तो? / पद्मजा शर्मा
मैं अध्यापिका हूँ। सुबह पांच बजे उठती हूँ। चाय बनाती हूँ। सबके लिए सुबह का नाश्ता और दोपहर का खाना बनाती हूँ। तीन-तीन टिफिन तैयार करती हूँ। सास को खिला पिलाकर दवा देती हूँ। बेटी को स्कूल के लिए तैयार करती हूँ। उसे स्कूल बस में बिठाकर फिर अपनी स्कूल के लिए तैयार होकर भागते हुए बस पकड़ती हूँ। बस में भीड़ होती है। अक्सर खड़े होकर सफर करना होता है। कभी-कभी जान बूझकर ऊपर गिरते पड़ते पुरुषों से लड़ाई भी लड़ती हूँ। भूल जाओ कि किसी महिला, लड़की, वृद्धा या वृद्ध के लिए कोई बंदा सीट से खड़ा होगा। खैर... घंटी के साथ स्कूल में ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर, इस क्लासरूम से उस क्लासरूम में, स्टाफ रूम से प्रधानाचार्य के ऑफिस में चक्कर काटते हुए, छात्र-छात्राओं के सवालों के जवाब देते हुए, कॉपिया चैक करते हुए कब स्कूल से निकलने का समय हो जाता है, पता ही नहीं चलता।
एक दिन तो रिसेस में मुझे चक्कर आ गए. थोड़ी देर के लिए सारा स्कूल आँखों के आगे घूम गया। बाद में प्रधानाचार्यजी ने कहा 'मैडम, लगता है आपके खून में हिमोग्लोबिन कम है, जांच करवाओ.'
मैंने कहा, 'सर, नींद की कमी और थकान की वजह से हुआ है और कुछ नहीं।'
उस दिन साथी अध्यापक मनीष जी ने अपने स्कूटर पर घर छोड़ा। घर आने पर जब इनको इस घटनाक्रम का पता चला तो मेरी तबीयत कैसी है, क्या हुआ, क्यों हुआ पूछने के बजाय बुरा-सा मुंह बनाया और बोले 'किसी अध्यापिका के साथ नहीं आ सकती थी क्या?'
खैर...
घर आकर बेटी को संभालती हूँ। उसे पढ़ाती हूँ। फिर वही शाम की चाय, वही रात का खाना। मुझे खाना बनाते-बनाते ही नींद आने लग जाती है। पैर जवाब दे चुके होते हैं। पर रसोई का सब काम सलटा कर ही सोना होता है। बल्कि सुबह के लिए आटा गूँधना, सब्जी काटना और सुबह के कपड़े वाशिंग मशीन में डालना भी अक्सर रात को ही करती हूँ। कभी बाई न आए तो बर्तन भी घिसती हूँ।
ये मुझसे घंटे भर पहले अपने दफ्तर के लिए निकलते हैं और शाम को पांच बजे के आसपास मेरे साथ ही घर आ जाते हैं। मैं आते ही साड़ी बदलकर काम में लग जाती हूँ। ये खाना आने तक टी.वी. पर अगड़म-शगड़म देखते हैं या अपने दोस्तों से देश की राजनीति पर बहस करते हैं और खाना खाकर सो जाते हैं।
कभी बाज़ार का कोई काम कहूँ तो गुस्साते हैं-'ऐसे काम रविवार को खुद कर लिया करो। पूरा दिन घर में खाली रहती हो ना।'
मुझे रविवार को भी कई काम होते हैं। गद्दों को धूप दिखाना, रसोई के सामान की लिस्ट बनाना, बेटी के लिए मनपसंद डिश बनाना, थोड़ी देर उसके साथ खेलना, चिडिय़ों को चुग्गा डालना, फटे-उधड़े कपड़ों की सिलाई-तुरपाई करना। पर मैं इनसे कुछ नहीं कहती। मेरा कुछ भी कहना इनको लडऩा लगता है। मेरा कुछ भी करना इनको मेरा घमंड लगता है। मेरा चुप रहना इनको अपमानित करता है। शायद मुझसे कम सैलेरी होने का कोई कॉम्प्लेक्स हो। शायद पुरुष होने का अहम हो।
थक हार कर मैं जब देर रात सोने जाती हूँ तब ये एक नींद लेकर जग जाते हैं। कहते है 'करें।'
मैं रूचि नहीं दिखाती हूँ।
ये बजाय घर के कामों में मेरी मदद करने के, 'क्या कोई यार कर रखा है?'
यह वाक्य, ये जिस सहजता से कहते हैं मैं उतनी ही असहज हो जाती हूँ। मन करता है, पहले तो इनके मुँह पर थूकूँ और फिर कहूँ 'सबको अपने जैसा ही समझते हो क्या।'
पर थूकना तो दूर कुछ कह भी नहीं पाती हूँ। झगड़ा होगा। बेटी पर बुरा असर होगा। बुढ़ापे में बीमार सास पर क्या गुजरेगी। अड़ौस-पड़ौस क्या कहेगा। फिर किसी समय लगता है, आखिर कब तक चुप रहूंगी। आखिर कब तक सहूंगी। आखिर कब तक नहीं बोलूंगी। आखिर मैं भी इंसान हूँ। कोई कठपुतली तो नहीं। यदि किसी दिन मेरी सहनशक्ति का बाँध टूट ही जाए और मैं चीखकर कह ही दूँ कि 'हाँ' । तो' ?