तेरा जाना / एक्वेरियम / ममता व्यास
छोड़ देना और छूट जाने के बीच कितना जीवन हम जी लेते हैं या कहूँ बांट लेते हैं, काट लेते हैं। लोभ की झोली, लालच का कमंडल जैसे-तैसे छूट ही जाता है, नहीं छोड़ पाते हैं तो बस यात्रा के दौरान मिले सुख और दु: ख के अहसास...वो अंतिम समय तक पीछा करते हैं।
नदी, किनारे को तोड़ दे अगर तो उसे दुनिया नदी मानने से ही इनकार कर दे। कोई नहीं जाए पूजने उसे। उसे भी भाते हैं घाट पर रखे गए फूल और अक्षत इसलिए वह बहती है किनारों के बीच अनवरत।
जैसे पक्षियों की डोर आसमान से बंधी है और सांसों की डोर प्रियतम से...आजाद दिखते ज़रूर हैं ये। लेकिन बंधन में हैं ये भी, कुछ भी तो नहीं अपना, सब उधारी का ही है। तो कोई क्या ले के जाएगा? कर्ज लेके जाने से बेहतर है सब चुका दिया जाए.
सांसें यहीं लौटानी होंगी, मन भी, इच्छाएँ भी और आखिरी पेड़ पर बांध देने होंगे अहसास के धागे, ताकि जब कभी लौटें किसी जन्म में तो पेड़ गवाही दे सके.
कि सुनो...वो सब यही छोड़ गया, वह अकेले ही गया, हाँ सच में अकेले ही तो गया...क्या सच में वह अकेले गया?
(मायामृग को पढ़ते हुए)