तेरहवाँ प्रकरण / विश्वप्रपंच / एर्न्स्ट हेक्केल / रामचंद्र शुक्ल
तेरहवाँ प्रकरण - जगत् का विकास
जगत् की उत्पत्ति का विषय बड़ा भारी और बहुत टेढ़ा है। पर उन्नीसवीं शताब्दी में ज्ञान के विविध क्षेत्रों में जो अद्भुत उन्नति हुई है उससे इस विषय का बहुत कुछ विचार हो गया है। सृष्टिसम्बन्धी जितनी बातें हैं सब का अन्तर्भाव जादूभरे एक 'विकास' शब्द में हो जाता है। मनुष्य की उत्पत्ति, पशुओं की उत्पत्ति, वनस्पतियों की उत्पत्ति, सूर्य, पृथ्वी आदि की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अलग अलग प्रश्न न करके केवल एक ही प्रश्न किया जा सकता है- समस्त जगत् की उत्पत्ति कैसे हुई? किसी दैवी शक्ति से उसकी सृष्टि हुई है अथवा प्राकृतिक विधान के अनुसार उसका क्रमश: विकास हुआ है? यदि क्रमश: विकास हुआ है तो किस प्रकार?
प्राचीन काल की पौराणिक व्याख्या के अनुसार तो सृष्टि बनाई गई है। धर्मग्रन्थों में सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में बड़ी अलौकिक और अद्भुत कथाएँ मिलती हैं। किताबी या पैगम्बरी धर्मों, यहूदी, ईसाई, इस्लाम आदि के कारण इन कहानियों का बहुत प्रचार हुआ है। ईसाई धर्म के प्रचार के पहले यूनान के स्वतन्त्र दार्शनिकों और तत्वज्ञों ने सृष्टि के विकास के सम्बन्ध में अच्छा विचार किया था। ईसाई धर्म के साथ ही साथ यहूदियों के किस्सों और कहानियों का प्रचार हुआ। आर्यवंशीय
1 इन अनार्य धर्मों में पुराण हैं, शास्त्र नहीं। एक एक पौराणिक पुस्तक-तौरेत, इंजील, कुरान आदि को लेकर ही ये धर्म चलते हैं। हिन्दू, बौद्ध, जैन आदि आर्यधार्मों में पुराण और शास्त्र दोनों हैं। विद्वान् लोग प्राय: शास्त्री या चर्चा में ही अपना समय लगाते हैं। हिन्दुओं के पुराणों में जिस प्रकार आदि में जल के ऊपर शेषशायी भगवान् के रहने और उनकी नाभि के कमल से उत्पन्न ब्रह्मा के चराचर सृष्टि बनाने की कथा है लिखी है, उसी प्रकार उनके सांख्य शास्त्र में एक अव्यक्त मूल प्रकृति से क्रमश: सम्पूर्ण तत्त्वों के विकास का गम्भीर निरूपण भी किया गया है। पर ईसाइयों का एकमात्र आधार उनका पुराण ग्रंथ बाइबिल है जिसमें लिखा है कि ईश्वर ने छ: दिन में आकाश, पृथ्वी, जल तथा वनस्पतियों और जीवों को अलग अलग उत्पन्न किया, मनुष्य का पुतला बनाकर उसमें अपनी रूह फूँकी। इसी से युरोप में जब पहले सृष्टिविकास का निरूपण हुआ तब वहाँ बड़ी खलबली मची।
ज्ञानवृद्ध और स्वतन्त्र यूनानी जाति के आगे अनार्य यहूदी जाति बिलकुल गँवार और जंगली थी। प्राकृतिक कारण से सृष्टि के क्रमश: विधान का भाव तो उसके अनुन्नत अन्त:करण में आ नहीं सकता था, अत: यह जगत् की उत्पत्ति को किसी देवी देवता की करामात समझने के सिवा और कर ही क्या सकती थी? इस सृष्टिकर्तृत्ववाद में पुरुष विशेषवाद मिला हुआ है। इसे माननेवाले समझते हैं कि कुम्हार जैसे अनेक प्रकार के बरतन उनके ढाँचे सोच कर बनाता है वैसे ही सृष्टिकर्ता जगत् को बनाता है। इस सृष्टिकर्ता की भावना मनुष्य या पुरुषविशेष के रूप में ही की जाती है।
सृष्टि की उत्पत्ति की भावना दो रूपों में देखी जाती है- एक तो सम्पूर्ण विश्व की उत्पत्ति की और दूसरी उसके विविध अंगों की उत्तरोत्तर उत्पत्ति की। सृष्टि का एक कर्ता माननेवाले लोगों में जो युक्ति और बुद्धि की भी दुहाई देते हैं, उनका कहना है कि ईश्वर ने आदि में सम्पूर्ण जगत् का मूल या बीज उत्पन्न कर दिया, उसमें नाना रूपों के विकास की शक्ति भर दी और फिर चुपचाप बैठा रहा। यह कथन विशेषत: आजकल के मत संशोधकों का है। ये विकासपरम्परा को एक प्रकार से मानते हैं पर मूल में जाकर उसे छोड़ देते हैं और वहाँ अपने सृष्टिकर्ता ईश्वर को स्थापित करते हैं। दूसरे धार्मिक सृष्टिवादियों का कहना है कि ऐसा नहीं, ईश्वर बराबर सृष्टि का पालन और शासन करता है, उसे एक बार बनाकर फिर किनारे नहीं हो जाता। इन लोगों के विचार कभी कभी बढ़ते बढ़ते सर्ववाद तक पहुँच जाते हैं और कभी शुद्ध ईश्वरवाद ही तक रहते हैं।
