तुम्हारे लिए / हिमांशु जोशी
पुनश्च चौदहवें संस्करण पर किशोर वय के सुकोमल सपने ! किशोर वय की सुमधुर स्मृतियाँ, कहीं जीवन के समांतर, जीवन के साथ-साथ चलती हैं। वे दिन, वह शहर, वह कस्बा या गाँव भी कहीं तब रोम-रोम में समा आते हैं। इलाहाबाद के प्रति कई साहित्यकार मित्रों का ऐसा ही गहरा सम्मोहन मैंने निकट से देखा है, एक तरह के जुनून की हद तक।
लगता है, मेरे साथ भी कुछ-कुछ ऐसा ही घटित हुआ था। नैनीताल एक पराया अजनबी शहर, कब मेरे लिए अपना शहर बन गया, कब मेरे सपनों का शहर, याद नहीं। हाँ, याद आ रहा है- शायद वह वर्ष था 1948 ! महीना जुलाई ! तारीख पाँच, यानी अब से ठीक 54 साल पहले ! हल्द्वानी से रोडवेज की बस से, दोपहर ढले ‘लेक-ब्रिज’ पर उतरा तो सामने एक नया संसार दिखलाई दिया। धीमी-धीमी बारिश की फुहारें !
काले काले बादल, फटे रेशमी कंबल की तरह आसमान में बिखरे हुए, ‘चीना-पीक’ और ‘टिफिन टाप’ की चोटियों से हौले-हौले नीचे उतर रहे थे, झील की तरफ। उन धुँधलाए पैवंदों से अकस्मात् कभी छिपा हुआ पीला सूरज झाँकता तो सुनहरा ठंडा प्रकाश आँखों के आगे कौंधने सा लगता। धूप, बारिश और बादलों की यह आँखमिचौली-एक नए जादुई संसार की सृष्टि कर रही थी। दो दिन बाद आरंभिक परीक्षा के पश्चात् कॉलेज में दाखिला मिल गया तो लगा कि एक बहुत बड़ी मंजिल तय कर ली है...! साठ-सत्तर मील दूर, अपने नन्हे-से पर्वतीय गाँवनुमा कस्बे से आया था, बड़ी उम्मीदों से। इसी पर मेरे भविष्य का दारोमदार टिका था। मैं पढ़ना चाहता था, कुछ करना। अनेक सुनहरे सपने मैंने यों ही सँजो लिए थे, पर सामने चुनौतियों के पहाड़ थे, अंतहीन। अनगिनत। उन्हें लाँघ पाना आसान तो नहीं था !
तब एक दूसरा ही नैनीताल था। एक दूसरा ही नजारा। अंग्रेजों को इस छोटी विलायत’ से गए अभी एक साल भी बीता नहीं था। अभी तक भी अच्छे-अच्छे सभी बँगलों के वे ही स्वामी थे। अंग्रेजी स्कूलों में अधिकांशतः उन्हीं के बच्चे थे। नैनीताल अपने सहज स्वाभाविक रूप में तब कितना सुंदर था। जल से लबालब भरी ठंडी हरी झील ! गहरे हरे पहाड़। झील पर झुक-झुककर, अपना प्रतिबिंब देखते ! झील में आकंठ डूबे ! रात को जगमगाती धुली रोशनी में नैनीताल परी-लोक जैसा अद्भुत लगता। इसी स्वप्न-संसार में बीते थे मेरे जीवन के पाँच साल। पाँच वसंत पतझड़ तब आता भी होगा तो कभी दिखा नहीं। ‘गुरखा लाइंस’ का छात्रावास, ‘क्रेगलैंड’ की चढ़ाई, चील-चक्कर, लड़ियाकाँटा, तल्लीताल, मल्लीताल, पाइंस, माल रोड, ठंडी सड़क, क्रास्थवेट हॉस्पिटल-ये सब कहीं उसी रंगीन-रंगहीन मानसिक मानचित्र के अभिन्न अंग बन गए थे।
वर्षों बाद जब मैं ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में धारावाहिक प्रकाशन के लिए तुम्हारे लिए लिख रहा था, तो यह सारा का सारा शहर, इसमें दबी सारी सोई स्मृतियाँ जागकर फिर से सहसा साकार हो उठी थीं।
