तीसरे पहर का चाँद / अपूर्व भूयाँ
चांदनी में मायावी हो उठे अरण्य के पीछे दक्षिण दिशा में स्थित पहाड़ की ओर से शीतल हवा का एक झोंका बह रहा है। करीब ही कल-कल स्वर करती बह रही है पहाड़ी नदी। नदी के किनारे-किनारे उग आए कुशा घास की झाड़ हवा में नाच-डोल रहे हैं। जिस अरण्य ने कभी सपने और संग्राम का इतिहास रचा था, नीलिम उस अरण्य को छोड़कर भाग आया है। भूखे पेट, थका-हारा शरीर अरण्य की तंग गली-कूची से घिसटते-घिसटाते वह उस अरण्य से दूर आ गया है। पांच दिनों से अन्न का एक दाना बिना उस इलाके से अंधेरे में भागते जब वह नदी के किनारे पहुँचा, तब गोली-बारूद के शब्द अरण्य को भेद रहे थे। उसके कई साथी मृत्यु की गोद में सो गए थे। कई दक्षिण दिशा में पहाड़ की ओर के घने अरण्य में चले गए थे। कइयों को जख्मी होकर सरकारी बंदी बनना पड़ा। नीलिम ने जैसे स्वयं के आगे पराजय वरण कर लिया है।
विगत बीस वर्षों से वह बगैर किसी समझौता के जिस संग्राम का झंडा बुलंद किए हुए था-उसे उसके ही कई साथियों के स्वार्थ, समझौता, गतिविधियों ने निष्प्रभ कर दिया है। मंज़िल पर पहुँचने से पहले ही जैसे वे घने कोहरे में लुप्त हो गए हैं। पराजय की ग्लानि वह सहन नहीं कर सकता। वह मुक्ति चाहता है-कोहरे से ढंके एक अरण्य से। भूखे, लाचार शरीर को नदी के निर्मल जल से शांत कर झाड़ियों के पार एक खुली जगह पर आसमान की ओर टकटकी लगाए कितने पल बीत चुके थे, उसे पता ही नहीं चला। पास ही एक पेड़ पर एक उल्लू कुक-कुक कर रहा था। जैसे कहीं कोई मृत्यु संगीत बज रहा हो। अतीत के दिन जैसे नीलिम की आंखों में लुका-छिपी कर रहे थे।
धूलभरी सड़क से मैनेजर साहब की जीप गाड़ी जा रही होती है। चाय की कच्ची पत्तियों का गंध उसकी नाक में पड़ा। वाह! कितना अच्छा लगा था उसे वह गंध। दूसरे बाबुओं के क्वार्टर से थोड़ी दूर और चाय के पौधों की कतारों के बीच था उसका छोटा क्वार्टर। बागान के बीच धूल भरे रास्ते से राजू, दीपक, मंगलू, सन्नू आदि के साथ वह बागान के प्राथमिक स्कूल जाया करता। उसके बाद एक दिन उसे साइकिल से पांच मील दूर हाईस्कूल जाना पड़ा। इसी तरह एक दिन ऊपरी असम के एक औद्योगिक नगर में कॉलेज में दाखिला लिया। संभवत: तभी से उसके दिमाग़ में कोई एक कीड़ा कुलबुलाने लगा था। नगर के मेस में रहते उसके ऊपरी क्लास के दो लड़कों के पास आने वाले एक विशेष व्यक्ति के सान्निध्य ने उसे साहसी बना दिया। दो मज़बूत बांहों का आलिंगन जैसे उसे उसके सपनों के राज्य में ले उड़ा। उसके बागान से सटे झरने के तट पर बैर तोड़ते, मंगलू की बस्ती में जाकर गिल्ली-डंडा खेलते, मंगलू की बहन गुल्टी के उसे देखकर लजाकर हंसते, मंगलू की बस्ती में समय गंवाने के कारण बाग़ान की बड़ा बाबू पिता कि छड़ी की मार पीठ पर सहते, सरस्वती पूजा के दिन मैनेजर साहब के बंगले तक स्कूल मास्टर के साथ प्रोसेशन कर जाके मैनेजर के घुटने टेक प्रणाम करते, साहब के दिए बख्शीश लेके बच्चों के साथ धमा-चौकड़ी करते हुए मास्टर के सबको चॉकलेट खिलाने का एलान सुनके ...उसके मन में कुछ अलग भाव डांवा-डोल करने लगे थे क्या?
