तुम लोग / पंकज सुबीर

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"लाहौल विला कुव्वत, पंडत तुमसे तो कोई बात भी करना फ़िज़ूल है। एसा लगता है मानो ज़माने भर के सारे पत्थर तुम्हारी अकल पर ही पड़े गए हों।" अज़ीज़ फ़ारूक़ी ने बुरा-सा मुंह बनाते हुए कहा।

आज फिर दोनों उलझे बैठे हैं। वैसे ये कोई नई बात है भी नहीं। सबको पता है कि शाम का मतलब इन दोनों के लिए बहस और झगड़ा ही है। छोटी मोटी बहस से शुरु हुई बात कभी-कभी काफ़ी आगे तक जा पहुँचती है। एक दूसरे को जी भर कर विश्लेषणों से नवाजते हैं दोनों और फिर जब जी हल्का हो जाता है तो अपने-अपने घर को बढ़ लेते हैं। मगर बात कितनी ही बढ़ जाए सबको पता है कि अगले दिन सूरज के ढलते ना ढलते दोनों फिर आ डटेंगे प्रकाश हलवाई की दुकान के बाहर पड़ी बैंच पर। घंटे डेढ़ घंटे में चार पाँच चाय पी जाऐंगे और चाय पी पीकर कोसते रहेंगे एक दूसरे को। चाय भी एक फीकी तो एक ठंडी। अज़ीज़ फ़ारूक़ी को मधुमेह है तो ब्रह्मस्वरूप शर्मा को पेट के छालों की समस्या है।

"हाँ जी सारी अक़्ल तो ऊपर वाले ने आपके ही दिमाग़ में भर दी है, बाक़ी हम सब तो मूढ़मति ही हैं।" अपनी ठंडी हो चुकी चाय की लंबी-सी चुस्की लेते हुए कहा ब्रह्मस्वरूप शर्मा ने।

"चलो ख़ुदा का शुकर है बुढ़ापे में तो तुमने सच को क़ुबूल किया।" व्यंग्य के भाव से आसमान की तरफ़ हाथ उठाते हुए कहा अज़ीज़ फ़ारूक़ी ने।

"कौन-सा सच?" ब्रह्मस्वरूप ने कुछ अचरज भरे स्वर में पूछा।

"यही कि तुम मूढ़मति हो।" लगभग हँसते हुए उत्तर दिया अज़ीज़ फ़ारूक़ी ने।

"हद है।" पंडित ब्रह्मस्वरूप ने चाय के ख़ाली ग्लास को टेबल पर पटकते हुए गुस्से में कहा।

"हद मैं कर रहा हूँ कि तुम कर रहे हो। मैंने तो सीधी-सी एक बात कही थी कि" सातों दिन भगवान के क्या मंगल क्या पीर"अरे भई अगर बच्चे को मोटर साईकल ही दिलवानी है तो कल महीने के दूसरे शनीचर की छुट्टी है इतमिनान से शहर जाकर गाड़ियाँ देखो मुतमईन हो जाओ तो ले आओ। संडे के दिन शोरूम वाले आपके लिए दुकानों के शटर उठाकर बैठे नहीं रहेंगे कि बैरसिया वाले पंडत ब्रह्मस्वरूप जी शर्मा आज मोटर साइकल खरीदने आ रहे हैं सो आज कोई भी दुकान बंद नहीं रहेगी।" व्यंग्यात्मक लहजे में लंबी बात ख़त्म करके अज़ीज़ फ़ारूक़ी ने जेब से अपना बटुआ निकाल लिया।

"शनिवार को लोहा नहीं ख़रीदा जाता है ये बात मैं साढ़े इक्कीस बार गला फाड़-फाड़ कर आपको बतला चुका हूँ।" पंडित ब्रह्मस्वरूप ने रोषपूर्ण स्वर में उत्तर दिया।

"हाँ जी, वह आसमान पर घूमता गैस का गोला शनी ग्रह, सूरज के चारों तरफ़ घूमना छोड़कर आपकी मोटरसाइकल के पीछे ही लग जाएगा। दुनिया कम्प्यूटर के साथ दौड़ रही है और ये अभी तक शनी, मंगल में उलझे हैं।" अज़ीज़ फ़ारूक़ी ने उपहास के स्वर में कहा।

"हँस लो, अगर शनी की टेढ़ी दृष्टी भी पड़ गई ना तो सारी चौकड़ी भूल जाओगे।" पंडित ब्रह्मस्वरूप ने हाथ घुमाते हुए कहा।

