तोहफ़ा / लिअनीद अन्द्रयेइफ़ / सरोज शर्मा

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1

सिनीस्ता ने साज़नका से तीसरी बार कहा — तुम फिर आना मेरे पास !

साज़नका ने जवाब में कहा — तुम घबराओ मत, मैं ज़रूर आऊँगा। ऐसा कैसे हो सकता है कि मैं न आऊँ। पक्का आऊँगा।

इसके बाद वे दोनों ख़ामोश हो गए। सिनीस्ता अस्पताल में बिस्तर पर लेटा हुआ था। उसने अस्पताल का सलेटी कम्बल ओढ़ रखा था, जिसमें से, बस, उसका चेहरा दिखाई दे रहा था। वह साज़नका की ओर बड़े ध्यान से देख रहा था। वह चाहता था कि साज़नका देर तक उसके पास बैठा रहा और अपनी निग़ाहों से उसे यह जतला दे कि अस्पताल में वह उसे भाग्य के भरोसे नहीं छोड़ देगा। उधर साज़नका अस्पताल से जाना चाहता था, पर उसे यह नहीं सूझ रहा था कि वह ऐसा क्या कहे, जिससे वह तुरन्त जा भी सके और सिनीस्ता को बुरा भी नहीं लगे। उससे वहाँ और नहीं बैठा जा रहा था, इसलिए वह सिनीस्ता से नज़रे बचा रहा था।

सरकते-सरकते वह अपनी कुर्सी से नीचे की ओर फिसलने लगता, फिर सम्भलकर ऐसे बैठ जाता जैसे किसी ने उसे कुर्सी से बाँध दिया हो। कभी-कभी वह जेब से रूमाल निकालकर झूठमूठ में नाक साफ़ करने लगता। दरअसल उसके पास ऐसा कुछ नहीं था, जिसके बारे में वह सिनीस्ता से बात कर सके। उसके दिमाग़ में बेकार की उलटी-सीधी बातें आ रही थीं, जो उसे अजीब लग रही थीं और इस वजह से उसे शर्मिंदगी भी महसूस हो रही थी। उस समय उसका दिल कर रहा था कि वह सिनीस्ता को उसके माँ-बाप और दोस्तों द्वारा बुलाए जाने वाले लाड़ भरे नाम ‘सिनीस्ता’ से न पुकारकर उसके पूरे नाम सिमयोन इरअफ़ियेविच कहकर पुकारे। लेकिन उसे भली-भाँति पता था कि सिनीस्ता को ऐसे बुलाना निरी बेवकूफ़ी होगी। यह सच था कि सिनीस्ता दर्ज़ी का काम सीख रहा था, पर वह था तो बच्चा ही। जबकि साज़नका उम्र में सिनीस्ता से काफ़ी बड़ा था। लोग उसे उसके लम्बे नाम से न पुकारकर घर-परिवार और दोस्तों द्वारा बुलाए जाने वाले नाम ‘साज़नका’ से महज़ इसलिए बुलाते थे, क्योंकि उन्हें उसे ऐसे पुकारने की आदत पड़ गई थी।

अस्पताल में सिनीस्ता के पास बैठे-बैठे साज़नका को याद आया कि दस-बारह दिन पहले उसने सिनीस्ता के सर पर एक चपत जड़ दी थी। वह उस घटना के बारे में कुछ कहना चाहता था, परन्तु उसे लगा कि अभी उसके बारे में तो बात नहीं करनी चाहिए, इसलिए वह जानबूझकर पहले तो कुर्सी से फिसलने लगा, फिर कुर्सी पर ठीक से बैठ गया। उसके बाद फटकार और तसल्ली के मिले-जुले लहज़े में बोला :

— तुम्हारा हाल तो कुछ अच्छा नहीं है। तुम्हें दर्द भी हो रहा है क्या ?

