तेरी गड्डी दी आस / देवेंद्र
आठ दिन बाद दशहरे का मेला है। सुबह उठकर बसंती ने उँगली पर गिना - पूरे आठ दिन बाद। कलवती को जागने के लिए बोली और बाल्टी लेकर कुएँ पर पानी लाने चली गई। कलवती ने कुनमुना कर करवट बदली और फिर सो गई। बर्तन माँज कर लौटती हुई बसंती ने देखा कि दिन चढ़ता आ रहा है। भीतर बँधी बकरियाँ मिमियाने लगी थीं। उसने दुबारा लड़की को सोए हुए देखा तो भद्दी सी गाली दी और बाल खींचकर चारपाई पर से उतार दिया। जब इस पर भी आँख पूरी तरह नहीं खुली तो तड़ातड़ दो चाँटे जड़ दिए। कलवती आँख मलती, गाली देती, रोती बाहर चली गई। बसंती ने दुलरा को भी जगाया और हाथ-मुँह धोकर उसे रात की बची हुई रोटी और गुड़ थमा दिया।
महीने भर पहले आदमी ने कलकत्ते से चिट्ठी भेजी थी कि दशहरे से आठ दिन पहले आएगा। पूरे तीन साल बाद। उसने चिट्ठी में यह भी लिखा था कि पैसे की कमी नहीं है। लड़के से काम मत कराना और स्कूल पढ़ने के लिए जरूर भेजती रहना। चिट्ठी पढ़वा कर लौटती हुई बसंती ने पड़ोसी देवर रामसुख को बताया कि “कलकत्ते जाकर फैशन बढ़ गया है। अब लड़का स्कूल में पढ़ेगा।” वह हँस रही थी। उसने यह भी बताया कि “तुम्हारे भैया दशहरे से आठ दिन पहले दीवाली तक के लिए आएँगे।” लड़के को पीने के लिए पानी दिया और बताया कि बढ़िया से हाथ-मुँह धो ले। उसने एक बार फिर उँगली पर गिना... आठ दिन बाद दशहरा।
लेकिन कल रामसुख की माँ आई थी। कलकत्ते की बात चलने पर उसने बताया कि “कलकत्ते का दशहरा यहाँ की तरह नहीं होता। यहाँ से कभी एक दिन आगे पड़ता है और कभी एक दिन पीछे भी।”
बसंती को विश्वास नहीं हुआ। मुलुक भर में दशहरा तो एक ही दिन होता है फिर आगे-पीछे कैसे होगा?
पद्माकर पांडे भी कल चिट्ठी बाँटने आए थे। उन्होंने भी यही बताया था कि जगह-जगह पर “पत्रा” बदल जाने से ऐसा होता है। लेकिन स्कूल वाला सरकारी दशहरा हर जगह एक ही दिन होता है।
बसंती ने लड़की को भी बुलाकर रोटियाँ दीं और बताया कि खाने के बाद बकरियों को लेकर सिवान की ओर चली जाना। घर में से खोजकर पटरी और खड़िया ले आई। दुलरा स्कूल न जाने के लिए दिक कर रहा था। बसंती ने उसके चूतड़ पर पटरी दे मारी और झुँझला कर गाली देने लगी। “बाप को तो फैशन बढ़ा है और पूत गोली गुप्पी खेलेंगे।” बाँह पकड़ घसीट ले चली। दुलरा जोर-जोर से रोता हुआ पीछे-पीछे घिसटता रहा।
गाँव का स्कूल था और गाँव के मास्टर। पहले बारहों महीने बंद रहता था। जबसे गंगा-पार वाले पंडित जी आए हैं तब से खुलने लगा है। पंडित जी रात को स्कूल में ही खाना बनाते और सोते हैं। इस समय हाथ में बाँस की सिटकुन थामे सुबह-सुबह लड़कों से धूल साफ करवा रहे थे। बसंती ने दुलरा को वहीं छोड़ दिया और पंडित जी के पास जाकर पूछा “पंडित जी आप दशहरे की छुट्टी में घर तो जाएँगे?”
पंडित जी ने पूछा - “क्यों? तुम्हें क्या काम है?”
- “बस ऐसे ही पूछ रही थी कि दशहरा कब है?”
- “आठ दिन बाद है।” पंडित जी ने बताया।
बसंती ने दुबारा पूछा - “कलकत्ते में भी आठ दिन बाद है?”
