तुलसी के मानस के मोती / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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तुलसी और तुलसी के राम के विषय में कुछ कहना वैसा ही है, जैसे महासागर की एक बूँद को पा लेना। तुलसी ने अपने काव्य के माध्यम से जो भी कथा कही है, वह उनके व्यापक ज्ञान, गहन अनुभव और स्वाध्याय की परिणति है। अकेले अयोध्याकाण्ड में लगभग दो सौ ग्रन्थों का सार निहित है। प्रत्येक काण्ड में तुलसी के स्वाध्याय का सौरभ अभिभूत करता है-

नाना पुराण निगमागम सम्मतं यद् रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि

स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा भाषा निबंधमति मंजुलमातनोति!

जिसको लेखन में आए सात-आठ ही वर्ष हुए हों, वह अपने नाम के सामने वरिष्ठ साहित्यकार लिखना आरम्भ कर देता है, वहीं तुलसी ने इतना व्यापक अध्ययन किया, फिर भी उनकी विनम्रता से भरी स्वीकारोक्ति देखिए-

कबित बिबेक एक नहीं मोरे, सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे!

वाणी और अर्थ यानी शब्द और अर्थ की अभिन्नता पर उनके भाषा वैज्ञानिक ज्ञान की गहराई को समझा जा सकता है। यह बात 'रघुवंशं' में कालिदास भी कह चुके हैं। वे जगत् के माता-पिता पार्वती-शिव को वाणी और अर्थ की तरह सम्पृक्त / एकीकृत / सम्बद्ध मानते हैं

वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये।

जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ॥

तुलसी ने इसी सत्य को चौपाई में कहा है

गिरा अरथ जल बीचि सम, कहिअत भिन्न न भिन्न।

वाणी और अर्थ जल और उसकी लहर के समान अभिन्न हैं।

श्रीरामचरितमानस का अध्ययन करते समय किष्किंधाकाण्ड का एक प्रसंग ऐसा है, जिसके बारे में अर्थ की भ्रान्ति बनी रहती है। उसका कारण है तुलसी के पूरे कथ्य की सूक्ष्मता को न समझना। प्रसंग है मयसुत मायावी के साथ बालि का युद्ध-

नाथ बालि अरु मैं द्वौ भाई। प्रीति रही कछु बरनि न जाई॥

मयसुत मायावी तेहि नाऊँ। आवा सो प्रभु हमरें गाऊँ॥1॥

मायावी ने बालि को चुनौती दी। दोनों द्वन्द्व युद्ध के लिए एक गुफा में चले गए। बालि ने सुग्रीव से कहा-

परिखेसु मोहि एक पखवारा। नहिं आवौं तब जानेसु मारा॥3॥

मास दिवस तहँ रहेउँ खरारी। निसरी रुधिर धार तहँ भारी॥

बालि हतेसि मोहि मारिहि आई। सिला देइ तहँ चलेउँ पराई॥4॥

बालि ने एक पखवाड़े यानी पन्द्रह दिन के लिए गुफा के बाहर प्रतीक्षा करने को कहा था। पन्द्रह दिन में वापस न आने पर समझ लेना कि मैं मारा दिया गया।

सुग्रीव का कहना है–'मास दिवस' वहाँ खड़ा रहा। खून की धारा निकलते देखी, तो डर के कारण गुफा-द्वार पर शिला रखकर पलायन कर आया।

श्रीरामचरितमानस के मास दिवस का अर्थ महीना भर किया गया है, जो सही नहीं है। सुग्रीव को कहा गया था पन्द्रह दिन तक प्रतीक्षा करने के लिए, फिर वह वहाँ एक महीने तक क्यों खड़ा रहेगा।

