तुम भी / राजी सेठ / पृष्ठ 1

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तुम भी
राजी सेठ

रात जब उसकी नींद खुली तो आज फिर वह बिस्तर पर नहीं था। दो क्षण अडोल पड़ी रही। बाथरूम की दिशा में कान दिए...रात खामोश थी...कोई आवाज़ न होने से उसे लगा, दिन होने में देरी है...बीच रात का पहर है...सन्नाटे से भरा। दरवाज़े की सांकल हलकी-सी बजी...खिश्श-खिश्श की ध्वनि। पूर्व ज्ञान न होता तो शायद समझ न पाती कि बोरी घसीटी जाकर दरवाज़े के पीछे रख दी गई है। प्राण जैसे कहीं और बंधे हों, ऐसी सीने के भीतर टंगी जाती सांस ...चुप पड़ी रही। वह आया...सुराही से पानी उंड़ेला...गटगट पिया और धीरे, बहुत धीरे खाट पर बैठ गया। क्यों करते हो तुम यह पाप? पत्नी ने उठकर उसकी कलाई पकड़ ली। पर यह उसके अपने हाथ में अपनी ही कलाई थी। पति की कलाई पकड़कर यूं कह डालने का साहस उसमें नहीं था...उस क्षण का सामना करने का...पति को लज्जित करने का...बीच चाहे अंधेरे का परदा था...पर अंधेरे में, सन्नाटे में यह सब अधिक साफष् दिखता है, साफष् सुना जाता है। सवेरे घर बुहारते वह उस कोने में जाना बचा गई। देर से उठते पति के आलस्य को अनदेखा कर गई...बोरी ढोकर ले जाने का अहसास होने पर भी बाहर टिफिन देने न गई...सवी को भेज दिया...। अनाज के इस मालगोदाम की रखवाली के ही लिए रखे गए थे वह। लाला ने यही सोचकर यह छोटा-सा दो कोठरियों काचाहे टूटा-सा घर उन्हें बिना भाड़े के दे दिया थाअागे एक छोटा-सा सहन और दालान। क्लर्की से कुछ बनता नहीं था। बीमार मां, एक बहन, एक भाई और तीन बच्चे...बहन जैसे- तैसे ब्याह गई थी...भाई होशियार था, अपने पाए वज़ीफे से पढ़ रहा था...कभी- कभार आता था और बड़े भाई के कंधे पर एक नपुंसक दिलासा छोड़ जाता था...अभी उसकी तीन साल की पढ़ाई बाकी थी...तब तक सवी सोलह की हो जाएगी और गुल्लू बारह का। गीतू तो अभी छोटी थीएक का ब्याह, दूसरे की पढ़ाई...। इन दो सुलगते सवालों से आंखें भींच लेना चाहते थे वे...जो कुछ जोड़ा, बचाया था, पिछले साल मां की बीमारी में...'सेरीबरल'...कुछ ऐसी ही टेढ़ी-मेढ़ी बातें कही थीं डॉक्टर ने... 'पहले बहत्तार घंटे खींच गई तो जी जाएंगी।' ऐंठे हुए अंगों और ऊपर टंगी हुई पुतलियों के बावजूद मां जी गई थीं। और जीने की डोर रुपयों की थैली के साथ बंधी यथार्थ की चर्खी पर खिंचती सतत। ऊपर-नीचे। बार-बार... अपने मन का चोर वह जानती है। उसे लगा करता है, मरना तो है, एक दिन सबको...हर किसी को...क्या फर्ष्कष् पड़ता है! मां जी गईं तो पीछे जीवित रहने वाले सबके-सब। वह, अमर, देबू, सवी, गुल्लू, गीतूसब मर जाएंगे...धीरे- धीरे। सिर्फ डॉक्टर खाएगा और गले पड़ी बीमारी...नहीं तो सब खाते...थोड़ा- थोड़ा...साधकर, संभालकर... छि:! छि:! क्या सोचती रहती है। अमर जान जाएगा तो क्या सोचेगा...? 'ऐसा न्याय घरों में नहीं होता...श्मशानों में, अस्पतालों में होता है, लाशें आधी रात या मुंह-अंधेरे बिकने आती हैं बीस-बीस रुपये में।' देबू बताया करता है, 'साइकिलों पर लंबे-लंबे पैंडें मारकर लाशें लादकर लाते हैं सगे-संबंधियों की। बीस-पच्चीस रुपयों की ख़ातिर...' 'संबंध तो वैसे ही मर गया है डाकदर साब ...यह तो मिट्टी है...' 'यह बात संबंध से ज्यादा जानदार होती है क्योंकि रोटी दे सकती है,' देबू यह बात अपनी तरफष् से जोड़ देता है। बस-बस, देबू...बस कर! उसने सुनते-सुनते घबराकर कहा था, आदमी की चेतना क्या इतनी मर जाती है? किस चेतना की बात करती हो भाभी...शास्तर वाली चेतना की? चुप देबू...शास्तर का नाम न ले...पढ़-लिख गया है, तो इसका यह मतलब तो नहीं... एक बार मेरे साथ अस्पताल चलकर देखो भाभी। और अस्पताल गए बिना ही वह देख रही है...देख लेती है। अपने को। अपने भीतर पनपते विषाणुओं को। मां जीवित रहेंगी तो सबके भविष्य का संतुलन डोल जाएगा। देबू की बात इतनी नंगी...इतने पास। मन की शांति कहीं उड़ गई थी...उठते-बैठते मां की जगह एक लाश दीखने लग गई थी...उसने एक दिन डरते-डरते अमर से पूछा, क्या तुम्हें भी लगता है कि... क्या? कुछ नहीं...यही कि पैसे कम होते जा रहे हैं। कितने बचे हैं? तुम तो आज पोस्ट ऑफिष्स गए थे न? एक दीर्घ दृष्टि से उसे भांपता वह चुप रहा। तुमने जवाब नहीं दिया...कितना बचा है अब? तुम्हें हर बात से क्या मतलब? मतलब क्यों नहीं...सब कुछ तुम्हारे अकेले के सिर...क्या मैं जानती नहीं, अब तो तुम भर पेट खाना भी नहीं खाते... ओह! चुप रह सरना...मैं कहता हं, तू चुप रह...ऐसी दया से मुझे न तोड़...' ' वह सहम गई।

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