सिनीस्ता ने हाँ में सर हिलाया और धीरे से बोला :

— अब आप जाइए, नहीं तो साहब नाराज़ होंगें।

साज़नका जाने की बात सुनकर ख़ुश हो गया और बोला — तुम ठीक कह रहे हो। साहब ने मुझे देर तक तुम्हारे पास न बैठने और तुरन्त लौट आने का हुक़्म दिया था। और वोदका न पीने की हिदायत भी दी थी। धत तेरे की…! यह मैं क्या कह रहा हूँ…।

जब साज़नका को यह समझ आया कि वह अस्पताल से बिना किसी झिझक के कभी भी जा सकता है, तो उसका मन थोड़ा हलका हुआ और सिनीस्ता के प्रति हमदर्दी से भर गया। अस्पताल की हालत भी अच्छी नहीं थी। वार्ड में मरीज़ों के पलंग एकदम पास-पास लगे हुए थे। कमरों में हवा साफ़ नहीं थी और दवाइयों की बू आ रही थी। अब साज़नका सिनीस्ता से बेहिचक नज़रें मिला पा रहा था। उसने उसकी तरफ़ झुककर संजीदगी से कहा :

— सिनीस्ता…सिनीस्ता ! अब मैं जा रहा हूँ। तुम घबराना नहीं। मैं आता रहूँगा। जब भी काम से थोड़ी फ़ुर्सत मिलेगी, मैं तुम्हारे पास आ जाया करूँगा। क्या साहब लोग ही सब कुछ हैं ? हम क्या कुछ भी नहीं ? हम भी इनसान हैं आख़िर, हमारे भीतर भी दिल है…हमारी भी अपनी समझ है। यार सिनीस्ता, तुम मेरी बात सुन रहे हो ना ?

सिनीस्ता ने मुस्कुराते हुए धीरे से कहा :

— हाँ, यार ! आते रहना, गोली मत दे जाना।

उसकी यह बात सुनकर साज़नका को अच्छा लगा और उसका मन इतना हलका हो गया कि अब वो दस-बारह दिन पहले ग़लती से सिनीस्ता के सर पर जड़े चपत के बारे में भी उसके साथ बात करने के लिए तैयार था। उसने धीरे से उसका कन्धा छूकर बात छेड़ी :

— सुनो यार, कुछ दिन पहले तुम्हारे सर पर ग़लती से मेरा एक चपत लग गया था। तु्मने सोचा होगा कि मैंने तुम्हें मारा है, पर मैंने जानबूझकर ऐसा नहीं किया था। देखो, बात यह है तुम्हारा सर गोल है और तुम्हारे बाल भी कटे हुए हैं, इसलिए मुझे तुम्हारा सर सहलाने का मन हुआ। और पता नहीं कैसे मेरे हाथ फेरते-फेरते वह चपत जैसा लग गया। सर पर हाथ फेरने में मज़ा आ रहा था और हाथ फेरते-फेरते पता नहीं कैसे ऐसा हो गया।

— सिनीस्ता फिर से मुस्कुरा दिया।

साज़नका कुर्सी से उठा। वह बहुत लम्बा था। उसके सँवरे हुए छोटे और घुँघराले बाल उसके सर पर सजी हुई एक सुन्दर-सी टोपी की तरह लग रहे थे। आँखें उसकी थोड़ी भारी थीं और उनसे खुमारी झलक रही थी। उसने कहा :

— अच्छा, तो अब चलता हूँ।

इतना कहकर भी वह अपनी जगह से नहीं हिला। उसे लगा — ‘अच्छा, मैं चलता हूँ।’ बस, इतना कहना काफ़ी नहीं है। मुझे कोई ऐसी बात कहनी चाहिए, जो सिनीस्ता के दिल को छू जाए और उसे यह नहीं लगे कि मैं उसे अकेला छोड़कर जा रहा हूँ। यही सब सोचता हुआ वह परेशानी में अपने पाँव आगे-पीछे कर रहा था। इतने में सिनीस्ता ने थोड़ा शर्माते हुए और बच्चों की तरह मुस्कुराते हुए कहा :

— ख़ुदा-हाफ़िज़, मियाँ !

