तुम सुन रही हो न इला? / निर्देश निधि
दिन भर ऑफिस के बंद कमरे के कृत्रिम वातावरण में बैठकर थके हुए मैं और समीर ऑफिस से फ्री होने के बाद लगभग रोज़ ही दक्षिण दिल्ली के साकेत स्थित पीवीआर सिनेमा चले जाते। सबसे पहले पूरे कंपाउंड का एकाध चक्कर काटते फिर कॉफी लेकर किसी एक जगह ज़मीन पर ही बैठ जाते। वहाँ का माहौल हमारे लिए 'स्ट्रैस बस्टर' का काम करता। अधिकतर युवाओं का जमघट होता और होता चारों तरफ़ रंगीनियत, हँसी-मज़ाक और रूमानियत का माहौल। एक से एक फैशनेबल लड़की, एक से एक हैंडसम लड़का और अधिकतर के साथ कोई न कोई साथी होता। मैं और समीर भी वहाँ हमेशा साथ ही जाते, कॉफी का तो मात्र बहाना होता, हम यूँ ही वहाँ घंटों बैठे रहते। नई-नई नौकरियाँ थीं, हम दोनों ही सिंगल और आज़ाद पंछी थे। भला हो मोबाइल फ़ोन का, जो माँ और बाबू जी का फ़ोन अटेंड करने के लिए नियत समय पर फ़्लैट में होना ज़रूरी नहीं था। पर अब हम दोनों के माँ-बाबू जी हमसे ये आज़ादी छीनने पर आमादा थे। एक तरफ़ मेरे माँ-बाबू जी मेरी शादी करके अपनी आखिरी जिम्मेदारी से फारिग हो जाना चाहते थे। तो दूसरी तरफ़ समीर के घर में पहली-पहली शादी जो कि उसी की होनी थी, को लेकर घर वालों का उत्साह कुछ अधिक ही था।
संयोगवश मैं और समीर दोनों ही मध्यमवर्गीय परिवारों से थे। हम दोनों ने ही ग्रेजुएशन करने के बाद दिल्ली रहकर आईआईएम की प्रवेश परीक्षा कि तैयारी साथ रहकर ही की थी। सुखद संयोग से दोनों का ही चयन पहले प्रयास में सभी कॉलेजों के लिए हो गया था। हम दोनों ने ही आईआईएम अहमदाबाद का चयन किया था, हाँ यह तो संयोग नहीं था, यह हमारा जानबूझकर उठाया हुआ क़दम था। पर पुनः एक बड़ा संयोग और हुआ कि हम दोनों को नौकरी भी एक ही कंपनी में मिली। तब आर्थिक मंदी या स्लंप जैसे शब्दों से किसी का परिचय नहीं था। अतः जो नौकरी हमें मिली थी उसके पर पैकेज पर हम दोनों ख़ुद हैरान थे और उस हाई पैकेज के कारण तमान उच्च मध्यमवर्गीय और धनाढ्यों की नज़र अपनी-अपनी बेटियों के लिए हमपर ठहर गई थी। मेरी शादी के लिए बाबू जी पर बिरादरी का खासा प्रेशर पड़ रहा था। वे लगभग रोज़ ही कहते, "बेटा इतने फ़ोटोज़ आ चुके हैं लड़कियों के आकर ज़रा एक नज़र मार लो।" जाकर नज़र मार लूँ, कोई मकान या सामान है क्या? जो बस फोटो देखकर पसंद कर लूँ? मैं बाबू जी से तो नहीं, माँ से कहता। वह कहती, "देख लो, बात कर लो, ऐसे ही होती हैं शादियाँ, कोई साल-दो साल साथ रहकर तो परखा नहीं जाता लड़की को।" उन्हें क्या पता कि आजकल तो ऐसा भी होता ही है। खैर मैं तो ऐसा नहीं करने जा रहा था, क्योंकि मैं भारतीय समाज के उस वर्ग से था जिसने सारे धर्म, सारी संस्कृति और सारी सभ्यता का जिम्मा अपने बलिष्ठ कंधों पर उठा रखा है। यूँ ज़्यादा आधुनिकता कि बातें तो मैंने कभी सोची नहीं फिर भी सिर्फ़ फोटो शादी करने या ना करने का निर्णय कराने के लिए वाक़ई नाकाफी था।
