तुम्हे पाकर / पुष्पा सक्सेना
प्रिया के पत्र ने जया को सोच में डाल दिया। पहले की कोमल भीरु प्रिया का इस पत्र की प्रिया से जया कतई मेल नहीं बैठा पा रही थी। पत्र की शुरू की पंक्तियों ने ही जया को चौंका दिया। क्या यह वही प्रिया है, जिसे जया ने बचपन से जाना है? प्रिया ने लिखा था- -
“शेखर के साथ लिए सात फेरों का बंधन तोड़ कर रजत को पाया है। रजत का साथ पा कर अब और कुछ पाने की आकांक्षा ही शेष नहीं रही। सब कुछ मिल गया है मुझे। बहुत-बहुत खुश हूं, जया। रजत ने मुझे मेरी पहचान दी है। नहीं-नहीं हम शादी के झूठे बंधन में नहीं बंधे हैं, पर मन के रिश्ते से एक हो चुके हैं। जानती हूं, मेरे इस फ़ैसले से समाज मुझे धिक्कारेगा, मुझे चरित्रहीन और कलंकिनी जैसी संज्ञाओं से अलंकृत किया जाएगा, पर मुझे इन बातों की पर्वाह नहीं है। रजत के साथ जान पाई हूं सच्ची खुशी किसे कहते हैं। उम्र के इस पड़ाव पर जान सकी हूं, सात फेरों की जगह मन का बंधन अटूट होता है। उम्मीद है, तू मुझे समझ सकेगी। लंबे पत्र के अंत में प्रिया के हस्ताक्षर थे।
जया और प्रिया बचपन की सहेलियां थीं। पड़ोसी होने के कारण दोनो साथ-साथ स्कूल और कॉलेज गई थीं। प्रिया संकोची स्वभाव की बेहद संवेदनशील लड़की थी। कहानियां उपन्यास पढते-पढते वह भी कहानियां लिखने लगी थी।
स्कूल-कॉलेज की प्रतियोगिताओं में वह अपनी कहानी पढने का साहस कभी नहीं कर सकी। छात्र-छात्राओं की भीड़ उसे डरा जाती। जया को अपनी कहानी पकड़ा कर अनुनय करती- -
“जया, प्लीज़ मेरी कहानी पढ दे।“
“तू खुद क्यों नहीं पढती? अपनी कहानी के पात्रों की फ़ीलिंग्स तू जितनी अच्छी तरस से व्यक्त कर सकती है, मैं नहीं कर सकूंगी।“ ‘कोई बात नहीं, मेरी कहानी की थीम तो समझी जाएगी, प्राइज़ मिले या ना मिले, मुझे कतई पर्वाह नहीं है।‘
प्रिया की ज़िद पर जया को उसकी लिखी कहानी पढनी ही पड़ती। कहानियों की ट्रेजेडी जया की आँखें नम कर देतीं।
“तू हमेशा ट्रेजेडीज़ ही क्यों लिखती है, प्रिया? ज़िंदगी में कुछ खुशियां भी तो हो सकती हैं। एक बात ज़रूर है, तेरी दुखद अंत वाली कहानियां तुझे इनाम ज़रूर दिला जाती हैं। क्या इसीलिए ट्रेजेडीज़ लिखती है?” जया परिहास करती।
“हम जानबूझ कर अंत दुखद थोड़ी बनाते हैं। लिखते हुए कहानी अपने आप कुछ से कुछ बन जाती है।“ प्रिया मासूमियत से कहती।
“तेरी यह बात तो सच है। कहानी को पढते हुए पाठक जिसे खलनायक समझते हैं, अंत होते-होते तेरी लेखनी उन्हें भी सहानुभूति दिला जती है।“ सच्चाई स्वीकार करती जया हंस पड़ती।
एम ए पूरा करते ही जया की शादी आगरा के एक वकील शेखर कुमार के साथ हो गई। विदाई के समय जया के कंधे पर सिर रख कर प्रिया खूब रोई थी। प्रिया के जाने पर जया उदास हो गई थी, पर जल्दी ही रोहित ने उसका जीवन- साथी बन कर, उसकी उदासी दूर कर दी। समय बीतता गया। विवाह के छह वर्ष बीत चुकने के बाद प्रिया का यह फ़ैसला क्यों?
दो साल पहले जया एक सेमिनार में आगरा गई थी ताज़महल देखने के साथ प्रिया से मिल पाने की संभावना ने जया को गले लगाती प्रिया का चेहरा खुशी से जगमगा उठा।
“तुझे देख कर मैं तो जी गई, जया।“
“अच्छा, यानी मेरे आने के पहले आप बेजान थीं? लगता है आज भी तू अपनी कहानियों में ही जी रही है। वही पुरानी ट्रेजेडी क्वीन बनी हुई है।“ जया ने परिहास किया।
“कहानियां तो मेरा साथ शादी होते ही छोड़ गईं।“एक लंबी सांस ले कर प्रिया उदास हो गई।
“अरे अब तो तेरे सामने तेरी साकार कहानी बन कर तेरा सौरभ आ गया है। कहां है तेरा बेटा/”
“स्कूल गया है, थोड़ी देर में आ जाएगा।“
“उसके बिना घर खाली लग रहा है। घर में बच्चे का शोर ना हो तो घर असली घर नहीं लगता।“ जया को अपनी दोनों बेटियां याद हो आईं। उनके शोर से घर का कोना-कोना गुलज़ार रहता है।
“सच कहूं, जया तो यह खालीपन मेरे मेरे मन का प्रतिबिंब है।“प्रिया का बुझा सा चेहरा देख, जया चौंक गई।
“वाह क्या बात कही है। एक प्यारा सा बेटा और एक चाहने वाला पति, अपना घर और कार के होते हुए भी तेरा मन खाली है। अब और क्या चाहिए जो तेरा खालीपन भर दे?
“ठीक कहती है, जया। शायद इतना सब पा कर और कुछ पाने की आकांक्षा शेष नहीं रहनी चाहिए, पर मेरे मन का कोई कोना बेहद रीता है। कभी लगता है, जीवन यूंही व्यर्थ जा रहा है। अजीब बेचैनी महसूस करती हूं।‘
“क्यों भई, क्या हमारे वकील साह्ब तेरे मन का खाली कोना भर के तेरा जीवन सार्थक नहीं कर रहे हैं?” जया ने परिहास किया।
“उन्हें अपने मुक़दमों से फ़ुर्सत ही कहां मिलती है? कभी-कभी उनकी जीत मुझे रुला जाती है।“
‘तेरी बात मेरी समझ से परे है, प्रिया। अरे पति की जीत तो पत्नी का गौरव होती है और तू उल्टा ही कह रही है।“
“कल की शेखर की जीत ने एक पांच साल की बच्ची को उसकी माँ से अलग कर दिया। बाप की ओर से मुक़दमा शेखर ने जीता था। बाप का अहं जीत गया। बच्ची की माँ मेरी चौखट पर सिर पटक- पटक कर रोती रही। उसका हाहाकार मुझे अंदर तक चीर गया। बड़ी मुश्किल से उसे हटाया जा सका। मेरी आँखों में आँसू देख शेखर नाराज़ हो गए। नारज़गी से कहा था- -
“यह मेरा पेशा है। बेकार की बात पर अपसेट हो कर मेरी जीत का मज़ा किरकिरा मत करो। अगर रोना है तो अपने कमरे में जा कर रो। तुम बच्ची नहीं हो, एक बेटे की माँ हो, बी प्रैक्टिकल।
“माँ हूं इसीलिए तो माँ का दर्द महसूस कर सकती हूं। अच्छा होता तुम माँ की तरफ़ से केस लड़ते और बच्ची माँ को दिलवाते। उस स्थिति में मैं तुम्हारी जीत पर गर्व करती।‘
“इसका मतलब मेरी जीत पर दुख मनाओगी, क्या वो अकेली औरत बच्ची को पाल सकती?”
