तुमने दिया राष्ट्र को जीवन:शशि पाधा / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध 1965 वर्ष। हम गाँव में अमोलक राम के यहाँ एकत्र हो जाते। उनके बड़े रेडियो सैट पर चिरंजीत का लिखा रेडियो झूठिस्तान सुनते। एक दिन रामधारी सिंह दिनकर की कुछ पंक्तियाँ सुनी जो आज भी याद हैं-

तुमने दिया राष्ट्र को जीवन, देश तुम्हें क्या देगा?

अपनी आग तेज़ रखने को नाम तुम्हारा लेगा॥

आज के माहौल को देखें, तो लगता है वह आग तेज़ नहीं हो रही, बल्कि मद्धिम होती जा रही है। जिसके घर से कोई बेटा, भाई, किसी का पति देश के लिए न्योछावर न हुआ हो, जिसका सिन्दूर न पुँछा हो, वह उस त्याग को क्या जानेगा। गमी-सर्दी, भूख-प्यास, विपरीत विषम मौसम, भयावह परिस्थितियाँ, जिनसे लोहा लेकर हमारे जवान सीमाओं पर डटे रहते हैं और बुद्धिजीवियों का एक सुविधाभोगी दिवालिया वर्ग चैन की नींद सोता है। वह बेफ़िक्र है कि भले ही कोई देश के टुकड़े-टुकड़े कर दे, उसका कुछ बिगड़ने वाला नहीं। दूसरी ओर वह आम आदमी है, जिसका तन–मन देश के लिए समर्पित है। वह कभी बहस में नहीं होता; क्योंकि उसकी मेहनत पर पलने वाला और वातानुकूलित भवनों में बैठकर अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात करने वाला न उसकी भावना समझता है, न उसका सम्मान करता है। देश के लिए शहीद होने वालों की अपेक्षा वह खण्डित करने वाली शक्तियों के हाथ का खिलौना बना नज़र आता है। प्रतिगामी शक्तियों के टुकड़ों पर पलने वाला यह वर्ग किसी भी प्रकार की सत्ता से बाहर होने पर करैत बन जाता है। शशि पाधा का यह संग्रह शौर्य-गाथा उस त्याग और बलिदान का जीवन्त दस्तावेज़ है, जिसको पढ़ना हर स्वतन्त्रचेता और देश के प्रति निष्ठा रखने वाले नागरिक को और जागरूक करेगा। बलिदान की जो आग ठण्डी पड़ चुकी है, उसको प्रज्वलित करेगा। देश एक माटी का टुकड़ा नहीं, बल्कि उस माँ का कलेजा है, जिसने झंझाओं को झेलकर सन्तान को पाला है। उसकी कोई भी सन्तान उसे कम प्रिय नहीं। आज़ादी प्राप्त करने में उतने बलिदान नहीं करने पड़ते, जितने उसकी रक्षा के लिए करने होते हैं।

शशि पाधा जी के ये संस्मरण हिन्दी चेतना के अलावा अन्य पत्रिकाओं में पढ़ने को मिले। शशि जी ने ये संस्मरण केवल लिखे नहीं, बल्कि जिए भी हैं। पात्रों से सिर्फ़ सैनिक अधिकारी की पत्नी का ही नहीं, वरन् वात्सल्यपूर्ण माँ का ममतामय सम्बन्ध भी रहा है। सेना में कार्य करना केवल नौकरी नहीं, वरन् त्याग और बलिदान का वह जज़्बा है, जिसकी शक्ति से अभिभूत जवान मर मिटने के आनन्द को महसूस करता है। 'भारत माता की जय' का उद्घोष शिराओं में नवरक्त का संचार करता है। तिरंगे को फहराना देश के ललाट को और ऊँचा करता है। किसी का भी त्याग, अन्य से कम नहीं। प्राणों की चिन्ता न करके राष्ट्र के लिए बलिदान की भावना सर्वोपरि है, जो किसी भी योद्धा के साहस को द्विगुणित कर देती है। शौर्य गाथा 17 अध्याय में बँटा है। इस संग्रह में त्याग–बलिदान, देश-प्रेम एवं अदम्य साहस की वे गाथाएँ हैं, जिन पर कोई भी राष्ट्र गर्व कर सकता है। 'सन्त सिपाही' कैप्टन अरुण जसरोटिया सेनाध्यक्ष की सुरक्षा में तैनात किया जाना था। वह आराम से वहाँ रह सकता था, लेकिन उसने जो मार्ग चुना, वह था चुनौती का मार्ग; चरम पंथियों से जूझने का मार्ग, जिसमें मृत्यु से कभी भी दो-दो हाथ करने पड़ सकते हैं। उसने चुनौती वाला रास्ता ही चुना। सेनाध्यक्ष के कार्यालय को उसका निवेदन भेज दिया गया। अरुण की कमांडो टीम ने प्राकृतिक सौन्दर्य से सज्जित 'लोलाब घाटी' को आतंकवादियों से बचाने के अभियान में शामिल होना था। सेना की 9 पैरा स्पेशल फोर्सिस को इस अभियान का जिम्मा दिया गया। इस अभियान में आतंकवादियों का तो खात्मा कर दिया, पर अभियान का नायक गम्भीर रूप से घायल हुआ। गहर घावों के कारण कैप्टन अरुण जसरोटिया को नहीं बचाया जा सका।