मेरे और समीर के बीच अब शादी के डिस्कशंस होने लगे थे अतः अब हम दोनों पीवीआर और भी देर तक बैठते। इस बीच चाहे-अनचाहे वहाँ आने-जाने वाली लड़कियों पर ध्यान चला ही जाता। सुंदर और स्मार्ट तो वहाँ बहुत होतीं पर एक भी चेहरा ऐसा नहीं लगता जिसे रोज़ सुबह उठ कर देखा जा सके। मेरी और समीर दोनों की राय यही थी। परंतु कहते हैं न हर इंसान की पसंद का कम से कम कोई एक इंसान तो इस धरती पर ज़रूर ही बना होता है, उस एक इंसान की आत्मा के दो हिस्से कर प्रकृति आधा हिस्सा दूसरे के भीतर डालती है, वही होता है उसका असल जोड़ीदार। मुश्किल बस ये है कि वह दूसरा इंसान उस पहले को कभी मिलेगा या नहीं। वह दोनों मिलें और एक दूसरे को पहचान भी पाएँ, पहचान भी लें तो एक दूसरे के साथ आने का साहस जुटा पाएँ। होता तो ऐसा भी ज़रूर ही होगा, पर कितना, यह कहना ज़रा मुश्किल है।
सर्दियाँ जा चुकीं थीं। धरती पर धीरे-धीरे वसंत मुस्कुराने लगा था, ठिठुरती सांझों में गुनगुनी गोधूलियाँ उग आईं थीं। चारों ओर फूल ही फूल। पेड़-पौधों की टहनियों में नई कोपलों की चटकन स्पष्ट सुनाई देने लगी थी। इस सुहाने मौसम में समीर को गाँव जाना पड़ा था। मेरा अकेले पीवीआर जाने का मन तो नहीं था परंतु पिछले आठ-दस महीनों की आदत मुझे वहाँ अकेले भी खींच ले गई। दिन भर गर्मी रही थी। संध्या समय धरती ने आसमान में तैरते बदलियों के टुकड़ों से कुछ बूंदें लेकर अपने ऊपर छिड़क लीं थीं, सो कुछ जगहों पर थोड़ी फिसलन हो गई थी। 'वो' थोड़ा-सा फिसल गई परंतु उसने गिरने से पहले ही स्वयं को पूरी तरह संभाल लिया था। 'वो' कौन? ये तो मैं भी नहीं जानता था परंतु वहाँ रोज़ या अक्सर आने वाले जिन चेहरों को मैं और समीर पहचानने लगे थे वह उन्हीं में से एक थी। फिसलते समय उसकी दृष्टि सामने खड़े मुझपर चली गई। मेरे चेहरे पर अकस्मात् स्वयं को छिपाती हुई, नन्ही-सी मुस्कुराहट तैर गई। 'उसने' उस छिपी–छिपी—सी मुस्कुराहट को ताड़ लिया था और उसका उत्तर दिया स्वयं को गिरने से बचा लेने वाली आत्मविश्वासी और भरी-पूरी मुस्कुराहट के साथ। उस दिन हम दोनों के मध्य अनजाने ही एक अपरिचित से परिचय ने जन्म ले लिया था।
समीर गाँव से जल्दी ही लौट आया। हम दोनों दोस्तों के पीवीआर आने का क्रम यथावत हो गया। 'वो' भी दूसरे-तीसरे दिन किताबों से लदी हुई वहाँ दिख ही जाती। वैसे तो वह अकेली ही आती परंतु कई बार एक बड़े हृष्ट-पुष्ट नवयुवक के साथ आती। उसके और हमारे मध्य कई दिन चला अदृश्य-सी परस्पर मुस्कुराहटों का क्रम धीरे-धीरे दृश्य मुस्कुराहटों में परिवर्तित हुआ और जल्दी ही जीते-जागते अभिवादन अस्तित्व में आ गए। अब अपरिचित-सा परिचय कुछ-कुछ परिचित होता जा रहा था। मैं और समीर उसके विषय में इतना जान गए थे कि वह अपनी माँ के साथ साकेत में रहती है और एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में एचआर के ज़िम्मेदार पद पर कार्यरत है। उसके छोटे से परिचय के साथ ही जान गए थे उसका छोटा-सा खूबसूरत नाम 'इला' भी। यूँ देखने में अनिंद्य सुंदरी तो नहीं, पर हाँ ऐसी अवश्य ही, जिसका चेहरा रोज़ सुबह उठकर देखा जा सके। मेरे और समीर के बीच यह भी एक संयोग रहा कि लड़की भी हम दोनों को एक ही अच्छी लगी थी और उस अच्छी लड़की का अब, कभी-कभी हमारे साथ बैठकर कॉफी पीना भी होने लगा।