पंडित जी ने कहा - “भीतर से बर्तन माँज ला तो बताऊँगा।”
बसंती बर्तन लेकर बगल वाले ट्यूबवेल पर चली गई। जब थोड़ी देर बाद लौटी तो लड़के टाट बिछाकर कतार में बैठ चुके थे। पंडित जी अँगौछे से कुर्सी साफ कर रहे थे। बसंती बर्तन रखने के लिए भीतर वाले कमरे में चली गई। पंडित जी भी धीरे-से उठे और भीतर वाले कमरे में चले गए। वे हँस रहे थे। बर्तन रखकर पीछे मुड़ती हुई बसंती ने जैसे ही देखा उसका खून खौल उठा, बोली - “पंडित होकर सरम नहीं आती। आधे दाँत झूल रहे हैं और खें-खें-खें हँस रहे हो।” वह गाली देती हुई बाहर निकल आई। पंडित जी ने जोर से कहा - “कलकत्ते में भी आठ दिन बाद है बसंती।”
बसंती ने कहा - “वहीं मरो?” और घर चली आई।
कलकत्ते वाली गाड़ी रात को आती है। गाँव में सारे कलकत्ते वाले उसी गाड़ी से आते हैं। बसंती ने सोचा, आज मालिक के खेत पर काम करने नहीं जाएगी।
अभी दोपहर होने में काफी देर है। बसंती ने घर की सफाई कर ली थी। चूल्हे के पास जाकर देखा, थोड़ा सा चावल, आटा और मटर की दाल है। उसने सोचा कि आज शाम को अरहर की दाल पकाएगी। बढ़िया चावल और सब्जी खरीदने की गरज से उसने रखी हुई पुरानी साड़ी के खूँट को खोला। कुल बारह रुपए और कुछ सिक्के थे। वह लेकर दुकान की ओर चली गई।
अभी बहुत देर थी। बसंती ने सोचा कि इतने समय तक घर पड़े रहने से क्या फायदा? तब तक तो मालिक के यहाँ काम करके कुछ पैसा उधार भी पा सकती है। वह दुकान का रास्ता छोड़कर खेत की ओर चल पड़ी। वहाँ धान की कटाई हो रही थी। मालिक एक बूढ़ा किसान था। धान के बड़े-बड़े बोझ बँधवा कर खुद मजूरिनों के सिर पर उठा रहा था। बसंती को देखकर उसने सुर्ती थूकी और जोर से चीख पड़ा - “दोपहर तक सोकर काम करने आई हो?” फिर उसे खलिहान को गोबर से लीपने का काम बताकर दूसरे खेतों की ओर चला गया।
गोबर लीपने से हाथ रात भर बदबू करता है। बसंती आज साफ-सुथरा काम करना चाहती थी, बोली - “मालिक आज से आठ दिन बाद दशहरा है। कलवती के दद्दा आने वाले हैं। गोबर लीपने में रात हो जाएगी। मुझे जल्दी जाना है। कोई दूसरा काम कर दूँ?”
मालिक बिगड़ गए - “जाँगरचोर कहीं की। काम नहीं करना था तो आई क्यों? कलकत्ते से आएगा तो भाग जाएगा क्या?”
