तुषार कपूर की हॉरर-हास्य फिल्म / जयप्रकाश चौकसे

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तुषार कपूर की हॉरर-हास्य फिल्म
प्रकाशन तिथि : 13 जनवरी 2014


तुषार कपूर प्राय: प्रियदर्शन और रोहित शेट्टी की फिल्मों में चरित्र भूमिकाएं करते हैं और कभी टेलीविजन पर किसी कार्यक्रम में निर्णायक मंडल में नजर आते हैं। उनकी छवि धनाड्य सितारे जीतेन्द्र के पुत्र और सफल एकता के इकलौते भाई की है। आम जनता में उनकी छवि एक सफल परिवार में जन्मे असफल व्यक्ति की है परंतु उसकी अपनी निजता कभी उभर कर सामने नहीं आई। मसलन उसने अपने पिता द्वारा बनाया एक भव्य बहुमंजिला लेने से इंकार कर दिया और कहा कि अपने कमाये कम पैसे पर ही वे जीवन बसर करना चाहते हैं। किसी भी इंसान में इस तरह का स्वाभिमान होना उसके अपने सफल परिवार में सिर उठाकर जीने की तरह है। प्रचारित छवियों से बेहद अलग होता है असल व्यक्ति।

तुषार ने हाल में एक तमिल फिल्म के हिन्दी संस्करण बनाने के लिए अधिकार खरीदे हैं। यह एक हॉरर फिल्म है जिसे मजाकिये लहजे में प्रस्तुत किया गया। हॉलीवुड में हॉरर और हास्य के मेल की अनेक फिल्में बनी हैं। इस तरह की फिल्म में सामाजिक सरोकार का समावेश किया जा सकता है। मान लीजिए कि शिखर भूत अपने भोजन की मेज पर बैठे अफसोस जाहिर कर रहे हैं कि आजकल मनुष्यों के मांस में भी कीटनाशक होने के कारण भोजन से बीमार पडऩे की आशंका है। तमाम भूत भूख से मर रहे हैं और भूतों की बस्ती में छूत की बीमारी फैली है। दरअसल घोर व्यावसायिक फिल्मों में भी सामाजिक सरोकार की गुंजाइश होती है और साहित्य आधारित मानवीय संवेदना की फिल्म भी मनोरंजक हो सकती है जैसा कि 'प्यासा' जैसी संजीदा फिल्म में भी सिर मालिश वाले पात्र जॉनीवॉकर का गीत 'सर जो तेरा चकराये'। बहरहाल तुषार कपूर को मैंने एक फिल्म अस्वीकृत करते देखा है और उनकी साफगोई यह थी कि कठिन भूमिका का निर्वाह वे नहीं कर पायेंगे। सारांश यह कि प्रचलित छवि से अलग होता है व्यक्ति।

हमारे औसत मध्यम वर्ग परिवार में भी कमाई के आधार पर कुछ सदस्यों को अलग नजर से देखा जाता है और कम कमाने वाले आम हो जाते हैं तथा कमाई करने वाला खास हो जाता है। व्यापार और बाजार के जीवन मूल्य किस तरह दबे पांव साधारण परिवारों में प्रवेश कर जाते हैं कि समाज शास्त्री की निगाह में ये सूक्ष्म परिवर्तन आते ही नहीं। समाज और परिवारों में परिवर्तन की चक्की बहुत महीन आटा पीसती है। इस तथ्य का भयावह पक्ष यह है कि माता-पिता के नजरिये में भी अंतर आ जाता है गोयाकि ममता पर इन मूल्यों का असर है। ज्ञातव्य है कि खंडवा के गांगुली परिवार के अशोक कुमार और किशोर कुमार अत्यंत सफल थे परंतु अनूप कुमार कुछ खास नहीं कर पाये। किशोर कुमार ने अपने द्वारा निर्मित हर फिल्म में अनूप कुमार के लिए भूमिकाएं रचीं और उसे साथ लेकर चलने के प्रयास किये। कमाल की बात यह है कि अनूप कुमार अपने साधारण होने से अच्छी तरह परिचित थे और उन्हें इसका कोई मलाल भी नहीं था। उसने स्वयं को आत्म-दया के लिजलिजे भाव से बचाये रखा और पूरी तरह जीवन जिया।

विगत दशकों में विकसित वीआईपी संस्कृति ने भारत के सामाजिक जीवन में साधारण होने को पाप करने की तरह बना दिया है। सारा सामाजिक ताना-बाना इस तरह रिश्तों के कच्चे धागों से बना गया है और परिवार के ये भीतरी तथ्य ही अपने भव्य रूप में हर क्षेत्र में दिखाई पड़ रहे हैं। साधारण को सम्म्मान की निगाह देखा जाना आवश्यक है।