यद्यपि धीरे-धीरे मेरी और समीर की इला के साथ ख़ासी मैत्री हो गई थी फिर भी संदर्भ रहित बाते करने की छूट उसने हमें अभी तक नहीं दी थी। इसीलिए जिज्ञासा होते हुए भी हम दोनों उस हट्टे-कट्टे नवयुवक के विषय में नहीं पूछ पाये थे जो अक्सर उसके साथ आता था। परंतु अब हम उससे रोज़ पीवीआर आकर अपने साथ कॉफी पीने का आग्रह तो कर ही सकते थे, जिसे उसने पहली बार में ही सिर आँखों पर स्वीकार किया था। अब हम यह भी पूछ सकते थे कि उसके बाएँ हाथ की कलाई के पास अंदर की तरफ़ जलने का इतना बड़ा-सा निशान कैसे बना? जिसका उत्तर उसने बड़ी चतुराई से इन विनोद-भरे शब्दों के पीछे छिपा दिया था, "ये कोई साधारण निशान नहीं है, छोटे से जीवन के बड़े-बड़े अनुभवों का पिटारा है, उनकी साफ़-साफ़ तस्वीर है, समझे दोस्तों?" हम दोनों हँस दिये और वह स्वयं भी खिलखिलाकर हँस दी। इस तरह वह भी अब हमारी घनिष्ठ मित्र थी।
इला के हाथों में लगभग रोज़ ही वैवाहिक विज्ञापन होते, जिनमें से कुछ हरे रंग से चिह्नित होते। हम दोनों भी उसके द्वारा निर्देशित वर ढूँढने में उसका हाथ बँटाते, जिसे वह अपनी तलाक़शुदा दीदी के लिए ढूँढ रही होती। इला अक्सर अविवाहित लड़कों के विज्ञापन भी चिन्हित कर लेती। हम दोनों उसकी पीठ पीछे उसकी इस बात की आलोचना करते, आलोचना क्या मज़ाक उड़ाते। उसका नहीं, उसकी तलाक़शुदा दीदी का। बहुत ही अनर्गल बकवास करते, ऐसी जिसे मैं यहाँ तो आपको बता भी नहीं सकता। इला स्वयं तो हमें मज़ाक की पात्र कहीं से दिखती ही नहीं थी। उसका शांत स्वभाव के साथ सुंदर व्यक्तित्व, सकारात्मक सोच के साथ आशावादी रवैया, उसकी शिक्षा, उसका शालीनता से ओढ़ना-पहनना, उठना-बैठना, मर्यादित रहना हम दोनों मध्यमवर्गीय युवाओं को ख़ूब भाता। उसकी सबसे बड़ी विशेषता लगती बिना कहे मन की बात समझ लेना। किसी भी रिश्ते की इससे बड़ी मांग और क्या हो सकती है भला?
इस बीच समीर ने और भी अच्छे पर पैकेज के लिए कंपनी बदल ली और उसकी इज़राइली कंपनी ने उसे साल भर के लिए अपने देश भेज दिया। मैंने सोचा कि समीर को हालात ने इला से दूर भेज दिया था। बाद में समीर ने अपने इज़राइल चले जाने की स्वीकृति का कारण बताया था कि उसे इला से प्रेम हो गया था पर उसने इला कि आँखों में अपने नहीं, मेरे लिए प्रेम पढ़ लिया था, अतः वह हम दोनों को, हम दोनों के लिए छोड़ गया था। अब तो बस मैं था और इला थी। एक मित्र के जाने से जन्मा शून्य शेष दोनों की बढ़ती निकटता में जल्दी ही विलुप्त हो गया। मैं उसके दिल की धड़कनें अपने सीने में महसूस करने लगा था, अपनी धड़कनों को भी मैंने धीरे से उसके सीने में सुरक्षित रख छोड़ा था। मन की बात जान लेने वाली जादूगरनी इला, स्वाभाविक रूप से जो भी करती मैं उससे अधिक और अधिक प्रभावित होता जाता। मैं उससे जितना मिलता वह मुझे और-और और प्रभावित करती जाती और यह सायास नहीं, सब स्वाभाविक तरीके से हो रहा था। मैं उसे देर तक रोकता, वह रुक जाती, कहीं जाने के लिए कहता समय निकाल कर चल देती, यानी उसने मेरी बात टालना लगभग बंद कर दिया था।
