तुम तो प्यार हो / माया का मालकौंस / सुशोभित

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तुम तो प्यार हो
सुशोभित


फ़िल्म 'सेहरा' का यह निहायत ही शैदाई गाना है ।

ग़रज़ ये कि प्यार अगर शहद का एक छत्ता है तो बूँद-बूँद कर उसी से चूता हुआ, ख़ुद प्यार ।

'तुम तो प्यार हो सजनी

मुझे तुमसे प्यारा

और ना कोई ।'

रेगिस्तान में फ़िल्माया गाना, क्योंकि फ़िल्म राजस्थान की पृष्ठभूमि में है । क्या ही अचरज कि ‘सेहरा' लफ़्ज़ का मतलब दूल्हे का मौर तो होता ही है, रेगिस्तान भी होता है, दश्त भी होता है। लिहाज़ा, मरुथल में बहती प्रेमधारा जैसा ही वह गाना है।

रफ़ी-लता युगल के शीर्ष गीतों में शुमार । गायन में रफ़ी जैसा प्रणयी पुरुष कोई ना हुआ। गायिकाओं में लता जैसी प्रणयिनी आप कहाँ से खोजकर लाएँगे? जब ये दोनों तरन्नुम में गाते हैं तो उसके बाद परदे पर दिखाई देने वाले नायक-नायिकाओं को केवल रंगीन परछाइयों की तरह वहाँ मौजूद होना होता है, उनके अंतरंग पहले ही पृष्ठसंगीत में रचे जा चुके होते हैं। जैसे कि यहाँ । कि अब रजत-पट पर केवल ‘पुतुल - खेला' है, रफ़ी - लता स्वर सितारे की तरह उन्हें पथ दिखलाता है।

इस गीत को धुन में बाँधा था रामलाल ने । पूरा नाम रामलाल चौधरी। वे

मूलतः शहनाई वादक थे । इसी फ़िल्म के एक अन्य गीत 'तक़दीर का फ़साना गाकर किसे सुनाएँ' की आत्म- आलोड़न से भरी, विलाप करती शहनाई याद कीजिए। वह रामलाल का ही कमाल था, जो इस फ़िल्म से पहले रामलाल हीरापन्ना नाम से बी-ग्रेड की फ़िल्मों में संगीत दिया करते थे । ये और बात है कि उनके शागिर्दों लक्ष्मी- प्यारे ने आगे चलकर बहुत नाम कमाना था।

रामलाल बाँसुरी भी बहुत उम्दा बजाते थे और 'ज़िंदा हूँ इस तरह के ग़मे-ज़िंदगी नहीं' में उन्हीं की बाँसुरी बजी है।

साल 2007 में संगीत की यह अग्निशलाका बंबई के किसी उपनगर में चुपचाप बुझ गई और किसी को कानों कान ख़बर तक नहीं हुई थी ।

हस्बेमामूल, हसरत जयपुरी के वो जादुई बोल हैं-

'तुम तो प्यार हो...'

मैं अकसर सोचता रहता कि वैसे बोल सन् तिरसठ से पहले कोई क्यों नहीं सोच सका था।

दरअस्ल, इस बयान के दो मतलब निकलते हैं।

अव्वल तो ये कि ‘मैं तुम से प्यार नहीं करता' – क्रिया की तरह, प्रयोज्य की तरह, 'तुम स्वयं प्यार हो' – संज्ञा की तरह, सर्वनाम की तरह।

दूसरा ये कि 'मुझे तुमसे प्यार नहीं है' - व्यक्ति की तरह, मानुष की तरह - 'मुझे प्यार से प्यार है' - अभिधा की तरह, व्यंजना की तरह ।

और जैसे चंद्रहास से, ज्योत्स्ना से, तिमिर - निशा भी रोशनी के ज़ेवर पहन लेती है, वैसे ही प्यार से मुझको जो प्यार है, उसी की सिफ़त से तुम भी मेरे लिए प्यार की एक व्यक्ति - व्यंजना बन गई हो ।

पहले बयान का आशय यह कि तुम्हारे साथ होने का अर्थ ही प्रेम में होना है।

दूसरे बयान का आशय यह कि मैं प्रेम में हूँ इसलिए तुम्हारे साथ हूँ । जैसा रुचे, अब तुम चुन लो, फ़र्क़ कुछ उससे पड़ना नहीं है वैसे । किंतु गीत के बीच में एक बहुत ही मासूम शै घटित होती है।

‘सच, मेरी क़सम ?'