'साझा रिश्ता का' लांस नायक रमेश खजुरिया (शौर्य चक्र) स्पेशल फोर्सिस की एक इकाई के कमान अधिकारी श्री पाधा जी की सिक्योरिटी गार्ड की टीम में नियुक्त हुआ था। दिन भर वह कार्यालय में रहता और घर आते समय भी वह सुरक्षा हेतु घर तक आता। इसी कारण परिवार में सभी से रमेश खजूरिया की आत्मीयता हो गई. आतंकवादियों का प्रकोप निरन्तर बढ़ता जा रहा था। वे शहर के किसी भी क्षेत्र में हमला कर सकते थे। उनके ठिकानों को अविलम्ब नष्ट करने का निश्चय किया गया। लांस नायक रमेश खजुरिया भी आग्रह करके उस अभियान में सम्मिलित हो गया। अभियान में आतंकवादियों के ठिकाने नष्ट कर दिए गए, पर बाद में पता चला कि एक सैनिक वापस नहीं आया। रमेश अपने खोए हुए साथी को तलाशने के लिए एक साथी के साथ चल दिया। साथी बेहोश हालत में मिला। उसे उठाने का उपक्रम करते ही छुपे हुए आतंकवादियों ने गोलीबारी शुरू कर दी। कड़ा मुकाबला करते हुए रमेश खुद भी घायल हो गया, लेकिन फिर भी घायल साथी को बचा लाया। काफी रक्तस्वाव के कारण रमेश को बचाया न जा सका। शशि जी रमेश के बलिदान के बाद उसके परिवार से मिलीं। रमेश की माँ का दु; ख केवल महसूस किया जा सकता था।

परम्परा (नायक हवा सिंह, कीर्ति चक्र) का संस्मरण अद्भुत है। युद्ध में चाहे कोई शहीद हुआ हो, चाहे घायल, दोनों ही स्थितियाँ विकट होती हैं। शान्ति के वातावरण में रहने वाला व्यक्ति इस भीषणता को नहीं समझ सकता है। आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ में गम्भीर रूप घायल नायक हवा सिंह कराटे में 'ब्लैक बेल्ट' प्राप्त कर चुके थे और साथ ही सैनिकों को 'निरस्त्र युद्ध' (Unarmed Combat) का प्रशिक्षण भी देते थे। कई चरमपंथियों को उसने ठिकाने लगा दिया था। किसी क्रूर आतंकवादी ने गोलियों से उसकी दोनों आँखों को दो घायल गड्ढों में तब्दील कर दिया था। टाँगों पर प्लास्टर बँधा था। निकट ही उसकी नवविवाहिता पत्नी बैठी थी। उसने हर हालत में हवा सिंह का साथ देने का संकल्प दोहराया। जिसकी आँखें चली गईं हों, उसका दारुण दु; ख शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। उसे भारत सरकार की ओर से उसे 'कीर्ति चक्र' से विभूषित किया गया।

एक और अभिमन्यु (कैप्टन सुशील खजुरिया, कीर्ति चक्र) ने भी देश के लिए बलिदान दिया। सुशील की माँ ने लेखिका को बताया के उसके पति तीन बेटे और अब बेटी भी भारतीय सेना में हैं।

वह उन उनकी रक्षा के लिए नियमित गायत्री–पाठ करती हैं। सबसे छोते बेटे सुशील ने भी फ़ौज़ की ही नौकरी पसन्द की। यह धुन उसे बचपन से ही थी। रिटायर्ड नायब सूबेदार पिता सोम नाथ जी के अनुसार वह बचपन से ही ज़िद्दी था, बस अपनी बात ज़रूर मनवाता था। सुशील के कमांडिंग अफसर का कहना था-'ऐसा बेटा अगर हर घर में हो तो हिन्दोस्तान का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।'