मेरी तरफ़ से दोस्ती कुछ ज़्यादा ही घनिष्ठ होती जा रही थी, पर कोई कमी तो उसकी तरफ़ से भी नहीं थी। उधर माँ-बाबूजी मुझे विवाह बंधन में बाँध, अपने अंतिम उत्तरदायित्व को पूर्णता दे देने की बहुत शीघ्रता में थे। मैं स्वयं भी, अनकहे प्रेम के रेशमी रज्जुओं में बाँध कर लाई सारी सकारात्मक ऊर्जा को मेरे इर्द-गिर्द पसार देने वाली इला को अपने जीवन से जोड़कर, दाम्पत्य के स्थायित्व के प्रति सदा के लिए आश्वस्त हो जाना चाहता था। इसके लिए मुझे सबसे पहली स्वीकारोक्ति तो इला से ही लेनी थी। घनिष्ठता तो मैं बढ़ा रहा था, परंतु इला ने तो अपनी निकटता को दूरी के सापेक्ष ही रखा था। कमाल का नियंत्रण था उसे अपनी अभिव्यक्तियों पर, इतना अधिक कि जैसे हमारे नवांकुरित नाते की बढ़वार के लिए घातक रसायन ही हो। जिसके रहते मैं सच कहूँ तो, अपने लिए उसकी भावनाओं को निर्द्वंद्व रूप से कभी समझ ही नहीं पाया। इतने अधिक नियंत्रण को मैं दबी ज़ुबान में, थोड़ी-बहुत उसके व्यक्तित्व की खामी भी कहूँगा।
उसने मुझे बताया कि उसकी कंपनी उसे एक साल के लिए अमरीका भेज रही है, पर जाने से पहले वह अपनी दीदी के भविष्य को सुरक्षित करना चाहती है। वैसे जाने न जाने का निर्णय भी कंपनी ने उस पर ही छोड़ दिया है। मैं तो उसे यहीं, भारत में रखना चाहता था; क्योंकि मैं ख़ुद तो भारत से बाहर जा ही नहीं सकता था, माँ-बाबू जी को अकेले छोडकर। दीदी-जीजा जी, भाभी और भैया चारों सिंगापुर जो जा बसे थे। इला के जाने की सूचना से मेरा धैर्य टूटने लगा।
माँ-बाबू जी मुझ पर जल्दी विवाह करने का ज़ोर डाल रहे थे। ऐसे में मैं एक ऐसी लड़की से रोज़ मिलता था जो मुझे पूरी तरह पसंद थी, मुझे पूरा विश्वास हो गया था कि जितनी वह मुझे पसंद है उतना ही मैं भी उसे पसंद हूँ और प्रकृति ने उसी के भीतर डाला है मेरी आत्मा का दूसरा हिस्सा। एक स्त्री-पुरुष के बीच सिर्फ़ दोस्ती नहीं रह सकती, यह उक्ति चरितार्थ हुई जा रही थी। मैं उसे 'सिर्फ़ दोस्ती' से आगे ले जाकर, विवाह के बंधन में बाँध लेना चाहता था, उसके मन से उसकी देह तक सब पर अपना अधिकार की मुहर दाग देना चाहता था।
माँ–बाबू जी मुझे किसी लड़की से मिलवाने दिल्ली आ रहे थे। किसी अपरिचित लड़की से मिलने के स्थान पर मैं अपनी सौ प्रतिशत पसंद की, पूर्ण परिचित लड़की से माँ बाबू जी को मिलवा देना चाहता था; परंतु उन्हें मिलवाने से पहले निश्चय ही उस लड़की को तो बताना होगा कि मैं माँ–बाबू जी को क्या बताने जा रहा था। उस शाम को मैं अपने और इला के बीच पसरी धुन्ध को हटा देने के निर्णय के साथ पीवीआर पहुँचा था।
क्या कहूँगा, कैसे कहूँगा कि अनिश्चितता से लड़ते-झगड़ते पूरा दिन बीत गया था। साँझ भी छोटा असमंजस बनकर तो नहीं ही आई थी। प्रतिदिन मिलने के क्रम में इला और मैं फिर अपने नियत स्थान पर थे। मौसम बादलों–बूँदों भरा बिल्कुल वैसा ही था जैसा अपरिचित से परिचय के जन्म वाले दिन। बिल्कुल वैसा ही मौसम मुझे अपने प्रस्ताव की स्वीकृति के लिए शुभ संकेत लगा। अभिव्यक्तियों पर पूर्ण नियंत्रण रखने वाली इला से कुछ कहने से पूर्व ही मेरी धमनियों में रक्त की गति तीव्र हो गई, कानों का ऊपरी हिस्सा गरम होकर लाल हो गया, शरीर में जैसे चींटियाँ दौड़ने लगीं, उस समय की ज़रूरत के शब्द प्रस्ताव रखने के तरीकों की भीड़ में गुम होकर रह गए। हालाँकि मैं भारत के सर्वोच्च माने जाने वाले बिज़नेस स्कूल से शिक्षित था, पर मेरे हाथ अपनी बात कहने का कोई एक तरीक़ा भी तो नहीं आया। कौन जाने यह द्वंद्व प्रगाढ़ प्रेम के भविष्य की असुरक्षा कि आशंका से जन्मा था या आधुनिकता के लेप में लिपटे पितृसत्तात्मक, परंपरावादी पुरुष के दादिलाई दंभ के अस्वीकृत हो जाने के भय से जन्मा था?
