तो आमीन अदम गोंडवी, आमीन ! / दयानन्द पाण्डेय
अदम के पहले
क्या आदमी इतना कृतघ्न हो गया है? खास कर हिन्दी लेखक नाम का आदमी।इस में हिन्दी पत्रकारों को भी जोड़ सकते हैं। पर फ़िलहाल यहाँ हम हिन्दी लेखक नाम के आदमी की चर्चा कर रहे हैं क्योंकि पूरे परिदृश्य में अभी हिन्दी पत्रकार इतना आत्मकेन्द्रित नहीं हुआ है, जितना हिन्दी लेखक। हिन्दी लेखक सिर्फ़ आत्मकेन्द्रित ही नहीं कायर भी हो गया है। कायर ही नहीं असामाजिक किस्म का प्राणी भी हो चला है। जो किसी के कटे पर क्या अपने कटे पर भी पेशाब करने को तैयार नहीं है। दुनिया भर की समस्याओं पर लफ़्फ़ाज़ी झोंकने वाला यह हिन्दी लेखक अपनी किसी भी समस्या पर शुतुरमुर्ग बन कर रेत में सिर घुसाने का आदी हो चला है। एक नहीं, अनेक उदाहरण हैं।
ताज़ा उदाहरण अदम गोंडवी का है। अदम गोंडवी की शायरी में घुला तेज़ाब समूची व्यवस्था में खदबदाहट मचा देता है। झुलसा कर रख देता है समूची व्यवस्था को। और आज जब वह खुद लीवर सिरोसिस से तबाह हैं तो उन की शायरी पर दम्भ करने वाला यह हिन्दी लेखक समाज शुतुरमुर्ग बन गया है। अदम गोंडवी कुछ समय से बीमार चल रहे हैं। उन के गृह नगर गोंडा में उन का इलाज चल रहा था। पैसे की तंगी वहाँ भी थी। पर वहाँ के ज़िलाधिकारी राम बहादुर ने प्रशासन के खर्च पर उन का इलाज करवाने का ज़िम्मा ले लिया था। न सिर्फ़ इलाज बल्कि उन के गाँव के विकास के लिए भी राम बहादुर ने पचास लाख रुपए का बजट दिया है।
लेकिन जब गोंडा में इलाज नामुमकिन हो गया तो अदम गोंडवी बच्चों से कह कर लखनऊ आ गए। बच्चों से कहा कि लखनऊ में बहुत दोस्त हैं। और दोस्त पूरी मदद करेंगे। बहुत अरमान से वह आ गए लखनऊ के पी० जी० आई०। अपनी रवायत के मुताबिक पी० जी० आई० ने पूरी सम्वेदनहीनता दिखाते हुए वह सब कुछ किया जो वह अमूमन मरीजों के साथ करता ही रहता है। अदम को खून के दस्त हो रहे थे और पी० जी० आई० के स्वनामधन्य डाक्टर उन्हें छूने को तैयार नहीं थे। उन के पास बेड नहीं था।
अदम गोंडवी ने अपने लेखक मित्रों के फ़ोन नम्बर बच्चों को दिए। बच्चों ने लेखकों को फ़ोन किए। लेखकों ने खोखली सम्वेदना जता कर इतिश्री कर ली। मदद की बात आई तो इन लेखकों ने फिर फ़ोन उठाना भी बन्द कर दिया। ऐसी ख़बर आज के अख़बारों में छपी है। क्या लखनऊ के लेखक इतने लाचार हैं? बताना ज़रुरी है कि लखनऊ से गोंडा दो ढाई घण्टे का रास्ता है। गोंडा भी उन्हें देखने कोई एक लेखक उन्हें लखनऊ से नहीं गया। हालाँकि लखनऊ में करोडों की हैसियत वाले भी एक नहीं अनेक लेखक हैं। लखपति तो ज़्यादातर हैं ही। ये लेखक अमरीका और उस की बाज़ारपरस्ती पर चाहे जितनी हाय तौबा करें, पर बच्चे उनके मल्टीनेशनल कंपनियों में बड़ी-बड़ी नौकरियाँ करते हैं। दस-बीस हज़ार उन के हाथ का मैल ही है। लेकिन वह अदम गोंडवी को हज़ार-पाँच सौ भी न देना पड़ जाए. इलाज के लिए इसलिए अदम गोंडवी के बच्चों का फ़ोन भी नहीं उठाते। देखने जाने में तो उनकी रूह भी काँप जाएगी।