“क्या वह बाप जिसने दूसरी शादी कर ली है, बच्ची को माँ का प्यार दे सकेगा? मेहनत-मज़दूरी कर के भी एक माँ अपनी बेटी को प्यार और अच्छी ज़िंदगी दे सकती है। सच तो यह है, उस आदमी ने अपने अहं की तुष्टि के लिए बच्ची को छीना है।‘
“तुम्हारी फ़ालतू बातें सुनने के लिए मेरे पास वक्त नहीं है। ऐसी ही हमदर्दी है तो माँ की ओर से केस लड़ डालो, हां बहस अंग्रेज़ी में करनी होगी और अंग्रेज़ी तुम्हारे लिए काला अक्षर भैंस बराबर है। मूड खराब कर के रख दिया।‘
‘मुझे सुनाकर शेखर चले गए। उनकी सबसे बड़ी तमन्ना थी उनकी बीवी फ़र्राटेदार अंग्रेज़ी बोलने वाली हो। तू तो जानती है मुझे शुरू से अंग्रेज़ी बोलने में हिचक होती थी। बात- बात में इस बात को सुना कर ताने देते हैं। '
“अपनी किस्मत सराहो, बुआ की ज़िद से तुम इस घर में आई हो। तुम्हे मेरे गले मढ बुआ खुद स्वर्ग सिधार गईं।“
‘क्यों शेखर क्या जानते नहीं थे, तूने हिंदी में एम ए किया है वो भी ऐसे वैसे नही, फ़र्स्ट डिवीज़न के साथ टॉप किया है। हमारे घरों में अंग्रेज़ी कहां चलती थी? ये सब शादी के पहले सोचना चाहिए था। एक बात ज़रूर कहूंगी शेखर को अपना काम करने दे। तू अपना मन क्यों खराब करती है। वकालत के पेशे में तेरी भावुकता नहीं चलेगी, प्रिया।“
“हम क्या करें, जया। हमसे ये सब नहीं सहा जाता। किसी गरीब का दर्द शेखर को नहीं सालता, उनसे जबरन पैसे निकलवाते हैं। उनके आँसू और फ़रियाद उन पर असर नहीं करती।“
“मेरी एक बात मान ले, प्रिया। अपने पति को उनका काम करने दे। तू अपना दिमाग क्यों खराब करती है? अरे ज़िंदगी का मज़ा लेने की कोशिश कर्। आगरा में कितने दर्शनीय स्थल हैं। जब जी चाहे बेटे को साथ ले कर निकल जाया कर। आगरे की चाट का मज़ा लिया है कभी? याद है, हम कॉलेज में घर से लाया खाना भिखारी को दे कर खुद चाट का मज़ा लेते थे।‘”
“वो दिन तो हमेशा के लिए खो गए, जया। सौरभ को साथ ले जाने के लिए उसके पास वक्त ही कहां बचता है। स्कूल से आते ही एक ट्यूटर मैथ्स पढाने के लिए आ जाते हैं। अंग्रेज़ी सिखाने के लिए मैडम डिसूजा रखी गई हैं। उसे मैनर्स सिखाने, खाना खाने के लिए कांटे-छूरी का इस्तेमाल करना, सब उसकी नैनी साइमा द्वारा सिखाया जाता है। मैं तो एकदम नकारा करार कर दी गई हूं।‘ प्रिया के चेहरे पर उदासी पसर गई।
‘अरे रात में तो तू उसे अपनी कहानियां सुना सकती है। कितनी अच्छी कहानियां लिखती थी।“
“शुरू में कोशिश की थी, पर शेखर को मेरी कहानियां पसंद नहीं आईं। अंग्रेज़ी कहानियों, कॉमिक्स की सीडीज से उसे मोहाविष्ट कर दिया गया है।‘
“अच्छा अब ये बातें छोड़, लगता है, आज भूखे पेट ही सोना पड़ेगा।‘जया ने बात का रुख मोड़ने की कोशिश की।
‘सॉरी, जया। अभी खाना लगवाती हूं। तेरी मनपसंद कचौड़ियां और दम आलू बनवाए हैं। तुझसे बातें करते वक्त कहां उड़ गया, पता ही नहीं लगा वर्ना दिन काटना मुश्किल लगता था।“
‘वाह चलो, इतने दुख में भी मेरी पसंद तो याद रही,” जया ने परिहास किया। साथ में प्रिया भी हंस पड़ी।
शाम को शेखर जब कोर्ट से लौटे जया और प्रिया चाय पी रही थीं। सौरभ जया के लाए खिलौने ले कर पढने चला गया था। प्रिया से जया का परिचय पाकर ‘हलो’ कह कर शेखर ने जाना चाहा।
‘आरे, आप कहां चले। हमारे साथ चाय नहीं पिएंगे?’ जया ने हंसकर शेखर को रोकना चाहा।
‘नो थैंक्स। मैं कोर्ट में चाय ले चुका हूं। कल एक बड़ा इंपार्टेंट केस है, मुझे तैयारी करनी है। आप अपनी फ़्रेंड के साथ चाय एन्ज्वाय कीजिए।‘ फिर किसी की बात की प्रतीक्षा ना कर शेखर चले गए।
‘देखा तूने, इन्हें चाय पीने तक की फ़ुर्सत नहीं है। कभी-कभी बड़ा अकेलापन महसूस करती हूं। बेटे को माँ से ज़्यादा टीवी में इंटरेस्ट है। सब अपनी दुनिया मे मस्त हैं।”
“तू कहीं ज़ॉब क्यों नहीं ले लेती, प्रिया? एम ए की फ़र्स्ट डिवीज़न को जंग क्यों लगा रही है?’
“एक बार शेखर से ज़ॉब लेने की बात की थी, पर वह बेहद नाराज़ हो गए। कहा था—
“क्यों, क्या पैसों की कमी पड़ गई है? मैं औरतों की नौकरी के सख्त खिलाफ़ हूं। तुम काम पर जाओगी तो घर कौन देखेगा? मैने अपना घर देखने के लिए तुमसे शादी की है। आगे कभी नौकरी की बात भी मत सोचना, अगर इतना ही फ़ालतू टाइम है तो अपना अंग्रेज़ी का ज्ञान बढा लो। मेरे फ़्रेंड्स की बीवियां जब अंग्रेज़ी में बात करती हैं तो तुम उनका मुंह ताकती रह जाती हो। शर्मिंदा मुझे होना पड़ता है।‘
‘तुझे पूछना चाहिए था, क्या तेरी स्थिति नौकरानी की है? बस घर देखना ही तेरा दायित्व है? उस हालत में तो शेखर को किसी अनपढ लड़की से शादी करनी चाहिए थी। मुझे लगता है शेखर खुद किसी हीन ग्रंथि से ग्रस्त हैं सुना है अनाथ शेखर को उनकी बुआ ने अभावों में पाला है। अब पैसा आने पर शायद वह ऐसी बातें करते हैं। जया उत्तेजित हो उठी।“
‘’तू शायद ठीक कहती है, मैं ने पहले ही हार मान ली। मैं जॉब के लिए फिर बात करूंगी।“
‘सिर्फ़ बात करने से ही कुछ नहीं होगा। तुझे अपने में हिम्मत लानी होगी, पक्का निश्चय करना होगा कि तुझे ज़ॉब ज़रूर लेना है। डरने से कुछ हासिल नहीं होने वाला है। ज़ॉब लेने से तेरा खालीपन और निष्क्रियता की भावना तिरोहित हो जाएगी। तू कहे तो मैं शेखर से बात करूं।‘
“नहीं, तेरी बात समझ में आ गई है। ज़ॉब करने से लगेगा मैं भी कुछ सार्थक कर रही हूं। कामकाजी औरतें अपने काम के साथ घर की देखभाल भी अच्छी तरह से कर सकती हैं।‘ प्रिया का चेहरा आत्मविश्वास के साथ चमक उठा।
जया को आगरा के दर्शनीय स्थल दिखाती प्रिया का मूड खुशगवार हो गया। ताज पहुंच जया ने प्रिया को छेड़ा-
“याद है तेरी एक कहानी सुनकर मनोज तेरा दीवाना हो गया था। बेचारे ने अपनी प्रेमिका से धोखा खाया था।“
‘खूब याद है, न जाने कैसे उसे यह वहम हो गया कि मैं बहुत अर्थों में उसकी प्रेमिका जैसी थी। देवदास बन गया था बेचारा।“ दोनो की सम्मिलित हंसी में पुरानी खुशियां थीं।
जया की घर वापसी तक प्रिया का मूड बदल चुका था। जया ने उसके मन में पक्का विश्वास जगा दिया था, वह भी कुछ कर सकती है। दृढ शब्दों में ज़ॉब लेने की बात ने शेखर को चौंका दिया-
