तुलसी की काव्यपद्धति / गोस्वामी तुलसीदास / रामचन्द्र शुक्ल

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काव्य के दो स्वरूप हमें देखने में आते हैं-अनुकृत (इमिटेटिव) या प्रकृत (रियलिस्टिक) तथा अतिरंजित (एक्जैजरेटिव) या प्रगीत (लिरिकल)। कवि की भावुकता की सच्ची झलक, वास्तव में प्रथम स्वरूप में ही मिलती है। जीवन के अनेक मर्मपक्षों की वास्तविक सहानुभूति जिसके हृदय में समय समय पर जागती रहती है उसी से ऐसे रूपव्यापार हमारे सामने लाते बनेगा जो हमें किसी भाव में मग्न कर सकते हैं और उसी से उस भाव की ऐसे स्वाभाविक रूप में व्यंजना भी हो सकती है जिसको सामान्यत: सबका हृदय अपना सकता है। अपनी व्यक्तिगत सत्ता की अलग भावना से हटाकर निज के योगक्षेम के सम्बन्ध से मुक्त करके, जगत के वास्तविक दृश्यों और जीवन की वास्तविक दशाओं में जो हृदय समय समय पर रमता रहता है, वही सच्चा कविहृदय है। सच्चे कवि वस्तु व्यापार का चित्रण बहुत बढ़ाचढ़ा और चटकीला कर सकते हैं, भावों की व्यंजना अत्यन्त उत्कर्ष पर पहुँचा सकते हैं, पर वास्तविकता का आधार नहीं छोड़ते। उनके द्वारा अंकित वस्तुव्यापार योजना इसी जगत् की होती है; उनके द्वारा भाव उसी रूप में व्यंजित होते हैं जिस रूप में उनकी अनुभूति जीवन में होती है या हो सकती है। भारतीय कवियों की मूल प्रवृत्ति वास्तविकता की ओर ही रही है। यहाँ काव्य जीवनक्षेत्रों से अलग खड़ा किया गया केवल तमाशा ही नहीं रहा है।

काव्य का दूसरा स्वरूप-अतिरंजित या प्रगीत-वस्तुवर्णन तथा भावव्यंजना दोनों में पाया जाता है। कुछ कवियों की प्रवृत्ति रूपों और व्यापारों की ऐसी योजना की ओर होती है जैसी सृष्टि के भीतर नहीं दिखाई पड़ा करती। उनकी कल्पना कभी स्वर्णकमलों से कलित सुधासरोवर के कूलों पर मलयानिलस्पन्दित पाटलों के बीच विचरती है, कभी मरकतभूमि पर खड़े मुक्ताखचित प्रवालभवनों में पुष्पराग और नीलमणि के स्तम्भों के बीच हीरे के सिंहासनों पर जा टिकती है, कभी सायंप्रभात के कनकमेखलामंडित विविध वर्णमय घनपटलों के परदे डालकर विकीर्ण तारकसिकताकणों के बीच बहती आकाश गंगा में अवगाहन करती है। इस प्रकार की कुछ रूप योजनाएँ प्राचीन आख्यानों में रूढ़ होकर पौराणिक (माइथालाजिकल) हो गई हैं और मनुष्य की नाना जातियों के विश्वास से सम्बन्ध रखती हैं; जैसे, सुमेरु पर्वत, सूर्यचन्द्र के पहियावाला रथ, समुद्रमन्थन, समुद्रलंघन, सिर पर पहाड़ लादकर आकाश मार्गसेउड़ना, इत्यादि। इन्हें काव्यगत अत्युक्ति या कल्पना की उड़ान के अन्तर्गत हम नहीं लेंगे।

काव्य में उपर्युक्त ढंग की रूपव्यापार योजना प्रस्तुत (उपमेय) और अप्रस्तुत (उपमान) दोनों पक्षों में पाई जाती है। कुछ कवियों का झुकाव दोनों पक्षों में अलौकिक या अतिरंजित की ओर रहता है और कुछ का केवल अप्रस्तुत पक्ष में; जैसे-'मखतूल के झूल झुलावत केशव भानु मनो शनि अंक लिए है।'

