तेजस्विता या प्रभुशक्ति / बालकृष्ण भट्ट
सोत्साहस्य हि लोकेषु नकिंचिदपि दुष्करम्।।
ऊपर का वाक्य आदि कवि महर्षि बाल्मीकि का है। तेजीयान् उत्साह युक्त के लिये संसार में ऐसी कोई बात नहीं है। जिसे वह न कर डाले सच है जिसका जी नहीं बुझा, हिम्मत बाँधे है, जिसको बड़े काम कठिन नहीं मालूम होता। हमारी आर्य जाति बार-बार पराजित होते-होते गर्दखोर हो गई। बल, वीर्य उत्साह, सत्व, पौरुष, अध्यवसाय, हिम्मत सब खो बैठी जो सब गुण मनुष्य में तेजस्विता के प्रधान-प्रधान अंग हैं। अंग और अंगी का परस्पर संबंध रहता है जब अंग न रहे तो अंगी के होने की क्यों आशा की जा सकती है - और अब तो प्रभुत्व शक्ति का सर्वथा अभाव दिखाई देता है। हिंदुस्तान के लोग फर्माबरदारी ताबेदारी इत्यादि में संसार की सब जाति में अगुआ गिने जा सकते हैं सो क्यों? इसीलिये कि इनमें से अपनापन सब भाँति जाता रहा वह आग बिलकुल बुझ गई जिससे इनमें तेजस्विता आती जो आग और जाति के लोगों में धधकती हुई पूर्ण प्रज्जवलित हो रही है। शिक्षा और सभ्यता का संचार, उन-उन तेजस्वी जाति वाले विदेशियों का घनिष्ठ संबंध, उनका उदाहरण इत्यादि सैकड़ों यत्न और चेष्टा उसके पुन: संचार की सब व्यर्थ होती है।
तेजस्विता प्रभुत्व शक्ति की कारण तो हुई है वरन् अपने में बड़प्पन या बुजुर्गी आने की बुनियाद है। प्रभु शक्ति संपन्न तेजीयान कैसी ही कठिनाई में आ पड़े अपने दृढ़ अध्यवसाय, स्थिर निश्चय, पौरुषेय गुण के द्वारा उस कठिनाई के पार हो जाने का कोई रास्ता अपने लिये निकाल ही लेता है। वह साहसी उससे अधिक कर सकता है जितनी उससे उस काम के करने की (सेंस) स्वाभाविक शक्ति दी गई है। वरन् स्वाभाविक शक्ति के बल करने वाले को जितना नैराश्य, भय, हेतु, और शंका स्थान रहता है उसका आधा भी तेजीयान् प्रभुत्व शक्ति, संपन्न को न होगा। और यह प्रभुत्व शक्ति चारित्र्य (करेक्टर) का तो केंद्र भाग है जिसके चरित्र में स्खलन है वह क्या दूसरों पर अपनी प्रभुता या रोब जमा सकता है? तेज:पुंज की वृद्धि केवल वीर्य रक्षा आदि चरत्रि की संपत्ति ही से सुकर है; तो निश्चय हुआ कि पहले हम अपने को सुधारे रहें तो दूसरों को सुधरने के लिये प्रभु बनें, नहीं तो किस मुख से औरों को हम कह सकते हैं - "खुद फजीहत दीगरे देह नसीहत।"
बल्कि यों कहिये वही तो पुरुष है जिसमें तेज है। यह सतेजस्कता हमारे हर एक काम में ऐसा ही सहायक है जैसा रक्त संवाहिनी शिरा या धमनी शरीर में जीव की साक्षिणी रह जीवन में सहायक होती है। नाड़ी छूट जाने पर मरने में देर नहीं लगती; अच्छा वैद्य रसों का प्रयोग कर फिर उसे जगाता है। हमको अपने कामों में सच्ची उम्मीद उसी से रखना उचित है जिसमें तबियत में जोर पैदा करने वाला यह गुण विद्यमान् है। बल्कि मनुष्य के जीवन रूप कुसुम की मन हरे वाली सुवास यही है। धिक् कातर दुर्बलचित्त को-स्थिर अध्यवसाय दृढ़ चित्तता ही बड़ी बरकत या कल्याण का मार्ग है। दुर्बल और प्रबल बड़े और छोटे, जित और जेता, निर्धन और अढ्य में अंतर बताने वाली यही प्रभु शक्ति संपन्न सतेजस्कता या तबियत में जोर का होना है। बिना जिसके असीम बुद्धि-वैभव अथाह विद्या और सब तरह का सुबीता के रहते भी आदमी दो टाँग वाला जानवर है। तेजीयान् जोर रखने वाला यदि उद्देश्य उसका सर्वथा उत्तम और सराहना के योग्य है तो वह जिस बड़े काम के लिए उतारू होगा कर ही डालेगा, यहाँ की अदालतों में हिंदी अक्षरों के प्रचार पाने के उद्योग पर हम अपने प्रियवर मालवीयजी को सदा हँसाते थे और यही समझते थे कि यह सब इनकी चढ़ती उमर की उमंग मात्र है। किंतु स्थिर अध्यवसाय के साथ तबियत में जोर का होना इसी को कहेंगे कि हमारे मित्रवर इस अपने उत्तम (नोबिल) उद्देश्य में कृतकार्य हुए ही तो। मनुष्य चाहे बड़ा बुद्धिमान न हो पर अध्यवसाय और रगड़ करने में थकेगा नहीं तो यह अवश्य कृतकार्य होगा, और ऐसे काम जिसे काम जिसे काम कहेंगे तो बहुत से लोगों के नफा नुकसान का है बिना रगड़ के कभी सिद्ध भी नहीं हुए। तबियत में जोर रख रगड़ करने वाला जितना ही कठिनाई और विघ्नों के साथ लड़ना रहेगा उतना ही उसका नाम होगा और यत्नशीलों में अगुआ माना जायगा। कहा भी है-
"नसाहसमनारुह्य नरो भद्राणि पश्यति।
साहसं पुनरारुह्य यदि जीवति पश्यति।।"
वह साहसी अपने निरंतर अभ्यास प्रयत्न और परिश्रम के द्वारा असंभावित को संभावित कर दिया देगा। जिनमें जोर नहीं बुझे दिल के हैं सदा संशयालु हो शक में पड़े रहते हैं, उनको तो छोटी-छोटी बात भी जो संभावित है सदा असंभावित रहती है। यूरोप के नये-नये दर्शनिक (फ्रीविल) मनुष्य अपने काम में स्वच्छंद है इस बात पर बड़ा जोर देते हैं इसमें संदेह नहीं आदमी जल में पड़े हुए तिनके या घास फूस के सदृश नहीं है कि जल का प्रवाह उसे जिधर चाहे उधर ले जाय किंतु यदि यह दृढ़ता के साथ अपने में अच्छे तैराकू तैरने वाले की ताकत रखता है और विघ्नों के झकोर से नहीं हटता तो अंत को कामयाब होता ही है। जब तक हम जीते हैं हमारा चित्त प्रतिक्षण हम से यही कह रहा है कि तुम अपने काम के आप जिम्मेदार हो। संसार के अनेक प्रलोभन और अभ्यास तथा आदतें उसे अपनी ओर नहीं झुका सकते, प्रलोभित हो उधर झुक जाना केवल हमारी कचाहट है। इससे जो अपने सिद्धांतों के दृढ़ हैं वही मनुष्य हैं उनके पौरुषेय गुण के आगे कुछ असाध्य नहीं है।
सितंबर, 1900 ई.