सिनीस्ता के इन दो लफ़्ज़ों से साज़नका का मन सहज हो गया। सिनीस्ता ने अपना हाथ कम्बल से बाहर निकालकर उसकी तरफ़ बढ़ाया। साज़नका ने महसूस किया कि वह ख़ुद भी तो, बस, ये दो लफ्ज़ ही उससे विदा लेने के लिए ढूँढ़ रहा था।

उसने अपनी भारी-भरकम हथेलियों से बड़े प्यार से उसकी पतली और नाज़ुक़ हथेली थाम ली और फिर कुछ पल वह यूँ ही खड़ा रहा। इसके बाद उसने एक लम्बी साँस छोड़ते हुए उसकी हथेली धीरे से छोड़ दी। उसकी पतली और गरम हथेली उसे कुछ-कुछ रहस्यमयी लग रही थी, मानो उसने कोई बड़ा दुख झेला हो। साज़नका को लगा कि उसे अब बच्चा नहीं समझा जाना चाहिए, इसलिए उसको भी उसके लाड़ भरे नाम ‘सिनीस्ता’ की जगह उसके पूरे नाम सिमयोन इरअफ़ियेविच के नाम से पुकारा जा सकता है जैसाकि रूस में आमतौर पर लोगों को औपचारिक तौर पर पुकारा जाता है। सिनीस्ता से अपनी तुलना करते हुए उसे लगा कि वह उससे कहीं अधिक बड़ा और आज़ाद इनसान है ।

सिनीस्ता ने उसे विदा करते हुए एक बार फिर कहा — तुम दोबारा आना। और उसकी इस कामना ने उसके मन पर छाए उस भयानक असर को ख़तम कर दिया, जिसने पल भर के लिए अपने ख़ामोश पँखों से उसे ढक लिया था। साज़नका को वह फिर से बीमार, कमज़ोर और बेचारा-सा लगने लगा। उसके लिए उसे बेहद अफ़सोस हो रहा था।

वह अस्पताल से वापिस आ गया था, पर वहाँ की गंध देर तक उसका पीछा करती रही और उसके कानों में सिनीस्ता की आवाज़ गूँजती रही…तुम दोबारा आना। वह मन ही मन उससे कहने लगा — यार सिनीस्ता, मैं ज़रूर आऊँगा। हम बेशक मज़दूर हैं, लेकिन हम भी तो इनसान हैं।

2

ईस्टर का त्यौहार नज़दीक आ रहा था। उनकी दुकान में सिलाई का काम इतना ज़्यादा था कि साज़नका को दम लेने की फ़ुर्सत भी नहीं मिल रही थी। एक इतवार को उसे कुछ समय मिला, लेकिन उसने पिछले कई दिनों से पी नहीं थी, इसलिए समय मिलते ही वह दो-तीन जाम वोदका के चढ़ा गया।

बसन्त का मौसम आ गया था। अब दिन लम्बे और पहले से ज़्यादा रोशन होने लगे थे। काम इतना ज़्यादा था कि साज़नका तड़के सुबह से शाम देर तक खिड़की के पास बनी ऊँची चौकी पर आलथी-पालथी मारकर बैठा रहता और कपड़े सिलता रहता। उसे दोपहर का खाना खाने का समय भी नहीं मिलता था। जब लगातार काम करते-करते वह थक जाता था तो एक मिनट का विराम लेकर बार-बार अपनी आँखें मींचता और फिर से काम करने लगता। लगातार की जाने वाली इस मेहनत पर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करने के लिए और अपना मन बहलाने के लिए बीच-बीच में वह सीटी बजाता और किसी लोकप्रिय गीत की धुन निकालता।

सुबह के वक़्त धूप कमरे की दूसरी दीवार पर आती थी। साज़नका की खिड़की जिस दीवार पर थी उस तरफ़ से तो बस, ठण्डी हवा ही कमरे में घुसती थी। दोपहर बाद उसकी खिड़की से सबसे पहले धूप की एक बारीक-सी पट्टी कमरे में झिलमिलाती थी, जिसमें धूल के कण चमकते हुए और अठखेलियाँ करते दिखाई देते थे। थोड़ी देर बाद पूरे कमरे में भरपूर धूप आ जाती थी। तेज़ धूप में खिड़की पर रखी कैंची और सिलाई मशीन इस तरह से चमकने लगती थीं कि आँखें चौंधियाने लगती थीं। गर्मी इतनी बढ़ जाती कि खिड़की के दोनों पट खोलने पड़ जाते।