भावव्यंजना के क्षेत्रों में काव्य का अतिरंजित या प्रगीत स्वरूप अधिकतर मुक्तक पद्यों में-विशेषत: ऋंगार या प्रेम सम्बन्धी-पाया जाता है। कहीं विरह ताप से सुलगते हुए शरीर से उठे धुएँ के कारण ही आकाश नीला दिखाई पड़ता है। कौवे काले हो जाते हैं। कहीं रक्त के ऑंसुओं की बूँदें टेसू के फूलों, नई कोपलों और गुंजा के दानों के रूप में बिखरी दिखाई पड़ती हैं। कहीं जगत् को डुबानेवाले अश्रुप्रवाह के खारेपन से समुद्र खारे हो जाते हैं। कहीं भस्मीभूत शरीर की राख का एक एक कण हवा के साथ उड़ता हुआ प्रिय के चरणों में लिपटना चाहता है। इसी प्रकार कहीं प्रिय का श्वास मलयानिल होकर लगता है; कहीं उसके अंग का स्पर्श कपूर के कर्दम या कमल दलों की खाड़ी में ढकेल देता है।

यहाँ पर यह कह देना आवश्यक है कि गोस्वामीजी की रुचि काव्य के अतिरंजित या प्रगीत स्वरूप की ओर नहीं थी। गीतावली गीतकाव्य है पर उसमें भी भावों की व्यंजना उसी रूप में हुई है जिस रूप में मनुष्यों को उनकी अनुभूति हुआ करती है या हो सकती है। यह बात आगे के प्रसंगों में उद्धात उदाहरणों से स्पष्ट हो जायगी। केवल दो एक जगह उन्होंने कवियों की अतिरंजित या प्रलापित उक्तियों का अनुकरण किया है; जैसे, सीताजी के विरहताप के इस वर्णन में जो हनुमान राम से कहते हैं-

जेहि बाटिका बसति तहँ खग मृग तजि तजि भजे पुरातन भौन।

स्वास समीर भेंट भइ भोरेहु तेहि मग पग न धरयौ तिहुँ पौन।।

पर ये दोनों पंक्तियाँ ऐसी हैं कि यदि तुलसी के सामान्य पाठकों को सुनाई जाएँ तो वे इन्हें तुलसी की न समझेंगे। तात्पर्य यह कि गोस्वामीजी की दृष्टि वास्तविक जीवन दशाओं के मार्मिक पक्षों के उद्धाटन की ओर थी, काल्पनिक वैचित्रयविधान की ओर नहीं।

ऊपर जो बात कही गई उसका अर्थ 'कलावादी' लोगों के निकट यह होगा कि तुलसीदास 'नूतन सृष्टि निर्माण' वाले कवि नहीं थे। ऐसे लोगों के गुरुओं का कहना है कि ज्ञात जगत् परिमित है और मन (या अन्त:करणविशिष्ट आत्मा) का विस्तार असीम और अपरिमित है; अत: पूरी कविता वही है जो वास्तविक जगत या जीवन में बद्ध न रहकर, वस्तु और अनुभूति दोनों के लोकातीत स्वरूप दिखाया करे। कल्पना के इन 'विश्वामित्राों'से यूरोप भी कुछ दिन परेशान रहा। 'कलावादी' जिसे 'नूतन सृष्टि' कहते हैं वह स्वच्छ और स्थिर दृष्टिवालों के निकट वास्तविक का विकृत रूप मात्र है-ऐसा विकृत जो प्राय: कुतूहल मात्र उत्पन्न करके रह जाता है, हृदय के मर्मस्थल को स्पर्श नहीं करता, कोई सच्ची और गम्भीर अनुभूति नहीं जगाता।