बसंती ने कहा - “नहीं मालिक! काम करने ही तो आई हूँ, लेकिन यह काम आज दूसरों से करा लें। मैं बोझ ढो दे रही हूँ। कलवती भी बिना खाए पिए बकरी चराने चली गई है।” उसने लड़के के स्कूल जाने की बात नहीं बताई और बोली - “मुझे आज जल्दी जाना है।”
मालिक ने कहा - “जाकर ट्यूबवेल वाले घर में से फावड़ा ले ले और नहर वाले खेत की ओर चली जा। पानी जा रहा है, देखना बेकार बहे न।”
यह काम आसान भी था और साफ-सुथरा भी। बसंती फावड़ा लेकर नहर वाले खेत की ओर चली गई। पानी भरे खेत में इधर-उधर फावड़ा चलाते हुए उसका पैर देर तक भीगता रहा। साँझ ढलने लगी थी। थोड़ी राहत मिलने पर वह दूर से एक छोटा-सा पत्थर उठा लाई और नाली में पैर को धोते हुए पत्थर पर मलने लगी। पैर काफी देर से भीग रहा था। पत्थर की हल्की रगड़ पाकर मैल छूटने लगा। बसंती ने छूकर देखा, पैर एकदम चिकना और मुलायम हो गया है। फिर उसने थोड़ी देर तक हाथ को पानी में भिगोया और पत्थर लेकर बारी-बारी से दोनों बाँहों को रगड़ने लगी। उसने मुँह पर पानी का छींटा मारा। दाँतों को रगड़ कर साफ किया और बालों को भिगोकर उँगलियों से पीछे की ओर झाड़ने लगी।
कतार में उड़ते बगुलों का झुंड कहीं दूर अपने घोंसलों की ओर चला जा रहा था। गायों को गाँव की ओर हाँकते हुए दसरथ अहीर कंधे पर लाठी सँभाले, कानों में उँगली डाले, ऊँची आवाज में बिरहा टेर रहा था। बाजार से लौटती एक औरत सिर पर गठरी लादे खेतों के रास्ते तेजी से घर की ओर चली जा रही थी। चारों ओर साँझ घिर रही थी। नाली पर बैठी हुई बसंती ने देखा कि रतन धोबी नहर पर से मछली मार कर लौट रहा है। अचानक उसके दिमाग में आया कि बहुत पहले कलवती के दद्दा ने चिट्ठी में लिखा था कि यहाँ कलकत्ते में मछली-भात बहुत बढ़िया बनता है। उसने सोचा कि आज वह कलकत्ते से बढ़िया मछली-भात बनाएगी। रतन धोबी के नजदीक आने पर उसने पूछा -”कितनी मछली मारे हो?”
रतन ने दाँत निपोरते हुए चद्दर खोला। डेढ़ सेर से कम नहीं होंगी। बसंती ने अंदाज लगाया। उसने कहा - “थोड़ी-सी मछली दे दोगे?”
रतन की आँखें भोंड़ी हो गईं। गंदी हँसी हँसते हुए उसने कहा - “उधर खेतों की ओर चलोगी?”
गलती तो अपनी है जो इस नीच आदमी से मछली माँगी - बसंती ने सोचा और मन ही मन छटपटाती हुई बोली - “उधर खेतों की ओर तुम्हारी बहन गई है। जाकर उसी को रख लो। उतान छाती ताने गाँव भर में घूमती रहती है।”
रतन ने कहा - “अरे भौजी... तू तो बुरा मान गई। मैंने तो बस मजाक किया था। ले लो न मछली।”
“जाकर अपनी महतारी को मछली देना। मैं नहीं लूँगी।” बसंती ने कहा और मुँह दूसरी ओर फेर लिया। सूरज डूबने लगा था। उसने देखा, परछाईं लंबी हो गई है। खेतों में पानी भर गया था। नाली का पानी स्थिर होने लगा था। बसंती ने पानी में ध्यान से एक बार चेहरा देखा और फिर पानी का छींटा मुँह पर मारा। उसने अंदाजा लगाया कि मालिक ने ट्यूबवेल बंद कर दिया है। उसने फावड़ा उठाया और लौट पड़ी। रतन थोड़ी दूर पर आगे-आगे जा रहा था, पूछा - “भौजी, भैया कब तक आएँगे?”
बसंती थोड़ी देर तक तो गुस्से में चुप रही। फिर मन नहीं माना तो बता दिया “दशहरे से आठ दिन पहले आने के लिए चिट्ठी भेजी है। आज से आठ दिन बाद ही तो दशहरा है।” फिर उसने बताया कि उसी के लिए तो मछली माँग रही थी।
रतन ने रुककर एक मुट्ठी मछली निकाली और बसंती की साड़ी में डाल दी।
साथ-साथ चलते हुए बसंती ने पूछा - “रतन तुम्हारी औरत इतनी सीधी है। तू उसे मारता क्यों है?”
रतन ने कहा - “मारने से ही तो सीधी रहती है। ऐसे तो एक भी बात नहीं सुनती।”
बसंती ने समझाया “तू जुआ खेलना छोड़ दे फिर वह काहे को झगड़ा करेगी?”
दोनों बातें करते जा रहे थे। आगे घसियारिनों के पास लाठी टेककर खड़ा रामबली मिसिर का लड़का मुसकी काट रहा था। रतन को बसंती के साथ देखकर हँसने लगा -”किधर से आ रहे हो?”
रतन ने मछली दिखा दी तो बोला - “अकेले-अकेले मछली मारते हो। हमें भी बुला लिया करो।” वह बसंती की साड़ी में बँधी मछली को देख रहा था, पूछा - “तू भी मछली मार रही थी क्या?”