सभी खेलों में उसकी रुचि थी, साथ ही ज़रूरतमन्द की हर तरह से सबकी सहायता करना उसके संस्कार का प्रमुख हिस्सा था। वह छुट्टी पर घर आया था, उसे जब पता चला कि उसकी टीम कुपवाड़ा के जंगलों में छिपे आतंकवादियों के ठिकानों को नष्ट करने के लिए जा रही है, तो वह अगले ही दिन हवाई-हवाई टिकट लेकर अपनी ड्यूटी पर जा पहुँचा। वह पहले भी दो अभियानों में भाग ले चुका था। इस अभियान में पाँच आतंकवादी मारे गए. गुफ़ा में छुपे आतंकवादी को मारने के अभियान में कनपटी पर गोली लगने से घायल होने पर भी शहीद साथी को कैम्प तक ले आए थे। किन्तु गोली के आघात से शहीद हो गए. कुछ महीने बाद उसकी शादी होने वाली थी। इस तरह के अभिमन्यु ही इतिहास बनाते हैं।

सुशील के बलिदान के बाद ' बायो टैकनोलजी में एम एस-सी कर रही बहन दीपिका ने यह पढ़ाई छोड़कर एयर फोर्स ज्वाइन कर ली है अफ़सोस इस बात का है सरकार के किसी प्रतिनिधि ने सहानुभूति के दो शब्द तक नहीं बोले। सवाल उठता है कि इन वीरों का बलिदान किसके लिए और क्यों?

शाश्वत गाथा के मेजर सुधीर वालिया (अशोक चक्र, सेना मेडल *) की मोटर साइकल सड़क पर किसी राहगीर को बचाते समय दुर्घटनाग्रस्त हुई. आग-आग लगने से वे बुरी तरह झुलस गए हैं। बर्न वार्ड में लेखिका उनसे मिलने पहुँची, तो पीड़ा में भी उनका धैर्य अनुकरणीय था। उन्होंने पल्टन को सूचना देने के लिए कहा, लेकिन अपने परिवार वालों को यह सूचना नहीं दी कि वे व्यर्थ में चिन्ता करेंगे।

उन्होंने पल्टन को सूचना देने के लिए कहा, लेकिन अपने परिवार वालों को यह सूचना नहीं दी कि वे व्यर्थ में चिन्ता करेंगे।

कारगिल युद्ध के समय सुधीर तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल वी.पी. मल्लिक के सुरक्षा अधिकारी के रूप में तैनात थे। वे टीम से दूर इस आरामदायक पोस्टिंग से अधिक खुश नहीं थे। उन्होंने जनरल मल्लिक से युद्ध क्षेत्र में जाने की अनुमति माँगी। पाकिस्तानी सेना के साथ भयंकर युद्ध हुआ, जिसमें शत्रु के 13 जवान मरे। मेजर सुधीर का नाम 'वीर चक्र' के पदक के लिए चयनित किया गया था। अभी घाटी के घने जंगलों में छिपे आतंकवादियों तलाश करके नष्ट करना था। घायल होने पर भी वे अपनी टीम को निर्देश देते रहे। अन्त में 29 अगस्त की सुबह भारत माँ को अलविदा कह गए. उन्हें अशोक चक्र से सम्मानित किया गया। सुधीर के पिता रिटायर्ड सूबेदार रुलिया राम ने एक सात्कार में कहा-"मैंने तो केवल उसे अंगुली पकड़ कर चलना सिखाया था, पहाड़ियाँ चढ़ना तो वह स्वयं ही सीख गया।" अमेरिका में भी प्रशिक्षण के समय सुधीर वालिया ने 80 देशों से सैनिक अधिकारियों में-में प्रथम स्थान प्राप्त किया था। ऐसे कितने लोग होंगे जो आराम की जगह छोड़कर तलवार की धार पर चलने का मार्ग चुनते हों। यह जज़्बा ही देश प्रेम है। एक रीतिकालीन कवि के शब्दों में कहूँ तो-'प्रेम को पन्थ कराल महा, तलवार की धार पै धावनौ है।'

शहीदों की विधवाओं को घर–परिवार में बहुत प्रतिरोध और अकेलापन झेलना पड़ता है। परिवार वाले साथ नहीं देते, सिर्फ़ सम्पत्ति पर कब्जा करना चाहते हैं। कुछ महिलाएँ कम शिक्षा और सामाजिक उपेक्षा के कारण अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो पाती। प्रथा–कुप्रथा में शशि जी ने सैनिक परिवारों में आने वाली समस्याओं की ओर भी ध्यान दिलाया है। सैनिक परिवारों से शशि पाधा जी का जुड़ाव केवल समस्याओं को ही प्रस्तुत नहीं करता, वरन् उनके निवारण में भी वे सदा सक्रिय रही हैं। 'चादर ओढ़ाना' के नाम पर विधवा द्वारा अनिच्छा से पति के किसी भाई को पति रूप में स्वीकार करना पारिवारिक सम्पत्ति को बँटवारे से बचाने की प्रक्रिया भर है। बाद में इनको दुर्व्यवहार का शिकार होना पड़ता है। बहादुर सूबेदार महादेव सिंह के शौर्यमय बलिदान के बाद लेखिका द्वारा उसके परिवार को स्वावलम्बी बनाने में सहयोग किया।