“यह ज़ॉब का भूत फिर सवार हो गया? ज़रूर यह पट्टी तुम्हारी सहेली ने पढाई है। वह खुद जो ज़ॉब करती है। एक बार कहने पर बात समझ में नहीं आती। औरतों का काम करना मुझे कतई पसंद नहीं है। वैसे भी काम करके कौन से झंडे गाड़ लोगी?” कड़ाई से शेखर ने अपनी बात कह दी।
‘मैं कुछ ऐसा पाना चाहती हूं जिसे पाकर और कुछ पाने की आकांक्षा शेष ना रहे। हो सकता है, मेरा ज़ॉब मेरी वह आकांक्षा पूर्ण कर दे।“ प्रिया ने निर्भय अपने मन की बात कह दी।
“मैं स्टैम्प-पेपर पर लिख कर दे सकता हूं। तुम्हारी ज़िंदगी में ऐसा दिन कभी नहीं आएगा। अपनी रोने वाली कहानियां लिखते-लिखते तुमने खुद ज़िंदगी में रोना ही सीखा है। इतना सब कुछ पाने के बाद और क्या चाहिए/ अपनी किस्मत सराहो, मुफ़्त में मज़े उड़ा रही हो। अब मेरा और वक्त बर्बाद मत करो।“ शेखर झल्ला उठा।
“दिन भर बेकार रहने से तो अच्छा है कुछ सार्थक काम करूं। सौरभ को पढाने के लिए आपने ट्यूटर लगा रक्खे हैं।“
“तुम क्या ख़ाक उसे मैथ्स और इंगलिश पढा सकती हो? हिंदी जैसे आसान विषय में एम ए कर के फ़र्स्ट डिवीज़न पा लेना बहुत आसान बात है।“
“आप हिंदी- साहित्य के विषय में जानते ही कितना हैं?’ शेखर के कटाक्ष ने प्रिया को ति्लमिला दिया।
‘मुझे जानने की ज़रूरत भी नहीं है। वैसे भी शादी के बाद से घर में आराम फ़र्मा रही हो। किसी कॉलेज में तो ज़ॉब मिलने से रहा। हां, चौथी-पांचवी के बच्चों को पढा कर शौक पूरा करना चाहो तो कोशिश कर देखो। उतना बड़ा काम भी शायद ही पा सको।‘ क्रोधित शेखर कमरे से चला गया।
पति के व्यंग्य ने प्रिया को आहत ज़रूर किया, पर किसी भी काम के लिए अनुमति मिल जाना बड़ी बात थी। बड़े उत्साह से अपना बायोडाटा तैयार कर कई कॉलेजों को भेज दिया। प्रतियोगिताओं में मिले पुरस्कारों ने उसका बायोडाटा वज़नी बना दिया।
दो-तीन कॉलेजों में नाकामयाबी के बाद अंततः एक कॉलेज में उसे चुन लिया गया। प्रिया की खुशी का ठिकाना न था। पति को इस चुनाव की सूचना देना ज़रूरी था, पर शेखर के कड़वे शब्दों ने उसके उत्साह पर पानी के छींटे डाल दिए-
“को-एड कॉलेज में जाने की हिमाकत कर रही हो। आजकल के लड़के मेल लेक्चरर्स तक की तो नाक में दम कर देते हैं। तुम किस खेत की मूली हो। भगवान जाने तुम्हारी क्या गत करें। अभी भी वक्त है जॉब का शौक छोड़ दो, बाद में आंसू बहाने मेरे पास मत आना।“
अनुत्तरित प्रिया ने मन में संकल्प ले लिया, चाहें जो हो जाए अब वह पीछे नहीं हटेगी। दो दिन बाद उसे कॉलेज ज्वाइन करना है। सौरभ की देखभाल करने के लिए शेखर ने साइमा नाम की नैनी रख रखी थी। नैनी को समझाने के बाद सौरभ से कहा-
“सौरभ बेटे, कल से तुम्हारी मम्मी भी टीचर बनकर पढाने जाएगी। तुम साइमा आंटी को परेशान मत करना।‘
“ओ के मम्मी, पर तुम हमे चॉकलेट ज़रूर लाना।“ इतना कह कर सौरभ खेलने भाग गया।
कॉलेज में प्रवेश करती प्रिया का दिल धड़क रहा था। प्रिंसिपल चक्रवर्ती हंसमुख व्यक्ति थे।
“वेलकम मिसेज कुमार। उम्मीद है, कॉलेज का माहौल आपको पसंद आएगा। चलिए आपका परिचय आपके साथियों से करा दूं।
स्टाफ़ रूम के साथियों ने प्रिया का गर्मजोशी के साथ स्वागत किया। सह प्राध्यापक चद्रकांत जी ने कहा-
“एक सुंदर महिला के आने से हमारा हिंदी विभाग सचमुच रसमय हो जाएगा।“
प्रिया के कान तक लाल हो गए। यह सच था, शादी के छह वर्षों बाद भी प्रिया के रूप-लावण्य में कोई कमी नहीं आई थी। उसकी छरहरी सुडोल काया, भोला निष्पाप चेहरा लड़की होने का भ्रम देता था। शादी के बाद से आज तक किसी ने इस तरह से खुले आम उसके रूप को ले कर उसकी प्रशंसा नहीं की थी।
“चंद्रकांत जी, मज़ाक छोड़िए। प्रिया जी एम ए की टॉपर हैं। अपनी कहानियों और लेखों के लिए कई पुरस्कार प्राप्त लेखिका हैं।“ प्रिंसिपल चक्रवर्ती ने प्रिया की प्रशंसा की।
“डॉक्टर चक्रवर्ती, इनका सौंदर्य क्या मज़ाक की चीज़ है? यह तो ऐसी सच्चाई है, जिसका सब लोहा मान जाएं।“
“प्रिया जी, हमारे चंद्रकांत ऐसे ही हैं। वैसे एक कहानीकार के विभाग में आने से हमारे छात्र-छात्राएं रचनात्मक कार्यों में आपसे प्रेरणा अवश्य ले सकेंगे।“ विभागाध्य्क्ष रजत नाथ ने सच्चाई से कहा।
प्रिंसिपल के जाने के बाद रजत नाथ ने प्रिया को उसकी क्लासेज़ के बारे में बतलाया-
“आप नई हैं। इस सत्र में आपको बी ए पार्ट वन और पार्ट टू की कक्षाएं लेना आसान होगा। आप कहानीकार हैं, अतःआप शायद कहानी और उपन्यास पढाना पसंद करेंगी।“
“मेरा कहानीकार तो कब का मर चुका है। कोशिश करूंगी विद्यार्थी मेरे शिक्षण से निराश ना हों।“ अनायास ही प्रिया के मुंह से सच निकल गया।
“धन्यवाद, पर कहानीकार की हत्या मेरी दृष्टि में अक्षम्य अपराध है। मेरी कामना रहेगी, विषय-शिक्षण के साथ आपके कहानीकार को नव जीवन मिल सके।“
हल्के से मुस्करा कर प्रिया मौन रह गई।
पहले दिन प्रिया का विद्यार्थियों से परिचय कराने रजत नाथ कक्षा में उसके साथ गए। परिचय दे कर कहा-
“अगर आप सब अच्छे अंक और डिवीज़न पाना चाहते हैं तो प्रिया जी का एक-एक शब्द आत्मसात करना ज़रूरी है। ध्यान न देने की स्थिति में नुक्सान आपका ही होगा। उस नुक्सान की भरपाई कर पाना आसान नहीं होगा।“
तालियों से स्वागत किए जाने के बाद शांत –सधे शब्दों में प्रिया ने सबका परिचय लिया। अपनी कहानियां स्वयं पढने का साहस न कर पाने वाली प्रिया में ना जाने कहां का साहस आगया कि वह बड़ी सहजता से पाठ्यक्रम के विषय में बातचीत करने लगी। संभवतः उसके पीछे शेखर की चुनौती काम कर रही थी।
पहले दिन की सफ़लता से प्रिया उत्साहित हो उठी। शेखर को सब बताने के लिए उसे डिनर के समय की प्रतीक्षा थी। शायद उस समय शेखर उससे उसके पहले दिन के अनुभव के बारे में कुछ पूछें। खाना खाते शेखर को शायद याद ही नहीं रहा कि प्रिया ने आज कॉलेज ज्वाइन किया है। शेखर की ओर से कोई उत्साह न पा, प्रिया का उत्साह मन में ही रह गया। देर रात तक प्रिया अगले दिन के लिए लेक्चर तैयार करती रही। अपने समय में पढे गए बहुत से टापिक्स मानस में सजीव हो उठे।
दो-चार दिन बाद रजत नाथ ने प्रशंसा करते हुए कहा- -