तुलसी की गम्भीर वाणी शब्दों की कलाबाजी, उक्तियों की झूठी तड़क भड़क आदि खेलवाड़ों में भी नहीं उलझी है। वह श्रोताओं या पाठकों को ऐसी भूमियों पर ले जाकर खड़ा करने में ही अग्रसर रही है जहाँ से जीते जागते जगत् की रूपात्मक और क्रियात्मक सत्ता के बीच भगवान् की भावमयी मूर्ति की झाँकी मिल सकती है। गोस्वामीजी का उद्देश्य लोक के बीच प्रतिष्ठित रामत्व में लीन करना है; कुतूहल या मनोरंजन की सामग्री एकत्र करना नहीं। श्लेष, यमक, परिसंख्या इत्यादि कोरे चमत्कारविधायक अलंकार रखने के लिए ही उन्होंने कहीं रचना नहीं की है। इन अलंकारों का प्रयोग भी उन्होंने दो ही चार जगह किया है। वे चमत्कारवादी नहीं थे, 'दोहावली' में कुछ दोहों की दुरूहता का कारण उनकी चमत्कारप्रियता नहीं,समासपद्धति का अवलम्बन है, जिसमें अर्थ का कुछ आक्षेप ऊपर से करना पड़ता है; जैसे यह दोहा लीजिए-

उत्तम मध्यषम नीच गति, पाहन सिकता पानि।

प्रीति परिच्छा तिहुँन की; बैर बितिक्रम जानि।।

जो इस संस्कृत श्लोक का अनुवाद है-

उत्कृष्ट मध्यकम निकृष्ट जनेषु मैत्री

यद्वच्छिलासु सिकतासु जलेषु रेखा।

वैरं निकृष्टमभिमध्यषम उत्तामे च

यद्वच्छिलासु सिकतासु जलेषु रेखा।।

श्लोक के भाव को थोड़े में व्यक्त करने के लिए 'उत्तम, मध्य म, निकृष्ट' को फिर उलटे क्रम से न रखकर 'बितिक्रम' शब्द से काम चलाया गया है। रेखा शब्द न लाने से अर्थ बिलकुल लापता हो गया है। अनुवाद की यह असफलता समास या चुस्ती के प्रयास के कारण हुई है; नहीं तो गोस्वामीजी के समान संस्कृत उक्तियों का अनुवाद करनेवाला हिन्दी का और दूसरा कवि नहीं। दोहावली में जितने क्लिष्ट दोहे हैं उनकी क्लिष्टता का कारण यही समासशैली है। ऐसे दोहों में 'न्यूनपदत्व' दोष प्राय: पाया जाता है।

अनुकरण मनुष्य के स्वभाव के अन्तर्गत है। गोस्वामीजी ने जैसे सब प्रकार की प्रचलित पद्य शैलियों या छन्दों में रचना की है वैसे ही कहीं दो एक जगह कूट और आलंकारिक चमत्कार आदि का भी कौशल दिखा दिया है जिसके उदाहरण 'दोहावली' में मिलेंगे। 'दोहावली' में कुछ दोहे ज्योतिष की परिभाषाओं और संकेतों को लेकर रचे गए हैं। बात यह है कि 'दोहावली' में गोस्वामी कवि और सूक्तिकार, इन दोनों रूपों में विराजमान हैं। भक्ति और प्रेम का स्वरूप व्यक्त करनेवाले दोहेतो 'काव्य' के अन्तर्गत लिए जाएँगे, पर नीतिपरक दोहे 'सूक्ति' की श्रेणी में स्थानपाएँगे।