"अरे पंडत वहाँ घर में तुम्हारी भाभी जान की आढ़ी, टेढ़ी, ऐंगी, भेंगी सब तरह की नज़रें झेलता हूँ और तीस साल से झेलता आ रहा हूँ। तुम्हारे शनि महाराज पर पड़ जाऐ न, तो ख़ुदा क़सम वह भी टेढ़े हो जाएँ।" हँसते हुए उत्तर दिया अज़ीज़ फ़ारूक़ी ने।

"क्या हुआ अज़ीज़ भाई क्यों परेशान कर रहे हो पंडित जी को।" दोनों के वाक्युद्घ का मज़ा ले रहे प्रकाश हलवाई ने गद्दी पर बैठे-बैठे ही पूछा।

"अरे मियाँ तुम तो पड़ो ही मत इस झमेले में, ये तो आशिक़ और माशूका वाला झगड़ा है। माशूका का कहना है कि मेरे लिए ताजमहल बनवाओ और आशिक़ का कहना है कि बिल्कुल बनवा दूँगा पर पहले मर तो सही कमबख़त मारी।" अज़ीज़ फ़ारूक़ी ने ठहाका लगाते हुए उत्तर दिया। बात-बात पर कमबख़त मारे कहना उनका तकिया कलाम है।

बटुए से सुपारी का एक टुकड़ा निकाल कर उसे सरौते से कतरने लगे अज़ीज़ फ़ारूक़ी। बारीक कतर कर हथेली ब्रह्मस्वरूप की ओर बढ़ा दी। ब्रह्मस्वरूप ने कुछ टुकड़े उठाकर मुँह में डालते हुए कहा "सोमवार को भी तो जा सकते हैं हम, उस रोज़ तो बाज़ार खुले रहते हैं।" तम्बाख़ू मलते अज़ीज़ फ़ारूक़ी के हाथ रुक गए, गहरी निगाहों से ब्रह्मस्वरूप शर्मा कि ओर देखते हुए बोले "जहाँ तक मुझे पता है सोमवार को कोई भी सरकारी छुट्टी नहीं है हाँ अगर कोई नई छुट्टी" पंडत ब्रहमस्वरूप मोटर साइकिल ख़रीद दिवस"के नाम से हो गई हो तो अभी मुझे पता नहीं"।

"छुट्टी नहीं है तो ली भी तो जा सकती है।" ब्रह्मस्वरूप ने उत्तर दिया।

अज़ीज़ फ़ारूक़ी ने इतमिनान से मले हुए जर्दे को मुँह में डाला फिर सुपारी के बचे हुए टुकड़े सरौते और चूने की डब्बी को वापस बटुए में रख कर बटुए के दोनों बंदो को खीचकर उसे बंद कर दिया। फिर कुछ एक तरफ़ झुक कर उसे कुरते की जेब में रख दिया।

"काहे को ली जाए? जब शनिवार की छुट्टी है तो फिर अलग से छुट्टी काहे को ली जाए? वैसे भी अपनी सारी छुट्टियाँ तो शुरूआत के छः महीनों में ही ख़तम कर देते हो, कहीं साली के ससुर की तेरहवीं में जाने में तो कहीं चाचा कि साली के लड़के के फलदान में जाने में।" इतमिनान से सुपारी चबाते हुए कहा अज़ीज़ फ़ारूक़ी ने।

"तो? कोई समाज में जाए आए भी ना? तुम्हारी तरह से सूमड़ा बन कर पड़ा रहे यहीं।" तमकते हुए कहा बह्मस्वरूप ने।

"अरे पंडत जब मरोगे न तो यहीं के लोग दौड़ेंगे सबसे पहले, ना तो तुम्हारी साली आएगी, ना तुम्हारे चचा की। फिर क्यों फ़िज़ूल में भागदौड़ करते हो। छुट्टियाँ ख़त्म कर लेते हो फिर कभी सचमुच ज़ुरूरी काम पड़ जाए तो फिर लो एल डब्लू पी कटवाओ तनख़्वाह में से पैसे।" अज़ीज़ फ़ारूक़ी ने उत्तर दिया।

"अब तुम कितनी ही दलील दे लो मैं तो नहीं जाने वाला शनिवार को गाड़ी ख़रीदने, तुम बोलो सोमवार को चलते हो कि नहीं।" ब्रह्मस्वरूप ने प्रश्न किया।