कि गुनगुनाती हुई यह धुन पलभर को रुक जाती है और धड़कती हुई नब्ज़ फुसफुसाकर एक सवाल पूछती है-

'सच, मेरी क़सम ?'

और तब, ‘तेरी क़सम तेरी याद मुझे लूटे' का विषय-प्रवर्तन है । जिसका प्रत्युत्तर अनुगूँज की तरह लौटकर आता है - ' क़समें तो खाने वाले होते हैं झूठे ।' और फिर- उलाहना और उपालम्भ के स्वर में - 'चलो जाओ, हटो जाओ, दिल का दामन छोड़ो..। तुम तो प्यार हो...'

'दिल का दाग़' से 'दिल का दामन' तक का सफ़र है यह, एक ही फ़िल्म में, जो हसरत जयपुरी ने तय कर लिया था।

सच पूछो तो 'सेहरा' से आठ साल पहले आई फ़िल्म 'झनक झनक पायल बाजै' में भी वैसा ही हुआ था ।

यही लता थीं, यही संध्या थीं, यही वी. शांताराम थे और यही हसरत जयपुरी थे।

गीत था-

‘नैन सो नैन नाहिं मिलाओ, देखत सूरत आवत लाज ।'

और उसके मध्य में फिर वही एक ठिठक-

'रुक क्यों गए?'

बाद जिसके-

'तुमने चोरी कर ली कमान, कैसे मारूँ प्रीत का बान, गुइयां...'

ये जो 'गुइयाँ' है, उसके बाद केवल निछावर होने का ही नियम शेष रहता हैं।

‘प्यार से प्यार आके सजाओ,

मधुर मिलन गावत आज...'

ये हसरत जयपुरी आरके बैनर की फ़िल्मों में कहाँ खो जाते थे? आरके के मिज़ाज मुताबिक़ गाना लिखना शैलेंद्र को भलीभाँति आता था । किंतु हसरत जयपुरी के भीतर का 'गीत गोविंद' तो शांताराम के यहाँ आकर ही जीवंत हो उठता था।

जैसे शांताराम कवि, वैसे ही हसरत शायर ।

शांताराम ने अपनी फ़िल्मों के माध्यम से हृदय की भावनाओं और देह की लय का कैसा तो मनोरम नाट्य रचा है । उस पर कभी उम्रभर की फ़ुरसत से ही बात की जा सकेगी।

भारतीयता में ओतप्रोत सिनेमा, जिसमें रंगमंच के पारम्परिक तत्वों का निःशंक विन्यास |

और कभी वसंत देसाई, कभी चितलकर, कभी रामलाल उनके यहाँ ‘गंधर्व-गायन' का शिल्प रचते, हसरत जयपुरी के बोल ही एक धुरी की तरह उसमें अडिग रहे हैं।

'तुम तो प्यार हो' - यह हमारे सिने-संगीत के शीर्ष प्रणय-गीतों में से है- एक भोजपत्र पर मैं यह वाक्य लिखता हूँ, रक्त से उस पर हस्ताक्षर करता हूँ, और ऊपर हृदय की मोहर लगा देता हूँ ।

दिल की यह गाँठ है, सजनी । खोले ना खुलेगी, चाहे जितने पवित्र वचनों की जैसी गिरहें दामन में लगा लो तुम ।

‘सच, मेरी क़सम?’

हाँ!

‘मेरी हमदम, ओ मेरी हमदम, मेरी बात तो मानो-

मुझे तुम से प्यारा और ना कोई...