तू जहाँ-जहाँ चलेगा, मेरा साया साथ होगा / ममता व्यास
एक आदमी ईश्वर का बहुत बड़ा भक्त था। उसने कहीं सुना था कि ईश्वर और प्रेम एक ही है। इसलिए वह जीवन भर प्रेम ही करता रहा। उसने हर व्यक्ति को ईश्वर ही माना और प्रेम किया। उसने अनगिनत प्रेम किए। बड़े प्रेम, छोटे प्रेम; कई तरह के प्रेम किए। वह प्रेम बीज था। जहाँ-जहाँ गिरता, टूटता, बिखरता फिर से पुनर्जीवित हो उठता। उसके मिटने, टूटने, बिखरने से भी प्रेम की सुगंध कम नहीं होती थी।
एक बार वह आदमी बीमार हुआ और उसे लगा अब बस अंतिम समय है। जरा-सी आँख लगी और उसने सपना देखा कि एक छाया उसे उठा कर ले जा रही है। उसने पूछा कौन? बोली मैं प्रेम हूँ, ईश्वर भी कह सकते हो। मुझे कहाँ लिए जाती हो? उस आदमी ने हैरानी से पूछा; चलो आज तुम्हारे जीवन को जरा पीछे मुड़ कर देखते हैं। तुम्हारे जनम से लेकर इस अंतिम समय तक सब कैसा रहा। आज फिर से इस पर गौर करते है। उस आदमी को वह छाया समंदर किनारे ले गयी और रेत पर उसे अपनी पूरी जिंदगी के दृश्य दिखने लगे।
वह सौ साल पीछे जाने लगा उसने देखा उसके जनम के समय से ही यह छाया उसके साथ थी उस समय वह माँ जैसी दिखती थी। फिर धीरे-धीरे वह बड़ा होता रहा। उसके सुख, उसके दुःख, उसके सपने उसके संघर्ष, उसके बनते-बिगड़ते रिश्तों के चित्र रेत पर बनते जा रहे थे। साथ-साथ दो जोड़े "पदचिन्ह" भी अंकित होते जाते थे।
ये दो जोड़ी पदचिन्ह क्यों? छाया बोली ये तुम्हारे और मेरे पदचिन्ह हैं। मैं हमेशा तुम्हारे साथ चलती रही। देखो देखो, हर गली हर डगर।
वह आदमी खुशी से झूम उठा बोला अरे! वाह तुम तो हर जगह मेरे साथ चल रही थी। तुमने मेरा साथ हर जगह निभाया। मेरे जनम के समय, विवाह के समय, दोस्ती, प्रेम सभी सुख के क्षणों में तुम मेरे साथ-साथ हो। देखो-देखो हम दोनों के पदचिन्ह हर जगह साथ-साथ हैं। छाया ने चुपचाप हामी भरी।
आगे चलने पर वह आदमी रुक गया। ओह! ये तो मेरे जीवन के सबसे दुखद पल थे। मैंने इन दिनों बहुत दुःख उठाए। धोखे खाए, पीड़ाएँ झेली। मैंने इन दिनों अपनी नौकरी गंवाई, रिश्ते गँवाए और गहन अवसादों में घिर गया।
मैं उस समय बिलकुल अकेला था। मेरे पास कोई नहीं था। मैंने खुद ही सभी को खुद से दूर कर दिया। गुस्से में, क्रोध में और गहन दुःख में, झुंझुलाहट में। मुझे फिर भी कोई अफ़सोस नहीं अपने इस कृत्य पर लेकिन अभी मैं बहुत दुखी हूँ इस बात पर कि तुमने ऐसे नाजुक समय में मेरा साथ क्यों छोड़ा? देखो इस रेत में सिर्फ एक जोड़ी पद चिह्न अंकित हैं। सिर्फ मेरे पदचिन्ह!
मुझे जब सबसे अधिक तुम्हारी जरुरत थी, तुमने ठीक उसी समय मुझे अकेला छोड़ दिया क्यों?