अब आइए ज़रा साहित्य की ठेकेदार सरकारी संस्थाओं का हाल देखें। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के कार्यकारी उपाध्यक्ष का बयान छपा है कि अगर औपचारिक आवेदन आए तो वे विचार करके पचीस हज़ार रुपए की भीख दे सकते हैं। इसी तरह उर्दू अकादमी ने भी औपचारिक आवेदन आने पर दस हज़ार रुपए देने की बात कही है। अब भाषा संस्थान के गोपाल चतुर्वेदी ने बस, सहानुभूति गीत गा कर ही इतिश्री कर ली है। अब इन ठेकेदारों को यह नहीं मालूम कि अदम इलाज कराएँ कि औपचारिक आवेदन ले कर इन संस्थानों से भीख माँगें। और इन दस बीस हज़ार रुपयों से भी उन का क्या इलाज होगा भला, यह इलाज करवाने वाले लोग भी जानते हैं।
रही बात मायावती सरकार की तो खैर उन को इस सब से कुछ लेना देना ही नहीं। साहित्य संस्कृति से इस सरकार का वैसे भी कभी कोई सरोकार नहीं रहा। वह तो भला हो मुलायम सिंह यादव का जो उन्होंने यह पता चलते ही कि अदम बीमार हैं और इलाज नहीं हो पा रहा है, ख़बर सुन कर अपने निजी सचिव जगजीवन को पचास हज़ार रुपए के साथ पी० जी० आई० भेजा। पैसा पाते ही पी० जी० आई० की मशीनरी भी हरकत में आ गई। और डाक्टरों ने इलाज शुरू कर दिया। मुलायम के बेटे अखिलेश का बयान भी छपा है कि अदम के पूरे इलाज का खर्च पार्टी उठाएगी। यह सन्तोष की बात है। कि अदम के इलाज में अब पैसे की कमी तो कम से कम नहीं ही आएगी। और अब यह जानकर कि अदम को पैसे की ज़रूरत नहीं है, उन के तथाकथित लेखक मित्र भी अब शायद पहुँचें उन्हें देखने। हो सकता है कुछ मदद पेश कर उँगली कटा कर शहीद बनने की भी कवायद करें। पर अब इस से क्या हसिल होगा अदम गोंडवी को?
अपने हिन्दी लेखकों ने तो अपना चरित्र दिखा ही दिया ना !
अभी कुछ ही समय पहले इसी लखनऊ में श्रीलाल शुक्ल बीमार हो कर हमारे बीच से चले गए। वह प्रशासनिक अधिकारी थे। उन के पास पैसे की कोई कमी नहीं थी। सो इन लेखकों ने उन की ओर से कभी आँख नहीं फेरी। सब उन के पास ऐसे जाते थे गोया तीर्थाटन करने जा रहे हों। चलते-चलते उन्हें पँच लाख रुपए का ज्ञानपीठ भी मिला और साहित्य अकादमी, दिल्ली ने भी इलाज के लिए एक लाख रुपए दिया। लेकिन कुछ समय पहले ही जब अमरकान्त ने अपने इलाज के लिए घूम-घूम कर पैसे की गुहार लगाई थी तो, किसी ने भी उन्हें धेला भर भी नहीं दिया था। तो क्या जो कहा जाता है कि पैसा पैसे को खींचता है वह सही है?
