तुम न आए ...... / ज्योत्स्ना शर्मा
खिले, नीले आकाश में रंग-बिरंगी पतंगें, मुंडेर से झाँकता फूलों से लदा गुलमोहर, हवा के झोंकों की मादक सुगंध और कोयल की कूहू का मीठा संगीत, क्या कहिए कि फगुनाहट थी, हर मन मगन था। सुहानी धूप में छत पर बाल सुखाने क्या गई, जादू-सा छा गया, मेरे मन की मटकी भी भावों की मदिरा से भरी छलकने लगी। कविता थी कि उमड़-उमड़ आ रही थी। आज तो कोई बहुत सुन्दर रचना बनेगी ...मस्त! 'तुम न आए' गुनगुनाती हुई गई और पेपर-पेन्सिल उठा लाई. 'तुम न आए' ...वाह मुखड़ा तो बन ही गया समझो! चटाई बिछाकर अपनी कलम सँभाली ही थी कि पड़ोस की छत से समवेत स्वर आया, "वो काटा" , लो अभी तो शुरुआत ही हुई थी और ये पतंगबाज़! खैर! मुझे इनसे क्या। चलो श्री गणेश किया जाए, माँ सरस्वती को मन ही मन नमन करते मैंने लिखा 'तुम न आए ...' तभी धीर-गंभीर स्वर, "अरे निर्मल कुछ लिख रही हो क्या? मुझे भी पढ़वाना, तुम्हारी कविता अखबार में पढ़ी थी, अच्छा लिख लेती हो।" जी ज़रूर कहते-कहते मैंने पुनः लिखने का उपक्रम किया।
"किसलय फूटे, वन-उपवन मुस्काए, तुम न आए" ...वाह वाह ...आत्ममुग्ध होते हुए मैं खुद ही सोचकर मुस्कुरा दी, किसकी प्रतीक्षा है मुझे? उम्र, ऋतुओं और स्वभाव का कैसा मधुर सम्बन्ध है, कैसे विस्मयकारी परिवर्तन देते हैं ये। आगे बढ़ती हूँ कि फोन बज उठा, "दीदी परसों हिन्दी का पेपर है, कितने बजे आ जाऊँ?" मोहना जी की बिटिया थी। चार बजे आ जाना कहकर पेन्सिल उठाई, दो घंटे में तो दो गीत लिखूँगी। हाँ तो ... 'तुम न आए' ...अरे यह पंक्तियाँ किसी और की तो मन में नहीं घूम रहीं? बाद में देख लेंगे, अभी तो 'किसलय फूटे ...कि अम्मा चली आ रहीं हैं हाँफती-काँपती, हाथ में आलू की पिट्ठी का थाल और पीछे धुले कपड़ों से भरी बाल्टी लिए भैया। "अरी निम्मो! ये पापड़ बनाने हैं, ज़रा हाथ तो बटा मेरी बिट्टो! दो जन बनाएँगे तो जल्दी बन जाएँगे और ये कपड़े सुखा दियो पहले"। तो अब पापड़ बेलने थे, मतलब बनाने थे, बनाए. माँ के नीचे जाते ही सुकून से अपनी पंक्ति पकड़ी...' तुम न आए' ...किसलय फूटे, वन-उपवन मुस्काए, तुम न आए" ...अहाहा...जैसे मन में छलिया वसंत आ विराजा, कैसे रिझा-रिझाकर खिझा रहा है मन मोहन!
मधुर नाम की पुकार फिर सुनाई दी, "अरी निम्मो! ये मोहना की बिटिया आई है, इसकी मदद कर बेटा" , जी अम्मा! ऊपर ही भेज दीजिए. हिन्दी व्याकरण और कुछ कविताएँ समझाकर विदा किया। सच में हिन्दी पठन, पाठन, लेखन कितना सुखकर है। मन को बड़ा संतोष मिला। पुनः अधलिखे पन्नों की ओर हसरत से देखा, 'तुम न आए' ... 'दहके फूल पलाश, धरा ने स्वर्णिम रूप धरा' ...वाह वाह कि मुँह से आह निकल गई, भैया खड़ा था, "दीदी माँ कह रही हैं ज़रा पापड़ पलट देना एक बार"। हाँ, हाँ क्यों नहीं, चलो पापड़ पलट दिए. 'धरा ने स्वर्णिम रूप धरा' क्या पंक्ति बनी है ...अब आगे ...क्या लिख रही थी ...बड़ी विवशता है, मेरी एक बार लय छूटे तो फिर पकडे नहीं बनती। यहाँ तो परीक्षाओं की झड़ी लगी थी। आँख बंदकर मन एकाग्र करती हूँ ...'स्वर्णिम रूप धरा' ...कि हवा ने मस्ती की, सारे पेपर उड़ गए और एक कटी पतंग़ ने ठक से सिर पर वार किया। उसे क्या कहती, वह तो खुद ही बेचारी गिरी-पड़ी थी। पेपर समेटकर सिर सहलाती पलटी ही थी कि देखा सारे पापड़ उड़ने की फ़िराक में हैं। माँ फिर पुकारें, उससे पहले ही पापड़ों को यथास्थान सजा, चुन्नी से ढककर पत्थर रख दिया। चलो अब सब ठीक कि अभिषेक खड़े थे, "क्या लिखा निम्मो, बताओ तो" ?
...ओह! 'तुम न आए' यह कहा ही क्यों? मैं हथेली पर मुख टिकाए सोच रही थी, क्या कहूँ, मन-आँगन के मानी अतिथि तो कब के वापस जा चुके थे।