अपना प्रस्ताव रखने के लिए सटीक शब्दों की खोज में उलझते हुए मैं चुपचाप बैठा था। मेरी चुप्पी को अनदेखा कर उस दिन इला ने ही बात आरंभ कि थी। अपने दो बरस के लिए अमरीका जाने की याद दिलाकर उसने मुझे और भी व्याकुल कर दिया था। मैं अपने सटीक शब्दों की असमंजस, उलझन और व्याकुलता कि भारी-भरकम परतें एक-एक कर हटा ही रहा था कि अगली बात भी इला ने ही आरंभ की थी अपने चिर-परिचित, शांत, गंभीर, स्थिर चित्त के साथ, "जय ये मेरे लिए बेहद ज़रूरी है कि मैं अमरीका जाने से पहले दीदी के भविष्य को सुरक्षित कर दूँ। निर्जीव विज्ञापनो की भीड़ में मैं एक भी जीवंत नाता नहीं ढूँढ पाई हूँ उसके लिए। सोचती हूँ, क्यों ना मैं उसके लिए समीर से बात कर लूँ? तुम कहते हो न कि समीर को मेरी दोस्ती बहुत पसंद है, मैं बहुत पसंद हूँ उसे। अगर ये सच है, तो उसे दीदी भी ज़रूर पसंद आएगी; क्योंकि दीदी और मैं जुड़वाँ न होकर भी उनसे भी अधिक मिलते हैं एक दूसरे से। मैं आज ही समीर को फ़ोन कर लेती हूँ। अगर वह रुचि दिखाता है तो दीदी को उससे मिलवा देते हैं।" इला का प्रस्ताव सुनकर मेरे सारे असमंजस, सारी उलझनें निमिष मात्र में गायब हो गए थे, व्याकुलता पर कठोरता कि मोटी, खुरदुरी परत चढ़ कर मेरी आवाज़ पर मढ़ गई थी, उसकी बात बीच में काटकर मैंने उसकी ओर देखे बगैर ही बड़ी तटस्थता और लापरवाही से, अपनी ही ज़ुबान से समीर का फ़ैसला सुना दिया,
"समीर कोई रुचि नहीं दिखाएगा इला।"
"क्यों? क्यों रुचि नहीं दिखाएगा वो?" उस ने बड़ी सहजता से पूछा था।
"क्योंकि तुम्हारी दीदी डायवर्सी हैं और समीर अविवाहित, रुचि न दिखाने का ये कारण क्या कम है इला?" इला कि भावनाएँ तो दूर मैंने अपने शब्दों की गरिमा और नरमी पर भी ध्यान देना आवश्यक नहीं समझा और समीर के रुचि न दिखाने का एकमात्र परंतु पर्याप्त कारण बता दिया।
"तो क्या हुआ? कई बार लड़की अविवाहित होती है और लड़के का दूसरा विवाह होता है। एक बार इसके उलट हो जाने में कौन-सी अनहोनी हो जाएगी जय?" इला तुरंत बोली थी।
"सदियों की मान्यताएँ समाज एकदम नहीं तोड़ पाता इला।"। मैंने उसे बुजुर्गों की शैली में समझाने का प्रयास किया था। उत्तर में इला ने भी कोई निर्बल तर्क तो नहीं दिया था, "मैं दीदी के विवाह का प्रस्ताव सारे समाज के सामने नहीं, एक ऐसे व्यक्ति के सामने रख रही हूँ, जो शिक्षित, समझदार और आधुनिक है, उससे भी बढ़कर वह मित्र है मेरा। उचित-अनुचित का अंतर कर सकता है, फिर वह दीदी से विवाह के लिए राजी होगा या नहीं ये तो उससे बात करके ही पता चलेगा ना। तुम्हारा निर्णय तो दीदी के डायवर्सी होने से ही नकारात्मक हो गया।"
"क्या कर सकते हैं इला ऐसा ही है भारतीय समाज।" मैं बड़ी तत्परता से बोला था।
"दीदी का विवाह किसी ग़लत आदमी से हो गया और उसे मजबूरन घर छोड़ देना पड़ा, निर्दोष होते हुये भी सारा दोष उसी का है क्योंकि वह स्त्री है, यही मानते हो न तुम भी?" इला थोड़ी उग्र हुई,
"समाज का ऐसा ही नियम है इला।" मैं बड़ा दार्शनिक अन्दाज़ में बोला था।
"पता है जय क्यों ये समाज के एकतरफा नियम टूटने में नहीं आते, क्यों ये सामाजिक मान्यताएँ टस से मस होने का नाम नहीं लेतीं? क्योंकि भारत के सर्वोच्च संस्थानो से शिक्षा लेकर भी तुम जैसे लोग अपने पक्ष में होने की वज़ह से इन्हें पूर्ण निष्ठा के साथ सीने से लगाए फिरते हैं। यदि ये तुम्हारे पक्ष में ना होते तो तुम इन्हें सदियों पहले ही तोड़ चुके होते।" इला ने उत्तर थोड़ा संयत होकर दिया था।
उस दिन इला हमेशा से कुछ अलग सी, बहुत उखड़ी-उखड़ी और बहस के मूड में लग रही थी। फिर भी नरमी से ही बोली थी पुनः, "बात तो समीर की हो रही है जय, उससे पूछे बिना इतने निश्चय से 'उसकी न' तुम कैसे कह सकते हो?"