जगत् की सृष्टि के सम्बन्ध में जो अनेक प्रकार के विश्वास प्रचलित हैं उनमें से कुछ ये हैं-
1. द्विविधा सृष्टि- ईश्वर ने दो बार सृष्टि की। एक बार तो उसने जड़जगत् अर्थात निर्जीव द्रव्य को उत्पन्न किया जो उस भौतिक गतिशक्ति के नियमाधीन है जो अचेतन रूप में कार्य करती है। फिर चैतन्य का प्रादुर्भाव हुआ जिसकी स्वतन्त्र शक्ति से जीवधारियों के विकास की व्यवस्था हुई।
2. त्रिाविधा सृष्टि- ईश्वर ने तीन बार करके सृष्टि की। पहले उसने आसमान को बनाया, फिर जमीन को बनाया, पीछे अपने आकार के अनुसार मनुष्य की रचना की। यह बात ईसाई मत के उपदेशकों के मुँह से बहुत सुनी जाती है।
3. साप्ताहिक सृष्टि- मूसा की किताब में लिखा है कि छ: दिनों में ईश्वर ने चटपट सारी सृष्टि बनाकर तैयार कर दी और सातवें दिन आराम किया। पढे लिखे लोगों में अब शायद ही कोई ऐसा निकले जो इस कहानी को ठीक मानता हो। फिर भी आजकल के कुछ धर्माभिमानी आधुनिक विज्ञान के शब्दों में इस कहानी की विशद व्याख्या करने का प्रयत्न करते हैं। अठारहवीं शताब्दी तक जीवविज्ञानियों पर इस कहानी का बहुत कुछ प्रभाव था। सन् 1735 में लिनी नामक प्राण्श्निविज्ञानवेत्ता ने जंतुओं का वर्गों में विभाग आदि तो किया पर भिन्न भिन्न योनियों के विषय में उसने यही कहा कि 'संसार में योनियाँ उतनी ही हैं जितनी के ढाँचे सृष्टि के आदि में ईश्वर ने उत्पन्न किए थे'। डारविन ने इस प्रवाद का पूर्णरूप से खंडन कर दिया।
4. कल्पसृष्टि- प्रत्येक जीवकल्प का मन्वन्तर के आदि में फिर से नए जीवों और वनस्पतियों की सृष्टि होती है और जीवकल्प के अन्त में सबका नाश हो जाता है। भूगर्भस्थपंजरानुसंधान विद्या ने इस कल्पना की असारता सिद्ध कर दी है।
5. व्यक्तिश: सृष्टि- प्रत्येक जीव जंतु जो उत्पन्न होता है वह प्राकृतिक नियम के अनुसार नहीं; बल्कि ईश्वर के द्वारा रचा जाता है। यह विश्वास साधारण जनों का है।
इस प्रकार की ऊटपटाँग कल्पनाओं से प्राचीन काल के विचारशील पुरुषों का भी समाधान नहीं हुआ। प्राचीन काल के अनेक दार्शनिकों ने शुद्ध चिन्तन के बल से प्राकृतिक कारणपरम्परा दिखाकर सृष्टितत्व का निरूपण किया। आजकल की सी वैज्ञानिक परीक्षाएँ सुलभ न होने पर भी उनका उस काल में इस प्रकार तत्व तक पहुँचना नि:सन्देह आश्चर्य की बात है। भारतवर्ष, यूनान आदि सभ्यता के प्राचीन पीठों में ऐसे अनेक तत्वदर्शी हो गए हैं पर साम्प्रदायिक कल्पनाओं का जाल, उनके निरूपित तत्त्वों को लोगों की दृष्टि से छिपाने का बराबर यत्न करता रहा। युरोप में जब ईसाई मत का प्रचार हुआ तब सब प्रकार के स्वतन्त्र तात्त्विक विचार दबा दिए गए। ईसाई धर्माचार्यों की कोपाग्नि के भय से कोई ऐसी बात मुँह से निकाल तक न सकता था जो खुदाई किताब के विरुद्ध पड़ती हो। पर धीरे धीरे ज्ञान की ज्योति का फिर उदय हुआ और वैज्ञानिक युग आया। प्रकृति में किस प्रकार उत्तरोत्तर अनेक गुणों और रूपों का स्फुरणा हुआ है, इसका पता लगा। विकास सिद्धांत की स्थापना हुई। उसके आधार पर विश्व विधान के नियमों का निरूपण हुआ। विश्व के अन्तर्गत लोकों की उत्पत्ति, पृथ्वी की उत्पत्ति, वनस्पति जीवजंतु आदि की उत्पत्ति इन सब विषयों को लेकर प्रत्यक्ष प्राकृतिक नियमों के आधार पर अलग अलग शास्त्रों की नींव पड़ी। विस्तार के भय से सबका यहाँ पूरा वर्णन न करके चार मुख्य विषयों को लेता हूँ-
