तुम कब आओगे अतिथि / कमलेश पाण्डेय
आज तुम्हारे प्रस्थान के चौथे दिवस एक ही प्रश्न मन में गोल-गोल घूम रहा है- तुम कब आओगे अतिथि, और अगर नहीं आये तो तुम-सा दूजा कहां मिलेगा!
वो दिन स्मृति के बार-बार कौंध रहे हैं जब तुम हमारे दड़बे जैसे घर में अपनी दुबली पतली काया, मगर मोटे पर्स के साथ पधारे थे। हमने अख़बार के ज़रिये एक पेइंग-गेस्ट आमंत्रित किया था जिसके लिये अपने ढाई कमरे के फ्लैट के आधे कमरे से कबाड़ हटाकर जगह बना दी थी। पड़ोस वाले गुप्ताजी ने ही बताया था कि उनके घर एक ऐसा अतिथि रहता है जो महज़ साथ रहने और खाने-पीने के मोटी रक़म देता है। यह सुन कर मेरी बीबी की आंखें ईर्ष्या और कुटिलता से मिचमिची हो उठी थीं। बरसों पहले उसकी इसी अदा पर रीझ कर मैंने उसे अपनी सतत बेरोज़गारी से उपजे निठल्लेपन का साथी बनाया था। पहले तो उसने गुप्ताजी के पेइंग गेस्ट को ही तोड़ने की कोशिश की। उसे डिनर पर बुलाकर अपनी पाक-कला और दरियादिली का नमूना दिखाया। पर जाने बीबी के बनाए भोजन के स्वाद की वज्ह से या दिल के दरिया में दलदल की संभावना परख ली कि वह बिदक गया और फिर नहीं लौटा।
फिर तुम आये। तुम्हारे पूरे वज़ूद से मजबूरी टपक रही थी। तुमने सहर्ष हमारा अतिथि बनना स्वीकारा और बिना बहस किये तीन महीने का एडवांस पेश किया। गुप्ता दंपति तो जल मरे और हमारे यहां सबके मन में अच्छे दिनों की उम्मीद के दिये जल उठे। पर आज डेढ़ माह भी पूरे न हुए और तुम बाक़ी डेढ़ माह का एडवांस तक छोड़ कर चल दिये। ऐसी भी क्या ख़ता हुई हमसे!
अतिथि देवता होता है, इसका तुमने जीता-जागता नमूना पेश किया। पहले ही दिन तुम हमें डिनर पर बाहर ले गये, जहां हमें बरसों से न चखे गये व्यंजन चखाये। बच्चों ने तो कभी ज़िंदगी में रेस्तरां देखा तक नहीं था। बटर-चिकन के पांच प्लेट तो हमारे ही बीच निबट गये। हमारी इस विकट भूख और कुर्सी-टेबल-छुरी कांटों के बीच तमाम उज़बक़ हरकतों पर मुस्कराते हुए तुमने बिल का भुगतान किया।
हमारे घर के कोने में कबाड़ हटा कर बनाई जगह पर तुम क्या पधारे, हमारा घर तो मंदिर हो गया। इस मंदिर का देवता अपने भक्तों पर ही अर्घ्य चढ़ाता था। टूटी चारपायी पर तुमने मुलायम गद्दा डाला और साफ चादर बिछायी. उसपर हमारी तीन साल की टुनिया जी-भर कर लोटी। देर शाम घर लौटने पर अपनी सिलवटों भरी चादर देखकर भी तुम्हारे माथे पर कभी सिलवट नहीं पड़ी। शुरु-शुरू में ज़रा पड़ी भी तो मेरी स्त्री ने उसे अपनी गर्म जुबां से तुरंत सीधा कर दिया।
आज संडास के बाहर लगी नल की टूंटी के पास पड़े लगभग घिस चुके साबुन को देख सहम जाना पड़ रहा है कि डेढ़ महीने से उस खुशबू का आदी हो जाने के बाद बिन साबुन या पांच टकिया साबुन से हम कैसे नहा पायेंगे। आज सुबह ही बच्चों ने तुम्हारे टूथपेस्ट के ट्यूब की चीड़-फाड़ कर आखिरी कतरा भी निकाल लिया। कल से फिर वही कोयला या उसकी राख। वो शीशी, जिसके सर को दबाते ही कमरा खुशबू से भर जाता था और जिसे तुम रुम प्रे़फशनर कहते थे, उसके बिना अब कमरे और संडास से एक जैसी बास आ रही है। हमारे पुरखों ने भी ऐसी चीजें नहीं देखी थीं जो तुम्हारी अटैची में भरी थीं। तुमने ताक पर जो क्रीम का ट्यूब रखा था उसे मेरी बीबी कुछ दिनों तक चेहरे पर लगा-लगा कर हैरान होती रही कि वह चिपचिपी क्यों है। एक रोज उसके चेहरे पर झाग देखकर मैंने ही उसे बताया कि वो शेविंग क्रीम थी। बाद में तुम्हारी अटैची से ढूँढ कर उसने सही क्रीम निकाल ली थी।