"समीर मेरा बचपन का दोस्त है इला, मैं उसे अच्छी तरह जानता हूँ। अव्वल तो वह ख़ुद ही नहीं मानेगा, मान लो वह मान भी गया, तो उसके माँ-बाबूजी तो कभी नहीं मानेंगे।" मैंने समीर तो क्या उसके माँ-बाबूजी की सोच पर भी अपना अधिकार जमाकर उत्तर दिया था।
"जय... दो अतरंग मित्रो के विचार भी एकाध विषय पर तो अलग हो ही सकते हैं और उसके माँ-बाबूजी, वह तो बाद में नहीं मानेंगे ना, तुमने तो दीदी का तलाक हो जाना ही समीर के लिए उसकी अयोग्यता घोषित कर दिया।" इला ने थोड़ी-सी नाराजगी के साथ कहा था, इस बार मैं निरुत्तर हो गया था। वह पूरी साँझ इसी बहस का काला साया ओढ़कर रात बन गई थी। इला अनिर्णय और मैं अपने अनकहे प्रस्ताव के साथ अपने-अपने घर लौट गए थे।
अगले दिन मुझे माँ-बाबू जी के आदेश पर दिल्ली वाली लड़की देखने जाना पड़ा था। उससे बात करना तो दूर उसकी तरफ़ देखा भी नहीं था मैंने। उसे अप्रकट रूप से अस्वीकृत हो जाने का दंश देकर मैं वहाँ भी परंपरागत, पितृसत्तात्मक भारतीय समाज की बेरहम इकाई मात्र ही साबित हुआ था। माँ को दिल्ली वाली लड़की पसंद आ गई थी। अब उन्हें इला के विषय में बता देना ज़रूरी हो गया था; परंतु अभी तो मैं इला को ही कहाँ बता पाया था।
उसके अगले दिन मैं नियत समय पर पीवीआर पहुँच गया, परंतु इला नहीं आई थी। मेरे बुलाने पर लगभग आधे घंटे बाद वह आई, बेहद बुझी-बुझी-सी लग रही थी। मैं उसके आ जाने से आश्वस्त हुआ, कल की बहस पर उसे नाराज़ ना पाकर उस दिन उससे अपने मन की बात कह देने का निश्चय मैंने दृढ़ कर लिया था। किसी भी क़ीमत पर उस दिन का अवसर मैं अपने हाथों से छोडना नहीं चाहता था। जैसा कि मुझे विश्वास था कि ईश्वर सबका एक जोड़ीदार ज़रूर बनाता है उसने इला को और मुझे एक दूसरे के लिए बनाया था। मैंने उसे पहचान भी लिया था, शायद उसने भी। अब सारी दुनिया में भी ढूँढेंगे तो भी हमें अपना और कोई साथी नहीं मिलने वाला था। मैं उसे यही बताना चाहता था।
परंतु इला ने दीदी वाली बहस उस दिन फिर छेड़ दी थी।
मैंने परेशान होकर पूछा, "इला, आख़िर समीर ही क्यों?"
"आखिर समीर ही क्यों नहीं जय?" उसने उल्टा प्रश्न दाग दिया था।
"मैंने तुम्हें बताया था न कि मुझे पंद्रह दिनों के अंदर अमरीका जाना है। दीदी के विवाह का निश्चित हो जाना मेरा जाना या न जाना सरल बना देता। समीर मेरा दोस्त है उसपर भरोसा कर सकती हूँ न मैं, बस इसीलिए समीर और क्यों?" उसने उलझन और उदासी भरा उत्तर दिया था, फिर जैसे उसे अकस्मात् ही कोई नया विचार कौंधा, वह बोली, "जय तुम मेरे सबसे अच्छे मित्र हो, मैं तुम्ही से कुछ पूछूँ?" मैंने निःसंकोच कह देने की सहमति दी। अगर तुम समीर की जगह होते और मैं तुमसे कहती तो? " यह सुनकर तो मैं बुरी तरह तिलमिला गया था।
"मैं! मैं होता ही क्यों समीर की जगह, मैं तो हरगिज़-हरगिज़ नहीं। आख़िर मुझमें ही ऐसी क्या कमी है या मेरी मजबूरी क्या है इला जो मैं किसी डायवर्सी से शादी करूं?"
"चाहे वह कितनी भी अच्छी क्यों न हो?" इला ने डूबती-सी आवाज़ में पूछा था।
"वो गोल्ड की ही बनी क्यों न हो, कुछ न कुछ तो उसकी खामी भी ज़रूर रही ही होगी, कोई रिश्ता न एक तरफा बनता है न बिगड़ता है इला, बुरा मत मानना।"
"नहीं बुरा क्यों ...?" और वह डबडबाई आँखों से दूसरी तरफ़ देखने लगी थी। मैं एक तलाक़शुदा से विवाह के लिए अपनी मजबूरी न होने और अपने समर्थ होने के पक्ष में तर्क तो बहुत से रखना चाहता था परंतु इला ने दूसरी तरफ़ देखते हुए ही हाथ से रुक जाने का संकेत करके, मुझे और अधिक कुछ भी कहने से रोक दिया था। कुछ देर पहले की असहजता और असमंजस अब उसके चेहरे पर नहीं थे, वह हताश पर लगभग पहले जैसी शांत लग रही थी। मैं उससे जो कहना चाहता था, आज भी छूट गया था। कल शांति से कह पाने की आशा और निश्चय लिए मैं चुपचाप घर लौट गया था। पर कौन देख सका है कल? अगले दिन मुझे मेरी कंपनी ने आपात्कालीन दौरे पर पंद्रह दिनों के लिए बंगलौर भेज दिया। इला का मोबाइल फ़ोन लगातार स्विच ऑफ जा रहा था। उस साँझ के बाद हम दोनों की कोई बात नहीं हो पाई थी।
