तुलसी-प्रयुक्त क्रियाएँ / शिवपूजन सहाय
महाकवि गोस्वामी तुलसीदास-कृत रामचरितमानस विश्व-साहित्य में आदरणीय स्थान पा चुका है। वही हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य माना जाता है। छन्द, अलंकार, रस, भाषा, भाव, कल्पना-कौशल, शब्द-योजना, चरित्र-चित्रण, उक्ति-वैचित्र्य, पद लालित्य, काव्य-चमत्कार, सूक्ति, मुहावरा, कहावत, वर्णन-शैली आदि की दृष्टि से वह एक अभूतपूर्व और अतुलनीय ग्रन्थ है। उसकी विशेषताएँ अगणित हैं। उनमें से अधिकांश पर विद्वानों की प्रतिभा का प्रकाश पड़ चुका है। किन्तु, क्रियाओं के प्रयोग पर कहीं किसी के विचार दृष्टिगोचर नहीं हुए हैं।
भाषा में क्रियाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है। संस्कृत, अंगरेजी आदि सुसम्पन्न एवं समर्थ भाषाओं में क्रियाओं के प्रयोग का सौष्ठव दर्शनीय है। हिन्दी में अधिकतर संयुक्त क्रियाएँ लिखी जाती हैं। पर अब अहिन्दी-भाषी क्षेत्र के संस्कृतज्ञ विद्वान् एकाकी क्रियाओं का भी व्यवहार करने लगे हैं। मानस में तथा अन्यान्य तुलसी-कृत ग्रन्थों में संज्ञा और विशेषण को भी क्रियात्मक रूप देने का प्रयास किया गया है। हिन्दी में आभी तक ऐसा कोई प्रयत्न नहीं हो रहा है।
लोकभाषाओं की क्रिया-शक्ति भी हिन्दी से बड़ी-चढ़ी दीख पड़ती है। संस्कृत और अंगरेजी की तरह उनमें भी संज्ञा एवं विशेषण के शब्दों से क्रिया बना ली जाती है। गोस्वामीजी ने संस्कृत और लोकभाषाओं की इस विलक्षण क्षमता को परखा और भाषा की वैभव-वृद्धि के लिए उसे अपनाया भी। तुलसी-रचित साहित्य में क्रियाओं के जैसे सुन्दर प्रयोग मिलते हैं, वैसे अभी शिष्ट हिन्दी में विशेष प्रचलित नहीं हुए हैं। उन प्रयोगों को आधुनिक गद्य में खपाने की चेष्टा भी अधिकारी विद्वान् नहीं करते। इससे भाषा की एक प्रबल शक्ति उपेक्षित रह जाती है।
हिन्दी के प्राचीन गद्य में ऐसी क्रियाएँ मिलती हैं, जो संज्ञा और विशेषण से बनाई गई हैं। हिन्दी के काव्य-ग्रन्थों की टीकाओं में जो पुराना गद्य पाया जाता है, उसमें एकाकी क्रियाओं के प्रयोग प्रायः देखने में आते हैं। पुराने गद्यकारों के अतिरिक्त आधुनिक आंचलिक उपन्यासकारों की भाषा में भी कई ऐसे प्रयोग मिल जाते हैं। अवधी और ब्रजभाषा के गद्य-पद्य में ऐसे प्रयोग प्रचलित हो सकें, तो भाषा की शक्ति और सम्पत्ति ही बढ़ेगी, सम्भवतः कोई हानि न होगी। सबसे पहले लब्धप्रतिष्ठ गब्धप्रतिष्ठ गद्यकारों को ऐसे प्रयोगों की ओर ध्यान देना चाहिए।