आज तेरह तारीख़ है और कोई तेरह बरस पहले मेरा भी एक भयंकर एक्सीडेण्ट हुआ था। कह सकता हूँ कि यह मेरा पुनर्जन्म है। यही मुलायम सिंह यादव तब सम्भल से चुनाव लड रहे थे। उन के कवरेज के लिए हम जा रहे थे। उस अम्बेसडर में हम तीन पत्रकार थे। जयप्रकाश शाही, मैं और गोपेश पाण्डेय । सीतापुर के पहले खैराबाद में हमारी अम्बेसडर सामने से आ रहे एक ट्रक से लड़ गई। आमने-सामने की यह टक्कर इतनी ज़बरदस्त थी कि जयप्रकाश शाही और ड्राइवर का मौके पर ही निधन हो गया। दिन का एक्सीडेण्ट था और मैं भाग्यशाली था कि मेरे आई० पी० एस० मित्र दिनेश वशिष्ठ उन दिनों सीतापुर में एस० पी० थे। मेरे एक्सीडेण्ट की बात सुनते ही वे न सिर्फ़ मौके पर आए बल्कि हमें अपनी गाड़ी में लादकर सीतापुर के अस्पताल में फ़र्स्ट-एड दिलवा कर सीधे ख़ुद मुझे पी० जी० आई० भी ले आए। मैं उन दिनों होम भी देखता था। सो तब के प्रमुख सचिव (गृह) राजीवरत्न शाह ने भी पूरी मदद की। स्टेट हेलीकाप्टर तक की व्यवस्था की मुझे वहाँ से ले आने की। मेरा जबडा, सारी पसलियाँ, हाथ सब टूट गया था। छह महीने बिस्तर पर पड़ा रहा था। और वह तकलीफ़ सोच कर आज भी रूह काँप जाती है। लेकिन समय पर इलाज मिलने से बच गया था। यह १८ फ़रवरी, १९९८ की बात है। उस वक़्त मेरे इलाज मे भी काफ़ी पैसा खर्च हुआ। पर पैसे की कमी आड़े नहीं आई। मैं तो होश में नहीं था, पर उस दिन भी पी० जी० आई० में मुझे देखने यही मुलायम सिंह यादव सब से पहले पहुँचे थे। और ख़ाली हाथ नहीं पहुँचे थे। मेरी बिलखती पत्नी के हाथ पचीस हज़ार रुपए रखते हुए कहा था कि इलाज में पैसे या किसी भी चीज़ की कमी नहीं आएगी।
आए तब के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह भी और एक लाख रुपए और मुफ़्त इलाज का ऐलान लेकर आए। अटल बिहारी वाजपेयी से लगायत सभी नेता तमाम अफ़सर और पत्रकार भी। नात-रिश्तेदार, मित्र -अहबाब और पट्टीदार भी। सभी ने पैसे की मदद की बात कही। पर किसी मित्र या रिश्तेदार से परिवारीजनों ने पैसा नहीं लिया। ज़रूरत भी नहीं पडी। सहारा के चेयरमैन सुब्रत राय सहारा जैसा कि कहते ही रहते हैं कि सहारा विश्व का विशालतम परिवार है, इस पारिवारिक भावना को उन्होंने अक्षरश: निभाया भी। हमारे घर वाले अस्पताल में मेहमान की तरह हो गए थे। सहाराश्री और ओ० पी० श्रीवास्तव ख़ुद अस्पताल में खड़े रहे और उन्होंने खर्च से ले कर इलाज तक की सारी व्यवस्था सम्भाल ली थी। बाद में अस्पताल से घर आने पर अपनी एक बुआ से बात चली तो मैं ने बडे फ़ख्र से इन सब लोगों के अलावा कुछ पट्टीदारों, रिश्तेदारों का ज़िक्र करते हुए कहा कि देखिए सब ने तन-मन-धन से साथ दिया। सब पैसा ले कर खड़े रहे। मेरी बुआ मेरी बात चुपचाप सुनती रही थीं। बाद में टोकने पर भोजपुरी में बोलीं— बाबू तोहरे लगे पैसा रहल त सब पैसा ले के आ गईल। नाईं रहत त केहू नाई पैसा ले के खड़ा होत! सब लोग अख़बार में पढ़ि लेहल कि हेतना पैसा मिलल, त सब पैसा ले के आ गइल!' मैं चुपचाप उन का मुँह देखता रह गया था तब। पर अब श्रीलाल शुक्ल और अदम गोंडवी का यह फ़र्क देख कर बुआ की वह बात याद आ गई।