(1) जगत् की उत्पत्ति, (2) पृथ्वी की उत्पत्ति, (3) जीवों की उत्पत्ति और
(4) मनुष्य की उत्पत्ति।
1 जगत् की उत्पत्ति
प्राकृतिक नियमों के अनुसार जगत् की उत्पत्ति और विधान की व्याख्या पहले पहल जर्मनी के तत्वज्ञवर कांट ने सन् 1775 में अपनी एक पुस्तक में की। पर दुर्भाग्यवंश वह पुस्तक प्रकाशित न होने के कारण 90 वर्ष तक लुप्त रही। सन् 1845 में वह मिली और प्रकाशित की गई। इस बीच में लाप्लेस नामक एक फ्रांसीसी तत्ववेत्ता भी स्वतन्त्र रीति से उसी सिद्धांत पर पहुँचा जिस सिद्धांत पर कांट पहुँचा था। इन दोनों तत्वज्ञों ने ग्रहों और नक्षत्रों की गति की गणित की रीति से भौतिक व्याख्या की और यह दिखलाया कि अन्तरिक्ष के समस्त पिंड पृथ्वी, ग्रह, उपग्रह, सूर्य इत्यादि सब, घूमती हुई ज्योतिष्क नीहारिका के जमने से उत्पन्न हुए हैं। इस ज्योतिष्क नीहारिका के सिद्धांत द्वारा ब्रह्मांड के भिन्न भिन्न लोकों की उत्पत्ति का भौतिक कारण बहुत कुछ समझ में आ गया। पीछे इस सिद्धांत में और उन्नति हुई और यह स्थिर किया गया कि लोकों की उत्पत्ति का यह विधान केवल एक ही बार नहीं हुआ है बल्कि बराबर होता रहता है। जबकि विश्व के किसी एक भाग में घूमती हुई ज्योतिष्क नीहारिका से नए नए पिंड ब्रह्मांडों की उत्पत्ति होती रहती है, दूसरे भाग में जर्जर ठंढे पड़े हुए सूर्य परस्पर टकराते हैं और उत्पन्न ताप के प्रभाव से फिर सूक्ष्म नीहारिका की दशा को प्राप्त हो जाते हैं। विश्व का यह क्रम नित्य है, उसमें साथ ही कुछ लोकों का लय और कुछ लोकों की उत्पत्ति होती रहती है। अत: उत्पत्ति और लय हम किसी एक विशेष लोक या लोकमंडल जैसे पृथ्वी आदि सहित सारा सूर्य, ही के सम्बन्ध में कह सकते हैं, समष्टि विश्व के सम्बन्ध में नहीं। समष्टिरूप में विश्व सदा से है और सदा रहेगा। अत्यंत क्षुद्र अणुरूप जो लोक हैं उनके रूपान्तरित होते रहने से उसकी नित्यता में कुछ भी अन्तर नहीं पड़ सकता।
कांट, लाप्लेस आदि ने ब्रह्मांडों की उत्पत्ति का विधान तो समझाया पर लोगों की यह धारणा बनी रही कि समस्त विश्व का कोई आदि था। इन तत्वज्ञों का यह कथन कि आदि में एक अत्यंत सूक्ष्म नीहारिका रूप ज्योतिष्क द्रव्य था; लोकों और ब्रह्मांडों सूर्य, ग्रह, उपग्रह इत्यादि के सम्बन्ध में था, समष्टि विश्व के सम्बन्ध में नहीं। पर 'आदि में' इस शब्द का अर्थ लोगों ने यही समझा कि समस्त विश्व का ही कोई आदि था। इस समझ के कारण यह शंका हुई कि विश्व के आदि में जो मूल ज्योतिष्क द्रव्य था उसमें गति कहाँ से आई। कुछ दार्शनिक चट कहने लगे कि वह गति 'अप्राकृतिक शक्ति' या 'दैवी प्रेरणा' से उत्पन्न हुई।
मेरी समझ में इस प्रकार की शंका सर्वथा निर्मूल है। जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ गति और संवेदन परमतत्व या मूल प्रकृति के गुण हैं। इस बात का प्रमाण द्रव्य और गति की अक्षरता के नियम से तथा भौतिकविज्ञान की परीक्षाओं और आधुनिक ज्योतिष के बेधों से बराबर मिलता है। प्रकाश की किरनों की जो वैज्ञानिक परीक्षा की जाती है उससे पता लग जाता है कि वे किरनें कितनी दूर से आ रही हैं और किस प्रकार के द्रव्यों से आ रही हैं। इस प्रकार की परीक्षा से यह सिद्ध हो चुका है कि अनन्त अन्तरिक्ष में जो करोड़ों पिंड नक्षत्रा, ग्रह, उपग्रह, उल्का, इत्यादि के रूप में हैं वे उन्हीं द्रव्यों से बने हैं, जिन द्रव्यों से हमारी पृथ्वी और सूर्य आदि बने हैं तथा वे विकास की भिन्न भिन्न अवस्थाओं में हैं, अर्थात कोई बन रहे हैं, कोई बिगड़ रहे हैं। किरणविश्लेषण यत्रों के सहारे ऐसे ऐसे नक्षत्रों की दूरी और गति आदि का पता लगा है जिनके विषय में दूरबीन कुछ भी नहीं बतला सकते थे। इसके अतिरिक्त दूरबीन के साथ फोटोग्राफी का जो संयोग हुआ उसके द्वारा ऐसी बातों का पता लगा जिनका 50 वर्ष पहले स्वप्न में भी किसी को ध्यान नहीं था। केतुओं अर्थात पुच्छल तारों, उल्काओं, तारकपुंजों और ज्योतिष्क नीहारिकाओं का जो सूक्ष्म अन्वीक्षण किया गया उसके द्वारा उन असंख्य छोटे छोटे पिंडों का महत्त्व प्रकट हुआ जो नक्षत्रों के बीच के अन्तर स्थानों में भरे पड़े हैं।