“बधाई, प्रिया जी। आप तो छा गई हैं। विद्यार्थियों का कहना है, आप कहानी के पात्र इस तरह से सजीव कर देती हैं, मानो वे उनके सामने खड़े हों।“
“भई, प्रिया जी स्वयं सुंदर कहानी हैं। हम जैसे नीरस लोग भला विषय में रस कैसे भर सकते हैं। प्रिया जी तो कहानी के पात्र गढने वाली कलाकार हैं।‘ चंद्रकांत जी फिर परिहास पर उतर आए।
“प्रिया जी, हमारे विभाग में प्रत्येक शनीवार को एक साहित्यिक गोष्ठी होती है। विद्यार्थियों के अलावा एक प्राध्यापक को भी अपनी कोई रचना पढनी होती है। इस बार की गोष्ठी में आपको अपनी कोई कहानी पढनी होगी।‘ रजत नाथ ने अनुरोध किया।
“नहीं- नहीं, अब मेरे पास यहां कोई कहानी नहीं है। मुझे क्षमा कीजिए।“ प्रिया ने सफ़ाई दी।
“नहीं है तो लिख डालिए। नई लेक्चरर महोदया को हमारा यह अनुरोध तो मानना ही होगा।‘ चंद्रकांत जी ने सहास्य कहा।
“चंद्रकांत जी ठीक कह रहे हैं। खुद मुझे कई बार कविता- पाठ करना पड़ा।“ रजत नाथ ने चंद्रकांत जी की बात की पुष्टि की।
“आप कविता करते हैं?’ प्रिया के सवाल पर रजत हंस कर बोले—
वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान
उमड़ कर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान
“मतलब कि आप वियोगी हैं। वैसे कविता लिखना तो बहुत कठिन काम है। बहुत कोशिश करने पर बस शायद एकाध कविता ही लिख पाई थी।‘
“क्यों, क्या कविता लिखने के लिए आपको कोई प्रेरणा नहीं मिली?” अचानक रजत नाथ सवाल कर बैठे।
“आप किस की प्रेरणा से कवि बन गए, रजत जी?’ रजत जी के सवाल पर प्रिया ने सवाल कर डाला।
“छोड़िए, पुरानी कहानी भूल जाना ही ठीक है। हां, कहानी सुनाने की शर्त तो आपको पूरी करनी ही होगी। इसमें किसी छूट की संभावना नहीं है।“
घर पहुंच कर प्रिया ने अपनी पुरानी डायरी खोज निकाली। विवाह के बाद घर से अपनी कहानियों की डायरी और कापियां साथ लाने का मोह वह नहीं छोड़ सकी थी। सौभाग्यवश अलमारी के एक कोने में उसकी कहानियां सुरक्षित पड़ी थीं। एक नज़र में उसे अपनी प्रिय कहानी दिख गई। उस कहानी पर यूनीवर्सिटी की कहानी-प्रतियोगिता में उसे प्रथम पुरस्कार मिला था।
शनीवार की गोष्ठी में पूरा हॉल खचाखच भरा था। धड़कते दिल से प्रिया ने अपनी कहानी सुनानी शुरू की। यूनीवर्सि्टी में उसकी कहानी जया ने पढी थी। आज खुद कहानी पढते समय मानो सारे पात्र जी उठे। भावों के साथ वाणी में स्वाभाविक उतार-चढाव आ रहा था। एक जगह तो स्वयं उसका गला भर आया। कहानी समाप्त होने के बाद कुछ पलों के सन्नाटे के बाद हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।
अचानक रजत नाथ ने आगे बढ कर उसका हाथ अपने हाथ में ले कर कहा- -
“जिस हाथ से यह कहानी लिखी गई है, मैं उसका अभिनंदन करता हूं। यह कहानी, भारत की आधी आबादी यानी नारी के कोमल मन की पीड़ा को साकार करती है।“
“मेरी तो आँखें नम हो गईं।“ परिहास- प्रिय चंद्रकांत जी गंभीर थे।
गोष्ठी समाप्त होने पर छात्र-छात्राओं ने उसे घेर लिया। कहानी के विषय में उनकी जिज्ञासा शांत करती प्रिया अभिभूत थी। क्या सचमुच उसका लेखन इतना सशक्त है? शायद उसकी कहानियों में रोमांस और प्रेम का जो अभिनव रूप होता है, वही युवा पीढी को आकृष्ट करता था, पर रजत नाथ और चंद्रकांत जी को भी तो उसकी कहानियां इतनी पसंद आईं। इसका अर्थ तो यही हुआ, वह अच्छी कहानियां लिख सकती है।
रजत नाथ ने अनुरोध भरे स्वर में कहा—
“आपकी कहानियां पढने का सौभाग्य चाहता हूं, क्या अवसर देंगी? वैसे क्या आपने कभी अपनी कहानियों का संकलन छपवाने के विषय में नहीं सोचा?”
“नहीं, अपने को कभी लेखिका के रूप में नहीं देखा। बस जब मन में कुछ उठा, लिख डाला। जानते हैं आज पहली बार अपनी कहानी खुद पढी है, वर्ना मेरी कहानियां मेरी फ़्रेंड जया पढती थी। आज उसे लिखूंगी, मैंने कहानी खुद पढी तो उसे खुशी होगी।“ कुछ संकोच से जया ने कहा।
“बड़ी भाग्यशाली थीं आपकी मित्र, जिसे इतनी सुंदर कहानियां पढने को मिलीं। अब यह सौभाग्य मैं चाहूंगा। विश्वास है निराश नहीं करेंगी।“
“मेरे पास कुछेक कहानियां ज़रूर हैं, पर कुछ लोग उन्हें मूर्खतापूर्ण भावुकता की संज्ञा देते हैं। वादा कीजिए आप वैसा कुछ नहीं कहेंगे।“ प्रिया को याद हो आया, एक बार बड़े उत्साह से शेखर को अपनी एक कहानी सुनाने की गलती कर डाली थी। किसी तरह आधी कहानी झेल चुकने के बाद शेखर ने झुंझला कर रिमार्क दिया था-
“शियर फ़ुलिशनेस्। औरतों की यही भावुकता उन्हें खुद रोने और दूसरों का मू्ड खराब करने को मज़बूर करती है। रोने-रुलाने की जगह क्या कोई उद्देश्यपूर्ण रचना नही कर सकतीं? घर- परिवार की औरतों के कर्तव्यों जैसे विषयों पर लिखना सार्थक हो्ता। तुम्हारी कहानी तो बस बकवास है।“
उस दिन के बाद से प्रिया ने अपनी कहानियां भुला दी थीं।
“यह क्या कह रही हैं आप? आपकी कहानी सुनने के बाद, मेरा अनुभव कहता है, आपकी हर कहानी अनूठी होगी। ऐसी कहानियों को मूर्खतापूर्ण भावुकता कहने वाले सीने में दिल नहीं रखते होंगे।‘ रजत नाथ की बात सुन कर प्रिया के चेहरे पर खुशी खिल आई।
“मेरा उत्साह बढाने के लिए धन्यवाद। मैं अपनी कहानियां आपको ज़रूर दूंगी, पर आपको भी अपनी कविताएं सुनानी होंगी।“
“मेरी कविताएं सूखी नदी सी रसहीन हैं। उनमें किसी के मन को छू पाने की क्षमता नहीं है।“ उदासी रजत नाथ के चेहरे पर स्पष्ट थी।
“मन का कोई कोना सूखा भी तो हो सकता है। हो सकता है, आपकी रसविहीन कविताएं उस कोने में अपनी जगह बना लें।‘
प्रिया की बात ने रजत नाथ को जैसे चौंका सा दिया।
“ठीक है अगर ऐसी नीरस कविताओं की आपको चाहत है तो कल मेरा कविता-संग्रह आपके हाथों में होगा।“
“क्षमा कीजिए, आप अपना कविता-संग्रह प्रिया जी को अवश्य दें, पर हम सब स्टाफ़ मेम्बर्स आपकी कविताएं सस्वर सुनना चाहेंगे।“ चंद्रकांत जी ने अनुरोध किया।
सबके अनुरोध पर खाली समय में रजत नाथ ने अपनी दो-तीन कविताएं सुनाई थी। कविताओं में जैसे मन की गहन पीड़ा साकार थी।
“आपने यह कैसे कहा आपकी रसविहीन कविताएं किसी के मन को नही छू सकतीं? आपकी कविताओं ने तो मेरे अंतर तक को उद्वेलित कर दिया है।‘
“सच कह रही हैं या मेरा मन बढा रही हैं?”