तो क्या अब यह हिन्दी के लेखक अदम गोंडवी से मिलने जाएँगे अस्पताल? पचास हज़ार ही सही उन्हें इलाज के लिए मिल तो गया ही है। आगे का आश्वासन भी। और मुझे लगता है कि आगे भी उन के इलाज में मुलायम कम से कम पैसे की दिक़्क़त तो नहीं ही आने देंगे। मुझे याद है कि इंडियन एक्सप्रेस के एस० के० त्रिपाठी ने मुलायम के खिलाफ़ जितना लिखा कोई सोच भी नहीं सकता। मुलायम की हिस्ट्रीशीट भी अगर आज तक किसी ने छापी तो इन्हीं एस० के० त्रिपाठी ने। पर इसी पी० जी० आई० में जब एस० के० त्रिपाठी कैंसर से जूझ रहे थे तब मुलायम न सिर्फ़ उन्हें देखने गए थे बल्कि मुख्यमंत्री के विवेकाधीन कोष से उन्हें दस लाख रुपए भी इलाज के लिए दिए थे। मुझे अपना इलाज भी याद है कि जब मैं अस्पताल से घर लौटा था तब जा कर पता चला कि आँख का रेटिना भी डैमेज है। किसी ने मुलायम को बताया। तब वह दिल्ली में थे। मुझे फ़ोन किया और कहा — 'पांडेय जी, घबराइएगा नहीं, दुनिया में जहाँ भी इलाज हो सके, कराइए। मैं हूँ आप के साथ। सब खर्च मेरे ऊपर।' हालाँकि कहीं बाहर जाने की ज़रुरत नहीं पडी। इलाज हो गया। लखनऊ में ही। वह फिर बाद में न सिर्फ़ मिलने आए बल्कि काफ़ी दिनों तक किसी न किसी को भेजते रहे थे मेरा हालचाल लेने। पर हाँ, बताना तकलीफ़देह ही है, पर बता रहा हूँ कि मेरे परिचित लेखकों में से (मित्र नहीं कह सकता आज भी) कभी कोई मेरा हाल लेने नहीं आया।
मैं तो ख़ैर जीवित हूँ, पर कानपुर की एक लेखिका डा० सुमति अय्यर की ५ नवम्बर, १९९३ में निर्मम हत्या हो गई। आज तक उन हत्यारों का कुछ अता-पता नहीं चला। सुमति अय्यर के एक भाई हैं आर० सुन्दर। पत्रकार हैं। उन्होंने इस के लिए बहुत लम्बी लड़ाई लड़ी कि हत्यारे पकड़े जाएँ। पर अकेले लड़ी। कोई भी लेखक और पत्रकार उन के साथ उस लड़ाई में नहीं खड़ा हुआ। एक बार उन्होंने आजिज आ कर राज्यपाल को ज्ञापन देने के लिए कुछ लेखकों और पत्रकारों से आग्रह किया। वे राजभवन पर घण्टों लोगों का इन्तज़ार करते खड़े रहे। पर कोई एक नहीं आया। सुन्दर बिना ज्ञापन दिया लौट आए, राजभवन से और बहन के हत्यारों के खिलाफ़ लडाई बन्द कर दी। लेकिन वह टीस अभी भी उन के सीने में नागफनी-सी चुभती रहती है कि क्यों नहीं आया कोई उस दिन राजभवन ज्ञापन देने के लिए !
तो अदम गोंडवी साहब ! आप ऐसे हिन्दी लेखक समाज में रहते हैं जो सम्वेदनहीनता और स्वार्थ के जाल में उलझा पैसों, पुरस्कारों और जुगाड़ के वशीभूत आत्मकेन्द्रित जीवन जीता है और जब माइक या कोई और मौक़ा हाथ में आता है तो पाठक नहीं हैं का रोना रोता है। समाज से कट चुका यह हिन्दी लेखक अगर आप की अनदेखी करता है तो उस पर तरस मत खाइए। न खीझ दिखाइए। अमरीकापरस्ती को गरियाते-गरियाते अब यह लेखक अमरीकी गूगल और फ़ेसबुक की बिसात पर क्रान्ति के गीत गाता है। और ऐसे समाज की कल्पना करता है जो उसे झुक-झुक कर सलाम करे। फ़ासीवाद का विरोध करते-करते आप का यह लेखक समाज ख़ुद बडा फ़ासिस्ट बन गया है, अदम गोंडवी साहब ! आप गज़ल लिखते हैं तो एक गज़ल के एक शेर में ही बात को सुनिए —
पत्थर के शहर,पत्थर के ख़ुदा, पत्थर के ही इंसा पाए हैं / तुम शहरे मुहब्बत कहते हो हम जान बचा कर आए हैं !'