इस बात पर, प्रेम बहुत ही प्रेम से मुस्काया, उसके मुस्काते ही आसमान और नीला हो गया। सूरजमुखी गहरे पीले हो गए और गुलाब सुर्ख, ओस पिघलने लगी और पक्षी उड़ना भूल कर प्रेम के जवाब की प्रतीक्षा करने लगे।
प्रेम बहुत ही प्रेम से बोला - मैंने तुम्हे कभी नहीं छोड़ा तुम्हारे जन्म से लेकर हर पल मैं साथ था आज भी हूँ, और जो ये एक जोड़ी पद चिह्न देख रहे हो ये तुम्हारे पद चिन्ह नहीं हैं ये तो मेरे पैरों के चिह्न हैं। तुम्हे तो मैंने अपनी गोद में उठा रखा था।
तुम जब-जब भी अकेले हुए, दुःख से भर गए, अवसादों में घिर गए मैंने तब-तब तुम्हे अपनी गोद में उठाया और तुम्हारी चिकित्सा की।
ये तो एक कथा है लेकिन वास्तव में भी प्रेम आपको कभी छोड़ कर नहीं जाता। दुखों के क्षणों में जब हम शिकायत करते हैं कि हमारा प्रेम हमें छोड़ गया; वह उस समय भी हमारे आसपास ही मंडराता रहता है। गहराता रहता है। ऊर्जा बनकर, स्मृति बन कर, शक्ति बनकर तो कभी भक्ति बनकर वह हमारे चारों तरफ एक "प्रभामंडल" निर्मित करता है। एक ऑरा बनाता है। यह अलग बात है कि हम उसे महसूस नहीं कर पाते और दुखी होकर शिकायत करते हैं कि प्रेम हमें छोड़ गया जबकि प्रेम तो उस समय भी हमारी "कीमियोथेरेपी" कर रहा होता है, शल्य-चिकित्सा कर रहा होता है
तो क्या प्रेम चिकित्सक है? –
क्या प्रेम सच में चिकित्सा है? यदि हाँ तो कोई इसे इच्छा तो कोई इसे आवश्यकता क्यों कहता है? प्रेम अगर इच्छा है तो वह बैचनी बढ़ाएगी, बेक़रार करेगी, बार-बार जन्म लेगी, बार-बार मरेगी और मारेगी भी। इस बात पर भी एक छोटी-सी कथा याद आई।
एक बार सुन्दर तितली से फूल ने पूछा तुम रोज मेरे पास आती हो क्या तुम मुझसे प्रेम करती हो? तितली बोली पता नहीं। फिर क्यों दूर-दूर से उड़ के चली आती हो इस बगीचे में? तितली बोली बस इच्छा होती है तुम्हारे पास आने की, इस वास्ते आ जाती हूँ। दरअसल तुमसे प्रेम करना मेरी एक इच्छा मात्र ही तो है। तितली ने दर्शन समझाया। फूल उदास होकर बोला तो जब-जब तुम्हारी इच्छा होगी तब-तब ही तुम आओगी? हाँ बिलकुल! तितली ने बेपरवाही से अपने पंख उचकाये| कभी-कभी लगता है मुझे कि तुम मेरी आवश्यकता हो मैं तुम्हारे आसपास अंडे देती हूँ| तुम्हारे आसपास ही मैं केटरपिलर से प्यूपा और फिर तितली बन जाती हूँ। तुम मेरी इच्छा हो या आवश्यकता; यह आज तक तय नहीं कर पाई।
फूल मुस्काया, मुस्काने से उसका रंग और गुलाबी हो गया वह बोला न मैं तुम्हारी इच्छा हूँ न कोई आवश्यकता मैं सिर्फ तुम्हारी चिकित्सा हूँ। अंडे से तितली बनने तक मैं तुम्हारे साथ ही था। अब जब तुम अपनी मर्जी से कहीं भी उड़ती-फिरती हो तो मुझे अपनी इच्छा कहती हो। जबकि मैं तुम्हारी चिकित्सा हूँ।
अगर मैं तुम्हारी इच्छा मात्र हूँ तो किसी दिन वह जन्म लेगी और किसी दिन मर भी जाएगी। किसी खास दिन तुम्हे बुद्ध होने का रोग हो गया तो तुम सबसे पहले मेरी ही हत्या करोगी है न? अक्सर हम अपने प्रेम को अपनी आवश्यकता या इच्छा का "बाना" पहना कर संतुष्ट हो लेते हैं। इच्छाओं को गहरी अँधेरी गुफाओं में छिपा कर उसके मुंह पर बड़ा-सा पत्थर रख आते हैं और स्याह रातों में उन चीखती आवाजों से खुद को बचाते फिरते है।
इतना भय? इतना खौफ?
सिंगमंड फ्रायड जैसा ज्ञानी मनोचिकित्सक अपने पूरे जीवन में कभी भी किसी पेशेंट से कोई आत्मिक रिश्ता नहीं बना पाया। उसे भय था कि वह अपने पेशेंट से इमोशनली जुड़ न जाए। अब हैरानी की बात यह कि जब तक हम किसी के साथ भावनात्मक स्तर पर नहीं जुड़ते तब तक उसके दर्द को कैसे महसूस करेंगे? और जब तक महसूस नहीं कर सकेगे तो चिकित्सा कैसे करेंगे?
कोई मशीनी व्यक्ति कैसे किसी के मन की गाँठ खोलेगा? और कोई कैसे उसे अपने मन के घाव दिखा सकेगा। घाव तो प्रेम से ही भरे जाते हैं। प्रेम भरावन है, प्रेम सूनेपन को, खालीपन को भरता है।
प्रेम मुरम है, गिट्टी है, गारा है, मसाला है।
हम सभी को मानसिक चिकित्सा की आवश्यकता जीवन भर पड़ती है। हमारी आत्मा को प्रेम ही पोषित करता है। हमारे मन, हमारे दिमाग हजारों जगह से टूटे-फूटे होते हैं। इनमें दरारें होती है, प्रेम उनकी मरम्मत करता है। हमें नया बनाता है। जब हम अपने प्रेम की ऊष्मा किसी दूसरे को संप्रेषित करते हैं तो वह भी नया होता है। माध्यम चाहे जो भी हो।
प्रेम अपने रास्ते खुद बनाता है और अपना काम बखूबी करना जानता है। प्रेम आपको उर्वर करता है। रसायन से नष्ट हुए मन पर मरहम बन जाता है। जैसे कोई चिकित्सक किसी रोगी की रुकी हुई सांसों में अपने मुंह से साँस भरकर उसकी चिकित्सा करता है और एक पल में ही वह रोगी अपनी खोई हुई सांसे वापस पा लेता है ठीक उसी तरह प्रेम हमारी चिकित्सा करता है। हमें गति देता है।
वह हमें छोड़ कर कभी नहीं जाता। गलत कहते है लोग कि प्रेम एक रोग है। प्रेम तो चिकित्सक है। वह साया है हमारा हम जहाँ-जहाँ होते हैं; प्रेम भी वहाँ-वहाँ होता है... हमेशा।