तूफां में कश्ती कश्ती में तूफां / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :07 जुलाई 2015
मूक फिल्मों के पहले दशक में ही तिलकजी के 'केसरी' के उपसंपादक भालेराव पेंढारकर ने 'वंदे मातरम् आश्रम' फिल्म गांधीजी के शिक्षा आदर्श से प्रेरित होकर बनाई थी और उसकी मूल भावना का ही विराट स्वरूप राजकुमार हीरानी की 'थ्री इडियट्स' में उभरकर आया था। दरअसल, राजकुमार हीरानी शिक्षा के विषय पर ही अपनी पहली फिल्म बनाना चाहते थे परंतु संतोष देने वाली पटकथा बनने में समय लगा। कथा का असली हुक ही यह था कि नायक अन्य नाम से सर्वप्रथम आने की डिग्री प्राप्त करता है, क्योंकि उसका उद्देश्य तो ज्ञान था और डिग्री का कोई मूल्य उसके लिए नहीं था।
'वंदेमातरम् आश्रम' और 'थ्री इडियट्स' के बीच भी शिक्षा पर कुछ फिल्में बनी हैं। 'जागृति' अत्यंत सफल फिल्म थी, जिसका गीत था, 'हम लाए हैं तूफां से कश्ती निकाल के, इस देश को रखना मेरे बच्चों सम्हाल के।' अजीब बात यह है कि जिन लोगों ने तूफां से कश्ती निकाली थी, उन्हीं लोगों ने सत्ता सम्हाली थी और भ्रष्टाचार का श्रीगणेश भी उसी समय हुआ। सन् 47 में जन्मे बच्चे जब जवां हुए तो कालाधन समानांतर हो चुका था और व्यवस्था को दीमक लग चुकी थी। सन् 47 मंें जन्मे बच्चों के बच्चे अब गुलामी से बड़े नैतिकहीनता के तूफां से जूझ रहे हैं और इस बार की उतंग लहरें फौजी हमला नहीं करतीं वरन् आपके बाजार और पृथ्वी के भंडार को हड़प लेती है और इससे भी भयावह यह है कि उनकी जीवन शैली अवाम के अवचेतन पर कब्जा जमा लेती है।
आर्थिक साम्राज्य का यह नया स्वरूप रक्तहीन सत्ता पलट है, जिसमें खून नहीं बहता परंतु आपकी नदियां सूख जाती हैं, पर्वत वृक्षविहीन हो जाते हैं और सजे-धजे न्यून रोशिनयों से दीप्तिमान बाजार में आप आत्मा बेचकर सुविधा का अटाला जुटाते हैं। इस आर्थिक साम्राज्यवाद की शल्य चिकित्सा की विधि में सुविधाएं और विचारशून्यता का एनेस्थेशिया है। आर्थिक साम्राज्यवादियों का यह ऑपरेशन वैसा ही फार्स है, जैसे राज कपूर ने 'मेरा नाम जोकर' में जोकर का हृदय शल्यक्रिया से बाहर निकाला था और वह क्षण-प्रतिक्षण बड़ा होता दिल, जिसमें दुनिया तक समाने की बात है, टूटकर शीशे के मानिंद बिखर जाता है और किरचों में जोकर अपना बचपन देखता है। आज राज कपूर नहीं रहे, सर्कस भी नहीं रहे परंतु आर्थिक साम्राज्यवाद की शल्य चिकित्सा जारी है।
शांताराम की 'बूंद जो बन गई मोती' में शिक्षक बच्चों को प्रकृति की गोद में शिक्षा देता है, विलक्षण गीत है, 'ये कौन चित्रकार है....तपस्वियों से खड़े ये वृक्ष देवदार के, ये सर्प-सी घुमावदार घाटियां, ये किस कवि की कल्पना का चमत्कार है।' शांताराम का यह शिक्षक छोटे भाई के कातिल होने का सबूत पुलिस को देता है। हिंदी से अधिक शिक्षा आधारित फिल्में मराठी में बनी हैं, क्योंकि महाराष्ट्रियन मध्यम वर्ग की एकमात्र संपदा व संबल शिक्षा रही है। शांताराम सदैव शिक्षक फिल्मकार रहे। नेहरू की पहल पर अनेक शिक्षा संस्थाएं और विश्वविद्यालय खुले परंतु उनका हश्र क्या हुआ, यह श्रीलाल शुक्ल के 'राग दरबारी' में पढ़ें। नेहरू के हर आदर्श स्वप्न को भ्रष्ट व्यवस्था ने लील लिया। आज देश के शिक्षा नक्शे पर रुग्ण संस्थाओं के काले बिंदु नज़र आ रहे हैं और गांधीजी के आदर्श पर बनी संस्थाओं में सबसे कमजोर छात्र कम फीस के कारण आ रहे हैं। कला और नैतिकता के इन मंदिरों से निकले छात्रों को नौकरियां नहीं मिलतीं।
अमेरिका की नकल में साहित्य, कला व दर्शन विभागों से अधिक बजट गणित व व्यापार शिक्षा विभागों का है। कोई आश्चर्य नहीं कि अनेक नेताओं पर नकली डिग्री के आरोप लग रहे हैं और मध्यप्रदेश के व्यापमं घोटाले की गूंज सर्वत्र है, अनेक गवाहों की संदिग्ध मृत्यु हो चुकी हैं और अन्य घपलों की तरह इसका यथार्थ भी कभी सामने नहीं आएगा। आज तो निष्पक्ष जांच ही संभव नहीं रही। बात भोपाल की है तो गौर करें शेरी भोपाली का शेर 'यहीं से होती है तमगीद हर फसाने की, तेरी नज़र है कि तारीक है जमाने की।' महेश कौल की फिल्म 'दीवाना' का एक गीत है, 'अदालत उठ चुकी, कौन करेगा सुनवाई, हम तो जाते अपने गांव, सबको राम राम।' जिस देश के शिक्षा पाठ्यक्रम से नैतिकता व कविता खारिज कर दी गई है, उस देश में क्या गंगा की सफाई संभव है। सबको राम राम!!