"हमारी तो मत पूछिए हमारी छुट्टियाँ तो कमबख़त मारी जैसी साल के शुरू में रहती हैं वैसी ही आख़िर मैं भी रहती हैं। आप तो अपनी बताइये कि आपके खाते में कुछ छुट्टी बची भी हैं कि नहीं।" अज़ीज़ फ़ारूक़ी ने पूछा।

"पूछ तो एसे रहे हैं जैसे जानते ही नहीं हो। मालूम नहीं है क्या कि अभी पिछले महीने ही जब भोजनगर वाली बुआजी को देखने गया था तभी एलडब्ल्यूपी लेकर गया था।" चिढ़ते हुए कहा ब्रह्मस्वरूप ने।

रिटायरमेंट की दहलीज़ पर आ गए हैं दोनों। पूरा का पूरा जीवन इसी क़स्बे में काटा है दोनों ने। वैसे दोनों ही यहाँ के नहीं है। सरकारी नौकरी की डोर से बँध कर दोनों यहाँ आए और यहीं के हो लिए। अज़ीज़ फ़ारूक़ी क़स्बे के मिडिल स्कूल में पढ़ाते हैं तो ब्रह्मस्वरूप तहसील कार्यालय में बाबू हैं। दोनों ने अपनी नौकरी की शुरूआत यहीं से की थी और अगर सब कुछ ठीक ठाक रहा तो अगले साल दोनों यहीं से ही रिटायर भी हो जाऐंगे। दोनों ने ही अपने-अपने मकान भी बनवा लिए हैं यहीं। बच्चों की गृहस्थियाँ जम चुकी हैं इसलिए लगभग सारे दायित्वोें से आज़ाद हो चुके हैं दोनों।

दो लोगों के बीच कुछ ऐसा ज़ुरूर होता है जो उनको बाँधे रखता है। विपरीत ख़यालात, अलग-अलग विचारधाराएँ होने के बाद भी जो बात उनको बाँधे रखती है वह शायद कुछ पराशक्ति ही होती है। लोग कहते हैं कि हर आदमी अपने साथ अपने चारों तरफ़ अपनी तरंगो का एक वलय लेकर चलता है और यह वलय जब अपने समान आवृत्ति वाली तरंगों से टकराता है तब मित्रता का साझा वलय बनता है। अज़ीज़ फ़ारूक़ी और ब्रह्मस्वरूप शर्मा के साथ भी एसा ही कुछ है। भिन्न मतों, भिन्न धर्मों और बिल्कुल विपरीत विचारधाराओं के बावजूद भी दोनों की समान तरंग आवृत्तियाँ दोनों को एक रखे हुई हैं। लड़ते हैं झगड़ते हैं और फिर एक हो जाते हैं। हाँ एक प्रमुख गुण अगर तलाश किया जाए जो दोनों को बाँधे रखने के लिए जवाबदेह है तो वह शायद ईमानदारी ही निकलेगी। दोनों ही घोर ईमानदार जीव हैं।

दोनों की मित्रता भी लगभग उतनी ही पुरानी है जितने पुराने दोनों इस क़स्बे के लिए हैं और तभी से ही दोनों निभा रहे हैं अपनी मित्रता को। दिन भर अपने-अपने कामों में मशगूल रहते हैं शाम को घर लौटते हैं और घंटे भर बाद हाथों में थैला लिए निकल पड़ते हैं। बाज़ार से होते हुए देर सबेर दोनों पहुँच जाते हैं प्रकाश की होटल पर और फिर घंटे डेढ़ घंटे की बैठक में होती हैं दुनिया जहान की बातें। अकसर ही ये होता है कि वैचारिक भिन्नताएँ बातों को बहस में और बहस को झगड़े में बदल देती हैं। फिर ये दोनों होते हें और आस पास होते हैं, इनकी बहस का मज़ा लेने वाले लोग। कुछ बह्मस्वरूप की तरफ़ हो जाते हैं तो कुछ अज़ीज़ फ़ारूक़ी की तरफ़। अक्सर घर पर जाकर झोला पटकने के अंदाज़ से ही दोनों के घरवाले जान लेते हैं कि आज फिर झगड़ कर आए हैं।

दोनों की सबसे बड़ी वैचारिक भिन्नता तो यही है कि अज़ीज़ फ़ारूक़ी ज़िंदगी को प्रेक्टिकल होकर जीने वाले प्राणी हैं। तो ब्रह्मस्वरूप शर्मा संस्कारों, रिश्तों, सम्बन्धों को प्रमुख मानने वाले जीव हैं। अक्सर दोनों के बीच वाद विवाद की जड़ भी यही होती है।