बर्फ़ पिघल रही थी। बर्फ़ के नीचे से पिछले साल के दबे कचरे की सड़ी हुई गंध आने लगी थी। खिड़की के रास्ते यह गंध साज़नका तक पहुँचती और वह अपनी नाक सुरसुराता। गर्मी बढ़ने की वजह से मक्खियाँ भी पैदा हो गई थीं। मक्खियाँ उड़कर उसके शरीर पर बैठ जातीं और उसे दिक करतीं। खिड़की के बाहर आसपास रहने वाले पड़ोसियों के मुर्गे-मुर्गियाँ कुकड़ू-कूँ बोलते हुए और चुग्गा ढूँढ़ते हुए इधर से उधर घूमते रहते। साथ ही बाहर का शोर भी सुनाई देता।

दुकान के सामने बनी सड़क के दूसरी तरफ़ एक मैदान था। मैदान में पड़ी बर्फ़ भी पूरी तरह से पिघल गई थी और उसका पानी भी सूख गया था। वहाँ बच्चों ने खेलना शुरू कर दिया था। बच्चे आमतौर पर ‘इग्रा फ़ बाबकी’ नाम का एक रूसी लोक-खेल खेला करते, जिसमें गोटियाँ एक लाइन में रखकर खिलाड़ी एक तयशुदा दूरी से उन्हें निशाना बनाते हैं। जिस गोटी पर निशाना लग जाता है उसे और निशाने के बाद बिखरने वाली दूसरी सभी गोटियों को वह खिलाड़ी जीत लेता है, जिसने निशाना लगाया है। गोटी पर लगने वाली चोट से जो आवाज़ निकलती है, बच्चे उसका बड़े जोश के साथ स्वागत करते हैं और चिल्लाते हैं।

दुकान के सामने वाली सड़क कच्ची थी और उस पर बहुत कम घोड़ागाड़ियाँ आती-जाती थीं। बस, कभी-कभार शहर के बाहरी इलाकों से शहर में घुसने या निकलने वाली एक-दो गाड़ियाँ ज़रूर उस तरफ़ आ जाती थीं। सर्दियों में पड़ी भारी बर्फ़ के बाद रास्ता अभी भी पूरी तरह से सूखा नहीं था। कई जगहों पर तो गाड़ियों के पहियों के धँसने से एक लकीर-सी बन गई थी और वहाँ बने गड्ढों में कीचड़-पानी अभी भी जमा था। इन गड्ढों में से जब किसी गाड़ी का पहिया फिर से गुज़रता था तो गाड़ियों के दचके सुनाई देते थे।

दर्ज़ी की दुकान पर रात-दिन काम करते-करते साज़नका बेहद थक जाता था। उसकी कमर में भयानक दर्द होने लगता था और उसकी उँगलियाँ इतनी अकड़ जाती थीं कि सूईं पकड़ना तक मुश्किल होने लगता। जब भी ऐसी हालत पैदा होती, वह नंगे पाँव ही बाहर की तरफ़ भागता। और तेज़-तेज़ क़दमों से मैदान में खेल रहे बच्चों के पास पहुँचकर उनसे कहता — मुझे भी अपने साथ खिलाओ न, यार ! कुछ गोटियाँ मुझे भी दे दो।

— ये लो गोटी और तुम मेरी तरफ़ से निशाना लगाओ ! कई बच्चे एक साथ चिल्लाते।

साज़नका एक भारी-सी गोटी चुनकर, अपनी आस्तीनें ऊपर चढ़ाता और फ़्लाइंग-डिस्क फेंकने वाले खिलाड़ी की मुद्रा बनाकर अपनी तिरछी निगाहों से पहले वह गोटियों की दूरी नापता और फिर निशाना लगाता। निशाना लगाने वाली गोटी पहले ज़मीन से टकराती और फिर लहराती हुई सामने एक लाइन में रखी गोटियों पर जा लगती। धप्प की आवाज़ के साथ सारी गोटियाँ बिखर जातीं। बच्चे ख़ुश होकर जोश में चिल्लाने लगते।