पंद्रह दिन बाद बंगलौर से लौट कर मैंने कई दिनों तक अपने मिलने के निश्चित स्थान पर इला कि प्रतीक्षा की, परंतु निराशा ही हाथ आई थी। किसी तरह खोजते-खोजते मैं इला के घर पहुँचा। दरवाज़ा उसी हट्टे–कट्टे नवयुवक ने खोला जो कभी-कभार इला के साथ आता था। परिचय देते ही वह मुझे तुरंत पहचान गया। इला कि माँ को पुकारते हुए बोला, "बुआजी जय आए हैं।" मेरा नाम सुनते ही इला कि माँ बैठक में आ गईं और स्नेह से मुझे बैठ जाने के लिए कहा। यूं भी बैठना तो मुझे था ही, इला से मिलना जो था। परंतु इला, वह तो दो बरस के लिए कंपनी के प्रौजेक्ट पर अमरीका जा चुकी थी। यह सूचना मुझे ख़ुद से टकरा गए उल्कापात-सी लगी, हृदय गति जैसे क्षण भर को थम गई थी, शरीर शिथिल पड़ गया, मस्तिष्क ने शून्य होकर शब्द जिह्वा को सोंपने से इंकार कर दिया। तंद्रा टूटी तब, जब इला कि माँ ने नौकरानी के हाथ से पानी लेने का आग्रह किया। मैं एक साँस में सारा पानी पीकर जैसे मस्तिष्क के शून्य को भर लेना चाहता था। इला कि माँ ने नौकरानी को मेरी पसंद की कॉफी और नाश्ता लाने का निर्देश देकर मेरी कुशलक्षेम पूछी, फिर उदासी में सराबोर आवाज़ में बोलीं, "इला अमरीका चली तो गई, पर मैं उसे शादी किए बिना जाने देना नहीं चाहती थी।" फिर वह थोड़ा रुककर बोली थीं, "लड़का और घर तो इला के पापा ने पहले भी अपनी समझ से अच्छा ही देखा था, पर कोई किसी का अन्तर्मन थोड़े ही देख सकता है बेटा। अंजाने ही बुरी लतों में फंसे असभ्य, लालची इंसान के साथ बाँध दिया उसे। उस कमबख्त लड़के ने एक रात शराब के नशे में प्रैस से इला कि बांह जला दी, उसे जान से मार डालने पर उतारू हो गया था। रात में ही किसी तरह छिप–छिपा कर पहुँची थी घर। इकलौती संतान का दुख पिता पर कुछ ज़्यादा ही भारी सिद्ध हुआ। बस चंद घंटों में ही उसके इतने बड़े दुख में बेरहम बनकर उसके सिर से अपनी छाया समेट कर ले गए।"
मैं आँखें फाड़े विस्मय से उनकी तरफ़ देखे जा रहा था बस, मन ही मन सोच रहा था, उसने मुझे साफ़-साफ़ क्यों नहीं बताया आख़िर? अगर बताती तो शायद मेरा निर्णय कुछ और होता। मैं तब भी 'शायद' की टूटी-फूटी बैसाखी के साथ ही खड़ा था। बैठक की दीवार पर ठीक मेरे सामने मुसकुराती हुई इला कि बड़ी-सी तस्वीर लगी थी जैसे कह रही थी, "अगर मैं दीदी की जगह इला को रख लेती तो तुम डायवर्सी स्त्रियों के विषय में अपनी ऐसी बेबाक राय तो नहीं रख पाते न जय। मैं दूसरी बार रिस्क नहीं ले सकती थी।"
"जय तुम सुन रहे हो?" मुझे खोया हुआ देख उसकी माँ ने पूछा।
"ज...जी, सुन रहा हूँ।" मैं जाग गया था जैसे और वे फिर शुरू हो गईं थीं।
"फिर तो बीमार माँ के साथ अनाथ—सी हो गई मेरी बच्ची ने घर और रिश्ते टूटने से लेकर उस राक्षस से छुटकारा पाने तक कौन-कौन से दुख नहीं झेले। जो भी हुआ हो, पर उसने अपना धीरज कभी नहीं खोया। ईशांत ने तो बाद में बहुत कोशिश की उसकी शादी कराने की, पर उसे कोई लड़का पसंद ही नहीं आया।" इला कि माँ उस हैंडसम लड़के की ओर इशारा करके बोलीं। मैं शून्य हुआ सब सुनता जा रहा था बस।
"तुम्हें तो उसने बताया होगा न ये सब? उसके बाद बहुत से रिश्ते देखे उसके लिए; पर उसने हर एक को 'ना' कह दी। विश्वास किया तो बस तुम पर। तुम्हें अपना सबसे अच्छा मित्र बताती थी। बहुत प्रशंसा करती थी तुम्हारी। कहती थी जय के साथ मैं हरदम अपने आप को सुरक्षित अनुभव करती हूँ। संभवतः जय के रूप में मुझे वह व्यक्ति मिल गया है माँ, जिसके साथ पिछले जीवन की भयावहता को भुलाकर स्थायीत्व-भरे जीवन की सुखद कल्पना कि जा सकती है। आप उससे मिलोगी न, तो वह आपको भी बहुत पसंद आएगा। कहती रही कि जल्दी ही मुझे तुमसे मिलवाएगी, परन्तु मिलवाया नहीं। क्या पता, क्या हुआ तुम दोनों के बीच, बताया नहीं कुछ।"
मैं जैसे अपनी चेतना खोता जा रहा था। मुझे इस तरह देखकर उन्होंने पूछा, "तुम ठीक हो न जय?"