आतंकवादियों से लोहा लेने में शहीद हुए हवलदार मदन की विधवा कृष्णा का धैर्य सिद्ध करता है कि सीमा पर जितना युद्ध लड़ा जाता है, उससे भीषण युद्ध उनके घर–परिवार वालों को ताउम्र लड़ना पड़ता है। कृष्णा का सामूहिक परिवार, दूर गाँव में छोटा-सा घर, जिसमें ढंग से रहना भी मुश्किल। बच्चों का पालन-पोषण, सामान्य शिक्षा हो जाए तो यही बहुत बड़ी बात है। उसने अपने मोर्चे पर युद्ध जीत लिया था और चार वर्ष में ही खुद को सँभाल लिया था। राजनीति के हथकण्डे अपनाने वाले क्या कभी इनका दु; ख–दर्द बाँटने इनके घर–परिवार में जाकर मिलने की ज़हमत कभी नहीं उठाते। 'अपना-अपना युद्ध' को पढ़कर जाना जा सकता है कि ताउम्र युद्ध लड़ना कितना भीषण है।

'शायद कभी' बहुत मार्मिक संस्मरण है। शशि पाधा जी का कवि हृदय इस संस्मरण में पूर्णतया निमग्न हो जाता है। कमांडो यूनिट के साथ काम करने आए कैप्टन मलिक की नई-नई शादी हुई थी। पत्नी अपने माता पिता के पास रह कर विश्वविद्यालय में पढ़ रही थी। पलटन में जल्दी लौटना था, सो अधिक समय तक उनके साथ रहना नहीं हो सका था। कैप्टन मलिक की पत्नी का उनसे मिलने के लिए आग्रह–भरा पत्र आया था। कैम्प में मिलना सम्भव नहीं था। लेखिका के घर 4 दिसम्बर को आ सकती थीं। भाग्य में लिखा कुछ और ही था। 3 दिसम्बर, 1971 को लड़ाई शुरू हो गई. भीषण युद्ध के कारण किसी का भी घर से बाहर निकलना सम्भव नहीं था। वे भी नहीं आ सकी। कैप्टन मलिक अपनी नवोढा पत्नी से नहीं मिल सके. वे चार दिसम्बर को ही शहीद हो गए. भाग्य की कैसी विडम्बना है! शान्तिपूर्वक जीवन बिताने वाले लोग इस बलिदान को और अपने पति से न मिल पाने की इस मर्मान्तक पीड़ा को कभी नहीं समझ सकेंगे।

'विदाई' में कैप्टेन हरपाल और नवेली दुल्हन प्रभा की बलिदान और त्याग की अमरगाथा है।

श्रीलंका में युद्ध में श्री पाधा जी की यूनिट के कैप्टन सतीश और कैप्टन हरपाल शहीद हो गए हैं। उनके अस्थि कलश के साथ लेखिका शशि जी भी गई. संस्मरण का मार्मिक प्रसंग देखिए-गाड़ी में बैठते ही मैंने और दीपा ने उन दोनों कलशों को अपनी गोद में रख लिया। गाडी चल रही थी और हम सब चुप चाप इन दोनों कलशों को गोद में लेकर ऐसे सावधानी से बैठे रहे कि इन बच्चों को कोई धक्का, कोई चोट न लगे। दूसरा प्रसंग-उसने बड़े प्यार से उस कलश को छुआ और उस पर लगे लाल कपड़े को धीरे-धीरे खोलने लगी। साथ में वह अस्फुट स्वरों में कुछ बातें कर रही थी, मानो हरपाल से कुछ कह रही हो। प्रभा ने कलश के भीतर हाथ डाला और बहुत देर तक अस्थियों को सहलाती रही। उसने अपनी अंगुली से अपनी शादी की अँगूठी खोली और कलश के अंदर डाल दी। पंडित जी ने एक कपड़े में बँधा हुआ हरपाल का सोने का कड़ा और उसकी अँगूठी प्रभा को दी। अपने सुहाग के प्रतीक चिह्नों को बड़े धैर्य से लेकर उसने उन्हें अपने वक्षस्थल से लगा लिया।