“बिल्कुल सच कह रही हूं, अब आपका कविता-संग्रह मु
कविताओं और कहानियों के आदान-प्रदान के साथ प्रिया और रजत नाथ के संबंध बहुत सहज होते गए। अक्सर प्रिया की कहानियों पर चर्चा करते समय रजत नाथ, प्रिया को उसकी कहानी के विषय में सकारात्मक सुझाव दे जाते। प्रिया उनके अनुसार कहानी में सुधार लाकर संतुष्ट होती। इस बीच प्रिया ने फिर से नई कहानियां लिखना शुरू कर दिया था। रजत नाथ की कविताएं प्रिया की टिप्पणी की प्रतीक्षा करतीं।
अचानक एक दिन एक नामी पत्रिका में अपनी कहानी प्रकाशित देख कर प्रिया चौंक गई। रजत नाथ ने सबके सामने घोषणा की-
“आज प्रिया जी सबको मिठाई खिलाएंगी, इनकी कहानी छपी है। कहिए प्रिया जी मंज़ूर है?’ सहास्य रजत जी ने कहा।
“मैने तो कोई कहानी छपने नहीं भेजी फिर यह कैसे छप गई?” प्रिया विस्मित थी।
“अगर यह सच है तो यह तो चमत्कार ही है। मुझे लगता है, पत्रिका के संपादक तक यह खबर पहुंच गई कि एक गुमनाम कहानी- लेखिका के पास इतनी अच्छी कहानियों का ख़ज़ाना है।“ रजत जी की मुस्कान ने प्रिया का रहस्य स्पष्ट कर दिया।
अपनी पहली कहानी उस स्तरीय पत्रिका मे प्रकाशित देख कर प्रिया की खुशी का ठिकाना न रहा। शाम को कोर्ट से लौटे शेखर को बड़ी उमंग से पत्रिका दिखाई थी।
“शेखर, देखो मेरी कहानी छपी है। इस पत्रिका में छपना आसान नहीं होता।“
“देख रहा हूं कॉलेज में पढाने की जगह ऐसे फ़ालतू काम किए जा रहे हैं। अच्छा हो, ये सब छोड़ कर घर-गृहस्थी पर ध्यान दो। घर परिवार इन बेकार के कामों से ज़्यादा ज़रूरी है।“ पत्रिका बिना देखे शेखर ने फ़र्मान सुना दिया।
प्रिया का सारा उत्साह कपूर सा उड़ गया। किसने कहा उसे घर-परिवार की चिंता नहीं है। घर में कहीं कोई विश्रृंखलता नहीं है, फिर शेखर की यह टिप्पणी क्यों? प्रिया का मन बुझ सा गया।
शेखर की उदासीनता और रूखे व्यवहार के बावज़ूद रजत नाथ के सानिध्य में प्रिया के मन का खाली कोना जैसे रस से परिपूर्ण होता जा रहा था। निकटता होते हुए भी रजत नाथ से प्रिया उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में कभी कुछ नहीं पूछ सकी। एक दिन बातों-बातों में रजत नाथ की अनुपस्थिति में चंद्रकांत जी ने अनायास ही रजत नाथ के जीवन का रहस्य उद्घाटित कर डाला-
“रजत नाथ की पीड़ा का कारण एक लड़की थी। उन्होंने उसे सच्चे मन से बहुत प्यार किया, पर वह उन्हें छोड़ गई”
“क्यों, रजत जी में क्या कमी थी?’ प्रिया इस रह्स्योद्घाटन से विस्मित थी।
“अमरीका के इंजीनियर के मुकाबले में रजत जी कमज़ोर पड़ गए। वह लड़की उन्हें पूरी तरह से तोड़ गई।“
“उसके जाने के बाद उन्होंने विवाह क्यों नहीं किया?” विवाह के बाद भी तो वह एक अच्छी पत्नी पा सकते थे।“
“रजत ने उसे बेहद संजीदगी से चाहा था। ऊपर से हंसते हुए रजत अंदर से टूट चुके हैं। वैसे आजकल उनमें परिवर्तन देख रहा हूं, उनकी उदासी की जगह चेहरे पर खुशी रहती है। शायद वक्त सबसे बड़ा मरहम होता है।“
“भगवान करे उनके जीवन में फिर से खुशियां आ जाएं।“ प्रिया ने सच्चे दिल से कामना की।
वक्त के साथ प्रिया और रजत नाथ के बीच की औपचारिकता दूर होती गई। रजत नाथ आसानी से प्रिया को बस प्रिया पुकारते, पर उनकी ज़िद के बावज़ूद रजत नाथ को सिर्फ़ रजत पुकारने में प्रिया को काफ़ी कठिनाई हुई। उनका तर्क था- -
“अमरीका में तो माँ-बाप को भी नाम से पुकारा जाता है। विद्यार्थी टीचर का नाम लेते हैं। हम दोनो मित्रो की तरह एक दूसरे को नाम से संबोधित क्यों नहीं कर सकते? नाम के आगे डॉक्टर या श्रीमती लगा कर दूरियां बढाई जाती हैं। तुम मुझे रजत नाम से क्यों नही संबोधित कर सकतीं? मेरा नाम क्या इतना खराब है?”
रजत नाथ की कविताएं करवट बदलने लगी थीं। उनमें उमंग और जीवन के प्रति चाहत उभरने लगी थी। चंद्रकांत जी ने अपने स्वभाव के अनुरूप परिहास कर डाला-
“लगता है प्रिया जी के व्यक्तित्व ने आप पर प्रभाव डाला है। कविताओं में नए रंग उभरने लगे हैं। इसमें किसी का दोष नहीं है, उनके व्यक्तित्व का आकर्षण ही ऐसा है।“
अचानक एक दिन ना जाने किस मूड में रजत कह बैठे-
“तुम मुझे पहले क्यों नहीं मिलीं, प्रिया? हम दोनो संसार के सबसे सुखी दम्पत्ति होते।“
“मैं ऐसा नहीं मानती। शादी के बाद अक्सर प्यार को सिर्फ़ ज़िम्मेदारियां ढ़ोने की शर्त बनते देखा है। स्त्री लेखिका का वैवाहिक जीवन सुखी नहीं होता। शायद इसीलिए मैं- - “-आगे कुछ कहती- कहती प्रिया चुप हो गई।
“क्या तुम्हारे जीवन का भी यही सत्य है, प्रिया?’ रजत ने सीधा सवाल किया।
“मैं अपने को लेखिका नहीं मानती। व्यावहारिक दृष्टि से मेरे पास वो सारे साधन हैं जो किसी स्त्री को चाहिए, पर-- -“ प्रिया फिर रुक गई।
“इस पर के पीछे क्या है, प्रिया?’