"अरे भई इसीलिए तो कह रहा हूँ कि जब छुट्टी है ही नहीं तो फिर क्यों एक दिन की तनख़्वाह के पीछे पड़े हो। अच्छी ख़ासी शनीचर की छुट्टी है चल पड़ते हैं, शाम तक साहबज़ादे को मोटर साइकल दिलवा कर लौट पड़ेंगे।" अज़ीज़ फ़ारूक़ी ने ठंडे स्वर में समझाइश देते हुए कहा।

"नहीं शनीवार को मैं नहीं जाने वाला।" एकदम सपाट-सा उत्तर दिया ब्रह्मस्वरूप ने।

"रहोगे वही के वही, अरे जब उस ऊपर वाले पर विश्वास रखते हो तो फिर उसी को मानो ना, उसी का नाम लेकर काम को करो, ये उसे छोड़ कर आसमान में चक्कर खा रहे सितारों के चक्कर में क्यों पड़ रहे हो। अरे वह बिचारा शनी तो ख़ुद ही चक्कर लगा-लगा कर परेशान है वह भला तुम्हारा क्या बिगाड़ लेगा?" अज़ीज़ फ़ारूक़ी ने आखरी प्रयास करते हुए कहा।

"तुम ये दाढ़ी क्यों रखते हो?" ब्रह्मस्वरूप ने ओचक-सा प्रश्न किया।

"मेरी दाढ़ी का इस कमबख़त मारी मोटर साइकल से क्या रिश्ता है?" उलझन भरे स्वर में पूछा अज़ीज़ फ़ारूक़ी ने।

"हो या न हो आप तो बताइये कि ये दाड़ी क्यों रखते हैं?" व्यंग्य के स्वर में कहा ब्रह्मस्वरूप ने।

"रखते हैं भई, बस मौज आई तो रख ली, हसीनाओं ने कहा कि अच्छे लगते हो दाढ़ी में सो फिर कटवाई भी नहीं, कौन कमबख़त मारियों का दिल तोड़ता" लापरवाह से स्वर में कहा अज़ीज़ फ़ारूक़ी ने।

"झूठ क्यों बोल रहे हो? सीधा-सीधा क्यों नहीं कहते हो कि मुसलमान होने के कारण रखी है। ये क्यों नहीं कहते कि फ़रिश्तों के झूला झूलने के लिए रखी है।" तुनकते हुए कहा ब्रह्मस्वरूप ने।

"चलो यही सही मगर इससे तुम्हारे शनी महाराज का क्या रिश्ता है?" अज़ीज़ फ़ारूक़ी ने कहा।

"क्यों? तुम दाढ़ी रखो तो कुछ नहीं, उसके बाद भी तुम प्रगतिशील के प्रगतिशील और हम शनी को मानें तो हम पुरातनपन्थी?" ब्रह्मस्वरूप ने कहा।

"दाढ़ी का इन सबसे कोई लेना देना नहीं है, बात को ग़लत तरफ़ मत मोड़ो।" अज़ीज़ फ़ारूक़ी ने कहा।

"ग़लत तरफ़ नहीं बिल्कुल सही तरफ़ ही मोड़ रहा हूँ। तुम जो बार-बार मेरी मान्यताओं पर उँगली उठाते हो, उसी का जवाब दे रहा हूँ। अगर मैं शनी को मानता हूँ तो वह मेरी मान्यता है, ठीक उसी तरह जिस तरह तुम ये दाढ़ी रखे हुए हो।" बह्मस्वरूप ने उत्तर दिया।

"अरे भई प्रकाश भेज तो ज़रा एक मीठी और एक फीकी और सुन दो रुपये के सेव खारी भी भेज देना।" अज़ीज़ फ़ारूक़ी ने प्रकाश की तरफ़ मुँह करके आवाज़ लगाई। फिर ब्रह्मस्वरूप की तरफ़ मुड़ते हुए कहा "अरे भई बात दाढ़ी की कहाँ से आ रही है, मैंने कभी तुम्हारी सर की चोटी पर एतराज किया क्या? कभी नहीं। वह तुम्हारे मज़हब के हिसाब से है उसी तरह से दाढ़ी मेरे हिसाब से है। बात तो मैं उन चीजों की कर रहा हूँ जो आज के ज़माने में ठीक नहीं हैं।" अज़ीज़ फ़ारूक़ी ने ठंडे स्वर में कहा।