‘तुम्हारे लिए’ लिखे भी अब लगभग ढाई दशक हो चुके होंगे। पत्रिका में प्रकाशित होने के बाद पुस्तक-रूप में इसके कई संस्करण हुए। हाँ, दूरदर्शन के लिए जब धारावाहिक बन रहा था, तब मुहूर्त के लिए निर्माता अवश्य पकड़कर ले गए थे। तब एक बार फिर नैनीताल को जीने का अवसर मिला।
अब तक अनेक रूपों में, रंगों में पाठकों ने इस उपन्यास को देखा, पढ़ा, परखा। अधिकांश की प्रायः यही जिज्ञासा रही कि क्या यह कहानी सच है ? क्या यह उपन्यास मैंने अपने पर ही लिखा है ? कई पाठक ऐसे भी रहे, जिन्होंने इसे अपनी ही जीवन-कहानी समझ लिया। एक नवोदित लेखक स्वर्गीय कुमार गौतम एक बार मिलने आए। बोले, ‘इस उपन्यास को पढ़कर मैं इतना सम्मोहित हुआ कि नैनीताल जाने से अपने को रोक नहीं पाया। पता नहीं कैसे ग्वालियर से नैनीताल जा पहुँचा। वहाँ उन सारे स्थानों को मैं पागल की तरह खोज खोजकर देखने लगा, जिनका वर्णन इस उपन्यास में किया गया है। आपको सच नहीं लगेगा, मैं इसकी प्रतियाँ वर्षों से खरीद-खरीदकर बाँटता रहा हूँ...।’
इंदौर से एक महिला डॉक्टर ने लिखा कि यह तो मेरी ही अपनी कहानी है। अनुमेहा की तरह मैंने भी मामा के घर रहकर पढ़ा। मुझे भी पढ़ाने...। ऐसे सैकड़ों पत्र ! सैकड़ों प्रतिक्रियाएँ। आज भी अनेक पत्र यदा-कदा मिलते हैं। इसमें इसी तरह के प्रश्न होते हैं। अधिकांश इसे आत्मकथा का ही एक अंश मानते हैं। कितनी बार कह चुका हूँ कि यह तो कहानी है। परंतु फिर विचार आता है कि क्या कहानी, मात्र कहानी होती है, सच नहीं ? कल्पना और यथार्थ के ताने-बाने से ही तो सही साहित्य की सरंचना होती है। ऐसे पाठकों की संख्या कम नहीं रही, जिन्होंने इसे दो-चार बार नहीं, अनेक बार पढ़ा। दिनांक 15 अक्टूबर, 1999 का एक विस्तृत पत्र मेरे सामने रखे कागजों में पड़ा है, जिसमें नागपुर से मराठीभाषी श्री विजय कुमार सपात्ती ने लिखा है :
‘मैं पेशे से इंजीनियर हूँ। एक अमेरिकन कंपनी का मध्य भारत में एरिया मैनेजर। साहित्य और संगीत के प्रति विशेष लगाव है। कविताएँ भी कभी-कभी लिख लेता हूँ। ‘यह पत्र मुझे आज से दस वर्ष पूर्व लिखना चाहिए था, परंतु विदेश-प्रवास, प्रशिक्षण आदि अनेक कामों में उलझे रहने के कारण संभव न हो पाया। आज मैंने ‘तुम्हारे लिए’ को दो सौ पचासवीं बार पढ़ा। सच कह रहा हूँ, मेरी आँखें भीग आई हैं। अब तक हर बार ऐसा ही होता रहा है। मैं अपने आप में विराग को क्यों देखता हूँ ? अनुमेहा को, अपनी न मिली प्रेमिका के रूप में ? मैं आपसे कुछ प्रश्न पूछना चाहता हूँ। इसी आशय से यह पत्र भेज रहा हूँ। मुझे आपसे इनके शीघ्र उत्तर की अपेक्षा है...’ ऐसा क्या है इस उपन्यास में ? मेरे लिए यह सदैव एक रहस्य रहा है। पर ऐसे पत्र कभी-कभी बहुत कुछ सोचने के लिए विवश भी करते हैं। सब अतीत बनकर खो गया है आज !