‘कुछ नहीं, शायद मेरे मुंह से ऐसे ही निकल गया।“ प्रिया ने बात टाल दी।
“तुम्हारे पति तुम्हारी पर्वाह तो करते हैं?’
“अगर पर्वाह का मतलब बंगला, गाड़ी, पैसा जुटा देना है तो वो सब मेरे पास है। मेरे पति एक व्यस्त वकील हैं। उनकी व्यावहारिकता और मेरी भावुकता में अंतर होना तो स्वाभाविक ही है न? मेरा लेखन, कॉलेज में काम करना, उनकी निगाह में समय व्यर्थ करना है।“ प्रिया अपना सच अचानक कह गई।
“क्या हम दोनो एक नहीं हो सकते, प्रिया?’ दो मुग्ध नयन प्रिया पर निबद्ध थे।
“यह क्या कह रहे हैं आप? जानते हैं मैं विवाहिता हूं, एक बेटे की माँ हूं।“ प्रिया जैसे आसमानन से गिरी थी।
“सब जानता हूं। मैं ने वही कहा जो बहुत दिनो से कहना चाहता था, प्रिया।“
“प्लीज़, रजत हमारी मित्रता का ग़लत अर्थ न लगाएं। मैं ऐसा सोच भी नहीं सकती।“ प्रिया उठ कर चली गई।
अगले दो दिन प्रिया कॉलेज नहीं जा सकी। रजत नाथ का सामना करने का उसमें साहस ही नहीं रह गया था।
घर में अपने नाम आए कोरियर ने प्रिया को चौंका दिया। लिफ़ाफ़े में रखे गुलाबी कागज का पैकेट खोलते ही प्रिया की दृष्टि सुनहरी ज़िल्द से सज्जित पुस्तक के शीर्षक पर स्थिर हो गई। “रजनीगंधा’ के नीचे लेखिका का नाम प्रिया जगमगा रहा था। कहानी-संग्रह का प्रकाशन बिना उसकी जानकारी के कैसे संभव हो सका, प्रिया को समझने में देर नहीं लगी। पुस्तक के प्रथम पृष्ठ पर एक चिट थी—
“जन्म-दिन की अनन्त मंगल कामनाएं। अगर आप की दृष्टि में मैं ने ग़लती की है तो क्षमा की आकांक्षा है। कल आपकी पुस्तक का विमोचन- समारोह है। विश्वास है मेरी ग़लती का दंड अपने प्रथम कहानी संकलन को नहीं देंगी। प्रतीक्षा रहेगी।
सस्नेह- रजत।
प्रिया ने सपने में भी नहीं सोचा था, उसकी कहानियां कभी संकलन का रूप ले सकेंगी। रजत ने अपनी गलती के लिए क्षमा मांगी है, पर क्या यह बात उसके मन में कभी नहीं आई, काश रजत उसके जीवन साथी होते। रजत के साथ उसके जीवन की दिशा ही कुछ अलग होती। उसकी हर बात को रजत मान देते हैं। उसकी चिंता और समस्याओं का हल मिनटों में निकाल देते हैं। सच तो यह है, वह भी कुछ है, इसका भान तो रजत ने ही कराया है वर्ना वह तो बस एक ऊबी हुई गृहिणी भर बन कर रह जाती।
पिछले सप्ताह विभागीय डिबेट का विषय “सात फेरे नहीं, मन का मिलन चाहिए” रखा गया था। प्रिया को यह देख कर आश्चर्य हुआ , छात्राओं के एक ग्रुप ने सात फेरों वाले विवाह के मुकाबले में मन के मिलन को ज़्यादा महत्व दिया। विभा ने ज़ोरदार शब्दों में कहा-
“क्या सच्चाई है सात फेरों की? शायद ही कोई पति सात फेरों के समय लिए गए वचन याद रखते हों। बेचारी पत्नी ज़रूर उन वचनों को निभाने की भरपूर कोशिश करती है। इतना ही नहीं, कभी-कभी उन वचनों के बंधन में जकड़ी पति के अत्याचार सहने को विवश होती है।“
डिबेट में विभा का ग्रुप ही विजयी रहा। प्रिया सोचने लगी, समय के साथ लड़कियों के सोच में भी बदलाव आ गया है। स्वय प्रिया भी इस विचार से सहमत है, पर क्या वह विभा की तरह यह बात खुल कर कह सकती है? अगर उसे रजत जैसा पति मिला होता तो उसका जीवन सार्थक होता। अचानक प्रिया जैसे जाग गई। छिः कैसी बात वह सोच बैठी। पुस्तक को प्यार से सहलाती प्रिया ने सोच लिया, वह विमोचन- समारोह में अवश्य जाएगी। शेखर से कुछ कहना व्यर्थ ही होता।
रजनीगंधा का विमोचन आगरा के विधायक मोहन कुमार द्वारा किया गया। अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा—
“मुझे गर्व है, हमारे शहर में इतनी अच्छी कहानीकार हैं। उनकी कहानियां उच्च स्तरीय हैं। आगरा के पुस्तकालयों के लिए यह पुस्तक खरीदी जाएगी। लेखिका को मेरी बधाई।“
पुस्तक-विमोचन के बाद पत्रकारों ने कहानियों की थीम, विषय आदि पर प्रश्न पूछने शुरू कर दिए। प्रश्नों के उत्तर देती प्रिया के चेहरे पर आत्मविश्वास और सफलता की खुशी चमक रही थी। अचानक एक महिला पत्रकार पूछ बैठी ’आपके पति नहीं दिखाई दिए। क्या वह आपकी सफलता के सहभागी नहीं हैं?”
“वह एक ज़रूरी केस के सिलसिले में बाहर गए हैं।“साथ खड़े रजत नाथ के बहाने ने प्रिया को बचा लिया।
समारोह समाप्त होने के बाद भीगे स्वर में प्रिया ने रजत से कहा-
“आपने मेरा सपना पूरा किया है। इसके लिए धन्यवाद बहुत छोटा शब्द है।“
“आज भी तुम इतनी उदास क्यों हो प्रिया, क्या मुझे माफ़ी नहीं मिलेगी?”
“प्लीज़, माफ़ी मांग कर शर्मिंदा ना करें। हम मित्र हैं, हमारे बीच औपचारिकता नहीं होनी चाहिए।“
“इसका मतलब हमारी मित्रता में दरार नहीं आएगी। आज चैन की नींद सो सकूंगा, प्रिया। मैं डर गया था कहीं तुम्हें भी ना खो बैठूं।“
हिम्मत कर के रात में प्रिया ने अपना संग्रह शेखर को दिखाया, पर उसे देखते ही शेखर का पारा चढ गया।
“मुझसे छिपा कर पैसे बर्बाद किए जा रहे हैं। कितने हज़ार प्रकाशक को दिए हैं?”
