तृतीय दृश्‍य / नदी प्यासी थी / धर्मवीर भारती

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[वही कमरा... शंकर बेचैनी से टहल रहा है... शीला सर झुकाए बैठी है।]

शंकर: [सहसा रुक कर] सारी गलती तुम्‍हारी है। मैंने बार-बार कह दिया था कि चाहे आसमान फट पड़े, तुम राजेशको एक मिनट के लिए भी अकेला न छोड़ना, लेकिन तुमने कभी कहना माना? तुम समझती हो कि अगर राजेश को कुछ हो गया तो मैं किसी को मुँह दिखला सकूँगा? [फिर टहलने लगता है।]

[पद्मा: आती है।]

पद्मा: कुछ पता लगा जीजा?

शंकर: : कुछ नहीं! पुलिस में रिपोर्ट की, जाल छुड़वाया, मल्‍लाहों से पूछा, स्‍टेशन पर जाँच की, कहीं से कोई जवाब नहीं... [सहसा मुड़ कर] लाओ कुछ रुपए निकाल लाओ, जब तक ढूँढ़ूँगा नहीं, तब तक वापस नहीं आऊँगा। [शीला चुपचाप उठ कर अन्‍दर जाती है। शंकर फिर टहलने लगता है। पद्मा एकटक खिड़की के बाहर देखती है, शीला ला कर पर्स देती है। शंकर बाहर जाता है!]

शीला: [डरते-डरते] कुछ खा तो लो, कल से एक बूँद पानी नहीं डाला मुँह में!

शंकर: खाओ तुम! मैं तो सिर्फ जहर खाऊँगा...

[तेजी से चला जाता है। शीला रोते-रोते अन्‍दर चली जाती है। पद्मा दरवाजे पर खड़ी हो कर शंकर को देखती है, फिर लौट कर पलंग पर गिर जाती है और राजेश की अटैची पर सिर रख कर फूट-फूट कर रोने लगती है। कृष्णा आता है।]

कृष्णा: : कुछ पता लगा! [पद्मा कुछ जवाब नहीं देती, वह क्षण भर खड़ा रहता है, फिर पलंग पर बैठ जाता है। पद्मा के सिर पर हाथ रख कर] पद्मा इतना क्‍यों रोती हो [गहरी साँस ले कर] धीरज रक्‍खो...

पद्मा: [सहसा फुँफकार उठती है, उसका हाथ झटक कर] दूर रहो छुओ मत मुझे। मुझे सब मालूम है। तुम इतने पशु हो मैं नहीं जानती थी।

कृष्णा: मैं?

पद्मा: हाँ! तुम! तुम! तुम! मुझ से छिपो मत, यह देखो, यह खिड़की के पास था [जहर की शीशी देती है] तुम्‍हारे दवाखाने की है यह, तुम्‍हीं आए थे उस वक्‍त। मैं अभी दीदी को दिखा सकती हूँ। अभी पुलिस को दे सकती हूँ, लेकिन... [रोने लगती है।] मैंने तुम्‍हारा क्‍या बिगाड़ा था कृष्णा? तुमने उन्‍हें जहर पिला दिया। मैं उनसे शादी नहीं करती। मगर तुमसे इतना भी बर्दाश्‍त नहीं हुआ। फिर तुमने किस कलेजे से यह शीशी दी होगी उन्‍हें! हत्‍या! उफ!

कृष्णा: : लेकिन पद्मा सुनो तो..

पद्मा: [चीख कर] मैं तुमसे नफरत करती हूँ। तुम्‍हारी शक्‍ल भी नहीं देखना चाहती। चले जाओ, अभी चले जाओ। वरना मैं दीदी को बुलाती हूँ...

[कृष्णा: क्षण भर रुक कर पद्मा को देखता है। फिर सिर झुका कर चला जाता है, पद्मा रोने लगती है। फिर उठ खड़ी होती है, अपने चित्र के टुकड़े उठाती है और फिर उन सब को फेंक कर बदहवास हो कुर्सी पर बैठ जाती है। थोड़ी देर बाद शंकर: आता है, साथ में राजेशहै।]

शंकर: शीला! शीला ! लो राजेश आ गए!

