तुम्हारा राम / रश्मि
हर बार की तरह इस बार भी पाठशाला के पीछे वाले पार्क में रामलीला की तैय्यारी चल रही थी। टेंट गाड़े जा रहे थे। दरी-कुर्सी लग रहीं थीं। दूर पेड़ के पास बैठी रीना ये सारी तैय्यारियाँ देख रही थी और उसके पास बैठा राजन उसकी आँखों में अपने लिए कुछ खोज रहा था।
“तुम रामलीला में रावण क्यों बनते हो। मुझे अच्छा नहीं लगता। कमेटी वालों से कहो न वे तुम्हें राम या लक्ष्मण का रोल दें।” रीमा ने राजन की ओर देखकर कहा।
“क्या फ़र्क पड़ता है। रावण ही सही, तुम तो मुझे देखती हो न।” उसने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा।
“उस पुलिस वाले के लड़के रतन को राम बना रखा है। कितनी गन्दी हैं उसकी आँखें। मुझे तो उसे देखकर घिन आती है।”
“अरे जाने दो न रीना, ये रामलीला है।”
आज रामलीला मैं सीता हरण का दृश्य है। रावण के भेस में राजन स्टेज पर आया तो उसकी निगाहें दर्शकों की भीड़ में भी रीना को ही खोज रहीं थीं। “रोज़ तो आगे ही बैठती है, आज क्यों नही आई। शायद मुझे इस सीन को करते देखना न चाहती होगी।” वह मन ही मन बुदबुदाया।
रात के तीन बज रहे हैं, उसी पेड़ के पीछे रीना दर्द से सिसक रही है। कली स्याह रात है। बस सामने वाला स्टेज थोड़ा-थोड़ा जगमगा रहा है। लोग जा चुके हैं। घुप्प सन्नाटा। बीच-बीच में रीना की सिसकियाँ उभर उठती हैं। राजन की गोद में उसका सर है। रीना को खोजने की बेचैनी में वह अपनी ड्रेस भी नही बदल पाया।
“वह कौन था रीना जिसने तुम्हारा यह हाल किया?”
“तुम्हारा राम।” रीना ने कराहते हुए कहा। “अब तो मैं तुम्हारे लिए अपवित्र हो गयी राजन। तुम्हारे राम ने ही......” कहत-कहते वह रो पड़ी।
राजन चीख कर बोला- “नहीं, वह राम नहीं था। तुम्हारा राम तो मैं हूँ और तुम मेरी सीता। फिर कभी खुद को अपवित्र मत कहना।” और रीना के आंसुओं से तर चेहरे पर राजन ने अपना चेहरा रख दिया।