'दोहावली' के समान 'रामचरितमानस' में भी गोस्वामीजी कवि के रूप में ही नहीं, धर्मोपदेष्टा और नीतिकार के रूप में भी हमारे सामने आते हैं।'मानस' के काव्य पक्ष का तो कहना ही क्या है। उसके भीतर मनुष्य जीवन में साधारणत: आनेवाली प्रत्येक दशा और प्रत्येक परिस्थिति का सन्निवेश तथा उस दशा और परिस्थिति का अत्यन्त स्वाभाविक, मर्मस्पर्शी और सर्वग्राह्य चित्रण है। जैसा लोकाभिराम राम का चरित था, वैसी ही प्रसादमयी गम्भीर गिरा, संस्कृत और हिन्दी दोनों में, उसके प्रकाश के लिए मिली। इस काल में तो 'रामचरितमानस' हिन्दू जीवन और हिन्दू संस्कृति का सहारा हो गया है। भारतवर्ष के जिस कोने में लोग इस ग्रन्थ को पूरा पूरा नहीं समझ सकते, वहाँ भी वे थोड़ा बहुत जितना समझ पाते हैं, उतने ही के लिए इसे पढ़ते हैं। कथाएँ तो और भी कही जाती हैं, पर जहाँ सबसे अधिक श्रोता देखिए और उन्हें रोते और हँसते पाइए, वहाँ समझिए कि तुलसीकृत रामायण हो रही है। साधारण जनता के मानस पर तुलसी के 'मानस' का अधिकार इतने ही से समझा जा सकता है।

इसी एक ग्रन्थ से जन साधारण को नीति का उपदेश, सत्कर्म की उत्तेकजना, दु:ख में धैर्य, आनन्दोत्सव में उत्साह, कठिन स्थिति को पार करने का बल सब कुछ प्राप्त होता है। यह उनके जीवन का साथी हो गया है।

जिस धूमधाम से इस ग्रन्थ की प्रस्तावना उठती है उसे देखते ही इसके महत्तव का आभास मिलने लगता है। ऐसे दृष्टिविस्तार के साथ, जगत की ऐसी गम्भीर समीक्षा के साथ और किसी ग्रन्थ की प्रस्तावना नहीं लिखी गई। रामायण्यों में प्रसिद्ध है कि 'बाल' के आदि, 'अयोध्या्' के मध्य और'उत्तर' के अन्त की गम्भीरता की थाह डूबने से मिलती है। बात भी कुछ ऐसी ही है। मनुष्य जीवन की दशा के हिसाब से देखें तो 'बालकांड' में आनन्दोत्सव अपनी हद को पहुँचता है; 'अयोध्याध' में गार्हस्थ्य की विषम स्थिति सामने आती है; 'अरण्य', 'किष्किन्धा' और 'सुन्दर' कर्म और उद्योग का पक्ष प्रतिबिम्बित करते हैं तथा 'लंका' में और 'उत्तर' में कर्म की चरम सीमा, विजय और विभूति का चित्र दिखाई पड़ता है।

जैसा कि कहा जा चुका है, 'मानस' में तुलसीदासजी धर्मोपदेष्टा और नीतिकार के रूप में भी सामने आते हैं। यह ग्रन्थ एक धर्म ग्रन्थ के रूप में भी लिखा गया माना जाता है। इससे शुद्ध काव्य की दृष्टि से देखने पर उसके बहुत से प्रसंग और वर्णन खटकते हैं; जैसे, पातिव्रत और मित्राधर्म के उपदेश, उत्तरकांड में गरुड़पुराण के ढंग का कर्मों का ऐसा फलाफल कथन-