[पद्मा: चौंक पड़ती है, उछल कर पीछे खड़ी हो जाती है, झट से आँसू पोंछती है, आँसू बहने लगते हैं। शीला: भागी हुई आती है।]

शीला: वाह राजेशबाबू! परेशान कर डाला आपने तो। आज न आते तो शायद कल आपके भइया मुझे तलाक दे देते।

शंकर: : अरे इसी उम्‍मीद से तो ये लौट रहे थे कि शायद मैं तलाक दे चुका हूँ।

पद्मा: ये थे कहाँ जीजा?

शंकर: : इन्‍हीं से पूछो। शीला , जल्‍दी से दूध गर्म करो इनके लिए।

राजेश: लेकिन मैं इसी गाड़ी से घर जाऊँगा।

पद्मा: [सहसा विचित्र स्‍वर में चौंक कर] अरे डाक्‍टर...

शंकर: हाँ, अरे पहले डाक्‍टर से सलाह तो ले लो।

राजेश: नहीं, मैं रुक नहीं सकता अब, एक दिन भी नहीं।

शंकर: अच्‍छा! अच्‍छा! मैं खुद नहीं रोकूँगा तुम्‍हें। कृष्णा से पूछ आऊँ जल्‍दी से। सुनो पद्मा ! [पद्मा को अलग बुला कर] इनकी अटैची ठीक कर दो और शीला से सौ रुपए ले कर रख देना उसमें?

[जाता है।]

पद्मा: [राजेश से] आप कहाँ चले गए थे? सच आपको जरा भी खयाल नहीं है किसी का! आप गए कहाँ थे?

राजेश: अजब-सी बात है पद्मा: ! विश्‍वास करोगी! मैं गया था देवी के मन्दिर, डूबने के लिए! [पद्मा चीख पड़ती है] न, चीखो मत। तुम जानती हो, मैं कितना ऊब गया था अपने से। अपनी जिन्‍दगी एक भार थी मेरे लिए, धीरे-धीरे वह सभी के लिए भार बन गई। सब की जिन्‍दगी के बाँध मेरी वजह से टूटने लगे। मैं कितना आत्‍मदंशन बर्दास्‍त करता। मैंने निश्चित कर लिया कि अब मेरी मौत ही हर उलझन का इलाज है। किसी को भी तो सुख न दे पाया मैं। [उठ कर टहलने लगता है।]