तो आमीन अदम गोंडवी, आमीन !
अदम के बाद
अदम गोंडवी आज सुबह क्या गए, लगता है, हिन्दी कविता की सुबह का अवसान हो गया। हिन्दी कविता में नकली उजाला, नकली अन्धेरा, बिम्ब, प्रतीक, फूल, पत्ती, चिड़िया, गौरैया, प्रकृति, पहाड़ आदि देखने-बटोरने और बेचने वाले तो तमाम मिल जाएँगे, पर वह मटमैली दुनिया की बातें बेलागी और बेबाकी के साथ करने वाले अदम को अब कहाँ पाएँगे? कबीर-सा वह बाँकपन, धूमिल-सा वह मुहावरा, और दुष्यन्त-सा वह टटकापन सब कुछ एक साथ वह सहेजते थे और लिखते थे —
गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे / पारलौकिक प्यार का मधुमास लेकर क्या करें।
अब कौन लिखेगा —
जो डलहौजी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे / कमीशन दो तो हिन्दुस्तान को नीलाम कर देंगे
या फिर —
काजू भुनी प्लेट मे ह्विस्की गिलास में / उतरा है रामराज विधायक निवास में।
या फिर —
जितने हरामखोर थे कुर्बो-जवार में / परधान बन के आ गए अगली कतार में।
गुज़रे सोमवार जब वे आए तभी उनकी हालत देख कर अन्दाज़ा हो गया था कि बचना उन का नामुमकिन है। तो भी इतनी जल्दी गुज़र जाएँगे हमारे बीच से वे, यह अन्दाज़ा नहीं था। वे तो कहते थे — यूँ समझिए द्रौपदी की चीर है मेरी ग़ज़ल में। और जो वह एशियाई हुस्न की तसवीर लिए अपनी ग़ज़लों में घूमते थे और कहते थे —
आप आएँ तो कभी गाँव की चौपालों में / मैं रहूँ न रहूँ भूख मेज़बां होगी।
और जिस सादगी से, जिस बुलन्दी और जिस टटकेपन के ताव में कहते थे, जिस निश्छलता और जिस अबोधपन को जीते थे, कविता और जीवन दोनों में, अब वह दुर्लभ है।
तुम्हारी फ़ाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है / मगर ये आँकडे झूठे हैं ये दावा किताबी है।
या फिर —
ज़ुल्फ़-अंगडाई-तबस्सुम-चाँद-आइना-गुलाब / भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इन का शबाब।
उनके शेरों की ताक़त देखिए और फिर उनकी सादगी भी। देखता हूँ कि लोग दू ठो कविता, दू ठो कहानी या आलोचना लिख कर जिस अहंकार के सागर में कूद जाते हैं और फ़तवेबाज़ी में महारत हासिल कर लेते हैं इस बेशर्मी से कि पूछिए मत देख कर उबकाई आती है। पर अदम इस सब से कोसों दूर ठेंठ गँवई अन्दाज़ में धोती खुँटियाए ऐसे खडे हो जाते थे कि उन पर प्यार आ जाता था। मन आदर और श्रद्धा से भर जाता था। और वो जो शमशेर कहते थे कि बात बोलेगी/ हम नहीं/ भेद खोलेगी आप ही को साकार करते जब उन की ग़ज़लें बोलती थी और प्याज की परत दर परत भेद खोलती थीं, व्यवस्था और समाज का, तो लोग विभोर हो जाते थे। हम जैसे लोग न्यौछावर हो जाते थे।