हरि गुरु निंदक दादुर होई। जन्म सहस्त्र पाव तन सोई।।

सुर स्तुति निंदक जे अभिमानी। रौरव नरक परहिं ते प्रानी।।

सबकै निन्दा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइइ अवतरहीं।।

अब विचारना यह चाहिए कि साहित्य की दृष्टि से ऐसे कोरे उपदेशों का 'मानस' में स्थान क्या होगा। 'मानस' एक 'प्रबन्ध काव्य' है। 'प्रबन्ध काव्य' में कवि लोग पात्रों की प्रकृति और शील का चित्रण भी किया करते हैं। 'मानस' में उक्त प्रकार के उपदेशात्मक वचन किसी न किसी पात्र के मुँह से कहलाए गए हैं। अत: यह कहा जा सकता है कि ऐसे वचन पात्रों के शीलव्यंजक मात्र हैं और काव्यप्रबन्ध के अन्तर्गत हैं। पर विचार करने पर यह साफ झलक जाता है कि उन उपदेशात्मक वचनों द्वारा कवि का लक्ष्य वक्ता पात्रों का चरित्रचित्रण करना नहीं, उपदेश ही देना है। चरित्रचित्रण मात्र के लिए जो वचन कहलाए जाते हैं उनके यथार्थ अयथार्थ का संगत असंगत होने का विचार नहीं किया जाता।1 पर 'मानस' में आए उपदेश इसी दृष्टि से रखे जान पड़ते हैं कि लोग उन्हें ठीक मानकर उनपर चलें। अत: यही मानना ठीक होगा कि ऐसे स्थलों पर गोस्वामीजी का कवि का रूप नहीं, उपदेशक का ही रूप है। अब हम इन कोरे और नीरस उपदेशों को काव्यक्षेत्रों के भीतर समझें या बाहर? भीतर समझने के लिए यही एक शास्त्री य युक्ति है कि जैसे समूचे प्रबन्ध के रस से बीच बीच में आए हुए 'आगे चले बहुरि रघुराई' ऐसे नीरस पद भी रसवान् हो जाते हैं,वैसे ही इस प्रकार के कोरे उपदेश भी।

अब रहा यह कि गोस्वामीजी ने 'रामचरितमानस' की रचना में वाल्मीकि से भिन्न पथ का जो बहुत जगह अवलम्बन किया है, वह किस विचार से। पहली बात तो यह है कि वाल्मीकि ने राम के नरत्व और नारायणत्व, इन दो पक्षों में से नरत्व की पूर्णता प्रदर्शित करने के लिए उनके चरित का गान किया है। पर गोस्वामीजी ने राम का नारायणत्व लिया है और अपने 'मानस' को भगवद्भक्ति के प्रचार का साधन बनाया है। इससे कहीं कहीं उन्होंने उनके नरत्वसूचक लक्षणों को दृष्टि के सामने से हटा दिया है। जैसे, बनवास का दु:संवाद सुनाने जब राम कौशल्या के पास जाने लगे हैं तब वाल्मीकि ने उनके दीर्घ नि:श्वास और कम्पित स्वर का उल्लेख किया है, सीता को अयोध्याा में रहने के लिए समझाते समय उन्होंने कहा है कि भरत के सामने मेरी प्रशंसा न करना; इसी प्रकार मृग को मारकर लौटते समय आश्रम पर सीता के न रहने की आशंका उन्हें होने लगी है तब उनके मुँह से निकल पड़ा है कि 'कैकेयी अब सुखी होगी'। ऐसे स्थलों पर राम में इस प्रकार का क्षोभ गोस्वामीजी ने नहीं दिखाया है। पर साथ ही काव्यत्व की उन्होंने पूरी रक्षा की है; अस्वाभाविकता नहीं आने दी है। अवसर के अनुसार दु:ख, शोक आदि की उनके द्वारा पूरी व्यंजना


1. दोज कांसेप्ट्स ह्निच आर फाउंड रूमग्ल्ड ऐण्ड फ्यूज्ड विद इंटयूशंज आर नो लांगर कांसेप्ट्स इन सो फार ऐज दे आर रियली मिंग्ल्ड ऐण्ड फ्यूज्ड, फार दे हैव लास्ट आल इंडिपेंडेंस ऐण्ड आटोनामी, फार एग्जेंपुल द फिलासाफिकल मैक्जिम्स प्लेस्ड इन द माउथ आव ए परसानेज आव ट्रैजेडी आर कामेडी, टु परफार्म देयर द फंक्शन नाट आव कांसेप्ट्स बट आव कैरेक्टरिस्टिक्स आव सच परसानेज।

-'ऐस्थेटिक्स', बेनेडेटो क्रोचे कृत।

कराई है। अध्या त्मरामायण भक्तिपरक ग्रन्थ है, इससे अनेक स्थलों पर उन्होंने उसी का अनुसरण किया है।

