तो ऐसी थीं मेरी दादी देवसुन्दरी देवी / हरिनारायण सिंह 'हरि'

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यह है मेरी दादी स्वर्गीया देवसुन्दरी देवी की तस्वीर, जो मेरी दीमक खाये एक किताब में संयोग से सुरक्षित बच गयी है। मेरा विवाह 22 जून, 1978 को हुआ था और उसके 9 महीने बाद जनवरी, 1979 (मकर संक्रान्ति के बाद) में उनका निधन हो गया। उसी वर्ष 24 सितंबर को मेरे बड़े पुत्र सुजीत का जन्म हुआ था। मेरी दादी, जिसे हमलोग प्यार से मामा कहते थे, वह मेरे बाबा (दादा) गोरेलाल सिंह की दूसरी पत्नी थीं। मामा वैशाली (तत्कालीन मुजफ्फरपुर जिला) जिले के महनार थाना के हरपुर-फटिकवारा के विख्यात रईस व जमींदार ईश्वर सिंह की बहन थीं। मेरे बाबा कि पहली शादी समस्तीपुर जिला (तत्कालीन दरभंगा जिला) के विद्यापतिनगर और दलसिंह सराय के बीच अवस्थित गाँव मधैपुर में हुई थी। उस दादी से एक पुत्र हरिवंश सिंह हुए थे। मेरी दादी से मेरे पिता शत्रुघ्न प्रसाद सिंह का जन्म हुआ। दादी की एकमात्र और पहली संतान मेरे पिता के जन्म के ढाई वर्ष बाद ही मेरे दादा का स्वर्गवास हो गया था और मेरी दादी अपनी किशोरावस्था में ही विधवा हो गयी थी। मैंने जब होश संभाला तो अपने छोटे दादा, मेरे गाँव जौनापुर के प्रथम व आजीवन सरपंच, कुशल वैद्य व सच्चे अर्थों में समाजसेवी बाबू अनूपलाल सिंह तथा अपनी दादी देवसुन्दरी देवी के संरक्षण में अपने को पाया। छोटे दादा बाबू अनूपलाल सिंह धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे और मेरे दरवाजे पर प्रत्येक दिन अर्थ के साथ रामचरितमानस का पाठ हुआ करता था। कभी बाबू अनूपलाल सिंह तो कभी रामविलास बाबा, कभी द्वारिका तिवारी जी, कभी शंभू तिवारी जी, कभी मटिऔर के रोशन सिंह, तो कभी रामबुझावन चा रामायण का सस्वर कभी अकेले, कभी समूह में पाठ किया करते थे। एक व्यक्ति इसकी व्याख्या किया करते थे। रामायण सुनने के लिए एक-डेढ़ किलोमीटर दूर से भातू बाबा अवश्य आया करते थे। रटन बाबा, मोती बाबा, लालबिहारी बाबा के अतिरिक्त मेरी दादी भी रोज की श्रोता थी। उस समय सभ्रांत परिवारों की महिलाएँ दरवाजे पर नहीं आया करती थीं, सो मेरी दादी दरवाजे के पीछे बनी गोशाला में रामायण-श्रवण हेतु बैठा करती थीं। मेरा सोना-उठना, खाना-पीना सब दादा अनूपलाल सिंह के साथ हुआ करता था, सो बचपन में मैं भी इसका नियमित श्रोता हुआ करता था। मुझमें जो भी थोड़ा-सा साहित्यक संस्कार है, वह इन्हीं संगतियों की देन है। मुझे दादी कितना प्यार करती थीं, इसके दो संस्मरण आज भी याद हैं। मैं पांच-छः बरस का हो चुका था, किन्तु स्कूल जाने से काफी कतराता था। दादी स्कूल जाने के लिए काफी दवाब डालती थी, मारती भी थी। मैं भागकर बाबा के पास चला जाता था। एकबार का वाकया याद है। स्कूल जाने के डर से भागकर मैं बाबा के पास गोहाल में चला गया। वे उस समय तम्बाकू छेब रहे थे। पीछे से दादी पहुँची। मैं अपने बचाव हेतु पीछे से बाबा के गरदन को पकड़ उनके पीठ पर चढ़ गया। बाबा ने दादी को समझाते हुए कहा कि "जतई नऽ पढ़े, देखिअहु ई केतना पढ़तई से। जा-जा घर जा।"

इधर दादी झुंझलाते हुए बोले जा रही थी—"ई बुढ़वा हम्मर पोता के नऽ पढ़े देत।" बताता चलूं कि मेरी दादी देवसुन्दरी देवी, मेरे चार दादाओं में से सबसे बड़े दादा कि पत्नी थी और ये दादा (बाबा) अनूपलाल सिंह उनके सबसे छोटे, एकमात्र जीवित और विधुर देवर थे। समय से पूर्व की प्रौढ़ता और मानजनी के कारण उनके अग्रज भी उन्हें बूढ़ा कहकर सम्मान देते थे।

एकबार की एक और घटना के बारे में आपको बताने से अपने को रोक नहीं पा रहा हूँ। तब मैं मिडिल स्कूल में पढ़ता था। किस वर्ग में पढ़ता था, याद नहीं। लेकिन, कोर्स से बाहर की किताबों को पढ़ने की आदत लग चुकी थी। बाबा के पास उपलब्ध रामचरितमानस, शिवपुराण, श्रीमद्भागवत आदि पढ़ चुका था। तीसरी कक्षा में ही गीताप्रेस, गोरखपुर से डाक द्वारा मैंने 'भक्तभारती' और पांचों भाग 'भजन संग्रह' मंगवाकर पढ़ा था। पिताजी शिक्षक थे। बाहर रहते थे। सप्ताह-पन्द्रह दिन पर एकबार घर आते थे। कोनिया घर में एक ट्रंक रखा हुआ करता था (वह आज भी सुरक्षित है) , जिसमें बच्चों को पढ़ने वाली बहुत सारी पुस्तकें सजाकर पिताजी रखे हुए थे। उसीमें किताब की तह में वे रुपये भी रखा करते थे। वे जब घर आते थे, तो उनकी अनुपस्थिति में मैं उनकी जेब में से चाभी निकालकर ट्रंक खोलकर किताबें निकाल छिपा कर पढ़ा करता था। बाद में उसे उसी जगह पर रखकर दूसरी किताब निकाल लेता था। एक दिन पिताजी ने मुझे रंगे हाथ ट्रंक खोलते हुए पकड़ लिया। उस दिन उनका मास्टर का रूप देखने को मिला। गुस्सा में उन्होंने उसी जगह कहीं रखे पितरिया कलछुल से मेरी पीठ पर वह मारा कि कलछुल टेढ़ा हो गया। डर के कारण मेरे मुंह से निकले चित्कार को सुन दादी दौड़कर आयीं और कलछुल का दूसरा वार मेरे ऊपर नहीं हो सका। दादी ने पिताजी को इतना डांटा कि वे वहाँ से गुस्सा में बाहर आ गये। दादी ने पिताजी को गाली देते हुए मुझे चुप कराया और मार खाने का कारण जाना। दादी को जब यह विश्वास हो गया कि मैंने किताब निकालने के लिए ट्रंक खोला था, न कि पैसा चुराने के लिए, तो वह और भी पिताजी पर कुपित हुई। काफी बुरा-भला कही पिताजी को। पिताजी को भी जब असलियत का पता चला, तो उन्होंने काफी अफसोस किया और तबसे मेरे लिए ट्रंक को खोल दिया।