अदम मोटा पहनते ज़रूर थे, पर बात बहुत महीन करते थे। उनके शेर जैसे व्यवस्था और समाज के खोखलेपन और दोहरेपन पर तेज़ाब डालते थे। वह उनमें से नहीं थे कि काँख भी छुपी रहे और मुट्ठी भी तनी रहे। वे तो जब मुट्ठी तानते थे तो उनकी काँख भी दीखती ही थी। वे वैसे ही नहीं कहते थे — वर्गे-गुल की शक़्ल में शमशीर है मेरी ग़ज़ल। तो ग़ज़ल को जामो मीना से निकाल कर शमशीर की शक़्ल देना और कहीं उस पर पूरी धार चढाकर पूरी ताकत से वार भी करना, किसी को जो सीखना हो तो अदम से सीखे। हाँ, इस व्यवस्था से वे अब इतना उकता गए थे कि उनकी ग़ज़लों में भूख और लाचारी के साथ-साथ नक्सलवाद की पैरवी भी खुलेआम थी। उन का एक शेर है —
ये नई पीढ़ी पे मबनी है वही जजमेंट दे / फ़लसफ़ा गांधी का मौजू है के नक्सलवाद है।
वे यहीं नहीं रुके और लिख गए —
लगी है होड़ सी देखो अमीरों और ग़रीबों में / ये गाँधीवाद के ढाँचे की बुनियादी ख़राबी है / तुम्हारी मेज़ चाँदी की, तुम्हारे जाम सोने के / यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है।
अदम के पास अगर कुछ था तो बेबाक गज़लों की जागीर ही थी। और वही जागीर वह हम सब के लिए छोड गए हैं। और बता गए हैं —
घर में ठण्डे चूल्हे पर अगर ख़ाली पतीली है / बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली है।
वे तो यह भी बता गए हैं —
भीख का ले कर कटोरा चाँद पर जाने की ज़िद / ये अदा ये बाँकपन ये लंतरानी देखिए / मुल्क जाए भाड़ में इससे इन्हें मतलब नहीं / कुर्सी से चिपटे हुए हैं जांफ़िसानी देखिए
जब बताया जाता था कि अदम के साथ ग़मों की बरात होती है। तो लोग ज़रा नहीं, पूरा बिदक जाते थे। घुटनों तक धोती उठाए वह निपट किसान लगते भी थे। पर जब कवि सम्मेलनों में वह ठेंठ गँवई अन्दाज़ में खड़े होते थे तो वो जो कहते हैं कि कवि सम्मेलन हो या मुशायरा लूट ले जाते थे। पर यह एक स्थिति थी। ज़मीनी हक़ीक़त एक और थी कि कवि सम्मेलनों और मुशायरों में उन्हें वाहवाही भले सब से ज़्यादा मिलती थी, मानदेय कहिए, पारिश्रमिक कहिए उन्हें सब से कम मिलता था। लतीफ़ेबाज़ और गलेबाज़ हज़ारों में लेते थे पर अदम को कुछ सौ या मार्ग-व्यय ही नसीब होता था। वे कभी किसी से इसकी शिकायत भी नहीं करते थे। रोडवेज की बस या रेलगाड़ी के जनरल डब्बे में सवारी बन कर चलना उन की आदत थी।
वह आम आदमी की बात सिर्फ़ कहते भर नहीं, आम आदमी बन कर रहते जीते भी थे। उन के पाँव की बिवाइयाँ इस बात की बराबर चुगली भी खाती थीं। वे वैसे ही नहीं लिख गए —
भूख के अहसास को शेरो सुखन तक ले चलो / या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो / जो गज़ल माशूक के जलवों से वाकिफ़ हो गई / उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो।
और वह बेवा की माथे की शिकन से और आगे भी गज़ल को ले भी आए इस बात का हिन्दी जगत को फख्र होना चाहिए। उनकी शुरुआत ही हुई थी चमारों की गली से —
आइए, महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को / मैं चमारो की गली तक ले चलूँगा आप को।
इसी कविता ने अदम को पहचान दी। फिर —
काजू भुनी प्लेट में ह्विस्की गिलास में / उतरा है रामराज विधायक निवास में
शेर ने उन्हें दुनिया भर में परिचित करवा दिया। उनकी तूती बोलने लगी। फिर तो वह हिन्दी गज़ल की मुकम्मल पहचान बन गए।
