तुलसीदास की प्रासंगिकता / हरिनारायण सिंह 'हरि'

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तुलसीदास के नाम, जीवन-चरित्र और उनके ग्रंथों से कौन ऐसा भारतीय, खासकर हिन्दू होगा जो अपरिचित होगा। इनका 'रामचरित मानस' झोपड़ी से लेकर बडे-बडे प्रासादों तक में उत्तर भारत के हिन्दू मात्र के गले का हार है। डा शिवमंगल सिंह 'सुमन' ने तुलसीदास के सम्बंध में सत्य ही लिखा है, "राष्ट्र के घोर संकटकाल में जनमानस की आस्था को भीतर से टूटने से बचाने के लिए उन्होंने भारत की विविध साधनाओं के सार को निचोड़कर (रामचरित मानस के रूप में) अद्भुत संजीवनी तैयार की है।" तुलसीदास ने रामचरित मानस के प्रारंभ में कह दिया है—

" नानापुराणनिगमागय सम्मतं यद् रामायणे निगदितं क्वचिदन्योऽपि।

स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति। "

और, यही कारण है कि रामचरितमानस और उसके यशस्वी रचनाकार गोस्वामी तुलसीदास का प्रभाव राष्ट्रव्यापी है। डा ग्रियर्सन ने कभी लिखा था कि जब मैं भारत आया तो देखा कि उत्तर भारत में भगवान बुद्ध के बाद सबसे बड़े महापुरुष तुलसीदास हैं, जिनकी वाणी ग्राम, नगर और जनपद के जन-जन की जिह्वा पर छायी हुई है।

डा वचनदेव कुमार के शब्दों में, "रामचरितमानस ऐसी रचना है, जिसकी चर्चा संसार की श्रेष्ठ भाषाओं के विचारकों ने की है। संसार-प्रसिद्ध पुस्तकों की दो कोटियाँ हैं। एक में वेद, बाइबिल, कुरान जैसे धार्मिक ग्रंथ माने जाते हैं और दूसरी कोटि में ग्रीक महाकवि होमर की इलियड और ओडेसी, इटालियन महाकवि दाँते की डिवाइन कॉमेडियन, मिल्टन की पैराडाइज लास्ट, शेक्सपियर की किंग लेयर और मैकबेथ, कालिदास की अभिज्ञान शाकुंतलम्, रवीन्द्रनाथ टैगोर की गीतांजलि जैसी रचनाएँ आती हैं। किन्तु, रामचरितमानस में इन दोनों आश्चर्यजनक समन्वय हुआ है। इतना ही नहीं, भाषा कि दृष्टि से, आदर्श की दृष्टि से संसार का कोई भी महाकाव्य मानस की समता में संकोच के साथ ही रखा जा सकता है।"

मानस की रचना का प्रारंभ संवत 1631 में तुलसीदास ने अयोध्या में किया था-

' संवत सोरह सौ इकतीसा,

गाउँ कथा हरिपद धरि सीसा।

नौमी भौमवार मधुमासा,

अवधपुरी यह चरित प्रकासा। '

सैकड़ों वर्ष बीत गये, मानव जाति के इतिहास में कितने परिवर्तन आये, विज्ञान का कितना विकास हुआ, फिर भी, तुलसी का स्मरण आज भी उसी उत्साह और श्रद्धा से किया जा रहा है। कारण स्पष्ट है कि इनकी रचनाओं में कुछ ऐसी शाश्वत समस्याओं के समाधान अंकित हैं, जिन पर काल-प्रवाह का प्रभाव नहीं पड़ता है। हर काल में वैसे प्रश्न उठते हैं और तुलसी से समाधान मिल जाता है। इसी कारण तुलसी आज भी प्रासंगिक हैं। उन्होंने राम के लोक पावन कथा द्वारा मानव-जीवन की गुत्थियों को बड़ी ही कुशलता से सुलझाया हे तथा राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक क्षेत्रों के समस्त आदर्शों का सर्वांगीण प्रतिपादन किया है। उन्होंने मानस के एक स्थल पर लिखा है-

' कीरति भनति भूति भल सोई।

सुरसरि सम सब कहँ सुख होई। '

अर्थात्, यश, कविता और वैभव वही श्रेष्ठ है, जिससे गंगा के समान सबका समान रूप से कल्याण हो। इस दृष्टि से तुलसी का साहित्य सभी प्रकार के व्यक्तियों के लिए उपयोगी है। ऊँच-नीच, योग्य-अयोग्य, मूर्ख-विद्वान सभी उसमें से अपने काम की बातें निकाल लेते हैं। यही कारण है कि तुलसी का रामचरितमानस गरीब की झोपड़ी से लेकर राजप्रासाद तक समान रूप से समादृत है।

सर्वसाधारण की दृष्टि में मानस की महत्ता इसलिए है कि इसमें पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय आदर्श का मानक प्रस्तुत किया गया है। पिता का पुत्र के प्रति, पुत्र का माता-पिता के प्रति, भाई का भाई के प्रति, राजा का प्रजा के प्रति, , प्रजा का राजा के प्रति, सेवक का स्वामी के प्रति, स्वामी का सेवक के प्रति, शिष्य का गुरु के प्रति, गुरु का शिष्य के प्रति, पत्नी का पति के प्रति और पति का पत्नी के प्रति क्या कर्त्तव्य है आदि सामाजिक कर्त्तव्यों की झलक रामचरितमानस में पाकर जनता हर्षविभोर हो जाती है।