पर आज भी कभी नैनीताल जाता हूँ तो उन भीड़-भरी सड़कों पर मेरी आँखें अनायास कुछ खोजने सी क्यों लगती हैं ? रात के अकेले में, उन वीरान सड़कों पर भटकना अच्छा क्यों लगता है ? साहित्य की सच्ची सार्थकता इसमें है कि साहित्य, मात्र साहित्य नहीं, कहीं जिया हुआ यथार्थ भी लगे। इस दृष्टि से अभी बहुत कुछ अधूरा है। उस अधूरे के सामने भी अनेक प्रश्नचिन्ह हैं। क्या इसके लिए पूरा एक जन्म भी कम नहीं ?
7/सी-2, हिंदुस्तान टाइम्स अपार्टमेंट्स, मयूर विहार, फेज-एक, दिल्ली-110091 -हिमांशु जोशी तुम्हारे लिए अभी तक भी सच नहीं लग रहा है। लगता है, यह एक सपना था। सपना भी तो कभी-कभी सच का अहसास दे जाता है न ! अपनी जेब से हलके नीले रंग का अधफटा टिकट निकालकर देखता हूं। हवाई-अड्डे का ही है। बायीं ओर का हिस्सा तिरछा फटा है। सबसे ऊपर अंग्रेज़ी और नीचे हिन्दी में लिखा है-‘पालम विमानपत्तन’। फिर कैसे मान लूं अनुमेहा, कि जो कुछ अभी-अभी घटित हुआ, वह सत्य नहीं था ?
सुबह छह बजे जब भागा-भागा पहुंचा, तब तुम्हारे विमान को उड़ान भरे शायद पन्द्रह मिनट हो चुके थे। मतलब यह कि अब तक तुमने आसमान में लगभग सौ किलोमीटर की दूरी तय कर ली होगी। इतनी लम्बी दूरी इन छोटे-से हाथों की सीमा से परे हैं। दृष्टि से भी दूर। केवल कल्पना की उड़ान द्वारा मात्र अनुभव कर सकता हूं कि इस समय तुम कहां होगी ? किस पर्वत, किस नदी, किस शहर के ऊपर ? हवाई-अड्डे पर अनचाहे तुमने पीछे मुड़कर देखा होगा न ! जब सभी यात्री विमान पर चढ़ने के लिए बढ़ रहे होंगे, उस समय सबकी तरह तुम्हारे भी हाथ हवा में लहराते होंगे !
विमान पर चढ़ते समय तुम्हें कैसी अनुभूति हुई होगी ? यह सब सोचते हुए मुझे अजीब-अजीब सा लग रहा है। कोई अन्त समय में कुछ कहना चाहे, किन्तु बिना कहे ही सदा-सदा के लिए चला जाए-तो कैसी विकट अनुभूति होगी ? वैसा ही कुछ-कुछ मुझे भी हुआ। एक असह्य, अव्यक्त वेदना से मैं भीतर-ही-भीतर बुरी तरह, देर तक घुटता रहा। तुम्हें मालूम था, तुम यहां अधिक जिओगी नहीं। वहां जाकर ही जी सकोगी, इसकी भी सम्भावना नहीं। फिर तुमने यह सब क्यों किया ? किसके लिए ? किसलिए ?