पंडित जी ने संकेत दिया कि अब विदा का समय है। मैं प्रभा के पास गई और उसके काँधे पर हाथ रख कर मैंने कहा "हरपाल को विदा करो प्रभा।"

प्रभा ने कलश के अंदर से कुछ रज मुट्ठी में भरी और अपने गुलाबी आँचल के छोर में बाँध ली। कुछ कदम पीछे हटकर वह फिर से कलश के गले लग गई मानो हरपाल के गले लग रही हो। किसी ने उसे उठाया। वह अंतिम प्रणाम करके शून्य की ओर ताकती हुई बोली, "अब यह आत्मा परमात्मा एक हो गए हैं। अब मैं उसे कैसे ढूँढूँगी? कहाँ जाऊँगी? कितना लंबा होगा वह रास्ता?"

और उसकी रुलाई फूट पड़ी। एक बार जाने से पहले फिर से उसने कलश को छुआ और मंदिर की दीवारों को भेदती हुई हृदयविदारक चीख के साथ उसने कहा, 'पालीईईईईइ, तुसी कित्थे ओ,। थोआनु जैदा चोट ते नइं आई न?' (पाली। आप कहाँ हो, आप को ज़्यादा चोट तो नहीं आई)

यह शशि पाधा की संवेदनशीलता ही है कि जब वह संस्मरण लिखती हैं, उनकी पात्रों से आत्मीयता पाठकों को अनायास ही जोड़ लेती है। इस तरह के संस्मरण आज की पीढ़ी के पाठ्यक्रम का हिस्सा होने चाहिए.

तोलालोंग के रणघोष मेजर अजय जसरोटिया के बलिदान की शौर्गाथा है। भारतीय सेना और सुरक्षाबल जहाँ हर समय सन्नद्ध रहते हैं, वहाँ आतंकवादी भी भारत की शान्ति और खुशहाली के लिए निरन्तर कुकृत्य करते रहते हैं, जिसका तुरन्त रोकना बहुत ज़रूरी है। बहुत से ऐसे परिवार हैं, जिनके सदस्य पीढ़ियों से भारत की सुरक्षा के लिए प्राणों की आहुति देते रहे हैं। मेजर अजय उन्हीं में से एक हैं। पॉइंट 5140 अर्थात् तुर्तुक को अपने कब्जे में लेने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ा। इन पहाड़ियों से गुज़रती हुई सेना आतंकवादियों का निशाना बनती थी। पहाड़ी पर चढ़ाई करते समय मेजर अजय की टीम पाकिस्तानी सेना के निशाने पर थी। छुपे हुए पाकिस्तानी सैनिकों की गोली का निशाना बने।


'बलिदान' –मोती की बहादुरी की अद्भुत संस्मरण, जो यह सिद्ध करता है कि कुत्ता अपनी वफ़ादारी नहीं छोड़ सकता। बहुत से सैनिकों का जीवन बचाकर यह का मोती ने कर दिखाया।

इस संग्रह में सब एक से बढ़कर एक संस्मरण हैं-अशोक चक्र प्राप्त मेज़र मोहित शर्मा, मेजर विवेक बँडराल का त्याग अनुकरणीय है। अन्तिम संस्मरण 'एक नदी–एक पुल' में युद्ध को लेकर जो स्वाभाविक प्रश्न हैं, उनका जवाब यही हो सकता है कि हम अपने क्षुद्रस्वार्थों के कारण जनहित को उपेक्षित कर दिया जाता है। लम्बे समय तक युद्ध या आतंकवाद नहीं चलाया ज सकता है। अगर किसी देश को शान्तिपूर्वक रहना है तो, उसकी सीमाएँ सुरक्षित रहनी ही चाहिए. सीमाएँ सुरक्षित रखनी हैं, तो देश का आन्तरिक अनुशासन बहुत ज़रूरी है। अराजकता का पोषण करके आज़ादी केवल ख़तरे में डाली जा सकती है। अभी जागने का समय है, अराजक और राष्ट्रविरोधी शक्तियों को कुचलने का समय है। हमे अराजकता और आज़ादी के बीच विभाजक रेखा तय करनी होगी। हमारे सैनिक सीमा पर बलिदान देते रहें और राष्ट्रविरोधी करैत देश के भीतर पलते रहें, गुलछर्रे उड़ाते रहें, यह जनहित में कदापि नहीं।

मैं आशा करता हूँ कि शशि पाधा जी की यह पुस्तक हमारी युवा पीढ़ी की गीता बनेगी।


10 अप्रैल, सोनीपत (हरियाणा)