डिग्री की परीक्षा पास करने के पश्चात कई दिनों तक नीलिम घर पर ही रहा। तब असम में बांग्लादेश से आया हुआ विदेशीओं का बहिष्कार आंदोलन चरम पर था। सरकार के जबरन चुनाव कराने की चेष्टा के विरुद्ध आंदोलन के नेताओं ने प्रबल जनविरोध खड़ा कर दिया था। सरकार का दमन भी तेज हो चला था। नीलिम के लिए ख़बर आई। एक छोटी चिट्ठी पहचान के एक छोटे बच्चे के हाथों नीलिम को भिजवाई थी, विप्लव का पाठ पढ़ाने वाले उस विशेष व्यक्ति ने। लिखा था-यह उचित समय है, मकसद पाने के लिए इस असवर को हाथों हाथ लेना होगा। चिट्ठी में एक तरह से उन्होंने नीलिम को निर्धारित स्थान पर मिलने का निर्देश ही दिया था। नीलिम के पास विशेष चिंतन-मंथन का समय नहीं था। वह जैसे किसी सम्मोहन के वशीभूत हो गया था। एक स्वाधीन राष्ट्र, एक स्वाधीन व्यक्ति के सपने ने जैसे उसे व्याकुल कर डाला। वह इस नदी के किनारे आया था। इसी नदी तट पर किसी पेड़ की छाया में दूसरे दस-बारह लड़कों के साथ एक नए पथ पर उसका यात्राभिषेक हुआ था। उन्होंने लोगों के बीच रहते गुप्त रूप से अपनी योजना को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया। मां, भाई-बहन आदि से दूर कहीं भूमिगत रहना पड़ेगा, उसने इसकी कल्पना भी नहीं की थी। परंतु बागान के मैनेजर के इकलौते पुत्र के अपहरण के पश्चात, बागान का वेतन लूटकांड के पश्चात, पुलिस मुखबिरी के संदेह में उसके मास्टर के छोटे भाई की गोली मारकर हत्या करने के पश्चात, इन घटनाओं में नीलिम के लिप्त होने के संदेह के पश्चात-उसे भूमिगत होना पड़ा। उसे खोजने आती पुलिस उसके मां-बाप, भाई-बहन को परेशान करने लगी। परेशानी से बचने, मान-सम्मान बचाने के लिए उसके पिता ने उसे त्याज्य पुत्र घोषित कर दिया। परंतु उसकी माँ उसका विरह सहन नहीं कर सकी। उसके लापता होने के छह महीने बाद अचानक उसकी माँ इस संसार से चल बसी। माँ के दाह-श्राद्ध होने के बीस दिन बाद उसे यह ख़बर मिल पाई। बाप ने भले ही त्याग दिया हो, पर माँ की समाधि पर आकर दो बूंद अश्रु बहाए बिना कैसे रह सकता था। वह आया। पिता ने उसकी ओर सिर उठाकर भी नहीं देखा। बड़े भाई ने क्षोभ भरे लहजे में कहा, " तेरे कारण ही सब ख़त्म हो गया। माँ भी चली गई। अब भी समय है। तुम लौट आओ मेरे भाई। तुम सरेंडर कर दो वरना पागल कुत्ते की तरह पुलिस की गोली खाकर मारे जाओगे। '
" सरेंडर! ...अब वह रास्ता बंद हो चुका है। कोई भी बहाना हमें हमारे रास्ते से विचलित नहीं कर सकता। ' दृढ़ता से यह उद्घोष करते नीलिम उन अपनों के बीच से दूर चला आया। वह जानता था-थोड़ा तेज दिमाग़ का लड़का होने के नाते उसके पिता ने उससे बड़ी उम्मीदें पाल रखी थीं। भाई-बहनों को आगे ले जाने का दायित्व उसे उठाना था। मगर उसने चरम त्याग करने का संकल्प लिया। परंतु जिसके लिए उन्होंने ऐसे त्याग किया, क्या वे भरोसे पर खरे उतर पाए? किसी एक अनिश्चित बिंदु पर जैसे आ लटके-त्रिशंकु की तरह।
नीलिम को एक बार अपने घर जाने की बड़ी ललक हुई। रिटायर्ड होने के बाद उसके पिता का छोटे शहर के नज़दीक बनाया छोटा घर, घर के पास ही दो बीघा ज़मीन पर लगाया गया चाय का बागान और भाई-बहनों को देखने की तीव्र उत्कंठा हुई। बड़ा भाई घर के पास ही किराना कि एक दुकान चला रहे हैं। उसने शादी भी कर ली है। एक बेटा भी है। दो वर्ष पहले बहन की भी शादी पास ही के हाईस्कूल के एक शिक्षक से हो गई। छोटा भाई कॉलेज की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाया। वह छोटी-मोटी ठेकेदारी में लग गया है। कितने दिन हो गए उसे उन सब से मिले हुए। बिस्तर पर जा पड़े पिता के माथे को छूकर देखने की उसकी बड़ी इच्छा हुई। जैसे वह जाते ही पिता के पांव छूकर कहेगा, " देखिए पिताजी, मैं आ गया, देखिए। मैं अपने सपनों की दुनिया में आप लोगों को नहीं ले जा पाया। मुझे क्षमा करें...क्षमा करें। '