पर बहुत कुछ परिवर्तन गोस्वामीजी ने अपने समय की लोकरुचि और साहित्य की रूढ़ि के अनुसार किया है। वाल्मीकि ने प्रेम का स्फुरण केवल लोककर्तव्यों के बीच में ही दिखाया है, उनसे अलग नहीं। उनकी रामायण में सीता राम के प्रेम का परिचय हम विवाह के उपरान्त ही पाते हैं पर गोस्वामीजी के बहुत पहले से ही काव्यों में विवाह के पूर्व नायक नायिका में प्रेम का प्रादुर्भाव दिखाने की प्रथा प्रतिष्ठित चली आती थी। इससे उन्होंने भी प्रेमाख्यानी रंग (रोमैंटिक टर्न) देने के लिए जयदेव के प्रसन्नराघव नाटक का अनुसरण करके धनुषयज्ञ के प्रसंग में 'फुलवारी' के दृश्य का सन्निवेश किया। उन्होंने जनक की वाटिका में राम और सीता का साक्षात्कार कराके दोनों के हृदय में प्रेम का उदय दिखाया। पर इस प्रेमप्रसंग में भी रामकथा के पुनीत स्वरूप में कुछ भी अन्तर न आने पाया; लोकमर्यादा का लेशमात्र भी अतिक्रमण न हुआ। राम सीता एक दूसरे का अलौकिक सौन्दर्य देखकर मुग्ध होते हैं। सीता मन ही मन राम को अपना वर बनाने की लालसा करती हैं, उनके ध्या न में मग्न होती हैं, पर 'पितु पन सुमिरि बहुरि मन छोभा'। वे इस बात का कहीं आभास नहीं देतीं कि पिता चाहे लाख करें, मैं राम को छोड़ और किसी के साथ विवाह न करूँगी। इसी प्रकार राम भी यह कहीं व्यंजित नहीं करते कि धनुष चाहे जो तोड़े, मेरे देखते सीता के साथ कोई विवाह नहीं कर सकता।

वाल्मीकि ने विवाह हो जाने के उपरान्त मार्ग में परशुराम का मिलना लिखा है। पर गोस्वामीजी ने उनका झमेला विवाह के पूर्व धनुर्भंग होते ही रखा है। इसे भी रसात्मकता की मात्र बढ़ाने की काव्ययुक्ति ही समझना चाहिए। वीरगाथा काल के पहले से ही वीरकाव्यों की वह परिपाटी चली आती थी कि नायिका को प्राप्त करने के पहले नायक के मार्ग में अनेक प्रकार की विघ्न बाधाएँ खड़ी होती थीं जिन्हें नायक अपना अद्भुत पराक्रम दिखाता हुआ दूर करता था। इससे नायक के व्यक्तित्व का प्रभाव नायिका पर और भी अधिक हो जाता था, उसपर वह और भी अधिक मुग्ध हो जाती थी।'रासो' नाम से प्रचलित वीरकाव्यों में वीर नायक अपने विरोधियों को परास्त करने के उपरान्त नायिका को ले जाता था। रामचन्द्रजी का तेज और पराक्रम धनुष तोड़ने पर व्यक्त हुआ ही था और सीता पर उसका अनुरागवर्ध्दक प्रभाव पड़ा ही था कि परशुराम के कूद पड़ने से प्रभाववृध्दि का दूसरा अवसर निकल आया। परशुराम ऐसे जगद्विजयी और तेजस्वी का भी तेज राम के सामने फीका पड़ गया। उस समय राम की ओर सीता का मन कितने और अधिक वेग से आकर्षित हुआ होगा, राम के स्वरूप ने किस शक्ति के साथ उनके हृदय में घर किया होगा!