मन्त्रियों ने बिना शासक के नगर को देखा तो सुग्रीव को राजा बना दिया-

मंत्रिन्ह पुर देखा बिनु साईं। दीन्हेउ मोहि राज बरिआईं॥

बाली ताहि मारि गृह आवा। देखि मोहि जियँ भेद बढ़ावा॥5

बाली ने जब सुग्रीव को सिंहासन पर बैठे देखा, तो उसके मन में भेद का भाव क्यों उत्पन्न हुआ? एक पखवारे तक खड़े रहने लिए कहा और वह बेचारा महीने भर खड़ा रहा। वस्तुत ऐसा नहीं है। 'मास' बारह होते हैं; इसलिए मास दिवस लिखा यानी बारह दिन। चौपाई में बारह / द्वादश लिखा जाता, तो चौपाई की एक मात्रा अधिक हो जाती। तीस दिवस लिखना तुलसी जी का अभिप्राय होता, तो लिख देते, कोई छन्द दोष नहीं होता; लेकिन वे तीस लिखना ही नहीं चाहते थे। बारहवें दिन रुधिर की धार निकलती देखकर सुग्रीव डरकर भाग आया। पन्द्रह दिन वहाँ रुका ही नहीं। दूसरा कारण-चट्टान से गुफा के द्वार को बन्द कर दिया। बालि के मन में भेद उत्पन्न होना स्वाभाविक था; क्योंकि सुग्रीव गद्दी पर बैठ गया था।

तुलसी ने लोक व्यवहार को लेकर बहुत से अनुभव रामकथा में पिरोए हैं। मित्र को लेकर कहे ये वचन कितने महत्त्वपूर्ण हैं—जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥

निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना॥1॥ -कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा॥2॥

पापान्निवारयति योजयते हिताय, गुह्यं च गूहति गुणान्प्रकटीकरोति,

आपद्गतं च न जहाति ददाति काले, सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः-नीति शतक

मित्र के नाम पर कुछ प्रपंची लोग भी होते हैं। 'अहि गति'-सर्प की गति वालों से भी सावधान किया है, जो सामने होने पर, बनाकर मृदु बचन बोलेंगे और परोक्ष में अहित करेंगे, मन में कुटिलता का पोषण करेंगे-

आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई॥

जाकर ‍चित अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई॥4॥

चाणक्य ने भी यही बात कही थी-

परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्।

वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम्॥

लोक-व्यवहार में नारी के सम्मान को वरीयता दी है, वह चाहे किसी भी रूप में क्यों न हो। आज नारी का शोषण चरम पर है। नारी-शोषक को मारने में कोई पाप नहीं है। यह आज के युग की भी माँग है।

अनुज बधू, भगिनी, सुत नारी। सुनु सठ कन्या सम ए चारी॥

इन्हहि कुदृष्टि बिलोकइ जोई। ताहि बधें कछु पाप न होई॥

तुलसी सज्जन और दुर्जन दोनों में एक साम्य मानते हैं, वह है दुःख। दुष्ट का मिलना और सज्जन का बिछुड़ना, दोनों ही दुःखप्रद हैं-

बंदउँ संत असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥

बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं॥2॥

तुलसीदास ने कुछ विशेष प्रकार के दुष्टों की भी मन के शुद्ध एवं सच्चे भाव से वन्दना की है, जो बिना किसी कारण के लोगों को कष्ट पहुँचाते हैं। आज इस वर्ग की भरमार है। तथाकथित मित्रो में ये हर समय उपलब्ध हैं

बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥

पर हित हानि, लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष, बिषाद बसेरें॥

दूसरों की हानि उनके लिए लाभ है, किसी के उजड़ने पर जिनको हर्ष होता है, बसने या उन्नति होने पर वे विषाद ग्रस्त हो जाते हैं।

समाज में ऐसे बहुत सारे लोग हमें मिलते हैं, जिनकी कथनी और करनी में बहुत अन्तर होता है। ऐसे अवसरवादी लोग अपनी मीठी वाणी से स्वार्थ-सिद्धि कर लेते हैं। तुलसी ने उनकी पहचान बताई है कि उनका सारा सामाजिक साम्राज्य स्वार्थपरता, क्रूरता और झूठ की बुनियाद पर खड़ा होता है। तुलसी का यह जीवननुभव हम सबको सचेत करता है। मोर की तरह मधुर वचन बोलने वाले ये कठोर हृदय वाले लोग, मोर की तरह सर्प तक को खा जाते है-