आमतौर पर बच्चों के साथ थोड़ी देर खेलकर साज़नका थोड़ा सुस्ताता और फिर वापस दुकान पर चला जाया करता था। लेकिन आज वह उनके पास कुछ देर बैठा रहा और उसने बच्चों से कहा :

— बच्चो, क्या तुम्हें मालूम है कि सिनीस्ता बीमार है। अस्पताल में भर्ती है वह।

बच्चे अपने खेल में मसरूफ़ थे। उन्होंने उसकी बात पर कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया।

साज़नका ने उनसे कहा — मैं उसे वहाँ देखने जाऊँगा। तुम क्या सोचते हो, क्या मुझे उसके लिए कोई प्रज़ेण्ट लेकर जाना चाहिए ? ठीक है, जब मैं जाऊँगा तो कुछ ले जाऊँगा।

साज़नका के मुँह से ‘प्रज़ेण्ट’ शब्द सुनकर कई बच्चों ने उसकी बात पर ध्यान दिया। मीशका नाम के एक बच्चे ने अपनी जेब से एक ग्रीवनी निकालकर उसे दी। उन दिनों वह ग्रीवनी आज के दस कोपेक के सिक्के के बराबर मानी जाती थी। इसके बाद मीशका ने कहा — आप मेरी तरफ़ से यह सिक्का उसे तोहफ़े में दे दीजिएगा।

मीशका के दादाजी उसे जेबख़र्च के लिए रोज़ एक ग्रीवनी दिया करते थे। इससे ज़्यादा पैसे पाने की बात वह सोच भी नहीं सकता था। साज़नका के पास बच्चों से बात करने के लिए ज़्यादा समय नहीं था, इसलिए वह पहले की तरह तेज़ी से चलता हुआ दुकान में वापस लौट गया और काम करने बैठ गया। थकान से उसकी आँखें सूजी हुई थीं और चेहरा किसी बीमार आदमी की तरह पीला पड़ गया था। उसकी आँखों के नीचे काली झाइयाँ उभर आई थीं। बस, अच्छी तरह से सँवरे और ऊपर को उठे हुए उसके बाल अभी भी एक सुन्दर टोपी की तरह लग रहे थे। दुकान के मालिक गवरील इवानअविच को साज़नका के इतनी अच्छी तरह से सँवरे हुए बाल देखकर अचानक ही रेस्तराँ और वोदका का ख़याल आया। उनका मन वोदका पीने का हो आया, पर अभी आधा दिन बाक़ी था। इस बात का ध्यान आते ही उन्हें इतना ग़ुस्सा आया कि उन्होंने अपने कामगारों को डाँटना शुरू कर दिया।

साज़नका का सिर भारी होता जा रहा था और उसके दिमाग़ में विचार गड्ड-मड्ड हो रहे थे। कभी वह सर्दियों के अपने नए जूतों के बारे में सोचता तो कभी माउथ-ऑर्गन के बारे में। परन्तु आज उसे जो चीज़ सबसे ज़्यादा परेशान कर रही थी वह थी सिनीस्ता से होने वाली भावी मुलाक़ात और उसके लिए ख़रीदा जाने वाला तोहफ़ा।

दुकान में चल रही सिलाई मशीनों से लगातार टक-टक-टक की नीरस आवाज़ आ रही थी। दुकान का मालिक भी ग़ुस्से में कुछ बड़बड़ा रहा था। लेकिन थके हुए साज़नका को न तो मशीनों की आवाज़ सुनाई दे रही थी और न ही मालिक की बड़बड़। उसकी आँखों के सामने तो, बस, एक ही तस्वीर बार-बार घूम रही थी — कैसे वह सुन्दर-सा छींट का किनारीदार रूमाल सफ़ेद काग़ज़ में लपेटकर तोहफ़े के रूप में सिनीस्ता को दे रहा है।