“मैं ने पैसे नहीं दिए।“ शांति से प्रिया ने सच्चाई बता दी।
“तुम क्या समझती हो मैं मूर्ख हूं, जो तुम्हारी बात मान लूंगा। तुम जैसी अनाम लेखिका की किताब कोई बिना पैसे लिए छाप दे, यह असंभव है।“
“यह किताब डॉक्टर नाथ ने छपवाई है।“
“डॉक्टर नाथ तुम्हारे क्या लगते हैं जो बिना किसी फ़ायदे के तुम्हारी किताब छपवा दी?” शेखर चीख पड़ा।
“वह मेरे विभागाध्यक्ष हैं। मेरी कहानियां पसंद करते हैं।“
“तुम्हारी कहानियां या तुम्हें पसंद करते हैं। ऐसा तो पहली बार सुना कोई विभागाध्य्क्ष किसी लेक्चरार की किताब छपवाए,। सच कहो तुम दोनो के बीच क्या चल रहा है?”शेखर का क्रोध चरम सीमा पर था।
अनुत्तरित प्रिया शेखर के सामने से हट गई। पिछले कुछ दिनो से शेखर का बर्ताव बेहद रूखा होता जा रहा था। बात-बेबात प्रिया की आलोचना करना उसका स्वभाव हो गया था। साथ की महिला वकील मिस तनेजा के साथ देर रात तक काम के बहाने रुके रहना रोज़ का नियम बन गया था। एक दो बार प्रिया ने कुछ कहना चाहा तो उसे उसकी औकात बता दी गई। उसके बाद प्रिया ने कभी कुछ जानने-समझने की कोशिश नहीं की।
रात में करवटें बदलती प्रिया की आँखों के सामने से रजत का चेहरा नहीं हट रहा था। अपने को धिक्कारती प्रिया सोच रही थी, तीस बरस की उम्र में पर पुरुष के विषय में सोचते रहना कितना अशोभनीय है। वह कैसे भूल सकती है, वह शादीशुदा ही नहीं एक बेटे की माँ है। अपने मन पर उसे काबू पाना ही होगा। दृढ निश्चय के बावज़ूद उसका मन बेकाबू ही रहा।
दूसरी सुबह अखबार पढते शेखर की दृष्टि कल शाम के पुस्तक-विमोचन समारोह पर छपी फ़ोटो पर ठहर गई। फ़ोटो में प्रिया के साथ विधायक मोहन कुमार खड़े थे। शेखर के माथे पर बल पड़ गए।, ज़ोर की पुकार पर घबराई प्रिया सामने आ खड़ी हुई।
“फ़ोटो में किसके साथ सट कर खड़ी हो?” तीखी आवाज़ में शेखर ने सवाल किया।
“इन्हें क्या आप नहीं जानते? हमारे शहर के विधायक मोहन कुमार हैं। मेरी पुस्तक का विमोचन उन्हीं ने किया था।“ कुछ गर्व से प्रिया ने कहा।
“काहे का विधायक? कॉलेज में लड़कियों को छेड़ने की वजह से सस्पेंड किया गया था। पुस्तक का विमोचन कराने के लिए यह गुंडा ही बचा था? मेरी नाक कटाने के लिए और कौन से गुल खिलाओगी? बस बहुत हो गया। कल से कॉलेज नहीं जाओगी।“ ऊंची आवाज़ में शेखर ने अपना फ़ैसला सुना डाला।
“नहीं, मैं जॉब नहीं छोड़ सकती। रही बात विधायक के चरित्र की तो इस बारे में मेरी कोई जानकारी नहीं है। कार्यक्रम मैने आयोजित नहीं किया था।“
“समझ गया ज़रूर यह तुम्हारे रजत नाथ की चाल है। अपने फ़ायदे के लिए विधायक को खुश करने के लिए तुम्हारा सहारा लिया है।“ शेखर की आँखों से आग बरस रही थी।
“रजत जी कभी ऐसी ओछी बात सोच भी नहीं सकते।“
“अच्छा वह महान इंसान है और मैं ओछी बातें करता हूं। अब मेरा फ़ैसला सुन लो, तुम्हें अपने कॉलेज या पति में से एक को चुनना है।“ शेखर तैश में खड़ा हो गया।
“यह कैसा फ़ैसला है? मैं आपके बारे में ऐसी बात कैसे सोच सकती हूं?” प्रिया विस्मित थी।
“मुझे हां या ना में जवाब चाहिए। तुम कॉलेज छोड़ोगी या नहीं?’ तमतमाए चेहरे से शेखर ने पूछा।
“नहीं।- - -।“ दृढता से प्रिया ने जवाब दिया।
“क्या, तुम्हारी यह मज़ाल? मेरी बात नहीं मानोगी। अभी इसी वक्त मेरे घर से निकल जाओ। आज के बाद ना तुम्हारे लिए इस घर में जगह है ना मेरी ज़िंदगी मे। फ़ौरन निकल जाओ वर्ना- - “शेखर ने हाथ उठाया था।
“यह क्या कह रहे हैं, मै कहां जाऊंगी?” प्रिया रुआसी हो आई।
“जहां जी चाहे जा मरो। मैंने फ़ैसला कर लिया। अब और बहस की तो अंजाम बुरा होगा।“
“मेरा क्या अपराध है, आखिर आपकी पत्नी हूं। कुछ तो सोचिए।“
“मुझे कुछ सोचना-समझना नहीं है। बहुत पर निकल आए हैं। नाउ गेट आउट ऑफ़ माई हाउस एंड माई लाइफ़्।“
‘सौरभ की तो सोचिए, वह बच्चा क्या माँ के बिना रह सकेगा?” प्रिया की आँखें भर आईं।
“तुम जैसी माँ के मुकाबले किसी हॉस्टेल में उसकी अच्छी देखरेख और परवरिश हो जाएगी। चार कपड़े लेकर निकल जाओ वर्ना मुझसे बुरा कोई नहीं होगा। अब मेरा टाइम वेस्ट मत करो। मुझे जानती नहीं हो, मैं कुछ भी कर सकता हूं। वकील हूं अपने को आसानी से बचा सकता हूं।“
शेखर के क्रोध के आगे और मिन्नतें करना व्यर्थ था। इस वक्त घर से बाहर जाना ही उचित था, पर कहां जाए वह?आज तो कॉलेज भी बंद था। मानस में एक ही चेहरा उभर रहा था, जो उसकी बात समझ सकेगा। शायद कुछ देर बाद जब शेखर का गुस्सा शांत हो तब वह अपनी भूल स्वीकार कर उसे वापस बुला लेगा॥
अचानक घर पहुंची प्रिया को देख कर रजत ताज्जुब में आगए।
“तुम अचानक यहां, सब ठीक तो है?”
“कुछ भी ठीक नहीं है, रजत। और कोई जगह नहीं थी जहां जाती।“ प्रिया की आँखें छलछला आईं।
“परेशान मत हो। इस घर और मुझ पर तुम्हारा पूरा अधिकार है। बैठो, मैं कॉफ़ी लाता हूं।“
प्रिया को कॉफ़ी का मग थमा, रजत उसके सामने सोफ़े पर बैठ गए। कॉफ़ी समाप्त कर प्रिया कुछ सामान्य हो चली। धीमे-धीमे अटकते-अटकते प्रिया सारी घटना दोहरा गई।
“समझ में नहीं आता पढे-लिखे इंसान का ऐसा सोच हो सकता है। छह वर्षों के साथ के बावज़ूद भी वह तुम्हें नहीं जान सके। पत्नी पर इस तरह शक करना अन्याय है।“ रजत ने गंभीरता से कहा।
“आगे के लिए क्या सोचा है, प्रिया?” प्रिया के मौन पर रजत ने पूछा।
“शेखर के बुलावे का इंतज़ार है और कर भी क्या सकती हूं।“
“इतने अपमान के बाद लौट कर क्या सम्मान पा सकोगी?” रजत ने दृष्टि प्रिया के चेहरे पर गड़ा दी।
“और कर भी क्या सकती हूं?” प्रिया के रुके आँसू फिर बह निकले।
“जैसे पल भर में उसने तुम्हें अपनी ज़िंदगी से निकाल फेंका है, तुम भी उसे अपनी ज़िंदगी से निकाल सकती हो।“
“औरत और आदमी में बहुत फ़र्क होता है, रजत।‘
“इसी सोच की वजह से औरत हमेशा हारती आई है। सच कहो, क्या तुम्हारा मन नहीं चहता, कोई तुम्हें, तुम्हारे पूरे वज़ूद को, तुम्हारी हर अच्छाई-कमी के साथ तुम्हें सच्चे मन से प्यार करे।‘
“जो नहीं मिला उसके बारे में क्या सोचना।“ अचानक प्रिया का मोबाइल बज उठा।
“शेखर का फ़ोन है।“ प्रिया उत्साहित हो उठी कान से फ़ोन लगाते ही शेखर की तीखी आवाज़ सुनाई दी थी-
“जानता हूं, अपने आशिक के पास बैठी मुंह काला कर रही हो। कल तलाक़ के कागज़ात पहुंच जाएंगे। चुपचाप पेपर्स पर साइन कर देना। साइन ना करने की हालत मे कोर्ट में बेइज़्ज़ती के लिए तैयार रहना। याद रखना, मै शहर का नामी वकील हूं। धज्जियां उड़ा कर रख दूंगा।“ बात खत्म करते ही फ़ोन कट गया था।
“निरपराध होते हुए भी मुझे तलाक़ की धमकी दे रहे हैं। इसके पहले कि शेखर के तलाक़ के कागज़ात पहुंचें, मैं शेखर को तलाक़ देना चाहती हूं। मुझे जो भी सहना पड़े, सहूंगी, पर शेखर के अहं को तो चोट पहुंचा सकूंगी। शेखर क्या मुझे छोड़ेंगे, मैं ही उनका परित्याग करूंगी। मेरी मदद कर सकते हो, रजत।
“वाह; यह हुई ना बात्। पुरुष हमेशा औरत की दुखती रग पर चोट करता है। स्त्री की कमज़ोरी उसके अहं को बढावा देती है। तुम ठीक सोच रही हो। मेरा वकील मित्र तुम्हारे तलाक़ के कागज़ात तैयार कर देगा। कल सुबह तक कागज़ात शेखर तक पहुंच जाएंगे। हां, एक बार फिर सोच लो।“
“मैं सोच चुकी हूं। अब पीछे नहीं हटूंगी।“ प्रिया के चेहरे पर दृढता थी।
“सौरभ के बारे में क्या सोचा है?”
