तीस रुपये/ छाया वर्मा

Gadya Kosh से
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“सुनो, सो गये क्या?”

“नहीं, क्या बात है?”

“एक बात कहूँ?”

“कहो।”

“नाराज़ तो नहीं होगे?”

“नहीं, कहो तो।“

“सोच रही हूँ, दीपू की स्कूल-बस छुड़वा दूँ।”

“फिर जायेगा कैसे?”

“पैदल चला जायेगा। कोई बहुत दूर तो नहीं।”

“इतना पास भी तो नहीं…और फिर, इतना भारी बैग…?”

“बैग मैं ले लिया करूंगी।”

“तुम जाओगी छोड़ने?”

“हाँ, तो क्या हुआ; तब तक बेबी के पास तुम रहोगे ही।”

“ठीक है, लेकिन क्यों?”

“सोचती हूँ, महीने में तीस रुपये बच जायेंगे।”

“उन पैसों का क्या करोगी?”

“दूध बढ़ा दूंगी। बेबी के पीने के बाद बेचारे दीपू के लिए एक कप भी नहीं बचता।”

“........”

“चुप क्यों हो गये, कुछ ग़लत कहा मैंने?”

“नहीं, बस तो छुड़वानी ही पड़ेगी।”

“और अगले महीने से दूध बढ़ा देंगे।”

“दूध पीना शायद दीपू के नसीब में नहीं।”

“क्यों?”--वह झटके से उठ बैठी।

“अगले महीने से मकान मालिक ने किराया बढ़ा दिया है।”

“बढ़ा दिया? कितना?”

“तीस रुपये!”