकट पहुंचते-पहुंचते लोग खासे जोर से चिल्लाने लगे। जब वे उसके बिल्कुल निकट आ गए तो उसने एक बार आंखें खोल कर उनकी ओर देखा। दोनों हाथों से चारपाई की पट्टियां पकड़ कर उठने का प्रयत्न किया। परंतु दूसरे ही क्षण उसके दोनों हाथ चारपाई के नीचे हवा में झूल गए।

लोग अपने-अपने स्थान पर रुक गए। केवल दो-एक पुलिस अधिकारियों ने आगे बढ़कर उसे हिलाया। परंतु दूसरे क्षण वे भी वापस लौट पड़े और मंत्री जी की गाड़ी के पास आकर उसमें बैठे लोगों से बात करने लगे। और लोग भी अपनी गाड़ियों से उतर कर वहां आ गए।

सामने पुल पर जमा भीड़ में भी खलबली मचने लगी। लोग फीते को पार करते हुए या फिर ऊपर से ही सड़क के किनारे लगे मिट्टी के ढेर पर से उतरते हुए फाटक के पास जमा होने लगे। कुछ लोग फाटक फलांगते हुए उसकी चारपाई के निकट आ गए।

फाटक के दोनों ओर ट्रैफिक की लाइनें लंबी होती जा रही थीं। कुछ लोग अपनी गाड़ियों को मोड़ने और हॉर्न बजाने लगे। नतीजा यह निकला कि दोनों ओर का ट्रैफिक जाम होने लगा। दो-एक पुलिस अधिकारी आगे बढ़ कर ट्रैफिक कंट्रोल करने का प्रयत्न करने लगे। परंतु वे स्थिति संभाल सकने में सफल नहीं हो पा रहे थे।

तब तक दोनों ओर की ट्रैफिक लाइनों में से पीछे वाले लोगों ने अपनी गाड़ियों को मोड़ना शुरू कर दिया। उनमें से कुछ नए पुल पर निकल आए। एक-दो का उधर बढ़ना था कि दोनों ओर से पुल पर होकर निकल जाने के लिए होड़-सी लग गई। परंतु पुल पर खड़े ट्रैफिक पुलिस वाले ने उन्हें वापस भेजना शुरू कर दिया और इस सारी हड़बड़ी में पुल पर भी ट्रैफिक जाम हो गया।

मंत्री जी के स्वागत को आई भीड़ भी तितर-बितर होने लगी। उनमें से कुछ फाटक की ओर बढ़ आए। जो ऐसा करने में सफल नहीं हो पाए, वे पुल पर से ही नीचे की ओर झांकने लगे। सारा इलाका ट्रैफिक और मनुष्यों का मिला-जुला समुद्र-सा हो गया। जिसमें दोनों फाटकों के बीच वाला हिस्सा एक बीरान टापू की तरह लग रहा था, जिसके एक किनारे उसकी गुमटी बनी थी, सामने उसकी चारपाई पड़ी थी, जिस पर वह लेटा था। उसकी आंखें बंद थीं और दोनों हाथ चारपाई के दोनों ओर हवा में झूल रहे थे। दो-चार लोग आस-पास खड़े उसे देख रहे थे।

तभी अचानक जोर की बारिश आ गई और वहां जमा लोगों में भगदड़-सी मच गई। परंतु वह उसी प्रकार अपनी चारपाई पर पड़ा हुआ था, निश्चल और निर्विकार।