पहले लोगों का ख्याल था कि अन्तरिक्ष में घूमनेवाले पिंडों के मार्ग बिलकुल बँधे हुए हैं, उनमें कुछ भी फेरफार नहीं होता, पर अब यह मालूम हो गया है कि उनके मार्गों में भी फेरफार पड़ता रहता है। वे एक ही लीक पर बिना कुछ ईधर उधर हुए बराबर नहीं घूमते रहते हैं। किरणविश्लेषण तथा विद्युतक्रिया और ईथर के निरूपण आदि भौतिक विज्ञान के अंगों का योग पाकर ईधर ज्योतिष विद्या ने बहुत ही पूर्णता प्राप्त की है। द्रव्य और गतिशक्ति की अक्षरता सम्बन्धी जो परमतत्व का नियम निरूपित हुआ उसके द्वारा आधुनिक विज्ञान में बड़ी भारी सिद्धि प्राप्त हुई। अब हमारी ज्ञानदृष्टि इस सौर जगत् के भी बहुत आगे लोक लोकान्तरों तक पहुँची है और हमने सर्वत्रा इसी नियम को पाया है। अब हम कह सकते हैं कि यह नियम सर्वदेशव्यापी है। इसी प्रकार हमें यह भी मानना पड़ता है कि द्रव्य और शक्ति की अक्षरता का यह नियम सर्वकाल व्यापी है अर्थात नित्य है। जिस प्रकार समस्त विश्व आज इसके अधीन है उसी प्रकार सदा से रहा है और सदा होगा।
आधुनिक विज्ञान और ज्योतिष के सहारे विश्व के विधान और विकास के सम्बन्ध में जो तत्व निरूपित हुए हैं वे संक्षेप में ये हैं-
1. जगत् या विश्व का विस्तार अनन्त है। वह कहीं शून्य नहीं है, सर्वत्रा द्रव्यमय है।
2. जगत् शाश्वत और नित्य है, वह सदा से है और सदा रहेगा। उसका न कहीं आदि है, न अन्त।
3. परमतत्व सतत गतिशील और परिणामी है। वह सदा गति में रहता है और उसका बराबर रूपान्तर या अवस्थान्तर होता रहता है। जगत् में कहीं पूर्ण शान्ति या अचलता नहीं है। पर इस गति के होते हुए भी जगत् में द्रव्य और सतत परिणामशील गति की जो मात्र है वह सदा वही रहती है।
4. मूलप्रकृति या परमतत्व की जो नित्य गति है वही लोकों के विकास में कल्प का रूपधारणा करती है। जिसके भीतर लोकों का विकास और लय होता रहता है। कल्पों का यह विधान अनन्त विश्व में अलग अलग बराबर चलता रहता है। दिक् के जिस भाग में विकास कल्प का आंरभ रहता है वहाँ लोकों की उत्पत्ति होती है और जिस भाग में उसका अन्त होता है वहाँ लोकों का लय होता है। यह क्रम बराबर साथ ही साथ चलता रहता है।
5. विकास कल्प का आंरभ इस प्रकार होता है कि कल्पान्त के पीछे जब मूलप्रकृति अल्पकाल के लिए साम्यावस्था में आ जाती है तब फिर से उसके घनत्व में भेद पड़ता है और स्थूल द्रव्य तथा आकाश द्रव्य अर्थात ईथर इन दो रूपों में आदि विभाग होता है।
6. यह विभाग द्रव्य के उत्तरोत्तर जमने से होता है जिनके कारण जमाव के अनन्त केन्द्र बन जाते हैं। केन्द्ररूप परमाणुओं में प्रवृत्ति और संवेदन परमतत्व के ये ही दो मूल गुण होते हैं जो विविध व्यापारों के कारणस्वरूप हैं।
7. जब दिक् के एक भाग में जमाव के द्वारा इस प्रकार क्रमश: छोटे से बड़े पिंडों का विधान होता है और आकाशद्रव्य का तनाव बढ़ता है तब दूसरे भाग में इसी का उलटा होता है अर्थात बड़े बड़े लोकपिंड एक दूसरे से टकरा कर नष्ट हो जाते हैं।