इसी बीच होटल वाला लड़का एक प्लेट में खारी सेव और दो चाय के ग्लास रख गया। ब्रह्मस्वरूप ने सेव का फक्का मुँह में लगाते हुए कहा "तुम लोगों की सोच यही होती है अपना सब कुछ ठीक और दूसरे का सब कुछ ग़लत।"

"तुम लोग, कौन तुम लोग की बात कर रहे हो तुम?" तिलमिलाते हुए कहा अज़ीज़ फ़ारूक़ी ने।

"तुम लोग और कौन?" इतमिनान से सेव खारी चबाते हुए कहा ब्रह्मस्वरूप ने।

"ये सीधी-सीधी बात में हिन्दू मुसलमान कहाँ से घुसा रहे हो तुम?" अज़ीज़ फ़ारूक़ी ने प्रतिप्रश्न किया।

"मैं नहीं घुसा रहा तुम घुसा रहे हो, तुम्हारी सोच घुसा रही है।" ब्रह्मस्वरूप ने उत्तर दिया।

"ऐसा क्या कहा मैंने?" अज़ीज़ फ़ारूक़ी ने पूछा।

"तुम बार-बार मेरे संस्कारों की मेरी मान्यताओं की खिल्ली उड़ा रहे हो मैं कुछ नहीं बोल रहा। अब ज़रा-सी अपने पर आई तो आपे से बाहर हो रहे हो, तुम लोग होते ही ऐसे हो।" आँखें मिचमिचाते हुए कहा ब्रह्मस्वरूप ने। ब्रह्मस्वरूप के उत्तर ने अज़ीज़ फ़ारूक़ी को आपे से बाहर कर दिया। दोनों हाथ टेबल पर पटकते हुए चिल्लाए "चोप्प, ये बार-बार तुम लोग तुम लोग की रट क्यों लगा रहे हो।" टेबल पर रखे चाय के दोनों ग्लास डगमगाए और छलक भी गए। प्रकाश हलवाई ने चौंक कर दोनों की तरफ़ देखा, इतनी तेज़ आवाज़ पहली बार सुनकर उसके अंदर कुछ खटका हो गया।

"बात मानसिकता कि है तो तुम लोग तो कहना ही पड़ेगा, अख़िरकार तुम्हारी मानसिकता भी तो वही है।" अज़ीज़ फ़ारूक़ी के क्रोध के प्रति लापरवाही बरतते हुए बेफ़िक्री से उत्तर दिया ब्रह्मस्वरूप ने।

"हाँ हूँ मैं मुसलमान अब बोलो, हर बार हर जगह एक ही बात सुनता हूँ" तुम लोग-तुम लोग"हर बात को घुमा कर वहीं पहुँचा देना।" लगभग चीखते हुए कहा अज़ीज़ फ़ारूक़ी ने।

"तुम खुले आम मेरे धर्म का मज़ाक उड़ाओ और हम जरा-सी कह दें तो चीख पुकार शुरू, ये तुम नहीं चीख रहे तुम्हारे अंदर की कट्टरता चीख रही है।" ब्रह्मस्वरूप ने उत्तर दिया।

"फिर वही बात, अरे मेरी बात कर न कमबख़त मारे मज़हब की तरफ़ लाठी लेकर क्यों दौड़ रहा है?" अज़ीज़ फ़ारूक़ी ने चीखते हुए उत्तर दिया।

"वही तो, जब तक तुम हमारी कहते रहो, तब तक सब ठीक, लेकिन ज़रा-सी हमने कही तो बात मज़हब पर आ गई। तुम लोग सब एक से ही होते हो।" हिकारत से कहा ब्रह्मस्वरूप ने।

छन्न... भरा हुआ चाय का ग्लास उठा कर फ़र्श पर दे मारा अज़ीज़ फ़ारूक़ी ने और ज़ोर से चीखे "चोप्प..." दोनों आवाज़ों ने आस पास सन्नाटा फैला दिया। होटल में बैठे बाक़ी लोग भी बाहर देखने लगे। कुछ देर तक शांति बनी रही फिर अज़ीज़ फ़ारूक़ी उठे अपनी छड़ी और झोला संभाला और प्रकाश को जाकर पचास का नोट देते हुए बोले "ले भई ग्लास की क़ीमत और अगला पिछला सब साफ़ कर दे आज।"