आज साज़नका की आँखों में नींद भरी हुई थी। बार-बार उसकी आँखें बन्द होती जा रही थीं मानो उसने इतनी ज़्यादा पी ली हो कि मदहोश हो रहा हो। यह पिछले तीन-चार दिनों से लगातार जागकर काम करते रहने का असर था। थकान इतनी ज़्यादा हो गई थी कि कभी-कभी वह सोचने लगता — यह सिनीस्ता कौन है ? वह उसका चेहरा पहचानने की कोशिश करता और जब एक धुँधला-सा चेहरा उसकी स्मृति के आर-पार झाँकता तो उसे तुरन्त यह याद आ जाता कि उसके लिए उसे एक रूमाल ख़रीदना है। अगली रात वह डटकर सोया था और जब नींद खुली तो तर-ओ-ताज़ा महसूस कर रहा था। उस दिन उसने अपनी दुकान में काम करने वाले अपने सभी सहयोगियों, अपने मालिक, उसकी बीवी, दुकान में आने वाले गाहकों और मैदान में खेलने वाले बच्चों को भी यह बता दिया कि ईस्टर के दिनों में वह सिनीस्ता से मिलने जाएगा।

साज़नका मन ही मन यह सोच रहा था कि सिनीस्ता से मिलना बेहद ज़रूरी है। मैं अपने बाल सवारूँगा और तुरन्त अस्पताल के लिए चल पडूँगा। फिर उसके पास पहुँचकर उसे तोहफ़ा देकर कहूँगा — लो यार सिनीस्ता, यह मैं तुम्हारे लिए लाया हूँ। देखकर बताओ, यह कैसा है !

एक तरफ़ तो वह यह सब सोच रहा था, दूसरी तरफ़ उसकी आँखों के सामने एक दूसरी ही तस्वीर झिलमिला रही थी। वह देख रहा था कि शराबखाने का दरवाज़ा खुला हुआ है और वह उसके भीतर एक मेज़ पर बैठा हुआ है। उसके सामने वोदका की बोतल रखी हुई है।

वोदका उसकी वह कमज़ोरी थी, जिससे वह अब तक उबर नहीं पाया था। वह अपना सिर झटक देता और आँखों के आगे झिलमिला रही तस्वीर से मुक्ति पाने की कोशिश करता। उसका मन चीख़-चीख़कर उससे कहता — वोदका नहीं पीनी है, सिनीस्ता के पास जाना है। कितने दिन हो गए उससे मिले !

ये दोनों विचार उसके मन को अपनी-अपनी तरफ़ खींच रहे थे। वह पीना भी चाहता था और सिनीस्ता के लिए किनारी वाला रूमाल भी ले जाना चाहता था। पर शराबी आदमी कभी एक बात पर नहीं टिक पाता है। दोनों ही काम करके उसे ख़ुशी मिलती, पर एक काम से दूसरे भी ख़ुश होते और दूसरा काम ऐसा था कि दूसरे लोग उसे ज़लील ही करते।

3

ईस्टर का हफ़्ता शुरू होने के बाद पहले दो दिन साज़नका ने ख़ूब शराब पी और नशे में लोगों से झगड़ा और मारपीट की। ख़ुद भी पिटा। इतना ही नहीं, उसे एक रात थाने में भी काटनी पड़ी। बस, चौथे दिन ही वह सिनीस्ता के पास जा पाया। उस दिन मौसम बहुत सुहावना था। धूप खिल रही थी, चारों तरफ़ त्यौहार की रौनक छाई हुई थी, लोग नए और रंग-बिरंगे कपड़े पहनकर घूम रहे थे और हमेशा की तरह बतियाते हुए सूरजमुखी के बीज छील-छीलकर खा रहे थे। कहीं बैण्ड-बाजे की आवाज़ सुनाई दे रही थी तो कहीं बच्चों का शोर। परन्तु साज़नका को इन सब बातों से कोई मतलब नहीं था और वह चुपचाप सीधा चला जा रहा था।