पद्मा: आप बैठे रहिए।

राजेश: नहीं अब मैं ठीक हूँ... बिलकुल ठीक... हाँ तो मुझमें उस वख्‍त जाने कितनी ताकत आ गई! मैं देवी के मन्दिर के पास गया। मैंने अपने मन में सोचा था कि बहुत भयानक जगह होगी। लेकिन वह तो बहुत खुशनुमा जगह थी। मन्दिर का सिर्फ गुम्‍बद चमक रहा था। पीपल और पाकड़ के पेड़ डूब गए थे। इतनी खामोशी थी चारों ओर कि लगता था हजारों मील से पत्‍थरों से टकराती, गाँवों को डुबाती हुई यह नदी इन पेड़ों की छाँह में आ कर सो गई है। मैं चुपचाप खड़ा रहा। कुछ दूर तक पेड़ों की छाँह से पानी साँवला पड़ गया था। थोड़ी देर में सूरज डूबने लगा। सैकड़ों सिन्‍दूरी बादल पानी में उतर आए और फूल की तरह धीरे-धीरे बहने लगे। मैं चुपचाप था। पता नहीं किसने मेरे कदमों की ताकत छीन ली थी। धीरे-धीरे मेरी आँखों से आँसू बहने लगे। मुझे लगा मैं क्‍यों मरना चाहता हूँ। जिन्‍दगी तो इतनी सुन्‍दर है, इतनी शान्‍त है। मुझे जिन्‍दगी का नया पहलू मिला उस दिन! वह यह कि चाहे ऊपर की सतह मटमैली हो, मगर जिन्‍दगी की तहों के नीचे गुलाब के बादलों का कारवाँ चलता रहता है। क्रूरता, कुरूपता के नीचे सौन्‍दर्य है, प्रेम है और सौन्‍दर्य और प्रेम, कुरूपता और क्रूरता को चीर कर नीचे पैठ जाता है। उसे देखने के लिए सहज आँख में नया सूरज होना चाहिए, पद्मा! [गहरी साँस लेकर] और धीरे-धीरे लगा कि जैसे मन की सारी कटुता, सारी निराशा, सारा अँधेरा, धुलता जा रहा है। लगा कि जब तक जिन्‍दगी में एक कण सौन्‍दर्य है, तब तक मरना पाप है। पागलों की तरह उन्‍हीं तैरते हुए बादलों के साथ मैं चल पड़ा... अँधेरा हो गया... [शीला दूध लाकर रख देती है और बैठ जाती है] मैं वहीं बैठ गया। थोड़ी देर में उधर कुछ सियार आए। वे लोग किसी की लाश को घसीट रहे थे। मुझे देख कर भागे। मैं समीप गया; देखा एक दस-बारह साल का लड़का है। अभी साँस चल रही है। मैंने उसे बाहर निकाला। मन काँप उठा। मगर उठा कर लाने की ताकत नहीं थी। कितना सुन्‍दर था वह, कितना मासूम! मैं बैठ कर सियारों से उसकी रखवाली करने लगा। उस तरफ सितारे थे, इस तरफ लाश। बीच में मैं उसकी रखवाली कर रहा था। चारों ओर सुनसान! लग रहा था आसमान से अजब-सी शान्ति मेरी आत्‍मा पर बरस रही है। मेरे व्‍यक्तित्‍व के रेशे फिर से सुलझते जा रहे हैं, और यह लड़का वह चिरन्‍तर जीवन है, वह सौन्‍दर्य है जिसकी रखवाली मैं युगों से करता आ रहा हूँ और युगों तक करता जाऊँगा। जिन्‍दगी नील कमल की तरह मेरे सामने खुल गई। मुझे लगा कि आदमी सारी तकलीफ और दर्द के बावजूद इसलिए जिन्‍दा है कि वह सौन्‍दर्य और जीवन की खोज करे, उसकी रक्षा करे, उसका निर्माण करे... और सौन्‍दर्य के निर्माण के दौरान वह खुद दिनों-दिन सुन्‍दर बनता जाय। अगर कोई नहीं है उसके साथ तो भी वह सौन्‍दर्य का सपना, वह ईश्‍वर के साथ है। उसे आगे बढ़ना ही है... यही जिन्‍दगी के माने हैं। इसलिए मैं फिर जिन्‍दगी में वापस लौट आया कि क्रूरता और कमजोरी के सामने हारूँगा नहीं, मरूँगा नहीं, सौन्‍दर्य का सृजन करूँगा और सुन्‍दर बनूँगा। जिन्‍दगी बहुत प्‍यारी है, बहुत अच्‍छी है, और आदमी को बहुत काम करना है।

शीला: और उस लड़के का क्‍या हुआ?

राजेश: उसे रिलीफ की नाव ले गई। मैं इधर आ रहा था तो शंकर भइया मिल गए।

शीला: दूध ठंडा हो रहा है पी लो! मैं फल ले आऊँ। [जाती है।]

पद्मा: तो अब आप जा क्‍यों रहे हैं? लीजिए दूध पीजिए। [मुँह से गिलास लगा देती है]