"अरे कैसी बात करते हो कांच का ग्लास था टूट गया।" प्रकाश ने उत्तर दिया।

"टूटा नहीं है तोड़ा है और जो तोड़ा है तो हरजाना तो भरना पड़ेगा, उसूल की बात है, पैसे काटो उसके भी।" अज़ीज़ फ़ारूक़ी ने कहा। प्रकाश ने जो पैसे वापस दिए उन्हें बिना गिने जेब के हवाले करने के बाद अज़ीज़ फ़ारूक़ी धीरे-धीरे क़दमों से घर की ओर बढ़ गए। उनके जाने के कुछ देर बाद ब्रह्मस्वरूप भी उठे और चुपचाप चले गए।

"क्या हुआ, तबीयत तो ठीक है" अज़ीज़ फ़ारूक़ी को चुपचाप आकर दीवान पर लेटते हुए देखा तो उनकी पत्नी ने पूछा।

"नहीं बेगम कुछ नहीं बस यूँही ज़रा थकान हो रही थी।" अज़ीज़ फ़ारूक़ी ने उत्तर दिया।

"खाना लगा दूं?" पत्नी ने फिर से पूछा,

"नहीं बेगम, आज प्रकाश माना ही नहीं बोला आज तो मेरे हाथ का ही खाना पड़ेगा सो वहीं काफ़ी कुछ खा लिया, बिल्कुल भूख नहीं है। आप खा लीजिए।" अज़ीज़ फ़ारूक़ी ने उत्तर दिया।

"डाक्टर ने बाज़ार का खाने का मना किया है तो फिर क्यों खाते हैं, अब हो गई न तबीयत ख़राब" मीठी झिड़की देते हुए कहा पत्नी ने।

"अब ख़ुदा के लिए डाँटिये तो मत, पानी पिला दीजिए।" अज़ीज़ फ़ारूक़ी ने कहा।

पानी पीकर लेटे तो झपकी-सी लग गई। आँख खुली तो देखा रात के नौ बज गए हैं। रसोई का काम निबटा कर पत्नी भी आ गईं। "अब कुछ ठीक लग रहा है" पत्नी ने आते ही पूछा।

"हाँ अब तो कुछ ठीक है" कहते हुए अज़ीज़ फ़ारूक़ी उठे और उठ कर खूँटी पर टँगा कुरता पहन लिया। पास रखी छड़ी उठा कर जूतियाँ पहनने लगे तो पत्नी ने पूछा "क्या हो गया? कहाँ चल दिए इत्ती रात को?"

"उस कमबख़त मारे को पेट में छाले हैं, डाक्टर ने भूखा रहने के लिए सख़्त मनाही की है। रात भर भूखा सोएगा तो सुब्ह फिर बीमार पड़ जाएगा।" कहते हुए अज़ीज़ फ़ारूक़ी दरवाज़े की ओर बढ़े ही थे कि अचानक उढ़का हुआ दरवाज़ा खुला और ब्रह्मस्वरूप अंदर आ गये। दोनों ने एक दूसरे की तरफ़ देखा लेकिन बोले कुछ नहीं। ब्रह्मस्वरूप शर्मा, अज़ीज़ फ़ारूक़ी को नज़रअंदाज़ करते हुए आगे बढ़ गये और बोले "लाओ भाभी वह सुब्ह का ज़र्दा पुलाव बचा हो तो एक प्लेट में ला दो, बड़ी ज़ोर की भूख लगी है और ये महाशय इतनी रात का सजधज के छड़ी लेकर कहाँ जा रहे हैं?"

"टहलने जा रहे हैं, क्यों क्या वह भी आपसे पूछ कर जाएँ?" कुछ रुखाई से उत्तर दिया अज़ीज़ फ़ारूक़ी ने।

"नहीं नहीं, जाइये बिल्कुल जाइये, रात को भूखे पेट टहलना डाइबिटीज़ वालों के लिये बहुत फ़ायदेमंद होता है? जाइये शौक़ से जाइये, मैं भी ज़रा ज़र्दा पुलाव खाकर आता हूँ आपका साथ देने।" ब्रह्मस्वरूप शर्मा के कहते ही अज़ीज़ फ़ारूक़ी की पत्नी हँसते हुए अंदर चली गईं। अज़ीज़ फ़ारूक़ी अभी भी रूठी हुई प्रेमिका वाले अंदाज़ में दरवाज़े पर ही खड़े थे।