8. वेग के साथ भ्रमण करते हुए लोकपिंडों के टकराने से प्रचुर परिणाम में जो ताप उत्पन्न होता है, वही व्यक्त गतिशक्ति होकर फैली हुई ज्योतिष्क नीहारिका को अमित वेग से घुमाता है और नए घूमते हुए ज्योतिष्क पिंडों का विधान करता है। इस प्रकार लोक विधान का क्रम फिर से जारी होता है। इसी प्रकार हमारी यह पृथ्वी भी, जो न जाने कितने अरब वर्ष पहले इसी प्रकार बनी थी, अन्त में ठंढी और निर्जीव हो जायगी और अपने घूमने की कक्षा को क्रमश: छोटी करती हुई अर्थात सूर्य से जितनी दूरी पर वह घूमती है उससे क्रमश: और कम दूरी पर घूमती हुई सूर्य में जा गिरेगी।
आधुनिक विज्ञान और ज्योतिष के द्वारा निर्धारित ऊपर लिखी बातों से विकास सिद्धांत के व्यापकत्व का पूरा बोध हो जाता है। विश्व विधान सम्बन्धी इन बातों पर विस्तृत दृष्टि रखकर यदि हम अपनी पृथ्वी को देखें तो वह रन्धा्रगत प्रकाश में दिखाई पड़ते हुए त्रासरेणु के तुल्य भी नहीं ठहरती। ऐसे ऐसे असंख्य लोकपिंड अणुओं के रूप में अपार दिक् समुद्र में भ्रमण कर रहे हैं। मनुष्य जो मोह में पड़कर अपने को ईश्वरतुल्य कहता है, इस दृष्टि से एक क्षुद्र जरायुज जंतु के अतिरिक्त और कुछ नहीं ठहरता। अनन्त विश्व विधान में उसका महत्त्व और उपयोग चींटी, जलकीटाणु आदि से अधिक नहीं दिखाई पड़ता। नित्य और अनन्त परमतत्व के विकास का मनुष्य जाति एक क्षणिक रूप या अवस्था मात्र है।
तत्वज्ञवर कांट ने दिक् और काल की व्याख्या करते हुए कहा कि ये दोनों चित् के स्वरूप या आभास मात्र हैं। दिक् वाह्याभास का स्वरूप है और काल अन्तराभास का1। ये हमारी अनुभूति या मन के ही दो रूप हैं जिनमें ढला हुआ सारा जगत्
1 पहले के कुछ दार्शनिक देश और काल को वाह्यपदार्थ मानते थे। विशेषिक में दिक् और काल नौ द्रव्यों में तो माने गए हैं पर समवायिकारण नहीं कहे गए हैं केवल असाधारण या निमित्त कारण कहे गए हैं। वे परत्व अपरत्व सम्बन्धी प्रत्यय अर्थात भाव या ज्ञान के कारण हैं। देश और काल दोनों विभु,
दिखाई पड़ता है। जगत् का चित्तानिरपेक्ष वास्तव रूप क्या है यह मनुष्य कभी नहीं जान सकता। कांट के इस कथन को लेकर अनेक प्रकार की निराधार दार्शनिक कल्पनाएँ चल पड़ीं जिनसे जगत् की सत्ता तक में सन्देह किया गया। कल्पनाप्रधान दार्शनिकों को यह कहने का मौका मिल गया कि वास्तव ज्ञान निराधार चिन्तन या भावनाओं को लेकर ही हो सकता है, निरीक्षण या परीक्षा की कोई आवश्यकता नहीं। यह बात कांट के अभिप्राय को न समझने के कारण हुई। कांट का उक्त कथन प्रमातृपक्ष के सम्बन्ध में था प्रमेय पक्ष के सम्बन्ध में नहीं। उसका मतलब यह था कि देश और काल को जिस रूप में मन ग्रहण करता है वह मन ही का रूप है। कांट ने स्पष्ट कहा है कि 'देश और काल की विषयसत्ता है पर उसकी भावना दृश्य जगत् से अतीत है।' कांट का यह निरूपण हमारे आधुनिक तत्तवाद्वैतवाद के सर्वथा अनुकूल है। पर उसके सिद्धांत का एक अंग लेकर जो विस्तार एकांगदर्शी दार्शनिकों ने किया है वह सर्वथा असंगत है। बक्र्ले ने यह सिद्धांत प्रकट किया था कि 'पिंड प्रत्यय या भावना मात्र हैं; उनकी सत्ता उनके बोध में ही है।' इस सिद्धांत को इस रूप में कहें तो ठीक हो- 'पिंड हमारे चित्ता के लिए प्रत्यय या भावना मात्र हैं। उनकी सत्ता उसी प्रकार वास्तविक है जिस प्रकार हमारे अन्त:करण की, जो पिंडों को विषयरूप से ग्रहण करता है।' देश और काल की सत्ता को अस्वीकार करना कोई आश्चर्य की बात नहीं है जब कि स्वप्न, सन्निपात, उन्माद आदि में लोग अपनी ऊटपटाँग कल्पनाओं को ही ठीक समझते हैं। डेकार्ट का प्रत्यक्ष ज्ञान के विरुद्ध यह कहना कि 'मैं सोचता हूँ इसलिए मैं हूँ' अब माना नहीं जा सकता। 1' परमतत्व के नियम और जगदुत्पत्ति के विधान की अद्वैत व्याख्या हो जाने से आधुनिक दर्शन की पहुँच
