तेरा मुझसे है पहले का नाता कोई / ममता व्यास
समन्दरों के किनारों पर आती-जाती लहरों के साथ इतनी रेत क्यों आ जाती है माँ? देखो ना, कितनी बुरी तरह चिपक गयी मेरे पैरों से। अब ये कैसे हटेगी? मैंने कहा, थोड़ी देर रुको, अभी बहुत-सी लहरे इन्हें खोजती हुई आयेगीं। और इन्हें अपने साथ ले जाएगी। अगले ही पल, शोर मचाती लहरों ने आकर किनारों को भिगो दिया और रेत को बहा ले गयी।
मैं सोचने लगी कि इन सागर की बूंदों का क्या रिश्ता है रेत के साथ। एक ठोस तो दूजी तरल। कब से साथ है दोनों? कौन जाने कहाँ-कहाँ से बहकर आई हैं। प्रेम की नदियाँ कितनी सदियों से अपने प्रियतम पहाड़ों को मना रही हैं लेकिन ये पहाड़ कैसे जस के तस है। निष्ठुर, बेखबर, कठोर प्रेमी की तरह। जितनी बार भी लहरें इन पहाड़ों से टकराती है उतनी ही बार कुछ रेत के कण अपने साथ ले जाती हैं। कितनी बूंदों के बदले कितनी रेत लाती है कौन जाने? क्या-क्या दे जाती है; क्या-क्या ले आती हैं; कौन हिसाब करे? पहाडों को छू-छू कर रेत-रेत कर देती हैं। खुद सिमट कर बूंद-बूंद हो जाती है। कितनी सदियों का हिसाब है इनके भीतर। कौन-सा रेत का कण किस बूंद से जुड़ा है कौन जाने? और कौन-सी बूंद उस कण को किस देश ले जाएगी ये भी पता नहीं । क्या पहाड़ों को कभी नदियों की याद आती है? कैसे आएगी? एक दिन पहाड़ ने कहा, तुम मेरे भीतर ही तो बहती हो। फिर कैसी याद? नदी बोली, तुम अपनी जगह से कभी हिलते नहीं। अपने गुरुर में अकड़े से क्यों रहते हो? मेरे भीतर भी तो तुम्हारे कण हैं, मैं फिर बार-बार क्यों चली आती हूँ? मैं भी अगर एक जगह ठहर जाऊं तो? पहाड़ मुस्काये और नदी रूठ कर चल दी। फिर एक बार पहाड़ से कुछ रेत झड़ गयी। नदी के संग बह गई और एक बार फिर से वो पहाड़, वो चट्टान, थोड़ी और कमज़ोर हो गई। जितनी बार नदी आती उतनी बार चट्टान थरथराती। नदी मुस्काती... क्यों नहीं बह जाते मेरे साथ?... एक दिन हर चट्टान डूब जानी है मेरे भीतर। रेत और बूंद का नाता, पहाड़ों और नदियों जितना ही पुराना है।
किस दिन सागर की तलहटी में चुपके-से किस सीप के हृदय में कौन-सी रेत समा जाएगी और अनमोल मोती बन कर चमक जाएगी कौन जाने? रेत का हर कण अपनी-अपनी सीप खोजता होगा, जो उसे सुन्दर मोती बना दे। कितने ही रेत के कण सदियों से सीप की तलाश में टूट गए होंगे, बिखर गए होंगे। ये रेत के कण कैसे बनते हैं? और इनका समन्दर से, बूंदों से, क्या नाता है?
सुना है, कहीं दूर रेगिस्तानों में रेत की नदियाँ बहती हैं। रेत के झरने बहते हैं। बवंडर उठते हैं, रेत के तूफ़ान क़यामत ढाते हैं। क्यों रेत की फितरत बूंदों की तरह है? बूंदें भी तो तूफ़ान उठा देती है। बूंद में समन्दर समाया है या समन्दर में बूंद? उसी तरह रेत में रेगिस्तान समाया है या रेगिस्तान में रेत का कण? कौन जाने?
इन बूंदों ने ना जाने प्रेम के कितने टाइटैनिक डूबा दिए और इन रेत के बवंडरों ने ना जाने कितने काफिलों को निगल लिया। कितनों को रास्ता भुला दिया। कौन जाने...