गोस्वामीजी ने यद्यपि अपनी रचना 'स्वान्त: सुखाय' बताई है, पर वे कला की कृति के अर्थ और प्रभाव की प्रेषणीयता (कम्युनिकेबिलिटी) को बहुत ही आवश्यक मानते थे। किसी रचना का वही भाव जो कवि के हृदय में था यदि पाठक या श्रोता के हृदय तक न पहुँच सका तो ऐसी रचना कोई शोभा नहीं प्राप्त कर सकती; उसे एक प्रकार से व्यर्थ समझना चाहिए-

मनि मानिक मुकता छबि जैसी। अहि, गिरि, गज सिर सोह न तैसी।।

नृप किरीट तरुनी तन पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई।।

तैसइ सुकवि कवित बुध कहहीं। उपजहिं अनत, अनत छबि लहहीं।।

आजकल सब बातें विलायती दृष्टि से देखी जाती हैं। अत: यह पूछा जा सकता है कि तुलसीदास की रचना अधिकतर स्वानुभूति निरूपिणी (सब्जेक्टिव) है अथवा बाह्यार्थ निरूपिणी (आब्जेक्टिव)। रामचरितमानस के सम्बन्ध में तो यह प्रश्न हो ही नहीं सकता क्योंकि वह एक प्रबन्ध काव्य या महाकाव्य है। प्रबन्ध काव्य सदा बाह्यार्थ निरूपक होता है। शेष ग्रन्थों में से 'गीतावली' यद्यपि गीत काव्य है फिर भी वह आदि से अन्त तक कथा ही को लेकर चली है। उसमें या तो वस्तुव्यापारवर्णन है अथवा पात्रों के मुँह से भावव्यंजना। अत: वह भी बाह्यार्थ निरूपक ही कही जायगी। कवितावली में भी कथा प्रसंगों को लेकर ही फुटकल पद्यों की रचना की गई है। हाँ, उसके उत्तरकांड में कवि राम की दयालुता, भक्तवत्सलता आदि के साथ साथ अपनी दीनता, निरवलम्बता, कातरता इत्यादि का भी वर्णन करता है। 'विनयपत्रिका' में अलबत तुलसीदासजी अपनी दशा का निवेदन करने बैठे हैं। उस ग्रन्थ में वे जगह जगह अपनी प्रतीति, अपनी भावना और अपनी अनुभूति को स्पष्ट 'अपनी' कहकर प्रकट करते हैं; जैसे-

(क) संकर साखि जौ राखि कहौं कछु तौ जरि जीह गरो।

अपनो भलो राम नामहिं तें तुलसिहि समुझि परो।।

(ख) बहुमत सुनि, बहु पंथ पुराननि जहाँ तहाँ झगरो सो।

गुरु कह्यो राम भजन नीको मोहिं लगत राजडगरो सो।।

(ग) को जानै को जैहे जमपुर, को सुरपुर, परधाम को।

तुलसिहि बहुत भलो लागत जग जीवन रामगुलाम को।।

(घ) नाहिं न नरक परत मोकहँ डर, यद्यपि हौं अति हारो।

यह बड़ि त्रास दास तुलसी प्रभु, नामहु पाप न जारो।।

पर इस बात को ध्यातन में रखना चाहिए कि तुलसी की अनुभूति ऐसी नहीं जो एकदम सबसे न्यारी हो। 'विनय' में कलि की करालता से उत्पन्न जिस व्याकुलता या कातरता का उन्होंने वर्णन किया है वह केवल उन्हीं की नहीं है, समस्त लोक की है। इसी प्रकार जिस दीनता, निरवलम्बता,दोषपूर्णता या पापमग्नता की भावना की उन्होंने व्यंजना की है वह भी भक्त मात्र के हृदय की सामान्य वृत्ति है। वह और सब भक्तों की अनुभूति से अविच्छिन्न नहीं; उसमें कोई व्यक्तिगत वैलक्षण्य नहीं।