बसंती ने कहा - “हाँ, मार रही थी। क्या कर लेगा।” आगे जाने पर उसने रतन से कहा - “लौंडा अपने बाप से सारे गुन पाया है। बस उसी तरह इसकी भी एक बार कुटम्मस हो जाती तो सारी हेठी छूट जाती।”
ट्यूबवेल घर में फावड़ा रखने के बाद बसंती ने हौज के साफ पानी में हाथ-मुँह धोया। चलते हुए एक बार इत्मीनान से पानी में झाँककर अपना चेहरा देखा और साड़ी खोलकर बाँध ली। उसने देखा कि खलिहान के कोने पर खड़े होकर मालिक धान के बोझ गिन रहे हैं। वह उसके पास जाकर बोली - “मालिक कुछ पैसे हों तो दे दीजिए।”
मालिक ने आँखें सिकोड़ते हुए पूछा - “पैसा! कैसा पैसा? आज तो कलवती का बाप खुद कलकत्ते से आ रहा है। तुम्हें पैसे की क्या कमी? जाकर घर से अनाज ले लेना।”
“परदेशी आदमी का कौन ठिकाना” - बसंती ने कहा - “आए, न आए। फिर कलकत्ता कितनी दूर है। सौ रुपया किराया लग जाता है। क्या जाने पैसा हो, न हो। हमें पैसे की गरज है।”
मालिक ट्यूबवेल घर में गए और आलमारी से पाँच का नोट निकालकर थमाते हुए उन्होंने बसंती से कहा - “काम से जा रही हो तो ये उपले सिर पर रख लो। घर रखती हुई चली जाना।”
बसंती ने सफाई से हाथ-मुँह धो रखा था। अब सिर पर उपले रखना खराब लग रहा था, बोली - “मैं इधर खेतों के रास्ते से जाऊँगी। आज जल्दी जाना है।”
मालिक ने कस कर डाँटा - “क्या जल्दी-जल्दी सबेरे से कर रखी है। ऐसी जल्दी थी तो क्यों आई? चल उठा।”
बसंती उपले उठाती हुई भुनभुना रही थी, “घर में पचीस जनी बैठी हैं, खाना बनाना है तो उपले उठा ले जातीं। सरम लगती है और घर में लड़ती हैं तो मुहल्ला भर सुनाई देता है” सिर पर उपले लेकर घर की ओर चल पड़ी।
घर आने के बाद उसने चूल्हे के पास उपले गिरा दिए। वहीं छोटी बहू माटी से चूल्हा लीप रही थी। बसंती से बोली - “वहाँ नल के पास थोड़े से बर्तन पड़े हैं, माँज कर जाना।”
बसंती झनक पड़ी - “आप लोग बर्तन माँजें। कलवती के दद्दा आने वाले हैं, मैं जा रही हूँ।”
बड़ी बहू वहीं आँगन में झाड़ू लगा रही थीं, सुनते ही बोल पड़ी - “आज गाँव में रामलीला होगी, देखने नहीं आओगी बसंती?”
छोटी बहू ने कहा - “आज तो बसंती घर पर रामलीला करेगी।”
बसंती जानती है कि दोनों बहुएँ बस लड़ते समय आपस में सीधे मुँह होती हैं। ऐसे कभी बात नहीं करतीं। उसने जवाब दिया - “कौन नहीं रामलीला करता है। फिर हमारा आदमी तो तीन साल पर आ रहा है। हमसे बेंग (व्यंग) मत बोलिए,” और वह तेजी से निकल गई।
दालान वाले कमरे के अँधेरे कोने में बूढ़ी मालकिन साड़ी के आँचल छिपाए खड़ी उसी का इंतजार कर रही थी। तेजी से निकलती बसंती को उन्होंने धीरे से बुलाया - “ये रख लो! चलो दुकान पर आ रही हूँ।”
यह बुढ़िया अर्थी उठने तक चोरी करेगी - बसंती जल-भुन गई, बोली - “आज मैं दुकान पर नहीं जाऊँगी और फिर मेरी साड़ी में मछली बँधी है।”
मछली का नाम सुनते ही मालकिन ने नाक पर हाथ धर लिया और आहिस्ते से बोलीं - “धीरे बोल! उधर दूसरी ओर खूँट में बाँध ले।”
बसंती चावल को साड़ी में ले ही रही थी कि तभी आहट पाकर बड़ी बहू हाथ में झाड़ू लिए वहाँ आ गई। उन्होंने कहा - “बसंती घर का अनाज दुकान पर नहीं जाएगा। चल चावल रख। आज सबके सामने भेद खुलेगा।”