एक अजीब से रहस्य की सृ्टि तुम सदैव करती रही। स्वयं को छलती रही-निरन्तर। दूसरों को छलने की अपेक्षा स्वयं को छलना अधिक दुष्कर होता है न ! शायद इसीलिए तुम्हारे एक व्यक्तित्व के भिन्न-भिन्न कई प्रतिबिम्ब एक साथ उभर आये थे। जो एक दूसरे के कितने सार्थक सिद्ध हुए, कितने बाधक, यह सब मैं नहीं बतला पाऊंगा, क्योंकि परखने की दृष्टि से मैंने कभी तुम्हें देखा ही नहीं था। याद है, उस साल कितनी बारिश हुई थी ! ऐसी ही बौछारें कई दिनों तक झरती रही थीं। लेक-ब्रिज के ऊपरी हिस्से के पास तक झील का पानी लहराने लगा था। पुल के नीचे तीव्र वेग से घाटी की ओर बहता जल बड़े-बड़े प्रस्तर खंडों से टकराता, तो प्रपात का जैसा दृश्य उभर आता था। धुंधला-धुंधला सफेद धुआं-सा। फव्वारे के-जैसे छींटे दूर-दूर बिखरने लगते।
इस तरह दिनों तक निरन्तर बारिश होती। सारा शहर कुहासे से ढका रहता। बड़े-बड़े पहाड़ों से घिरी झील कुएं जैसी लगती। कभी-कभी तो दम घुटने सा लगता था। उस साल नैनीताल पहली बार गया था और शायद पहली बार तुम्हें देखा था ! तब क्या उमर रही होगी ? यही, कॉलेज में दाखिला लिया ही था न !
एक दिन सुबह-सुबह किताबें खरीदने सुहास के साथ मल्लीताल गया था। नौ बजे का भोंपू भी शायद अभी बजा न था। ‘अशोक टाकीज़’ से होकर सीधी चढ़ाई चढ़कर मेन बाजार पर अभी हम पहुंचे ही थे कि शीशे की सफेद कटोरी में दही लिये तुम घर की ओर लौट रही थी। सफेद सलवार, सफेद कुर्ता। अभी अभी सूख रहे स्वच्छ सुनहरे बाल तुम्हारी दूधिया आकृति के चारों ओर बिखरे हुए थे। पल-भर में पता नहीं क्या हुआ ? चलते-चलते मेरे पांव एकाएक जड़ हो गये। अनायास मैंने पीछे मुड़कर झांका तो आश्चर्य की सीमा न रही। तुम भी उसी तरह अचरज से पीछे पलटकर देख रही थी।
क्या देख रही थी, अनुमेहा ? उन निगाहों में ऐसा क्या था, आज तक समझ नहीं पाया। वासना ! नहीं नहीं। प्रेम वह भी नहीं। शायद इससे भी अलग, इससे भी पावन कोई और वस्तु थी, जिसे नाम की संज्ञा में बांधा नहीं जा सकता। उस सारे दिन हवा महकती रही थी। झील के ऊपर तैरते बादल अनायास रंग बदलते रहे थे। जुलाई का महीना अब सम्भवतः बीतने ही वाला था।
इस बार पढ़ाई का सिलसिला जारी रखना कठिन लग रहा था। पिताजी बूढ़े हो चुके थे। दीखता भी कम था। मां के अथक परिश्रम के बावजूद खेतों से उतना उपज न पाता था, जिंदा रहने के लिए जितनी ज़रूरत थी। इसलिए ऋण का भार निरन्तर बढ़ता चला जा रहा था। पिताजी चाहते थे, मैं घर का काम देखूं, सबसे बड़ा हूं-दो अक्षर लिख-पढ़कर उनके कमजोर कंधों को सहारा दूं। परन्तु मुझमें एक अजीब सी धुन सवार थी-पढ़ने की। पिताजी से बिना पूछे ही मैंने आगे पढ़ने का निश्चय कर लिया था। जून बीत रहा था और जुलाई आरम्भ होने ही वाला था कि एक दिन उन्होंने खुद ही बुलाकर कहा, ‘‘अच्छा है वीरू, कुछ और पढ़ लो। दो खेत और रेहन रख देंगे, क्या अन्तर पड़ता है ?’’ पिताजी ने बड़े सहज भाव से कहा था, परन्तु ये शब्द मुझे कहीं दूर तक छील गये। ‘‘आप पर अधिक भार नहीं डालूंगा। कुछ ट्यूशनें कर लूंगा या छोटा-मोटा कोई और काम।’’ कहने को तो कह गया था, किन्तु मुझे लगता नहीं था कि यह सब इतना आसान होगा। इसलिए दाखिला लेते ही मैंने ट्यूशनों की खोज आरम्भ कर दी थी।