हे मेरे हर बिल का भुगतान करने वाले अतिथि! तुम्हारे सानिंध्य में हमने ख़ुद को ग़रीबी की रेखा पार कर मध्यम वर्ग के घेरे में प्रवेश करता पाया। तुम्हारा एडवांस तो पहले ही हफ्ते बीबी की साड़ी, बच्चों के कपड़े और बरसों से अंग्रेजी की बोतल को तरसती मेरी आत्मा को तृप्त करने में चुक गया था। आज ये भी याद आ रहा है कि मद्य के मद में मैंने बाद में तुमसे जो पैसे लिये वो तुमने दान समझकर दिये और मैंने एडवांस ही समझकर लिये। तुम्हारे जाने के बाद तो कल देसी भी नसीब नहीं हुई। आगे तुम्हारी और हमारी जीवन-शैली के बीच की दूरी पाटने में मेरी बीबी की चतुराई और तुम्हारी मजबूरी का बड़ा हाथ रहा। हमारे द्वारा परोसी गई आलू की पनियल सब्जी और सूखी रोटियां तुम खु़शी-ख़ुशी निगलते रहे तो आए दिन इस डिनर से बचने के लिये हमारी शर्तों के मुताबिक़ बाहर खाना खिलाने भी ले जाते रहे।
तुम जैसे अतिथि के साथ रहने का सुख पूरे घर में यों पैफला कि हमें ये इल्हाम होने लगा कि तुम पूर्व जन्म के हमारे कोई कर्ज़दार हो और आजीवन हमारे ही साथ रहकर उस क़र्ज़ की पाई-पाई चुकाते रहोगे। दिन के छह-सात घंटों को छोड़, जब तुम जाने पढ़ने जाते थे या पढ़ाने, हर पल का साथ था। टुनिया तो तुम्हारे ही साथ सोने लगी थी। सुब्ह-सुब्ह जब तुम गीली चादर लांड्री में भिजवाते तो बीबी हमारे कपड़े भी साथ रवाना कर देती। बिल तुम ही चुका देते थे। दरअसल, हे अतिथि! तुम्हारे नाम के आगे जो ‘पेइंग’ शब्द जुड़ा था उसे तुमने हमेशा चरितार्थ किया। हर मौक़े पर हर चीज़ के लिये ‘पे’ किया। दूसरी ओर तुम ‘गेस्ट’ भी बने रहे, कुछ भी मांगने में हमेशा संकोच किया। हालांकि संकोच न भी किया होता तो हमसे तुम क्या मांग लेते। तुम सच्चे अर्थों में पेइंग गेस्ट निकले।
तुम्हारे यों चले जाने से पूरे घर को सदमा पहुंचा है। देवता के चले जाने से ज्यों मंदिर उजाड़ हो जाता है वैसे ही हमारे घर का वो कोना भांय-भांय कर रहा है, जिधर अब भी तुम्हारी चारपाई धरी है। पास ही तुम्हारी अटैची तथा कुछ और सामान पड़ा है। जाने हमारा घर छोड़ भागने की ऐसी क्या जल्दी थी कि बस थैले भर सामान के सिवा सब यहीं छोड़ गये। मेरी बीबी ने उन्हें खंगालने के बाद बताया कि उसमें बस किताबें और कुछ पुराने कपड़े हैं. तुम्हारे लौट आने की आशा में तुम्हारा ये सामान मैं कबाड़ी को भी नही बेच पा रहा। जाने तुम कब आओगे अतिथि। अब आओगे भी या नही।
एक राज़ की बात और है। तुम्हारे जाने के बाद मुनिया कुछ गुमसुम रहने लगी है। बीबी ने बताया कि रोज़ कालेज से लौटकर तुम्हारी चारपाई को निहारती है। बीबी ने अठारह साल की मुनिया के लिये कुछ सपने भी बुनने शुरु कर दिये थे। तेरा जाना, उसके दिल के अरमानों का लुट जाना साबित हो रहा है अतिथि!
मुनिया ही नहीं हमारे लिये तो पूरी दुनिया ही उदास है। घर की हर शै पर मनहूसियत का साया है। नल की वह टोंटी गर्दन लटकाये है जिसके नीचे रुकते-गिरते पानी में तुम और तुम्हारे बाहर जाने के बाद हम तुम्हारे ख़ुशबुदार साबुन से नहाते थे। दीवार में जड़ा वो टूटा शीशा जिसमें उचक-उचक कर, कोण बदल-बदल कर तुम दाढ़ी बनाते थे, आज हमारी लटकी सूरतों को मुंह चिढ़ा रहा है। वो चारपाई जो तुम्हारी करवटों पर ख़ुशी से चर्र-चूं किया करती थी अब मानो तुम्हारे विरह में कराहती है। उस पर पड़ी तुम्हारी सफ़ेद चादर के बारे में क्या कहूँ, उसकी तो सिलवटें भी इन चार दिनों में दुख से काली पड़ गई हैं।
खुद अपना हाल भी कैसे बयान करूं। मेरा गिलास अब कभी-कभी की संगिनी बोतल की याद में तड़प रहा है। वक़्त-बेवक़्त ज़रुरत पर न लौटाए जा सकने वाला कर्ज़ देने वाले मेरे संकट मोचक, मेरी ख़ाली जेब तुम्हें बेतरह याद कर रही है। तुम्हारा जाना मेरे बचे-खुचे आत्मविश्वास के लिये संघातक साबित हो रहा है।
तुम लौट कर आओगे न अतिथि!