तृष्णा / सुकेश साहनी
पेड़ों से उड़कर आए सूखे पत्ते हल्की खड़़़खड़ाहट के साथ गलियारों में इधर-उधर सरक रहे थे। हादसे वाले दिन से रोहित को प्राइवेट वार्ड के गलियारे सांय-सांय करते मालूम देते थे और चारों ओर दिखाई देता था उकता देने वाला सन्नाटा---रिक्तता---शून्य---
उसकी नज़र लॉन की धूप में चटाई बिछाकर बैठी उस वृद्धा पर पड़ी, जिसकी गोद में एक खूबसूरत नवजात शिशु पड़ा सो रहा था। उसने बड़ी हसरत भरी नज़रों से उस गोल-मटोल बच्चे को देखा और धीरे-धीरे चलता हुआ उसके काफी नज़दीक आ गया। नज़दीक से बच्चे को देखते हुए उसे अपना बच्चा याद आ गया और उसकी आंखें भर आईं।
भइया, कौन से नम्बर के साथ हो? उसे अपने पास उदास मुद्रा में खड़े देख वृद्धा ने उससे पूछ लिया। तेरह नम्बर के साथ माँजी। ---कितनी अमूल्य देन है ईश्वर की---बुढ़िया की गोद में लेटी बच्ची को प्यार भरी नज़रों से देखते हुए उसने सोचा।
जच्चा बच्चा ठीक तो हैं?
जच्चा तो अब ठीक है पर--- बच्चा तो दो दिन बाद ही न जाने कैसे गुज़र गया था! कहते हुए उसकी आवाज़ भर्रा गई।
लड़का हुआ था कि लड़की? वृद्धा ने जल्दी से पूछा।
लड़का--- बुढ़िया की गोद में लेटा बच्चा नींद में मुस्कराया। रोहित को बच्चे के माँ-बाप से ईर्ष्या-सी हुई। काश ऐसा बच्चा उसकी गोद में भी---
च्च---च---च राम-राम! बहुत बुरा हुआ यह तो--- लड़का था, जभी तो रुका नहीं! अब देखो, मेरी बहू ने यह तीसरी लौंडिया जनी है!!--- दो क्या कम थीं बाप की छाती पर मूँग दलने के लिए--- भला बताओ--- इसकी क्या ज़रूरत थी ---यह तो न मरी ससुरी---
तभी बुढ़िया की गोद में लेटी बच्ची ने अँगड़ाई लेकर आँखें खोल दीं और बड़े ध्यान से टकटकी लगाकर वृद्धा की तरफ देखने लगी।
(रचनाकाल: नवम्बर, 88)