सर्वव्यापी और परम महान् हैं। यद्यपि दिक् एक है और काल भी एक ही है पर उपाधि भेद से संख्या, परिणाम, पृथकत्व, संयोग और विभाग ये गुण उनमें आरोपित किए जाते हैं। काल और दिक् में मुख्य भेद यह है कि कालिक सम्बन्ध स्थिर रहता है और दैशिक सम्बन्ध बदलता रहता है। काल में जो आगे और पीछे होता है वह सदा ज्यों का त्यों रहता है, जो पहले हो गया वह सदा पहले ही रहेगा जो पीछे हुआ वह सदा पीछे ही रहेगा। दो भाइयों में जो बड़ा होगा वह सदा बड़ा ही रहेगा और जो छोटा होगा वह छोटा ही रहेगा पर देश में जो एक बार आगे है वह पीछे हो सकता है और जो पीछे है वह आगे हो सकता है।
आजकल के मनोविज्ञानवेत्ता भी देश की भावना को नेत्रोन्द्रियगत संवेदन और पेशीगत गतिसंवेदन के योग से उत्पन्न मानते हैं।
1 डेकार्ट न कहा था कि प्रत्यक्ष ज्ञान में मतभेद देखा जाता है, अत: वाह्यवस्तुमात्र भ्रम हो सकती है यह संशय रहता है। पर यदि यह निश्चित हुआ कि मुझे संशय है तो यह भी निश्चित है कि मैं सोचता हूँ। पर जो वस्तु है वही कुछ कर सकती है। इसलिए यदि मैं विचार करता हूँ तो मैं अवश्य हूँ। 'मैं हूँ' यही एक निश्चय ऐसा है जिसमें कभी किसी प्रकार का भेद नहीं पड़ सकता। चेतना में 'आत्मबोध' अर्थात अपने होने का निश्चय सदा एक रहता है यदि भेद पड़ता है तो उस क्रियाविशेष के बोध में जो विषय ग्रहण में वह आप करती है।
अब बहुत बढ़ गई। उसके अनुसार देश और काल की सत्ता अब पूर्णरूप से प्रतिपादित हो गई है। अब सौभाग्यवश 'शून्य देश' का भ्रम छूट गया है और सर्वदेशव्यापी द्रव्य का पिंड और आकाशद्रव्य दो रूपों में अस्तित्व सिद्ध हो गया है। इसी प्रकार सर्वकालव्यापी व्यापार नित्य गति या शक्ति के रूप में सिद्ध हो गया है जिसकी अभिव्यक्ति नित्यगतिशील जगत् के ब्रह्मांडों के विकासक्रम के रूप में होती रहती है।
कोई पिंड यदि चल दिया जाये तो तब तक बराबर चलता रहता है जब तक कि उसे बाहरी अवरोध नहीं मिलता। पर बाहरी अवरोध अवश्य मिलता है और उसकी गति धीरे धीरे मन्द हो जाती है। एक लटकता हुआ लंगर यदि हिला दिया जाय तो बराबर एक चाल से अनन्तकाल तक चलता रहे, यदि चारों तरफ फैली हुई वायु का अवरोध न हो और जिस जगह वह लटका है वहाँ रगड़ न लगे। इस अवरोध और रगड़ के कारण लंगर में हिलने की जो व्यक्त गतिशक्ति होती है वह ताप के रूप में होकर निकल जाती है। हमें उस लंगर को फिर चलाने के लिए कमानी आदि के द्वारा फिर से गतिशक्ति पहुँचानी पड़ती है। अस्तु हम ऐसी कोई कल नहीं बना सकते जो आप से आप यह गतिशक्ति पहुँचाती रहे और बराबर चलती रहे; ऐसी कल बनाना असम्भव है जो अनन्त काल तक चलती रहे कभी बन्द न हो1A
पर विश्व या जगत् की गति ऐसी नहीं है, यह नित्य है। विश्व अपार और अनन्त है। जिस अनन्त द्रव्य से वह व्याप्त है उसकी भावना या प्रत्यय को ही हम 'देश' या 'दिक्' कहते हैं। उसकी नित्य गति की जो भावना हमारे चित्ता में होती है उसे हम 'काल' कहते हैं। इस नित्यगति की विषय रूप में जो अभिव्यक्ति होती है वही विकासकल्प है। अनुभूति के ये दोनों रूप- स्वानुभूति अर्थात चित्ता को अपने ही संस्कार या भावना का अनुभव और वाह्यानुभूति अर्थात वाह्य विषय रूप में अनुभव, जगत् की अनन्तता और नित्यता का आभास देते हैं। यह जगत् सदा से चलती हुई और सदा चलती रहनेवाली कल है। इस अनन्त और नित्य क्रियावान् जगद्रूप यत्रों की नित्य गति बनी रहती है क्योंकि उसमें अवरोध से होनेवाली कमी की पूर्ति गतिशक्ति की अक्षय समष्टि से हो जाती है और विश्व मं व्यक्त और अव्यक्त गतिशक्ति का अनन्त योग सदा वही रहता है। गतिशक्ति की अक्षरता का जो नियम है उससे जिस प्रकार समष्टि विश्व की नित्यगतिशक्ति सिद्ध होती है उसी प्रकार उसके किसी खंड व्यापार की नित्यगति असम्भव भी सिद्ध होती है। यह नित्यगति समष्टि के सम्बन्ध में कही जा सकती है, किसी खंड या व्यष्टि के सम्बन्ध में नहीं। अस्तु शक्तिलय
