तुम हो मुझमें(रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’): आत्मभाव की अनुभूति / कविता भट्ट

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यों तो कविता की विविध विधाओं में कला और भाव का संगम अनिवार्य तत्त्व हैं; किन्तु नवगीत एक ऐसी विधा है; जिस पर रचनाकार को कठिन परीक्षा देनी होती है। भावों का प्रवाह तथा नवीन उपमाओं द्वारा इन भावों का शृंगार वस्तुतः नवगीत की कसौटी है। पिछले दिनों रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी के नवगीत-संग्रह 'तुम हो मुझमें' को पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हुआ। यह कृति पाठकों को रचनाकार के मन में स्वयं को प्रतिबिम्बित होते हुए देखने का उपक्रम प्रतीत होती है। प्रवाहपूर्ण ढंग से अपने मनोभावों को सुन्दर शब्द-विन्यास में पिरोकर प्रस्तुत करना वस्तुतः काम्बोज जी जैसे कुशल रचनाकार के ही वश की बात है। विषयों की विविधता पाठक को प्रारम्भ से अन्त तक बाँधे रखने में पूर्णतः सफल है। शब्द-विन्यास ऐसा कि भावों की गहनता तक पहुँचना स्वाभाविक है। प्रवाह ऐसा कि पाठक भावों के गहरे तल में डूबते हुए भी स्वयं को तैरते हुए अनुभव करता है। सहजता ऐसी कि सुखद अनुभूति होती है और गाम्भीर्य ऐसा कि स्वयं को खोजती हुई प्रतीत होती है प्रत्येक मनोदशा। निःसंदेह यह एक श्रेष्ठ नवगीत-संग्रह है। नितांत ऐसे व्यंजन कि जैसे जिसमें पाठक के मनोमस्तिष्क हेतु रंग, रस, स्वाद, सुगंध और पुष्टि इत्यादि सभी कुछ है।

संग्रह में कुल छियासी रचनाएँ हैं; जो मन के चित्रण-सी हैं। इन्हीं में से एक रचना 'तुम हो मुझमें' से प्रेरित नवगीत-संग्रह का शीर्षक है। पूरे संग्रह में यह भाव समाहित है। प्रेम, प्रकृति, मानवीय सम्बन्ध, हर्ष-विषाद व राजनीति इत्यादि सभी विषयों का चित्रण है; इन गीतों में।

अंगारों पर चलकर ही, अधर-सुगन्ध, अनुबन्ध लिखो, आया वसन्त, इसी भुलावे में, ओ चिरैया, काँपती किरनें, गाँव अपना इत्यादि विविध रंगों और मनोभावों को बुनती हुई रचनाएँ हैं। अधिकतर रचनाएँ रचनाकार के जीवन के कटु, तिक्त व मधुर भावों को शब्द ब्रह्म के माध्यम से प्राण-प्रतिष्ठित करती हैं। कहीं शुष्क रेगिस्तान में पानी की खोज-सी तो कहीं पहाड़ों से झरते हुए झरनों-सी ये रचनाएँ पाठक को उसकी आत्मा से जोड़ती है। आत्मावलोकन तथा आत्म विश्लेषण के लिए अभिप्रेरित करती हैं। रचनाकार भी इस बात को अपने आत्मकथ्य में लिखते हैं कि यह प्रक्रिया गीतों के माध्यम से सुचारु रूप से होती है। खोखले सम्बन्धों पर एक उदाहरण है-

आओ लिख दूँ एक अधजला गीत

तुम्हारे अधरों पर

और तुम्हारी आँखों में

नीरव-सा संसार बसा दूँ।

सजल बरौनियाँ हैं पहने

रिश्तों की भारी जंजीर

कण-कण को पोंछ छाँव में

विद्रोह का अम्बार लगा दूँ।

यह नवगीत-संग्रह इसी प्रकार के श्रेष्ठ नवगीतों का प्रस्तुतीकरण है। इन गीतों में आधुनिक युग की भौतिकता से ऊबता मन है, विचारों से विभ्रमित मस्तिष्क है और संसार-सागर में उठती-गिरती तरंगों से विरक्त आत्मा है। इन गीतों में एक गहन प्यास है; एक क्षुधा है और एक हूक है। एक ऐसे साथी की खोज है; जो संवाद के तत्त्व को ठीक उसके स्वाभाविक स्वरूप में ग्रहण कर सके। आज के भौतिकवादी युग में क्या ऐसा प्रेमी अथवा प्रेयसी सम्भव है; जो आत्म तत्त्व को झंकृत करते हुए युग-युगान्तर के यक्ष प्रश्नों का उत्तर दे सके कि वस्तुतः प्रेम क्या है। काम्बोज जी ने ऐसे प्रश्नों को गीतों में ढाला है। वे साधुवाद के पात्र हैं।