कॉलेज से लौट रहा था एक दिन। तल्लीताल पहुंचा ही था कि रामजे रोड पर सुहास टकरा गया था। सुहास, वही गोरा-चिट्टा, लम्बा-चौड़ा मेरा क्लासफैलो। चहकता हुआ, मेरी पीठ पर धौल जमाता हुआ बोला, ‘‘विराग, चाय पिला तो एक अच्छी खबर सुनाऊं !’’ चलते-चलते मैं ठिठक पड़ा। भूख मुझे भी लग रही थी कुछ-कुछ। नुक्कड़ वाली दुकान से मैंने गरम-गरम बालू में भुनती मूंगफलियां लीं, एक आने की। सुहास की ओर बढ़ाता हुआ बोला, ‘‘ले, खा, चीनियां बादाम।’’ ‘‘विराग शर्मा दे ग्रेट, नाऊ यू आर ए किंग।’’ हंसते हुए उसने कहा। प्रश्न-भरी दृष्टि से मैंने उसकी ओर देखा। ‘‘यार, तुम्हारे लिए ट्यूशन ढूंढ़ ली है।’’ ‘‘सच्च ?’’ मुझे विश्वास नहीं हो रहा था।
‘‘बीस रुपये मिलेंगे, पर फिफ्टी-फिफ्टी होंगे।’’ मैं ज़ोर से ठहाका लगाकर हंसा। तिराहे के पास से हम फिर लेक-ब्रिज की ओर लौट पड़े थे। ‘‘एक घंटे के कुछ कम नहीं होते, गुरु !’’ उसने कुछ रुककर कहा, ‘‘पर हां, मैथ्स पढ़ानी होगी, साइंस भी। पढ़ा पायेगा ?’’ उसके शब्दों में आत्मीयता ही नहीं बुज़ुर्गियत भी थी। माल रोड के समानान्तर बनी कच्ची सड़क पर चल रहे थे हम। वीपिंग-विलो की लताएं नीचे जल की सतह तक झुक आयी थीं। एक घोड़ा धूल उड़ाता हुआ आगे निकल गया था। कुछ सैलानी झील के किनारे बेंच पर बैठकर कुछ खाते हुए ज़ोर-ज़ोर से हंस रहे थे। बीस रुपये उस ज़माने में कम नहीं होते थे। छात्रावास के कुल खर्चे का एक तिहाई। ‘‘कहां जाना होगा पढ़ाने के लिए ?’’ ‘‘डॉ. दत्ता के घर-ब्लू कॉटेज ।’’
दूसरे दिन शाम को ठीक समय पर मैं जा पहुंचा। बाहर लोहे की ज़ंजीर से बंधा एक झबरैला कुत्ता मुझे देखते ही, जंजीर तुड़ाकर झपटने के लिए लपका। कॉल-बैल के बटन पर मैंने अंगुली रखी ही थी कि सहसा द्वार खुला अचरज से मैंने देखा। ‘कहिए’ की मुद्रा में तुम खड़ी थी। हां-हां, तुम ! ‘‘डॉक्टर साहब ने बुलाया है। ट्यूश...!’’ मैं अभी अटक-अटककर कह ही रहा था कि श्वेतकेशी एक वृद्धा भीतर के दरवाज़े पर टंगा पर्दा हटाकर आयीं, ‘‘आइये, आइये ! अनु के लिए कह रहे थे।’’ सोफ़े पर मैं सिमटकर, सिकुड़कर बैठ गया। बाहर कुछ-कुछ बारिश हो रही थी। लगता था, कुहरा झर रहा है। मेरे कपड़े तनिक भीग आये थे। काले जूतों के तलों पर गीली मिट्टी चिपक गयी थी। फ़र्श पर बिछी कालीननुमा क़ीमती दरी पर पांव रखने में अजीब-सा संकोच हो रहा था।