1 रेडियम की सहायता से अब ऐसी कल बनाई जा सकती है जो कई सौ वर्ष तक बराबर आपसे आप चलती है। कुछ घड़ियाँ ऐसी बनाई भी गई हैं। रेडियम एक ऐसा द्रव्य है जिसे हम ज्योति:स्वरूप या गतिशक्तिरूप कहें तो विशेष अत्युक्ति नहीं।
का सिद्धांत, जिसके द्वारा समस्त जगत् या विश्व का प्रलय कुछ वैज्ञानिकों ने कहा, कभी माना नहीं जा सकता।
भौतिक विज्ञान में तापसम्बन्धी सिद्धांत के प्रवर्तक क्लाशियस सन् 1850 ने विश्वव्यापिनी गतिशक्ति को दो प्रकार की बतलाया-एक तो वह जो कार्य रूप में परिणत हो जाती है, जैसे ऊँचे परिमाण का ताप जिससे भौतिक पिंड विधान तथा विद्युत् और रासायनिक व्यापार होते हैं और दूसरी वह जो कार्य रूप में परिणत नहीं हो सकती। क्लाशियस के अनुसार यह दूसरे प्रकार की गतिशक्ति वह है जो एक बार ताप के रूप में होकर ठंढे पदार्थों में मिल जाती है। यह गतिशक्ति सब दिन के लिए लय प्राप्त हो जाती है, फिर इससे जगत् का कोई कार्य नहीं हो सकता। इसी को क्लाशियस ने शक्तिलय कहा है। यह शक्तिलय बराबर बढ़ता जाता है। इस प्रकार जगत् की जो विधायिनी और कार्यकारिणी गतिशक्ति है वह बराबर ताप के रूप में परिणत होकर लय को प्राप्त होती जाती है और फिर कार्यकारिणी गतिशक्ति के रूप में परिणत नहीं हो सकती। अत: जगत् में ताप का जो मात्र भेद है वह न रह जायेगा। ताप बिलकुल अन्तर्लीन होकर एक अखिल और अचल द्रव्य में समान रूप से व्याप्त हो जायेगा। इस साम्यावस्था के कारण जगत् की सब प्रकार की गति बन्द हो जायेगी, जीवजंतु कुछ भी न रह जायेगे। शक्तिलय के इस प्रकार परमावस्था को पहुँचने पर महाप्रलय या समस्त विश्व का अन्त हो जायेगा।
शक्तिलय का यह सिद्धांत यदि ठीक माना जाय तो जिस प्रकार जगत् का अन्त होगा उसी प्रकार उसका आदि भी मानना ही पड़ेगा, जिसमें शक्तिलय आरम्भावस्था में होगा और ताप का मात्रभेद अपनी पूरी हद पर रहेगा। पर ये दोनों बातें द्रव्य और शक्ति की अक्षरता के सिद्धांत के विरुद्ध हैं। जगत् का न कोई आदि है, न अन्त। समष्टि रूप में विश्व या जगत् शाश्वत और नित्य गतिवान् है। उसमें व्यक्त गतिशक्ति निहित और निहित गतिशक्ति व्यक्त के रूप में बराबर परिणत होती रहती है। दोनों शक्तियों का योग विश्व में सदा वही रहता है।
शक्तिलय की बात विश्व में खंडव्यापारों के सम्बन्ध में ही कही जा सकती है, विश्वसमष्टि के सम्बन्ध में नहीं। अलग अलग जो विधान होते हैं उनमें अलबत ऐसा होता है कि जो शक्ति ताप के रूप में अन्तर्लीन हो जाती है वह फिर क्रिया रूप में नहीं परिणत की जा सकती; जैसे, एंजिन में ताप क्रिया रूप में तभी परिणत होता है जब वह गरम पदार्थ भाप से निकल कर ठंढे पदार्थ जल में जाता है। इस प्रकार गए हुए ताप को हम फिर क्रियारूप में नहीं ला सकते, उससे फिर काम नहीं ले सकते। पर अखिल विश्व विधान की व्यवस्था दूसरी है उसमें लयप्राप्त गतिशक्ति फिर कार्यरूप में परिणत होती है। जब लोकपिंड वेग से टकरा कर चूर चूर हो जाते हैं जब प्रचुर मात्र में ताप छूटता है जिससे भ्रमण करते हुए उल्कासमूहों की और उनसे लोकपिंडों की फिर से उत्पत्ति होती है। यह भवचक्र बराबर चलता ही रहता है।
2 पृथ्वी की उत्पत्ति
जिस पृथ्वी के निर्माण का संक्षिप्त वृत्तान्त मैं देना चाहता हूँ वह जगत् का एक अत्यंत क्षुद्र अंश है। पृथ्वी की उत्पत्ति आदि के सम्बन्ध में भी नाना प्रकार की कल्पनाएँ, अनेक प्रकार के प्रवाद बहुत दिनों से चले आते थे। इस विषय की वैज्ञानिक रीति से छानबीन सन् 1822 से आंरभ हुई। प्रत्यक्ष बातों के आधार पर पृथ्वी के क्रमश: वर्तमान रूप में आने के इतिहास का पता लगाया गया। उसकी अलग अलग तहों की परीक्षा की गई और उनके निर्माण के कारण और काल आदि निश्चित किए गए। इस प्रकार भूगर्भशास्त्र की नींव पड़ी।