मानस के पुराने टीकाकार महात्मा रामचरणदासजी ने अपनी टीका में ‘ध्यावते हैं (ध्यान करते हैं), अनुरागते हैं, प्रचारते हैं, अनुभवते हैं’ आदि क्रियाओं का प्रयोग किया है। वैदिक वांग्मय के विशेषज्ञ विद्वान् डॉक्टर दामोदर सातवलेकर ने वाल्मीकीय रामायण की अपनी टीका में ‘प्रकाशते हैं, उपासते हैं, शोभते हैं, त्यागते हैं’ आदि प्रयोगों को अपनाया है। गीताप्रेस (गोरखपुर) से प्रकाशित प्राचीन संस्कृत-ग्रन्थों की टीकाओं में भी ऐसे प्रयोग मिलते हैं। भारतेन्दु-युग के प्रमुख गद्यकार भी ‘छमिए, रमिए, सेवते हैं, भावते हैं, छलते हैं, अवगाहते हैं, प्रतिपालते हैं, संकोचते हैं, आचरते हैं, अनुमानते हैं’ आदि प्रयोगों को अंगीकृत कर चुके हैं। पुरानी टीकाओं में तो ‘उपहासते हैं, स्वीकारते हैं, संहारते हैं, हरषाते हैं, विवाहते हैं, व्यापेगा, उच्चारेगा, अवतरेगा, निरूपेगा, ग्रसेगा, अनुसरेगा, दुरावेगा, असीसता है, अभिलाषता है, आकर्षता है, भाषता है, विहरता है, विचरता है, उपदेसेगा, पुलकेगा, अकुलायगा, आराधेगा’’ आदि प्रयोग देखकर स्वभावतः ऐसी धारणा होती है कि खड़ीबोली (हिन्दी) के गद्य में यदि इन पुरानी प्रचलित क्रियाओं का व्यवहार हो तो लिखावट और छपाई में स्थान के बचाव की सुविधा हो सकती है। हिन्दी जब से ‘खड़ी बोली’ हुई तब से उसने पुरानी परम्परा छोड़ दी। वह नये साँचे में ढली। परन्तु पुरानी परम्परा के अपनाने से क्या उसकी कुछ हानि होगी? यह भाषाशास्त्रियों के लिए विचारणीय प्रश्न है।
महात्मा तुलसीदास द्वारा प्रयुक्त क्रियाओं के कुछ उदाहरण नीचे देता हूँ। भाषा-विज्ञानी विद्वान् विचारें कि इन क्रियाओं के प्रयोग का प्रचलन होने से हिन्दी विकृत होगी या अलंकृत। मैं भाषातत्त्वविद् नहीं हूं, पर पुराने कवियों और गद्यकारों में क्रियाओं के सुन्दर-सुहावने प्रयोग देखकर ऐसी इच्छा होती है कि आधुनिक हिन्दी-गद्य के प्रभावशाली लेखक यदि इस तरह की क्रियाओं को टकसाली बनाने का प्रयास करने में तत्पर हों, तो हिन्दी का अंग सँवरेगा, कोई सहृदय साहित्यानुरागी उसे दूषेगा नहीं। कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी, निबन्ध आदि में ऐसी क्रियाओं के खपाते से कोई अनर्थ होने की सम्भावना नहीं सूझती। हिन्दी में ‘विलाप करती है’ के बदले ‘बिलपती है’ लिखना असंगत नहीं जान पड़ता। आज भी लोग प्रायः ‘सराहना करते हैं’ की जगह ‘सहराते हैं’ लिखा करते हैं। तुलसी-प्रयुक्त क्रियाओं के निम्नांकित उदाहरणों से प्रेरणा लेकर इस दिशा में हिन्दी के कथाकार, निबन्धकार, कवि तथा नाटककार आगे बढ़ने का यदि उपक्रम करें तो हिन्दी का कोई अपकार न होगा। निम्नांकित संकेतित शब्दों को देखिए:
(1) दच्छ त्रासय न काहु सनमानी। करि दण्डवत मुनिहि सनमानी।
सहित बरात राउ सनमाना। बार-बार सनमानहि रानी। (बालकाण्ड)
(2) पारवतिहि निरमयउ जेहि, सोइ करिहि कल्यान। निज माया बसंत निमयउ।
(बाल.)
मो तो गति दूसरी न बिधि निर्मई। (विनयपत्रिका)
(3) जो प्रबन्ध बुध नहिं आदरहीं। (बाल.) रावरे आदे लोक वेदहूं आदरियत। (विनयपत्रिका)
(4) प्रगटेउ विषमबान झखकेतू। प्रगटेसि तुरत रुचिर रितुराजा। (बाल.)
(5) कोपेउ जबहिं बारिचरकेतू। सिवहिं बिलोकि ससंकेउ मारू। (बाल.)
(6) तदपि भगतिवस बिनवउं स्वामी। सभय हृदय विनवति जेहि तेही। (बाल.)