अभी मैं बैठा ही था कि एक छोटा-सा बच्चा आया और मुझे भीतर ले गया। एक छोटी-सी कोठरी में ले जाकर उसने बैठने का आग्रह किया। यह कोठरी क्या थी बगीचे की तरफ वाले हिस्से में एक अर्द्धवृत्ताकार कमरा था-काठ का। खिड़कियों पर शीशे के रंग-बिरंगे टुकड़े लगे थे। पुराने ज़माने की नन्हीं सी गोल मेज़ के आमने-सामने बेंत की दो कुर्सियां थीं। सीने से बस्ता चिपकाये धीरे से तुम आयी और सामने वाली कुर्सी पर चुपचाप बैठ गयी।
मैं तुम्हारी ओर चाहकर भी नहीं देख पा रहा था। इस प्रकार की अतिरिक्त गम्भीरता ने मुझे अकारण घेर लिया था। मैं अभी तक भी बाहर की ओर ही देख रहा था। हवा में हिलती अधमुखी खिड़की से सारा दृश्य साफ़ दिखलायी दे रहा था। आड़ू का छतरीनुमा बौना वृक्ष बारिश की हलकी-हलकी बौछारों से भीग रहा था। पहाड़ी के ऊपरी भाग से घना कुहासा भागता हुआ नीचे की ओर लपक रहा था। अब खिड़की की राह भीतर आने ही वाला था कि तुमने खिड़की का पल्लू तनिक भीतर की ओर खींच लिया था।
टीन की कत्थई छत पर पानी की बौछारों का संगीत साफ़ सुनाई दे रहा था। कहीं बिजली कड़क रही थी। बीच छत से एक पतला तार नीचे लटक रहा था। उसके अन्तिम सिरे पर झूलता एक बीमार बल्ब टिमटिमा रहा था। तुमने मैथ्य की दो पुस्तकें मेरी ओर सरका दीं। मैं बतलाता रहा, सिर झुकाये तुम हिसाब बनाती रही। आज्ञाकारी सुशील बच्चे की तरह तुमने एक भी प्रकार अपनी ओर से नहीं पूछा। समय का भान हुआ तो मैं अचकचाया। पूरा डेढ़ा घंटा बीत चुका था। तुम्हारी किताबें, कॉपियां, पेंसिल तुम्हारी ओर सरकाकर मैं कुर्सी से उठने ही वाला था कि डॉक्टर दत्ता ने अधमुंदा दरवाज़ा खोला।
‘‘शर्माजी, आप तो बहुत अच्छा पढ़ाते हैं।’’ वह मेरे समीप आकर खड़े हो गये थे, ‘‘हमें ऐसे ही ट्यूटर की आवश्यकता थी। हमारे बहनोई साहब भी डॉक्टर थे न ! उनकी इच्छा थी कि हमारी यह बिटिया भी डॉक्टर बने। आपका सहयोग मिला तो शायद यह सपना कभी साकार हो जाए।’’ मेरी प्रतिक्रिया जानने के लिए उन्होंने अपनी प्रौढ़ दृष्टि से कुछ टटोलते हुए देखा। फिर होंठों पर टिकी पाइप हाथ में थमाते हुए बोले, ‘‘वैसे पढ़ने में तो ठीक है न ?’’ ‘‘जी, हां। जी, हां।’’ ‘‘होस्टल में ही रहते हैं आप ?’’ ‘‘जी, हां।’’ ‘‘आपकी आवाज़ कुछ भारी-भारी क्यों लगती है ? सर्दी की तो शिकायत नहीं ?’’ ‘‘जी, नहीं। कल झील में देर तक तैरते रहे थे, उसी से कुछ हो गया लगता है।’’ मैंने सकुचाते हुए कहा था। ‘‘कल सुबह हॉस्पिटल आ जाइएगा। मौसम ठीक नहीं। सर्दी लग गई तो परदेस में परेशानी में पड़ जाएंगे।’’ डॉक्टर दत्ता के साथ-साथ मैं भी बाहर निकल आया था। बाहर अब अंधेरा था। कुहरा था। पानी भी बरस रहा था। उन्होंने मेरे मना करने के बावजूद भीतर से छतरी मंगायी और मेरे हवाले कर दी। अपने घर की-सी इस आत्मीयता ने कहीं मेरा रोम-रोम भिगो दिया था।
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