सूर्य से ग्रहपिंडों के निकल निकल कर अलग होने के पहले एक बड़ा भारी गोल ज्योतिष्कनीहारिका पिंड था जो चक्र के समान अत्यंत वेग से घूमता था। जब यह पिंड क्रमश: जमने लगा तब केन्द्र रूप ज्वाला का एक घूमता गोला मध्य में हो गया और किनारे उसी प्रकार घूमते हुए ज्वलंत नीहारिकारूप कटिबन्धा या छल्ले रह गए। ये छल्ले भी क्रमश: जम कर घने पिंड के रूप में हो गए और स्वतन्त्र रूप से अपने अपने अक्षों पर फिरते हुए उस मध्यवर्ती ज्वलंत गोले के चारों ओर परिक्रमा करने लगे। मध्यवर्ती ज्वलंत गोला हमारा सूर्य है और उसकी परिक्रमा करते हुए पिंड ग्रह हैं। इन्हीं ग्रहों में से हमारी यह पृथ्वी है। पहले यह भी ज्वलंत गोले के रूप में थी पीछे ताप के निकलने से ऊपरी तह ठंढी होकर पतले ठोस छिलके या पपड़ी के रूप में हो गई। भूतल जब कुछ और ठंढा पड़ा तब वह भाप जो उसे चारों ओर से आच्छादित किए थी, जमकर जल के रूप में हो गई। इस प्रकार पृथ्वी पर जल का आविर्भाव हुआ जो आगे चलकर जीवोत्पत्ति का आधार हुआ। जल ही में जीवों की उत्पत्ति हुई। जल के बिना जीवों की उत्पत्ति नहीं हो सकती। भूतल पर जल का प्रादुर्भाव सोचिए तो कब हुआ होगा। कम से कम दस करोड़ वर्ष हुए होंगे।
3 जीव की उत्पत्ति
इस भूलोक में जीवों का प्रादुर्भाव विकास कल्प की तीसरी अवस्था है। किस प्रकार पृथ्वी पर भिन्न भिन्न रूप के जीव हुए यह एक बड़ा दुरूह प्रश्न समझा जाता था। इसका ठीक उत्तर आज से 100 वर्ष पहले कहीं से नहीं मिलता था। पर आधुनिक जीवविज्ञान और जात्यन्तरपरिणाम या रूपान्तर परम्परा के सिद्धांत द्वारा इस प्रश्न का उत्तर अब सहज हो गया। जीवधारियों के बहुत से व्यापारों की व्याख्या अब भौतिक नियमों के अनुसार हो गई है। यह दिखला दिया गया है कि चेतन प्राणियों
1 जल का एक नाम जीवन भी है।
की गतिविधि भी उन्हीं नियमों के अनुसार होती है जिन नियमों के अनुसार जड़ पदार्थों की। इसका मार्ग पहले पहल 1809 में फ्रांसीसी वैज्ञानिक लामार्क ने दिखलाया। उसने बतलाया कि आजकल जो असंख्य प्रकार के पेड़ पौधो और जीव दिखाई पड़ते हैं वे सब एक मूलरूप से क्रमश: रूपान्तरित होते हुए अपने वर्तमान रूपों को प्राप्त हुए हैं। यह रूपान्तर स्थिति परिवर्तन के अनुसार होता आया है। जीवोत्पत्ति के सिद्धांत में जो कुछ कसर थी वह डारविन ने अपने प्राकृतिक ग्रहण सिद्धांत द्वारा पूरी कर दी। यह विषय पाँचवें प्रकरण में आ चुका है इससे यहाँ दोहराने की आवश्यकता नहीं।
4 मनुष्य की उत्पत्ति
विकास कल्प की चौथी अवस्था वह है जिसमें मनुष्य का प्रादुर्भाव हुआ। सन् 1809 मंच ही लामार्क ने इस बात का आभास दिया था कि मनुष्य का विकास प्राकृतिक विधान परम्परा के अनुसार बनमानुसों से ही मानना पड़ता है। इसके पीछे हक्सले ने इस सिद्धांत का समर्थन अंगविच्छेद शास्त्र, गर्भविज्ञान और भूगर्भस्थ पंजरपरीक्षा द्वारा किया। अन्त में डारविन ने सन् 1860 में अपने 'मनुष्य की उत्पत्ति' नामक ग्रंथ में इसे अनेक प्रकार से सिद्ध कर दिखाया। मैंने भी 1866 में विविध जंतुओं के अंग विधान पर जो पुस्तक लिखी थी उसमें विकास सिद्धांत पर एक प्रकरण दिया था। सन् 1874 में अपने मानवोत्पत्ति नामक ग्रंथ में मैंने पहले पहल मूल अर्थात एक घटक अणुजीव मोनरा से लेकर मनुष्यपर्यन्त उत्पत्तिपरम्परा का क्रम मिलाया। मैंने दिखलाया कि किस प्रकार एक मूल अणुजीव से अनेक प्रकार के जीव क्रमश: उत्पन्न होते गए हैं और मनुष्य का भी इसी परम्परा के अनुसार विकास हुआ है। अस्तु, मनुष्य का भी सबसे आदिम मूल पूर्वज मोनरा के ऐसा कोई सूक्ष्म अणुजीव रहा होगा।