ऐसे रचनाकार कम ही हैं; जो पाठक को आत्मभाव की अनुभूति करवाते हुए गीत सरिता में स्नान करवाते हैं; मुझे प्रसन्नता है कि ऐसी भाव-सरिता में डुबकी लगाकर हमने पुण्य स्नान किया। भावों का माधुर्य, भाषा की सुग्राह्यता, प्रवाह, प्रांजलता और उत्कृष्ट शब्द-विन्यास गीतों में स्वाभाविक रूप से समाहित है। बार-बार पढ़ने का मन होता है। गुनगुनाकर धुनों में पिरोने का मन होता है।

इस संग्रह में गीतकार के सेवाकाल से लेकर सेवानिवृत्ति तक के लगभग सभी चुने हुए गीत समाहित हैं। इतनी लम्बी अवधि में अवधारणाएँ बनती हैं और टूटती हैं। कभी मौन मुखर होता है, तो कभी भरी भीड़ का कोलाहल भी शून्यता का अनुभव करवा देता है। गीतों में इन्हीं भावों का प्रवाह समाहित है। प्रायोगिकता और व्यावहारिकता के इस युग में ये गीत तपती धरती पर पड़ने वाली सावन की बूँदों और इससे उठने वाली सुगन्ध जैसे हैं। ये आनन्दित और भाव-आप्लावित कर देते हैं। कभी गुदगुदाते हैं; कभी रुलाते हैं; कभी मुख पर मुस्कान ला देते हैं। निश्चित रूप से यह संग्रह संग्रहणीय है। जो पीढ़ी प्रेम को केवल एक माध्यम बना चुकी है-वासना पूर्ति का; उस पीढ़ी को भी ये गीत पढ़ने चाहिए; जिससे अनुभव हो सके कि प्रेम की अनुभूति कितनी गहन होती है।

संग्रह में कहीं चुप से हुए गाँवों का मार्मिक शब्द चित्र है; तो कहीं पुरानी पीढ़ी के मूल्यों का चित्रण है। कहीं जंगलों की आग से तड़पते पशु-पक्षियों की पीड़ा है; तो कहीं पर्यावरण प्रदूषण पर गम्भीर प्रश्न हैं। कहीं मानव के विदू्प होते व्यवहार पर चिंता है; तो कहीं प्रकृति माता के उदात्त और असीम प्रेम के दृश्य हैं। फूल, चाँद, सूरज, तिनका, धूप, नदी, रेत, उजाला, हवा, मेघ, मौसम और असीम अम्बर इत्यादि भी चित्रित हैं। संग्रह में घर, सम्बन्ध, उहापोह तथा इनसे उपजी मन की पीड़ा इत्यादि भी चित्रित हैं। इस संग्रह में राजनीतिक प्रदूषण से उपजी जनता की पीड़ा जैसे गम्भीर विषय भी गीतरूप में निरूपित हैं; यह एक रोचक बात है। इतने विषयों को साथ-साथ गूँथना संग्रह की अनूठी विशेषता है।

कुल मिलाकर पूरा संग्रह एक लम्बी संक्रमण अवधि का अभिलेख है। मानवीय मूल्यों के ह्रास का दर्पण भी है। कैसे समय परिवर्तित हुआ और इसका समाज पर क्या प्रभाव पड़ा; यह सभी कुछ इस संग्रह से समझा जा सकता है। आवश्यकता है; पुनः ऐसे मनोभावों को प्रतिष्ठित करने की; जिनसे मानवीय सम्बन्ध स्वस्थ हो सकें; वे प्रकृति के साथ हों या फिर मानव के मानव के साथ। यह संग्रह लयबद्धता के साथ मधुर ताल के गान जैसा है। यह संग्रह उनके उत्कृष्ट लेखन का प्रतिदर्श है। पाठकों को इसे मनोयोग से पढ़ना चाहिए। इसके अवलम्ब से भावनात्मक बुद्धिमत्ता द्वारा संदेश ग्रहण करके जीवन में उतारना चाहिए, ताकि रचनाकार का परिश्रम सार्थकता के सोपानों पर आरूढ़ हो सके। रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी को नवगीतकार के रूप में हार्दिक साधुवाद! आशा है उनका परिश्रम और साहित्य में प्रति अहर्निश समर्पण नई पीढ़ी को भी वांछित और यथोचित संदेश प्राप्त करने में सहयोगी होगा।

तुम हो मुझमें (नवगीत-संग्रह) : रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' , वर्ष 2023, पृष्ठ: 144, मूल्य: 400 रुपये, आईएसबीएन-978-93-94221-73-4, अयन प्रकाशन, जे-19 / 39, राजापुरी, उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059 -0-