(7) भवहिं समरपीं जानि भवानी।
करि विनय सिय रामहिं समरपी, जोरि कर पुनि पुनि कहै। (बा.)
(8) जाचक सकल संतोषि संकर उमा सहित भवन चले। मन संतोषे सबन्हि के, जहंतहं देहि असीस। (बाल.)
(9) प्रभु तब मोहि बहु भांति प्रबोधा। (बा.) धीरज धरहु प्रबोधिसि रानी। (अयोध्याकाण्ड)
(10) बहुबिधि उमहि प्रसंसि पुनि, बोले कृपानिधान। वेदापुरान प्रसंसहिं जाही। नृप बहु भांति प्रसंसेउ ताही। (बा.)
(11) हृदय ने कछु फल अनुसन्धाना। (बाल.); सींक धनुष सायक सन्धाना। (अरण्यकांड)
(12) केहि पटतरौं बिदेहकुमारी। जौ पटतरिअ तीय सम सीया, जग उस जुबति कहाँ कमनीया। (बाल.)
(13) विद्यमान रन पाइ रिपु कादर कथहिं प्रलाप। (बा.)
(14) मन समेत जेहि जान न बानी, तरकि न सकहि सकल अनुमानी। (बा.); प्रीति प्रतीति जाइ नहि तरकी। (अयो.)
(15) तेहि बहुविधि त्रासइ देस निकासइ जो कह वेद पुराना। (बा.); सीतहिं बहुविधि त्रासहु जाई। (सुंदर.)
(16) उमगी अवध अनन्द भरि अधिक-अधिक अधिकाति। (बा.); ...छट जानि वन गवन सुनि उर अनन्द अधिकान। (अयोध्या)
(17) नभ सुर नगर लोग अनुरागे। मांगत बिदा राउ अनुरागे। (बा.); ....फिरत विषय अनुरागे। (विनयपत्रिका)
(18) टूट चाप नहिं जुरहिं रिसाने। (बा.); प्रानप्रिया केहि हेतु रिसाना। (अयो.)
(19) उर अनुभवति न कह सक सोऊ। (बा.); वचन अगोचर सुख अनुभवहीं। (अयो.), ज्यों जुवती अनुभवति प्रसव अति....। (विनय.)
(20) राम-राम कहि जे जमुहाहीं। तिनहिं न पापपुंज समुहाहीं। (अयो.)
(21) बेगिअ नाथ न लाइअ बारा। बहुरिअ सीय सहित रघुराई। (अयो.)
(22) थन प्य स्त्रवहि नयन जल छाए। (अयो.); पावकमय ससि स्त्रवत न आगी। (सुन्दरकांड)
(23) सोचत भरतहि रैन बिहानी। जो सेवक साहिबहि संकोची। निन्दहिं जोग बिरति मुनि ग्यानी। (अयो.) निसिहिं निन्दति बहु भांती। (लंका)
(24) को साहिब सेवकाहिं नेवाजी। (अयो.)....नमत पद रावणानुज निवाजा। (विनय.)
(25) एहि अवसर मंगल परम सुनि रहंसेउ रनिवास। (बा.); रहसी रानि राम रुख पाई। (अयो.)
(26) भारत-भगति सब कै मति जंत्री। (अयों.) सापत ताडत परुष कहन्ता। (अरण्य)
(27) कोटि प्रकार कलपि कुटिलाई। (अयो.); दंभिन्रह निज मत कल्पि करि, प्रगट किए बहु पंथ। (उत्तर.); तेहि न चलहि नर मोहबस कल्पहि पन्थ अनेक। (उ)
(28) बहुतक खग प्रबिसहिं तेहि माहीं। (किष्किन्धा.) प्रबिसि नगर कीजै सब काजा। (सुन्दर.)
(29) गहि-गहि कपि मर्दइ निज अंगा। (सुन्दर.); कोटिन्ह गहि सरीर सन मर्दा (लंका.)
(30) उठा आपु कपि के परचारे। उग्र बिलोकनि प्रभुहिं बिलोका। (लंका.)
(31) जग्य विधंसि कुसल कपि, आए रघुपति पास। सेवत विषय बिबर्ध जिमि, निप नित नूतन मार। (लंका.)
(32) जेहि चिन्तहिं परमारथवादी। (बाल.); पीडहिं सन्तत जीव कहं, सा किमि लहै समाधि। (उत्तर.)