“मुझे पूरा विश्वास है, समझदार होने पर वह जान जाएगा, मै निरपराध थी। वह मेरे पास ज़रूर आएगा।“
प्रिया के भेजे डाइवोर्स के पेपर्स देख कर शेखर बौखला गया। फ़ोन पर अपशब्दों की बौछार कर, तलाक़ के पेपर्स पर साइन कर दिया।
सौरभ से उसके स्कूल मिलने गई प्रिया को बताया गया उसे बेटे से ना मिलने देने की सख्त हिदायत दी गई है। प्रिंसिपल सहृदय महिला थीं, जोखिम उठा कर सौरभ को बुला दिया गया। बेटे को गले लगा कर प्रिया रो पड़ीं। नन्हे सौरभ ने उसके आँसू पोंछ कर कहा-
“रो मत मम्मी, पापा गंदे हैं। वो तुम पर चिल्लाते हैं। तुम अच्छी मम्मी हो, हम तुम्हारे साथ रहेंगे।“
“हां, बेटे, जब तुम बड़े हो जाओगे तब हम दोनो साथ रहेंगे।“ आंसू पोंछ प्रिया ने विदा ली। दूसरी बार सौरभ से मिलने जाने के लिए जब फ़ोन किया तो पता लगा उसे किसी दूसरे शहर के हॉस्टेल में भेज दिया गया है।
रजत नाथ ने प्रिया के लिए अलग अपार्ट्मेंट का इंतज़ाम ज़रूर करा दिया, पर उसकी हर ज़रूरत पूरी करना उनका फ़र्ज़ होता। लोगों की बातें अगर उन्होंने सुनी भी तो उन्हें नकार दिया गया। शेखर का इलाहाबाद शिफ़्ट कर जाना, उसके पुरुष की पराजय ही थी। प्रिया ने अपने को नई ज़िंदगी में ढाल ज़रूर लिया, पर सौरभ की याद उसे बेचैन कर देती। रजत जी के कहने पर प्रिया ने उपन्यास लिखना शुरू किया था।
“तुम्हारे जीवन में इतना कुछ घटा है, प्रिया, उसे एक उपन्यास का रूप आसानी से दे सकती हो। तुम्हारे पास एक सशक्त लेखनी है, यह उपन्यास तुम्हारी उपलब्धि होगी।“
उपन्यास लिखने में प्रिया पूरी तरह से डूब गई। अचानक उसने महसूस किया उपन्यास का नायक रजत जैसा बन गया है। कुछ पृष्ठ पढ कर रजत ने सहास्य पूछा-
“तुम्हारे नायक को उसकी नायिका कभी मिल भी सकेगी या आजीवन वह उसकी आराध्या ही बनी रहेगी?’”
“आराध्य तो नायिका का नायक है, रजत।“
“फिर दोनो के मिलन में बाधा क्या है, प्रिया?”
अनुत्तरित प्रिया के दोनो हाथ अपने हाथों में ले कर रजत ने प्यार से कहा-
“बहुत प्रतीक्षा कर ली, प्रिया। अब इस अकिंचन को अपना जीवन साथी बना लो, हम विवाह कर लें।“
“नहीं, रजत, मैं विवाह शब्द में विश्वास नहीं करती। प्रेम-विवाह भी असफल हो जाते हैं। मैं नहीं चाहती, हम दोनो के बीच जो प्यारा रिश्ता है, वो विवाह के बाद मज़बूरी का बब्धन बन जाए।“
“ऐसा नहीं होगा, प्रिया। हमारा रिश्ता कभी मज़बूरी का नहीं हो सकता। मुझ पर विश्वास है न?
“तुम्हारा विश्वास ही तो मेरा संबल है, रजत, पर विवाह पर कतई विश्वास नहीं कर सकती।“
“मुझ पर विश्वास है, तो हम दोनो एक क्यों नहीं हो सकते, प्रिया?’
“उम्र की इस सीढी पर ऐसा सोचना क्या ठीक है, रजत?"
“प्यार की कोई उम्र नहीं होती, प्रिया। मैंने कब सोचा था, वर्षों बाद इस वैरागी- मन के तार प्यार की धुन पर झकृत हो उठेंगे? विश्वास करो विवाह हमे पूर्ण कर देगा। मेरी बात मान लो।“
“नहीं रजत, विवाह का बंधन मुझे स्वीकार नहीं।‘
“अगर तुम विवाह नहीं चाहतीं तो हम बिना विवाह किए भी तो एक छत के नीचे साथ-साथ रह सकते हैं। विश्वास करो, मैं ऐसा कुछ नहीं मागूंगा जो तुम्हें अस्वीकार हो।“‘गंभीर स्वर में अपना प्रस्ताव दे कर रजत चुप हो गए।
“एक छत के नीचे पूर्णता प्राप्त करने की जगह शायद हम दो हिस्सों में बंट जाएं, रजत।‘
‘ऐसा क्यों कह रही हो, प्रिया? साथ रहने से तो प्यार बढता है।“ रजत विस्मित थे।
“क्या एक छत के नीचे ना रहते हुए भी हम साथ नहीं हैं, रजत? मैं तो हर पल तुम्हें अपने साथ पाती हूं। हो सकता है एक छत के नीचे रहते हुए हमारी दूरियां बढ जाएं। अगर हम एक-दूसरे की अपेक्षाओं पर खरे न उतर सके या एक दूसरे की कमियां नज़र आने लगें तो क्या होगा? मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती, रजत।“ हाथों में चेहरा ढांप प्रिया रो पड़ी। बड़े प्यार से प्रिया के आँसू पोंछ रजत ने कहा-
“तुम्हारी हर शर्त, हर बात सिर आँखों, प्रिया। तुमने सच कहा हमारा रिश्ता अटूट है। इसे कोई नाम देने की ज़रूरत नहीं है। इसी बात पर एक कप कॉफ़ी हो जाए।“ बड़े स्वाभाविक अंदाज़ में हंसते हुए रजत ने फ़र्माइश कर डाली।
प्रिया का आँसू भरा चेहरा चमक उठा। रजत की इसी ख़ासियत ने तो प्रिया को हमेशा मुग्ध किया है। गंभीर से गंभीर समस्या का हल वह किस आसानी से कर जाते हैं। आज भी तो वैसा ही हुआ, प्रिया की दुविधा कितनी आसानी से एक कप कॉफ़ी ने तिरोहित कर दी।