यहाँ पर यह सूचित कर देना आवश्यक है कि 'स्वानुभूति निरूपक' और 'बाह्यार्थ निरूपक' यह भेद स्थूल दृष्टि से ही किया हुआ है। कवि अपने से बाहर की जिन वस्तुओं का वर्णन करता है उन्हें भी वह जिस रूप में आप अनुभव करता है, उसी रूप में रखता है। अत: वे भी उसकी स्वानुभूति ही हुईं। दूसरी ओर जिसे वह स्वानुभूति कहकर प्रकट करता है वह यदि संसार में किसी की अनुभूति से मेल नहीं खायेगी तो एक कौतुक मात्र होगी;काव्य नहीं। ऐसा काव्य और उसका कवि दोनों तमाशा देखने की चीज ठहरेंगे1। जिस अनुभूति की व्यंजना को श्रोता या पाठक का हृदय अपनाकर अनुरंजित होगा वह केवल कवि की ही नहीं रह जायगी, श्रोता या पाठक की भी हो जायगी? अपने हृदय को और लोगों के हृदयों से सर्वथा विलक्षण प्रकट करनेवाला एक सम्प्रदाय यूरोप में रहा है। वहाँ कुछ दिन नकली हृदयों के कारखाने जारी रहे। पर पीछे उन खिलौनों से लोग ऊब गए।

यह तो स्थिर बात है कि तुलसीदासजी ने वाल्मीकिरामायण, अध्यारत्म रामायण, महारामायण, श्रीमद्भागवत, हनुमन्नाटक, प्रसन्नराघव नाटक इत्यादि अनेक ग्रन्थों से रचना की सामग्री ली है। इन ग्रन्थों की बहुत सी उक्तियाँ उन्होंने ज्यों की त्यों अनूदित करके रखी हैं-जैसे, वर्षा और शरद ऋतु के वर्णन बहुत कुछ भागवत से लिए हुए हैं। धनुषयज्ञ के प्रसंग में उन्होंने हनुमन्नाटक और प्रसन्नराघव नाटक से बहुत सहायता ली है। पर उन्होंने जो संस्कृत उक्तियाँ ली हैं उन्हें भाषा पर अपने अद्वितीय अधिकार के बल से एकदम मूल हिन्दी रचना के रूप में कर डाला है। कहीं से संस्कृतपन या वाक्यविन्यास की दुरूहता नहीं आने दी है। बहुत जगह तो उन्होंने उक्ति को अधिक व्यंजक बनाकर और चमका दिया है। उदाहरण के लिए हनुमन्नाटक का यह श्लोक लीजिए-



1. यूरोप में जो कलावादी सम्प्रदाय (ऐस्थेटिक स्थूल) चला था वह इन दो बातों में से पहली बात को ही लेकर दौड़ पड़ा था, दूसरी बात की ओर उसने ध्याीन नहीं दिया था, जैसा कि पैटर के इस कथन से स्पष्ट है-

जस्ट इन प्रोपोर्शन ऐज द राइटर्स एम, कांशस्ली आर अनकांशस्ली, कम्ज टु विद ट्रैंस्क्राइबिंग, नाट आव द वर्ल्ड, नाट आव मियर फैक्ट, बट आव हिज सेंस आव इट, ही बिकम्ज ऐन आर्टिस्ट, हिज वर्क फाइन आर्ट; ऐण्ड गुड आर्ट इन प्रोपोर्शन टु ट्रघथ आव हिज प्रेजेंटमेंट आव दैट सेंस,ऐज इन दोज हंब्लर आर प्लेनर फंक्शुन आव लिटरेचर आल्सो, ट्रघथ-ट्रघथ टु देयर फैक्ट देयर-इज द एसेंस आव सच आर्टिस्टिक क्वैलिटी ऐज दे मे हैव।

या विभूतिर्दशग्रीवे शिरश्छेदेऽपि शंकरात्।

दर्शनाद्रामदेवस्य सा विभूतिर्विभीषणे।

इसे गोस्वामीजी ने इस रूप में लिया है-

जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।

सोइ संपदा बिभीषनहिं सकुचि दीन्हि रघुनाथ।।

इस अनुवाद में 'दस माथ दिएँ' के जोड़ में 'दरसन ही तें' न रखने से याचक के बिना प्रयास प्राप्त करने का जोर तो निकल गया, पर 'सकुचि'पद लाने से दाता के असीम औदार्य की भावना से उक्ति परिपूर्ण हो गई है। 'सकुचि' शब्द की व्यंजना यह है कि इतनी बड़ी सम्पत्ति भी देते समय राम को बहुत कम जान पड़ी