राजेश: [पी कर] मैं जा रहा हूँ इसलिए कि मेरी जगह वहीं है जहाँ कुरूपता और क्रूरता है, जहाँ मेरे सपने टूटे हैं; क्‍योंकि वहीं मुझे लड़ना है। वहीं प्‍यार बिखेरना है, वहीं निर्माण करना है। मैंने जीवन का सत्‍य पाया है और उसे ले कर कामिनी के पास जाऊँगा, फिर सारी दुनिया के पास और अगर कोई नहीं मिलता तो अकेले, बिल्‍कुल अकेले चलूँगा, लेकिन हारूँगा नहीं। [पद्मा: चुपचाप खिड़की के बाहर देखती है और आँचल से आँसू पोंछती है। राजेशउठ कर उसके पास खड़ा हो जाता है। सिर पर हाथ रखता है।]

राजेश: पद्मा! यह मोह गलत है। मुझे तो जाना ही है पद्मा! लेकिन तुम मेरी बात समझो, हर चीज का सौन्‍दर्य पहचानो, उसे प्‍यार करो। मेरी बात मानोगी?

पद्मा: मैंने कभी टाली है आपकी बात?

राजेश: देखो पद्मा: , कृष्णा: को तुम्‍हारी जरूरत है। मैंने भी आज यही सीखा और तुम्‍हें भी यही कहूँगा कि दूसरों की जरूरत के लिए जिन्‍दा रहो, अपने लिए नहीं। तुमने उसे प्‍यार किया है मुझे नहीं। मुझसे तो तुम केवल मुग्‍ध रही हो। एक बौद्धिक सम्‍मोहन मात्र! समझीं! [पद्मा सिसकती है] छि! ऐसा नहीं करते पगली! उससे समझौता कर लो। उसके पास भाषा नहीं मगर हृदय बहुत बड़ा है! बहुत सुकुमार! उससे समझौता कर लेना। फिर अपने ब्‍याह में बुलाओगी हमें? बोलो!

पद्मा: [रुँधे गले से] हाँ...

[शीला: फल लाती है।]

शीला: क्‍या सचमुच अभी जाओगे राजेश: ?

राजेश: हाँ भाभी! पद्मा: , जल्‍दी से अटैची ठीक करो... भाभी! ऊपर हमारे कपड़े पड़े होंगे।

शीला: अभी लाई।

[जाती है। राजेश चुपचाप बैठा है। बाहर कोई बड़े दर्दनाक स्‍वरों में वही गीत गाता है- 'हाऽऽय बाढ़ी ऽऽ नदियाऽऽ'...]

पद्मा: [अटैची सम्‍हालते हुए] क्‍या सोच रहे हैं आप! जो आप कह रहे हैं, वही होगा। सचमुच मैंने कृष्‍ण से बहुत कठोर व्‍यवहार किया है। मैं उनसे क्षमा माँग लूँगी। मैं उन्‍हें समझा लूँगी।

[खिड़की के सामने से दो मुसाफिर बात करते हुए जा रहे हैं- 'बिल्‍कुल घट गया जल, मन्दिर से... बड़ा अचम्‍भा है।' गीत बराबर चल रहा है... चढ़उबै पाठा जवान… शंकर: आता है। माथे पर बेहद पसीना!]

शंकर: : पद्मा: , एक गिलास पानी लाओ जल्‍दी से...

[पद्मा: जाती है।]

राजेश: : क्‍या हुआ? पूछा कृष्णा से? मैं आज जाऊँगा जरूर। मेरा मन नाच रहा है शंकर: । कृष्णा: मुझसे मिलने नहीं आएँगे?

शंकर: [पलंग पर लेटते हुए] नहीं आएँगे... पद्मा से कहना मत। उन्‍होंने खुदकशी कर ली... वहीं देवी के मन्दिर के पास डूब कर...।

पद्मा: [दरवाजे पर सुन कर, चीखते हुए] भइया! [गिलास छूट जाता है। शंकर से लिपट कर] भइया! [सिसक-सिसक कर रोने लगती है।]

[संगीत फिर तेज हो उठता है, गूँज उठता है-

'हाय बाढ़ी नदिया जिया लैके मानै!'

तेज होते हुए संगीत के साथ पर्दा गिरता है।]