ऐसे उदाहरण असंख्य हैं। एक ही शब्द के प्रयोग में उसके विविध क्रियात्मक रूपों को भी दरसाया है। नई-नई क्रियाएँ भी सिरजी हैं। जिस शब्द से जैसी क्रिया का काम लेना चाहा है, उससे वैसा काम ले ही लिया है। विशेषणों से भी मनचाहा काम कराया है। नीचे के कुछ उदाहरणों से ये बातें स्पष्ट होंगी
(1) कहहुं सो कथा नाथ बिस्तारी। जन प्रह्वलाद सुजस बिस्तारा। (बा.) जगपावनि कीरति बिस्तरिहहिं। (लंका.), बिमल जस नाथ केहि भांति बिस्तरहुगे। (विनयपत्रिका)
(2) जानि कठिन सिव चाप बिसूरति। जानि भाग्य बड़ राउ अनन्दे। (बाल.); मोहि अवकलत उपाय न एकू। (अयो.)
(3) कोप कृसानु गुमान अवां घट जैं जिनके मन आंच न आंचे। (कवितावली-रामायण, उत्तराकाण्ड)
(4) राम-नाम अनुराग ही जिय जो रतिआतो। (विनयपत्रिका)
(5) पूत सपूत पुनीत प्रिया निज सुन्दरता रति को मदनाए। (कवितावली, उत्तर.)
(6) को भरिहै हरि के रितए रितवै पुनि को हरि जो भरिहैं। (कवि. उ.)... मही मोद मंगल रितई है। (विनय.)
(7) जस धवलिहउं भुवन दस चारी। (निषादराज, मानस, बाल.)
(8) सुमन बरषि सुर धन करि छांहीं, विटप फूलि फलि तृन मृदुताहीं। (मानस, चित्राकूट, बाल.)
(9) श्रवणादिक नव भक्ति दृढ़ाहीं। धीरन्ह के मन विरति दृढ़ाई। (अरण्य, मानस.); पावक साखी देइ करि जोरी प्रीति दृढ़ाइ। (मानस. किष्किन्धा.), करि विचार तिन्ह मंत्र दृढ़ाया। (मा. ल.) प्रीति बिना नहिं भगति दृढ़ाई। (मा. उत्तर.)
(10) श्रवन-नयन मग मन लगे सब थल पतितायो। (विनयपत्रिका)
लोकभाषा की क्रियाओं को अपनाकर भी यही संकेत किया है कि सुष्ठु प्रयोग जहाँ कहीं मिले, उसका व्यवहार करने से भाषा-सौष्ठत बढ़ता है। यथा
(1) सुदिन सुनखत सुधरी सोचाई। (बा.); सागर सीप कि जाहि उलीचे। (अयो.); भूष रूप तब राम दुरावा। (अरण्य.)
(2) तात प्रेमबस जनि कदराहू। सोइ कृपालु केवटहिं निहोरा। हथवासहु बोरहु तरनि कीजिए घाटारोहु। (अयो.)
(3) कोतल संग जाहिं डोरिआए। मानहुं राज अकाजेउ आजू। (अयोध्या.)
(4) कर सरोज सिर परसेउ कृपासिन्धु रघुवीर। (अरण्य.); डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं। (सुन्दर.)
(5) एक बात नहिं मोहि सोहानी। (बाल.); कहा भूप भल सबहिं सोहाना। (अयोध्या)
(6) जनम कोटि को कांदलो हृद-हृदय थिरातो। (विनयपत्रिका.)
अन्त में नम्र निवेदन है कि राष्ट्रभाषा हिन्दी की शक्ति-वृद्धि के उद्देश्य से अतीत-युग के समस्त साहित्य का मन्थन करके यदि केवल एक क्रिया-कोश का ही निर्माण किया जाय और सभी क्रियाओं के रूप शोधकर, उन्हें प्रयोगोपयोगी बनाकर, सोदाहरण प्रदर्शित किया जाय तो हमारी भाषा समृद्धिशालिनी हो सकती है। इस विषय पर गम्भीरता और दूरदर्शिता से विचार होना चाहिए। अधिकारी विद्वानों का ध्यान आकृष्ट करने के लिए ही मैंने यह लघु प्रयास किया है।
त्रै. ‘परिषद् पत्रिका’, अप्रैल, 1961