वह बहुत शर्मिन्दा था और उसे अपने किए पर बहुत पछतावा हो रहा था। उसे इस बात पर बेहद अफ़सोस हो रहा था कि वह सिनीस्ता के पास जाने की जगह शराब पीने बैठ गया था। वह बहुत उदास था। उसकी एक आँख के पास चोट लगी हुई थी और एक होंठ कटा हुआ था। लेकिन जैसे-जैसे अस्पताल पास आ रहा था, उसका मन हलका होता जा रहा था। वह बार-बार सिनीस्ता के तोहफ़े को एक हाथ से दूसरे हाथ में ले रहा था।

आख़िर वह अस्पताल पहुँच गया। वह जल्दी से उस वार्ड में पहुँचा, जहाँ पिछली बार वह सिनीस्ता को छोड़ गया था। उसका पलंग ख़ाली पड़ा था…? तभी वार्ड में एक सिस्टर आई और उसने पूछा — आप किसे ढूँढ़ रहे हैं ?

— यहाँ एक लड़का था न ? सिमयोन इरअफ़ियेविच ? वह इस वाले पलंग पर था। साज़नका ने ख़ाली पड़े बिस्तर की ओर इशारा किया।

— आपको उसे वार्ड़ में ढूँढ़ने से पहले उसके बारे में इन्क्वारी पर पूछ लेना चाहिए था, नहीं तो फ़ालतू में ही यहाँ-वहाँ ढूँढ़ते रहेंगे। वैसे उसका नाम सिमयोन इरअफ़ियेविच नहीं सिमयोन पुसतोशकिन था।

— नहीं, नहीं। देखिए, उसका नाम इरअफ़ियेविच ही है। साज़नका ने धीरे-से कहा।

— आपका इरअफ़ियेविच अब इस दुनिया में नहीं है। वैसे हमारे कागज़ों में उसका नाम सिमयोन पुसतोशकिन दर्ज है।

यह सुन साज़नका को झटका लगा और वह हक्का-बक्का रह गया। उसका चेहरा सफ़ेद पड़ गया। उसने हिम्मत जुटाकर सिस्टर से पूछा :

— यह सब कब और कैसे हुआ ?

— कल शाम के बाद।

साज़नका ने हकलाते हुए उससे पूछा :

— क्या मैं उसे देख सकता हूँ ?

नर्स ने उदासीनता से उत्तर दिया :

— क्यों नहीं ? आप किसी से भी पूछ लीजिए, मुर्दा-घर कहाँ है। वह आपको दिखा देगा।

साज़नका ने मुर्दाघर का रास्ता पूछा और उस तरफ़ चल दिया। वहाँ पहुँचकर वह सिनीस्ता के शव के सामने खड़ा हो गया। थोड़ी देर उसे एकटक देखने के बाद उसने अपने आस-पास नज़र दौड़ाई। दीवारों पर नमी के धब्बे थे और खिड़कियों पर मकड़ी के जाले। बाहर अच्छी-ख़ासी धूप थी, लेकिन वहाँ से आसमान धुँधला लग रहा था। रुक-रुककर किसी मक्खी के भिनभिनाने की आवाज़ आ रही थी। छत से कहीं पानी की बूँदें भी टपक रही थीं। साज़नका एक क़दम आगे बढ़कर शव के पास पहुँचा और धीमे से बुदबुदाया :

— अलविदा सिमयोन इरअफ़ियेविच।

फिर वह उससे माफ़ी माँगने लगा — सिमयोन इरअफ़ियेविच, मुझे माफ़ कर दो। मैं इतने दिनों तक तुम्हारे पास आ नहीं पाया। काम बहुत था। हालाँकि आना चाहता तो आ सकता था, लेकिन मैंने लापरवाही दिखाई। उसकी यह बात किसी ने नहीं सुनी। वहाँ पूरी तरह से ख़ामोशी थी। थोड़ी-थोड़ी देर में पानी की बूँदें ऐसे टपक रही थीं, मानो कोई धीरे-धीरे रो रहा हो।