किसी भी राष्ट्र की अस्मिता का मेरुदंड उसकी भाषा होती है, उसकी संस्कृति होती है, उसका आचार-विचार होता है, उसकी अपनी आस्था होती है। भौतिक पराजय को तो निष्ठा, साहस, और शौर्य से जीत में बदला जा सकता जा सकता है, पर संस्कृति के नष्ट हो जाने पर उसके उद्धार की कोई आशा नहीं रहती। इसलिए तुलसी ने बिना किसी धर्म, जाति, वर्ग या सम्प्रदाय की अवमानना किये राष्ट्र को भीतरी टूटन से बचाने के लिए अभूतपूर्व आत्मविश्वास का संयोजन किया था। रावण के पास भौतिक शक्ति थी, किन्तु राम के पास केवल आत्मिक शक्ति। रावण को रथी और राम को विरथ देखकर विभीषण का मृदुल हृदय विचलित हो उठा, तो उनको सांत्वना देने के लिए राम ने अपने जिस रथ का वर्णन किया है, उससे प्रेरणा लेकर हम आज भी अपने राष्ट्र की संकटग्रस्त संस्कृति, भाषा और सामाजिक-राजनीतिक अस्मिता कि रक्षा करने में समर्थ हो सकते हैं-

' सौरज धीरज तेहि रथ चाका,

सत्यशील दृढ़ ध्वजा पताका।

बल विवेक दम परहित घोरे,

छमा कृपा समता रजु जोरे।

ईस भजन सारथी सुजाना,

विरति चर्म संतोष कृपाना।

दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा,

बर विग्यान कठिन कोदंडा।

अमल अचल मन त्रोन समाना,

सम जप नियम सिलीमुख नाना।

कवच अभेद विप्र गुरु पूजा,

एहि सम विजय उपाय न दूजा।

सखा धर्ममय अस रथ जाके,

जीत न सकहिं कबहुं रिपु ताकें। '

उन्होंने राष्ट्र के मनोबल को दृढ़ आधार प्रदान करने के लिए अत्यंत सुगठित शील, सौन्दर्य, शौर्य-समन्वित उदात्त उद्धारक राम के अवतरण की परिकल्पना कि और शोषित-पीड़ित के रूप में किसी जाति, धर्म, वर्ग या सम्प्रदाय के संकीर्ण चित्रण के स्थान पर धरती को संत्रस्त बताकर अखिल कल्याणकारी मानवीय मूल्यों के संरक्षण का प्रश्न उठाया है, जो शाश्वत है, सार्वकालिक प्रासंगिक है।

साहित्यकार अपने समय से अलग रह नहीं सकता। साहित्य अपने तत्कालीन समाज के यथार्थ का चित्रण किसी न किसी रूप में अवश्य करता है, किन्तु साहित्य आदर्श समाज की रूपरेखा भी प्रस्तुत करता है। आशा-विहीन साहित्य-साहित्य की परिभाषा पर खड़ा नहीं उतरता। तुलसीदास ने अपने साहित्य में जहाँ विभिन्न रूपकों के माध्यम से तत्कालीन भारतीय समाज के यथार्थ को चित्रित किया है, वहीं रामराज्य के रूप में एक आदर्श समाज की रूपरेखा भी प्रस्तुत की है। तत्कालीन भारतीय समाज की दुर्दशा का चित्रण करते हुए तुलसी ने अपनी मुक्तक काव्य-पुस्तक 'कवितावली' में लिखा है-

" खेती न किसान को भिखारी को न भीख बलि बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी।

जीविका विहीन लोग सीधमान सोचबस कहैं एक एकन सों कहाँ जाइ, का करी? "

तो मानस में रामराज्य की परिकल्पना देखिये-

" दैहिक दैविक भौतिक तापा,

रामराज काहूँ नहिं व्यापा।

सब नर करहीं परस्पर प्रीती,

चलहीं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।

अल्पमृत्यु नहि कवनिउ पीरा,

सब सुन्दर सब बिरुज सरीरा।

नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना,

नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना। " आदि।

यहाँ हम तुलसी को एक सच्चे क्रांतिकारी साहित्यकार के रूप में देखते हैं, जिन्होंने एक दलित-गलित समाज को बदलकर एक नये आदर्श 'रामराज्य' की कल्पना कि है। वस्तुत: तुलसी ने अपने साहित्य के द्वारा असत्य से सत्य की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर और मृत्यु से अमृत की ओर चलने की सद्प्रेरणा दी है और यही कारण है कि हिन्दी साहित्य के छायावादी युग के प्रबल स्तंभ और क्रातिद्रष्टा महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने इनके जीवन चरित्र पर 'तुलसीदास' दीर्घ कविता लिखकर अपने समानधर्मा पूर्वज कवि तुलसी के प्रति अपनी श्रद्धा निवेदित की।

फिर, तुलसी ने संस्कृत में अपनी प्रकाण्ड विद्वता, अरबी-फारसी जैसी तत्कालीन राजकीय भाषा में पारंगतता के होते हुए भी लोकभाषा में अपनी रचना की, क्योंकि यही युगधर्म था। संक्षेप में, अंत में हम तुलसी साहित्य के मनीषी डा वचनदेव कुमार के शब्दों में कह सकते हैं कि हमारे सामने राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक-जब जो उलझनें आयीं, हम तुलसी के साहित्य-द्वार पर पहुँचे और हमें सभी उलझनों का समाधान शीघ्र ही मिल गया। इसी कारण तुलसीदास चार सौ-साढ़े चार सौ वर्ष पहले तो प्रासंगिक थे ही, आज भी हैं और भविष्य में भी रहेंगे।