झूठइ लेना झूठइ देना। झूठइ भोजन झूठ चबेना॥

बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा। खाई महा अहि हृदय कठोरा॥

किसी की प्रशंसा इनको नहीं पचती। तुलसी ने भी दुष्टों को झेला होगा। हमारे आसपास भी ऐसे बहुत से लोग जमा रहते हैं, जिनको पहचान पाना बहुत कठिन है-

काहू की जौ सुनहि बड़ाई। स्वास लेहिं जनु जुडी आई।

व्यास जी ने धर्म और अधर्म की सरल व्याख्या की है। परोपकार पुण्य के लिए और परपीड़ा पाप के लिए है। कुछ को दूसरों को पीड़ित और अपमानित करने में ही आनन्द आता है। तुलसीदास जी ने भी व्यास जी के इस श्लोक को सार रूप में प्रस्तुत किया है-

अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्।

परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्॥

पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥

जगत् में गुण-अवगुण सब हैं। जिसकी जैसी प्रवृत्ति होती है, वह उसी के अनुसार ग्रहण करता है। पानी में कमल और जोंक दोनों उपजते हैं, लेकिन दोनों के गुण अलग होते है-

उपजहिं एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं॥

कुछ लोग सत्ता पाकर विवेक खो देते हैं और निरंकुश हो जाते हैं; लेकिन राम की उदारता और न्यायप्रियता देखिए कि वे विनम्रतापूर्वक कहते हैं-

जौं अनीति कछु भाषौं भाई। तौ मोहि बरजहु भय बिसराई॥3॥

वह तो बात थी मर्यादा पुरुषोत्तम राम की, यहाँ तो लोग किसी छोटी-सी संस्था का छोटा-सा पद पाकर दूसरे लोगों को घास-कूड़ा समझने की भूल कर जाते हैं। अवसान देख ही रहे हैं कि जो सत्ता के शीर्ष पर थे, वे आज अतीत की कथा बनकर रह गए हैं। हम और आप तो सामान्य हैं। गधे के सींग की तरह कब पटल से गायब हो जाएँगे, नहीं कह सकते।

राजा होने का अर्थ कर्म को महत्त्व देना है। यहाँ तो एक छोटा-सा अधिकारी और छुटभैया नेता भी चाहता है कि उसके अधीन कर्मचारी, नौकर बनकर उनके काम करें, उसको जूता तक पहनाएँ। सुग्रीव को राम ने जो वस्त्र पहनाए, वे भरत ने अपने हाथों से बनाए थे। आज सेवकों का मुँह जोहने वालों लोगों को इस कथन से सीख लेनी चाहिए-

सुग्रीवहि प्रथमहिं पहिराए। बसन भरत निज हाथ बनाए॥3॥

सभी के जीवन में उतार-चढ़ाव आते हैं। हमें धैर्यपूर्वक कठिनाइयों का सामना करना चाहिए। अरण्यकाण्ड में तुलसीदास जी ने अनसूया के माध्यम से सीता को बताया-धैर्य, धर्म, मित्र और पत्नी की परख आपत्ति के समय होती है। अनसूया का निम्न कथन आने वाले घटनाक्रम (सीता-हरण, सुग्रीव, हनुमान और विभीषण का मिलना, सीता का पातिव्रत्य, लंका में युद्ध आदि) का संकेत भी है-

धीरज धर्म मित्र अरु नारी, आपद काल परिखिअहिं चारी।

सार रूप में कहें, तो श्रीरामचरितमानस केवल धार्मिक या काव्य की पुस्तक नहीं, बल्कि यह सर्वांगीण जीवनबोध का ग्रन्थ है, जो हमें प्रति पग पर दिशा निर्देश देता है। समाज का कोई पक्ष रामचरित मानस में अछूता नहीं रहा है।

-0-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' , 20 अप्रैल, 2024, ब्रम्प्टन