4

अस्पताल शहर के एकदम छोर पर बना हुआ था। उसके पीछे खेत शुरू हो जाते थे। साज़नका मुर्दाघर से निकला। बाहर की ताज़ा हवा और धूप में उसे बहुत आराम मिला। अस्पताल से बाहर आकर वह खेतों की तरफ़ मुड़ गया, जहाँ अभी भी पिछले साल कटी फ़सल की ठूँठियाँ पड़ी हुई थीं। बर्फ़ सूख चुकी थी, पर मिट्टी में अभी भी नमी थी, इसलिए उस पर साज़नका के पाँव के निशान बन रहे थे। चलता-चलता वह दूर नदी के किनारे तक पहुँच गया और एक सूखी जगह पर आँखें बंद करके लेट गया। बंद पलकों से वह धूप की गरमाहट और ललाई महसूस कर रहा था। उसे वहाँ भरत पक्षियों की मधुर चहचहाहट सुनाई दे रही थी। अब तक साज़नका का दिमाग़ थोड़ा शान्त हो गया था, इसलिए उसे यहाँ लेटने में सुकून मिल रहा था।

साज़नका इतना थका हुआ था कि लेटते ही उसकी आँख लग गई। अचानक उनींदेपन में उसका हाथ रूमाल में लिपटी किसी चीज़ पर पड़ा। अचेतन में ही उसके मुँह से निकला — तोहफ़ा !

वह झट से उठ बैठा और चिल्लाया :

— हे भगवान ! यह क्या हुआ ?

तोहफ़े वाली अपनी इस पोटली के बारे में तो वह एकदम भूल ही गया था। डरते-डरते उसने पोटली की ओर देखा। उसे ऐसा लगा मानो वह पोटली अपने आप चलकर वहाँ तक आई हो। साज़नका उसे छूने में डर रहा था और बिना पलक झपकाए उसे देख रहा था। उसे अपने ऊपर ग़ुस्सा आ रहा था। अगर शराब पीकर उसने तीन-चार दिन यूँ ही ख़राब नहीं किए होते तो सिनीस्ता से उसकी मुलाक़ात हो गई होती। किनारी वाले उस ख़ूबसूरत रूमाल को निहारते-निहारते उसकी आँखों के आगे बार-बार सिनीस्ता झलक रहा था — ईस्टर के पहले दिन, दूसरे दिन और फिर तीसरे दिन, तीनों दिन सिनीस्ता इन्तज़ार करता रहा और बार-बार दरवाज़े की तरफ़ देखता रहा। पर मैं कहीं नहीं था। बेचारा सिनीस्ता एक उपेक्षित पिल्ले की तरह अकेलेपन से जूझता हुआ इस दुनिया से विदा हो गया।

साज़नका बेहद पछता रहा था और उसके दिल में रह-रहकर एक ही बात आ रही थी — काश ! मैं तीन दिन पहले आ गया होता ! तोहफ़ा देखकर वह कितना ख़ुश होता।

सिनीस्ता के इस तरह से हमेशा के लिए विदा हो जाने से साज़नका बेहद ग़मगीन था। उसकी रुलाई फूट पड़ी, वह ज़मीन पर लोटने लगा और अपने बाल नोचने लगा। थोड़ा शान्त होने के बाद उसने अपने दोनों हाथ आकाश की ओर उठाकर ईश्वर से प्रार्थना-सी करते हुए पूछा :

— हे भगवान ! हम लोग क्या इनसान नहीं हैं ?

पेट के बल ज़मीन पर लेटकर वह ज़ोर-ज़ोर से रो रहा था। थोड़ी देर बाद जब उसका मन हलका हुआ तो उसे अपने चेहरे पर घास की कोमल छुवन से गुदगुदी-सी महसूस हुई। नम मिट्टी से उठती सौंधी ख़ुशबू से उसके दिल को सुकून और जीने की ताक़त मिली। धरती माँ ने अपने इस पापी पुत्र को अपनी बाँहों में भर लिया, जिससे उसका बेचैन दिल प्रेम, आशा और गर्मजोशी से भर गया। दूर शहर के गिरजाघरों में ईस्टर की घण्टियाँ बजनी शुरू हो गई थीं।

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : सरोज शर्मा

भाषा एवं पाठ सम्पादन : अनिल जनविजय

इस कहानी का रूसी भाषा में मूल नाम है — गस्तीनित्स (Леонид Андреев — Гостинец)