तुलसी और सौंफ के पौधे / जयप्रकाश चौकसे

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तुलसी और सौंफ के पौधे
प्रकाशन तिथि : 11 मई 2013


कुछ इस तरह के तथ्य उजागर हुए हैं कि पौधे एक दूसरे की सहायता करते हैं और माइक्रोस्कोपिक ध्वनियां पत्तों से निकलती हैं जो उनकी बढ़त में मददगार सिद्ध होती हैं। मसलन तुलसी एक कुदरती स्वाभाविक पेस्ट कंट्रोल है। पौधों की बढ़त उनके पड़ोस में लगे पौधों पर भी निर्भर करती है मसलन तुलसी के पड़ोस मेें फैनल सौंफ लगाने पर तुलसी की बढ़त अवरूद्ध हो जाती है क्योंकि पौधे अपने पड़ोस से वाकिफ रहते हैं और पड़ोस से मित्रता चाहते हैं। पौधों के भीतर ध्वनि तरंगें होती हैं और उनके सेल का अध्ययन इस तरंग के रहस्य को समझने में सहायता कर सकता है जिस पर शोध जारी है। कुछ पौधे शीघ्र ही आक्रोश की मुद्रा में आ जाते हैं परन्तु उनके दुश्मन स्वभाव के पौधे के पड़ोस में लगने पर उनमें समझदारी भी विकसित होने लगती है। दरअसल प्रकृति अनेक तरीकों से साथ रहने, प्रेम करने और करुणा विकसित करने के संदेश देती हैं। प्रकृति के संदेश को सभी धर्मों ने ग्रहण किया है और पड़ोस से मित्रता तथा प्रेम का उपदेश भी दिया है परन्तु धर्म के ही नाम पर उसके मूल संदेश को अनदेखा किया जाता है और शत्रुता को प्रखर किया जाता है। सारे मूल मुद्दे नारेबाजी में खो जाते हैं और तर्क का सूरज भावनाओं के बादलों की ओट में चला जाता हैं। डंके की चोट पर इस अंधकार को अविश्वास की रात घोषित कर दिया जाता हंै। कई बार सूरज दिखाई देने में वर्षों लग जाते हैं।

देश के विभाजन ने आपसी वैमनस्य को समाप्त नहीं किया वरन् संकीर्ण राष्ट्रीयता की सघन भावनाओं ने अग्नि में घी का काम किया। अब आपसी अविश्वास को राष्ट्रीय दरजा प्राप्त हो गया और निरंतर ऐसी घटनाएं होती गर्इं जिनके परिणाम स्वरूप दोनों देशों में कुछ ताकतेें एक दूसरे के सोच की प्रतिक्रिया की तरह उभरीं और युद्ध को ही निदान मानने का प्रयास करती हैं। आज दोनों देशों के पास आणविक हथियार हैं, इसलिए कोई अंतिम युद्ध जैसी चीज संभव नही है, परन्तु युद्ध के लिए आतुर शक्तियां सत्ता की कोई और फसल काटना चाहती हैं।

भारत के चार पड़ोसी हैं परन्तु चीन के आक्रामक रुख के खिलाफ कोई ताकतें सख्त कदम उठाने का शोर शराबा नहीं करतीं उसके खिलाफ युद्ध के नारे बुलंद नही किए जाते क्योंकि उसका आक्रामक रूख किसी धार्मिक संप्रदाय की दुखती रग नहीं है, और उसकी ताकत से सब आतंकित भी हैं। इस पूरे खेल में इलेक्ट्रोनिक मीडिया की भूमिका संदिग्ध है और अपनी टी.आर.पी की खातिर वे अपना अलग खेल खेलते हैं। भारत में मुसलमानों के प्रति दो रुख हैं। कुछ लोग उन्हें मोहम्मद गजनवी और चंगेज खान के वंशज मानते है और कुछ लोग यह हैं कि वे मुगल साम्राज्य के पुरोधा बाबर और अकबर के वंशज हैं जिन्होंने दिल से भारत को अपना देश मान लिया था और पर्शियन तथा भारत की संस्कृति के तत्वों से गंगा-जमना तहजीब विकसित हुई जिसका अपना वास्तुशास्त्र है,भाषा है और अमीर खुसरो तथा गालिब जैसी विलक्षण प्रतिभाएं इस तहजीब का हिस्सा हंै। आज के दौर में एक ही सांस्कृतिक विरासत में कम लोगों का विश्वास रह गया हैं। सरबजीत की नृशंस हत्या के समय भारत का व्यवहार गरिमापूर्ण रहा और हम मानवीयता और करुणा के वाहक माने गए परन्तु सन्नाउल्ला का कत्ल भी उसी ढंग से हुआ और दोनों देशों की बर्बरता उजागर हो गई तथा उन ताकतों के हाथ मजबूत हो गए जो आंख के बदले आंख को इज्जत का सवाल बनाते हैं। दोनों तरफ समान शक्तियां काम कर रही हैं और आपसी समझदारी या सामान्य तर्क का लोप हो चुका है। नारेबाजी ने सत्य का स्थान ले लिया है।

आजादी के समय हमने गणतंत्र को उसकी धर्मनिरपेक्षता के आधारभूत सिद्धांत के साथ अपनाया और पाकिस्तान ने स्वयं को इस्लामिक देश घोषित किया और आज वहां धर्म के नाम पर विघटन हो चुका है। वह एक देश के रूप खंडित हो रहा है। हमारे गणतंत्र का विकास अजीबोगरीब ढंग से हुआ और आज धर्मनिरपेक्षता महज नारा रह गया। दोनों देश एक ही सांस्कृतिक मांस के लोथड़े हैं और कमोबेश समान व्याधियों से ग्रसित हैं। मात्रा का अंतर है। अगर भारत में सच्ची धर्मनिरपेक्षता के छोटे द्वीप हैं तो पाकिस्तान में भी एकाध मोहल्ला जरूर है परन्तु नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता है। विभाजन की त्रासदी पर अनेक साहित्यकारों ने लिखा है परन्तु सआदत हुसैन मंटो का अलग ही स्थान है, उनकी टोबा टेकसिंह में विभाजन के बाद विभाजन को अस्वीकार करने वाले को पागलखाने भेज दिया जाता है। उसी को संदर्भ बनाते हुए निदा$फाजली की एक ताजा नज्म इस तरह है। हमने मारा एक तुम्हारा, तुमने मारा एक हमारा,जेल के अंदर जेल के बाहर, वो ही मौसम, वही नजारा मंटो के पागलखाने से िकला नहीं अभी बंटवारा।