और वह मासूम रोहित। अपनी तीन वर्षीय संतान रोहित के निष्पाप मुखमंडल, उसके दयनीय अवस्था के समक्ष क्या उसे चिरकाल के लिए अपराधी बने रहना नहीं पड़ेगा? विपल्व के धुएँ और राख के बीच त्रिशंकु की तरह लटके उसके पिता कि यादें उसे बेचैन नहीं करेगी? क्या वह उसके प्रति कोई अनुकंपा अपने हृदय में अनुभव कर पाएगा? वास्तविकता के घात-प्रतिघात मासूम उम्र में ही उसे कट्टर नहीं बना डालेंगे? और बिजली? उसका नाम शेवाली था। छोटे कद की, ताम्र वर्ण की आम लड़की। एकदम बेफिक्र स्वभाव की लड़की थी शेवाली। इसलिए संगठन में भर्ती होने पर नाम मिला था-बिजली। कई दुस्साहसिक अभियानों में वह नीलिम की सहयोगी रह चुकी थी। एक बार नीलिम को मलेरिया से ग्रस्त होकर कैंप में कई दिनों तक रहना पड़ा। तब बिजली ने उसकी बड़ी देखभाल की थी। धीरे-धीरे जैसे वह नीलिम के करीब आने लगी थी और एक दिन उसने साफ-साफ कह डाला, " नीलिम हम अपने सम्बंध को स्वीकृति क्यों नहीं दे देते? साथ ही तो आगे जाना है। ' इसी तरह बिजली एक दिन उसकी संतान रोहित की माँ बन गई। अंतिम बार जब वह उसे छोड़कर जाने को हुआ, तब उसकी आंखों से जो शंका-दुर्भावना दिखे, क्या वे उसका चिर साथी बने रहेंगे? उनकी संतान रोहित के लिए उसे स्वयं को बचकर चलना होगा। सरकारी वाहिनी के अरण्य में कैंपों को घेर रखने से तीन दिन पहले ही संकट का आभास मिलते कैंप की लगभग सभी महिला कैडर, विशेषकर संतानों वाली कैडर पास के गांवों में पलायन कर गई थीं। वहीं से उनके सुरक्षित स्थान की तलाश में चले जाने की बात थी। माँ के कंधे पर सवार उसके पास से दूर होते रोहित के क्रंदन-बेचैनी ने नीलिम को जर्जर कर दिया।
कुछ घंटे पहले ही नीलिम की गोद में सिर रख अंतिम सांस छोड़ चुकी शिखा का चेहरा उसकी आंखों में कौंध पड़ा। शिखा एक बाईस वर्षीय युवती। संगठन में शामिल हुए डेढ़ वर्ष हुए थे। उसके पांव में गोली लगी थी। गोली लगे पांव में कपड़े बाँध कर नीलिम के सहारे घिसटाती आ रही थी। दर्द से छटपटाती बोल पड़ी थी, " हम क्यों भाग रहे हैं नीलिम भैया। हमारे सपने क्या इसी तरह ख़त्म हो जाएंगे...? '
" हाँ, ...किसी मझधार-किसी एक घने कोहरे के घेरे में हम समा चुके हैं। इस पार-उस पार अनदेखी एक विशाल नदी में जैसे हम डूब रहे हैं। हमारा ठिकाना जैसे खो गया है शिखा। परंतु तुम लोगों के हाथों में समय है। जीवन को नए सिरे से गढ़ने के लिए समय की धार से सबक लो। ' ...नीलिम बोल पड़ा था।
" मैं जाऊंगी नीलिम भैया, मैं चली जाऊंगी। एक नया जीवन...आह...'-शिखा कि आवाज़ धीरे-धीरे अस्पष्ट होने लगी थी। गोली लगे पांव से धारासर खून बह चुका था। अचानक उसकी देह असामान्य ढंग से कांप उठी और फिर एकदम शांत। लगा जैसे उसकी पथराई आंखें खुले आसमान को एकटक निहार रही हों।
नीलिम भी हताश-निराश हो आया है। आंखों में निर्मेघ विस्तृण आकाश। सुबह होने में अभी भी कई पहर बाक़ी हैं। आसमान में तीसरे पहर का चांद। चांदनी में मायावी हो गया है नज़दीक का अरण्य। नदी की चंचल लहरें चांदनी में अठखेलियाँ कर रही हैं। नीलिम को लगा जैसे अरण्य के किनारे-किनारे कुछ अस्पष्ट छाया मूर्तियाँ चल रही हैं। हो सकता है कुछ समय बाद वे उस पर भूखे बाघ की तरह टूट पड़ें। दाढ़ी-मूंछ से भरे अपने चेहरे को नीलिम ने हाथों से पोंछा। उसकी सूखी आंखों से लोर टपकने लगी हैं। भींगी पलकों से वह देख रहा है-अकाश के झिलमिल तारों के बीच रोहित का चेहरा। उन्हें घेर रखे घने कोहरे को भेद रोहित तारों के बीच दौड़ रहा है। नीलिम ने कमर में बंधी छोटी पिस्तौल निकाल ली है और ललाट से नल लगाते तर्जनी अंगुली से ट्रिगर दबा दी है। आह, क्षणभर पश्चात ही वह भी जैसे रोहित के पीछे-पीछे तारों के बीच दौड़ता जाएगा।