उर्दू वालों ने भी उन्हें सिर माथे बिठाया और उनकी तुलना मज़ाज़ से होने लगी। समय से मुठभेड़ नाम से जब उनका संग्रह आया तो सोचिए कि विजय बहादुर सिंह ने लम्बी भूमिका लिखी और उन्हें फ़िराक, जोश और मज़ाज़ के बराबर बिठाया। हिन्दी और उर्दू दोनों में उनके कद्रदान बहुतेरे हो गए। तो भी अदम असल में खेमे और खाने में भी कभी नहीं रहे। लोग लोकप्रिय होते हैं वह जनप्रिय थे, जनवाद की गज़ल गुनगुनाने और जनवाद ही को जीने ओढ़ने और बिछाने वाले। यह अनायास नहीं था कि उनके पास इलाज के लिए न पैसे थे न लोग-बाग। अपने जन्म दिन पर आयोजित होने वाले कवि सम्मेलन में मुलायम भी उनकी सादी और बेबाक गज़लों पर रीझ जाते थे। मुलायम उन्हें भूले नहीं।
अबकी जब वह बीमार पड़े तो न सिर्फ़ सबसे पहले उन्होंने इलाज खर्च के लिए हाथ बढ़ाया बल्कि आज सुबह जब पाँच बजे उनके निधन की ख़बर आई तो आठ बजे ही मुलायम सिंह पी० जी० आई० पहुँच भी गए। बसपा की रैली के झंझट के बावजूद। न सिर्फ़ पहुंचे बल्कि, उनका पार्थिव शरीर गोंडा में उन के पैतृक गाँव भिजवाने के लिए सारा प्रबन्ध भी करवाया। लखनऊ से गोंडा तक रास्ते भर लोगों ने उनका पार्थिव शरीर को रोक-रोक कर उन्हें श्रद्धांजलि दी। लखनऊ में भी बहुतेरे लेखक और संस्कृतिकर्मियों समाजसेवियों ने उन्हें पालिटेक्निक चौराहे पर श्रद्धांजलि दी। उनके एक भतीजे को पानीपत से आना है। सो अंत्येष्टि कल होगी।
अदम अब नहीं हैं पर कर्जे में डूब कर गए हैं। तीन लाख से अधिक का कर्ज़ है। किसान सोसाइटी से डेढ़ लाख लिए थे, अब सूद लग कर तीन लाख हो गए हैं। रिकवरी को लेकर उनके साथ बदतमीज़ी हो चुकी है। ज़मीन उनके गाँव के दबंगों ने दबा रखी है। है कोई उनके जाने के बाद भी उन के परिवारीजनों को इस सब से मुक्ति दिलाने वाला? एक बात और। अदम गोंडवी का निधन लीवर सिरोसिस से हुआ है। यह सभी जानते हैं। पर यह लीवर सीरोसिस की बीमारी उन्हें कैसे हुई, कम लोग जानते हैं। वे ट्रेन से दिल्ली से आ रहे थे कि रास्ते में उनके साथ ज़हर-खुरानी हो गई। वह होश में तो आए पर लीवर डैमेज करके। जाने क्या चीज़ जहर-खुरानों ने उन्हें खिला दी। पर अब जब वे बीमार हो कर आए तो उन की मयकशी ही चरचा में रही। यह भी खेदजनक था। उनके ही एक मिसरे में कहूँ तो — आँख पर पट्टी रहे और अक्ल पर ताला रहे। तो कोई कुछ भी नहीं कर सकता। उनके एक शेर में ही बात खत्म करूँ —
एक जनसेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए / चार छह चमचे रहें माइक रहे माला रहे।
अब यह बात हर हलके में शुमार है, अदम गोंडवी, यह भी आप जानकर ही गए होंगे। पर क्या कीजिएगा, गीतों के राजकुमार भारत भूषण का भी अभी निधन हुआ है। उनका एक गीत है — ये असंगति ज़िन्दगी के साथ बार-बार रोई / चाह में और कोई बाँह में और कोई !
तो यह अदम के साथ भी हो गया। दोनों रचनाकारों को हमारी भाव-भीनी श्रद्धांजलि !