बसंती ने चावल वहीं जमीन पर गिरा दिया। यह कहते हुए कि आप ही लोगों का भेद है अपनी ही खोलें। फिर मालकिन और बड़ी बहू की तेज आवाज और झड़पों के बीच भुनभुनाती हुई वह तेजी से गली में निकल गई।
रास्ते में ही दुकान थी। बसंती ने मछली बनाने के लिए मसाला, लहसुन, प्याज, थोड़ा सा कड़ुवा तेल और अलग से बढ़िया वाला आधा किलो चावल उधार लिया और वह तेजी से घर की ओर चल पड़ी। धीरे-धीरे रात होने लगी थी। बसंती ने सोचा कि अब तक तो वह जरूर आ चुका होगा। यह सोचकर कि पता नहीं, कलवती ने कायदे से गुड़-पानी भी दिया होगा या नहीं, उसका मन घबराने लगा। इतनी दूर से रेलगाड़ी में कितना थका होगा। उसने सोचा कि उसे आज काम पर नहीं जाना चाहिए था। इतनी रात तक काम करने के लिए कहीं वह बिगड़े न। और उसका डाँटता हुआ चेहरा याद करके उसके मन में गुदगुदी होने लगी। वह अँधेरे में अकेले ही हँस रही थी। उसे लगा कि एक लंबा साँवला सा आदमी एकदम उसके करीब आकर गुदगुदा रहा है। पुष्ट बाँहों में उभरे हुए माँस की गोलाई, छाती पर नरम और काले-काले घने बाल। वह हँसे जा रही थी। तभी उसने जलती गैस बत्तियों के अँजोर में कूद रहे लड़कों की भीड़ देखी। एक जगह चौकी पर दरी बिछाकर कुँवर कमकर हारमोनियम और बेचन पांडे ढोलक बजा रहे थे। वहीं बगल में राम किसुन सिंह बजरंगी के लड़के को साड़ी पहनाकर सीता जी बना रहे थे। बुल्लू पांडे का लड़का राम बना हुआ आसपास घेरे हुए लड़कों पर धनुष-बाण तान रहा था। लड़के खुश हो-हो कर भागते और हल्ला करते थे। बसंती ने उसकी पूँछ खींचकर धकेल दिया। मुखौटा सरक कर गर्दन में झूलने लगा। यह रामबली मिसिर का छोटा वाला लड़का था। बसंती ने घृणा से थूक दिया और बोली - “बड़ा भाई दिन भर घसियारिनों के पीछे घूमता है ओर ये हनुमान जी बने हैं। खूब जतन से सपूत पैदा किए हैं मिसिर ने।” और घर की ओर चल पड़ी।
कलवती ने अभी तक चिराग भी नहीं जलाया है। बसंती ने देखा कि दुआर पर अँधेरा और सन्नाटा था। बाहर खूँटे पर बकरियाँ बँधी थीं। भीतर जाने पर उसने कलवती को नंगी देह जमीन पर सोए हुए देखा। छोकरे का कहीं पता नहीं था। पटरी बर्तन माँजने की गंदी जगह पर पड़ी थी। बसंती ने पटरी को उठाकर साफ-सुथरी दीवार से टिका दिया और पता लगाने के लिए बुधिराम के घर की ओर चल दी। बुधिराम भी कलकत्ते से साथ आने वाला था।
बुधिराम दुआर पर टूटी चारपाई पर दरी बिछाकर बैठा दाने चबा रहा था। उसकी बूढ़ी माँ बेना डोला रही थी। नीचे जमीन पर लोटे और गिलास में पानी रखा हुआ था। बसंती को देखते ही बुधिराम ने सलाम किया और बोला - “भौजी, भैया ने दो सौ रुपया दिया है। आ नहीं सके। होली में आने के लिए कहा है।”
बसंती को जैसे काठ मार गया। कुछ पल चुप रहने के बाद बोली - “कह देना, वहीं कफन खरीद कर पड़ा रहे। कलकत्ता का जादू लगा है। यहाँ लड़की राँड़ की तरह दिन भर घूमती है और सपूत गुंडागर्दी करते हैं। गोली गुप्पी खेलते हैं। अब यहाँ आने की क्या गरज। पैसा उसे दे-देना, वहीं मरे।”