कहीं ये दोनों एक तो नहीं है। दोनों ही चमकती हैं। दोनों साथ रहती है। दूर-दूर बसने पर भी इनका प्रेम कम नहीं होता। अब देखो ना जलता, चुभता रेगिस्तान अपने दिल में कैसे मीठे पानी का मरूद्यान समेटे है। उसी तरह खारा समन्दर भी अपने दिल की अतल गहराई में रेत को समेटे है। सदियों से लोग मृग को दीवाना बताते आए हैं कि वो रेत के कणों को पानी समझ कर उसके पीछे भागता है और एक़ दिन प्यासा ही मर जाता है। यह बात ग़लत है, मृग दीवाना नहीं सयाना है। उसके पास दृष्टि है। वो जब देखता है कि रेत का हर कण बूंदों की तरह क्यों दिख रहा है। चुभती जलती रेत, तड़प के बूंद-सी क्यों दिखने लगी। प्रेम की ऐसी पराकाष्टा देख वो हैरानी से मर जाता होगा।
क्या नाता है दोनों का? कहीं ये दोनों एक ही ग्रह से तो नहीं आईं? प्रेम की देवी के आँसू जब उनके सुन्दर गालों से लुढ़क कर धरती पर गिरे होंगे तो दुख से रेत बन गए होंगे। और जो आँसू किसी के कोमल हाथों ने थाम लिए होंगे, वे भाप बनकर उड़ गए होंगे और बरसे होंगे बूंदे बन कर; और इस तरह रेत के कण और बूंद आपस में मिल गए होंगे। आंखों की झील में रहे या समन्दर की गहराई में, प्रेम कभी नहीं मरता। आँसू बनकर गिरता है, भाप बन कर उड़ता है, रेत बनकर खामोश हो जाता है, तो बूंद की शक्ल में लहरों का रूप लेकर चंचल हो उठता है।
ना जाने कितनी पीड़ाएँ दुख से रेत बन कर खामोश हो गईं या कितनी बूंदों के रूप में चंचल हो गईं। कौन करे हिसाब... इस धरती पर रेत के कण ज्यादा है या बूंदे? रोज़ रात के स्याह अंधेरों में, कितनी बूंदें कठोर रेत बन गईं, या प्रेम का स्पर्श पाकर कितने रेत के कण तरल हो बूंद बन कर बहने लगे; कौन जाने?
एक दिन एक बूंद ने रेत के कण से कहा, बोलो क्या तुम मेरे बिना पूर्ण हो? रेत बोली ज्ञानी कहते हैं कि हम सभी पूर्ण हैं लेकिन तुम बिन मुझे सब कुछ अपूर्ण क्यों लगता है? मैं जहाँ जाती हूँ तुम्हे खोज लेती हूँ। बूंद कह उठी, ना... तुम बिन मैं कैसे पूर्ण हो सकती हूँ। हम एक जैसी ही है। तुझसे कैसा अपनापा है मेरा! अपने दुख को हमने अपनी चमक बनाया है। तुम मुझे इसी लिए लुभाती हो। हम अपनी-अपनी पीड़ाओं को खुद में समेटे हुए हैं। कितनी भी दूरियाँ हों हम मिल ही जाते हैं कहीं ना कहीं। क्या तुम्हारें आँसुओं का खारापन मेरे खरेपन से ज्यादा है? बोलो न? कौन जाने.... किसके आँसू कितने खारे? हम दोनों कैसे जाने कि किसके आँसुओं में नमक ज्यादा है? इस बार रेत के कण को बूंद ने अपने हाथों में प्यार से थाम लिया और बूंद की आंखों से आँसू टपकने लगे। टप-टप-टप... जैसे जेल तोड़ के बहुत से कैदी भाग रहे हों। रेत के होठों पर, बूंदों का खारापन चिपक गया था। बूंद के खारेपन को चखने के बाद रेत बोली, बहुत पीड़ा है तुम्हारे भीतर... बड़ी मासूमियत से बूंद बोल पड़ी, मैंने भी तो तुम्हे छुआ है तुम्हारा खारापन मेरे खारेपन से ज्यादा बड़ा है। तुम्हारा खरापन, ही मुझे लुभाता है। तेरा मुझसे है पहले का नाता कोई...