"ज...ज...जी... " मैं बस इतना ही बोल पाया था। उन्होंने फिर बोलना शुरू कर दिया था, "अमरीका जाने के लिए मना कर चुकी थी कंपनी को, पर अचानक ही हाँ कर दी।"
इला के द्वारा अमरीका जाने की सोच समझकर की गई उस 'हाँ' से अपने लिए निकली पुख्ता 'ना' लेकर मैं यंत्रवत् उठकर चला आया था।
आज दशक भर के लंबे अंतराल के बाद मैं दिल्ली लौटा हूँ। ठीक उसी जगह खड़ा हूँ, जहाँ ईश्वर ने मुझे मेरे असल जोड़ीदार से मिलवाया था। मैंने उसे पहचान भी लिया था, पर मैं पढ़-लिख कर भी दकियानूस ही रह गया भारतीय पुरुष, पुरुषों के हित में बनाए गए घटिया और बेबुनियाद रिवाजों को लिए खड़ा रहा। मैं ये समझने से कैसे चूक गया कि जब इला जैसी संस्कारी लड़की किसी लड़के के साथ दिन या रात की परवाह किए बिना, संशय रहित होकर हर स्थान पर स्वयं को सुरक्षित अनुभव करती है तो उसके प्रेम की सीमाएँ कितनी विस्तृत होंगी और जब वह किसी पराए इंसान के सीने पर सिर रख सकती है, उसे छू सकती है, तो उसका समर्पण कितना स्थायी होगा। कैसा प्रेमी या मित्र था मैं जो उसके शांत भाव के पीछे छिपी सघन पीड़ा को नहीं देख सका, जो उसके हाथ के जले निशान से होकर उसके मन के घावों तक पहुँचकर उनपर मरहम नहीं रख सका! जब मैंने समीर से कहा कि मुझे इला से इतनी शिकायत तो अवश्य ही है कि उसने थोड़ी-सी भी तो पारदर्शिता नहीं रखी अपने और मेरे रिश्ते में। समीर ने उसी समय असहमति व्यक्त की, "नहीं जय उसकी कमी मत निकाल, वह अपनी जगह ठीक ही थी। शायद उसके लिए यही सही तरीक़ा था तेरे मन को ख़ुद के लिए साफ़-साफ़ पढ़ लेने का। कोई भी परिपक्व लड़की यही करती यार।" मैं इला कि अनोखी युक्ति के आगे नतमस्तक था; क्योंकि उसने व्यावहारिकता कि ठोस नींव पर खड़े होकर अपने प्रेम को रिश्ते में ढालने या न ढालने का जो नायाब तरीक़ा निकाला था, उसे तो मैं भाँप भी नहीं सका था। आज भी मेरी स्मृतियों में वह अंतिम दिन जस का तस बैठा है, जब इला मुझसे बहस करके थक गई थी पर मैं टस से मस नहीं हुआ था। आज मैं समझ सकता हूँ कि उस अंतिम दिन की मेरी अंतहीन बहस ने कितना आसान बना दिया होगा उसके निर्णय को।
धूल से अटे अतीत के रजतपट पर स्मृतियों की साँस लेकर, बीते कल के दृश्य एक के बाद एक ऐसे सजीव हो उठे जैसे अभी कल ही की तो बात है। सोचता हूँ, उसने अपनी माँ से जो मेरी तारीफें की थीं। , क्या मैं उसके योग्य था भी कभी? मेरी शादी उसी बरस माँ की पसंद की उस दिल्ली वाली लड़की से करा दी गई, मेरी तरफ़ से भी विरोध का कोई बिन्दु रह नहीं गया था। अपनी आत्मा के दूसरे हिस्से को छोड़कर किसी बेमेल हिस्से को ख़ुद से जोड़ना आख़िर मुझे कितना पूर्ण करता या मेरा जीवन आख़िर कितना सुखद बना सकता था? खैर, आज मैं दो बेटियों का पिता हूँ, जब मैं अपनी इन फूल-सी मासूम बच्चियों को इला कि जगह रखकर देखता हूँ तो मेरी रूह तक दर्द से काँप जाती है। इला, मैं तुम्हीं से कहता हूँ, मेरा विश्वास करना कि मैं आजीवन पश्चाताप से भरा रहूँगा। मैंने तुम्हारा दर्द तब तो नहीं समझा, पर अपनी बेटियों की तरफ़ देखकर अब समाज के उन घटिया रिवाजों के प्रति मेरा दृष्टिकोण बिलकुल बदल गया है, तुम सुन रही हो न इला?