बुधिराम की माँ ने बसंती को गाली दी - “परदेशी आदमी के लिए ऐसी बात बोलती है। तेरे मुँह में कीड़ा पड़े।”
बसंती भुनभुनाती हुई लड़के को खोजने चल पड़ी। पता चला कि गाँव की रामलीला में गया है तो लड़के को गाली देने लगी - “बाप को रंडीबाजी से फुर्सत नहीं और बेटा अभी से रामलीला करेंगे।”
घर आकर उसने चूल्हे पर पतीली रखकर चावल चढ़ाया और नीचे आग में मछलियों को डाल दिया। तेल, मसाला, लहसुन, प्याज सब एक गंदे कपड़े में बाँधकर ताखे पर रख दिया। वह अनायास ही बार-बार इधर-उधर जा रही थी। फिर उसने सोई कलवती को गाली दी, बाल खींचकर जगाया और चूल्हे के पास बैठाकर रामलीला की ओर चल दी।
वहाँ गैसलाइटों की चकाचौंध में आदमियों, औरतों और बच्चों की भीड़ बढ़ गई थी। उसने एक लड़के से पूछा तो पता चला कि उसका लड़का राक्षसों वाला मुखौटा लगाए उधर दूसरी ओर घूम रहा है। वहाँ बहुत सारे लड़के वानरों और राक्षसों वाली दफ्ती का मुखौटा लगाए उछल-कूद कर रहे थे। बसंती ने बहुत मुश्किल से अपने लड़के को पहचाना। “बाप कहता है कि पढ़ेगा। क्या सुरूप बनाया है।” उसने लड़के की बाँह पकड़ी और पीठ पर दे धमाधम। मुखौटे को हारमोनियम के पास फेंककर रोते हुए लड़के को घसीट ले चली।
खाना खा चुकने के बाद कलवती और दुलरा एक झिंलगी चारपाई पर नंगे बदन सो गए। जो कुछ बचा था उसे बसंती ने खाया। और बाल्टी लेकर कुएँ पर पानी भरने चली गई। सारी बस्ती के लोग सो चुके थे। सन्नाटा था। बसंती ने देखा कि आज बुधिराम के दालान में ढिबरी जल रही है। इसके अलावा कहीं कोई जागरण का चिह्न न था। रामसुख की बूढ़ी दादी रात भर जागती है। बारहों महीने खाँसती है। आहट पाकर अपनी लाठी टेकती उठ बैठी। करीब-करीब बेकाम हो चुकी आँखों पर अनुमान का जोर लगाते हुए उसने पूछा - “कौन, बसंती?”
“अभी जाग रही हो दादी?” - बसंती ने पूछा।
बुढ़िया ने कहा - “अब एक ही बार सोऊँगी बेटी। सुना है बुधिराम कलकत्ते से आया है। कलवती के दादा नहीं आए क्या?”
“फगुवा में आने के लिए बोले हैं” - बसंती ने बताया।
“कुशल मंगल से तो है?” बुढ़िया ने पूछा।
“हाँ पैसा भेजा है” - बसंती ने बता दिया और पानी लेकर चली आई।
रात सोने से पहले बकरियों को लेकर जाकर भीतर बाँधा। बाहर निकलते समय उसके पैर में किसी चीज की जोर से ठोकर लगी। उसने देखा तो दुलरा की पटरी थी। उसके मुँह से भद्दी सी गाली निकली। भीतर अँधेरा था, सो पता नहीं चला कि गाली किसके लिए थी? उसने पटरी उठाई और कोने में पड़े अल्लम-गल्लम सामानों के पीछे कहीं फेंक दी और बाहर आकर खाट पर लेट गई।
अँजोरी रात थी। आकाश चमक रहा था। बसंती ने उँगली पर गिना - कुवार, कातिक, अगहन, पूस, माघ, फागुन। छह महीना। गाँव में बज रहे हारमोनियम और ढोलक की आवाज सुनाई दे रही थी। बसंती दिन भर की थकी थी। देह का पोर-पोर टूट रहा था। इस थकान में एक-एक कर सब कुछ डूबता चला गया। अँजोरी रात। आकाश की चमक। बाजों की आवाज। कुवार से फागुन तक की गिनती। सबेरे जग कर काम पर जाना है। बसंती कटी फसलों वाले खुरदुरे खेतों की तरह उतान पसरकर सो गई।