त्याग का भोग / इलाचन्द्र जोशी

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त्याग का भोग
Tyag kaa bhog.jpg
रचनाकार इलाचन्द्र जोशी
प्रकाशक राजपाल एंड सन्ज
वर्ष २००५
भाषा हिन्दी
विषय
विधा
पृष्ठ 272
ISBN
विविध
इस पन्ने पर दी गई रचनाओं को विश्व भर के स्वयंसेवी योगदानकर्ताओं ने भिन्न-भिन्न स्रोतों का प्रयोग कर गद्य कोश में संकलित किया है। ऊपर दी गई प्रकाशक संबंधी जानकारी छपी हुई पुस्तक खरीदने हेतु आपकी सहायता के लिये दी गई है।


1 मसूरी में उस दिन जिस ईरानी जिप्सी लड़की की दुकान में मैंने चाकू खरीदा उसमें मेरी कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। पर वह एक ऐसी लड़की की याद मुझे अक्सर दिलाती रहती है जो कुछ ही वर्ष पहले तक उसी स्थान पर उसी की तरह बिसाती की दुकान खोले रहती थी और वैसी ही चंचल और फिर भी दोनों की आकृति-प्रकृति में बहुत अंतर था। ईरानी लड़की के मुख पर एक ऐसा रूखापन छाया हुआ है जो मेरे मन को बरबस पीछे को ढकेलता है, पर उस लड़की के मुख से एक ऐसी स्निग्ध, सरस और सरल सहृदयता का भाव टपका पड़ता था जो किसी भी पथ भूले हुए पथिक को अपनी ओर खींचता था और बिना कुछ बोले ही उसे सांत्वना देता था। विशुद्ध शारीरिक दृष्टि से भी दोनों में बहुत अंतर था। ईरानी लड़की का चेहरा कुछ लंबा है, पर जिस लड़की की बात मैं कहने जा रहा हूँ, उसका मुँह कुछ गोल था। उसकी आँखें कुछ छोटी थीं और अपनी सरलता के भीतर ही किसी अजानित रहस्यलोक का आभास छिपाये हुए थीं। ईरानी लड़की की नाक लंबी है और उसका सिरा एकदम तीखा है। पर उस लड़की की नाक अपेक्षाकृत छोटी और सिरे पर गोलाई लिये हुए थी। ईरानी लड़की के मुख की अभिव्यक्ति से मेरे मन में यह विश्वास जगने लगता है कि वह जन्म-जात अपराधिनी और क्रूर-कर्मिणी है। पर जिस लड़की का किस्सा मैं कहने जा रहा हूँ उसकी और एक झलक देखने से ऐसा बोध होने लगता था कि उपनिषत्कार ने शुद्धं अपापबिद्धम की कल्पना उसी के समान किसी लड़की का चेहरा देखकर ही की होगी। ईसा की माता मेरी के संबंध में ईसाई कवियों ने जिस ‘इम्मेक्युलेट कन्सेप्शन’ की बात कही है उससा पहला अनुभव मुझे उसी लड़की को देखने पर हुआ।

वह लामा स्त्रियों का सा लहँगा पहने रहती थी और उन्हीं की तरह सिर पर एक विशेष ढंग का कपड़ा बाँधे रहती थी। पर उसकी आकृति से यह विश्वास नहीं होता था कि वह लामा जाति की हो सकती है। उसकी आँखें छोटी अवश्य थीं, और नाक भी किस कदर छोटी और गोल थी, पर हद तक नहीं कि उसे मंगोल जातीय कहा जा सके। मुझे पूरा विश्वास है कि यदि वह साड़ी पहने होती तो उसके पूर्णतः भारतीय होने में किसी को रंचमात्र भी संदेह न होता। मैं उस साल पहली बार मसूरी आया हुआ था। एक दिन यों ही टहलते हुए जब मैं ठीक उसी स्थान पर पहुँचा जहाँ वह ईरानी लड़की बैठी तब सहसा मेरी दृष्टि उस लामा भेषधारिणी लड़की पर जाकर ठहर गयी। उसके असाधारण रूप रंग ने मुझे इस कदर आकर्षित किया कि मैं उसकी दुकान के पास जाकर ठहर गया। लड़की ने तीतर की तरह तीखे किन्तु स्निग्ध और मधुर स्वर में कहा- ‘‘बाबूजी, क्या चाहिये ?’’

मेरा हाथ बरबस एक चाकू पर चला गया। यह ‘‘छः आने का चाकू है, ले लीजिये, बाबूजी ! इससे कम पर आपको इस लाइन की किसी भी दुकान पर नहीं मिलेगा।’’ विशुद्ध हिंदी में बिना किसी विदेशी उच्चारण के लड़की ने कहा। उस लाइन में जिप्सी (खाना-बदोश) लड़कियों की चार-पाँच दुकानें और लगी हुई थीं। मैंने वह चाकू ले लिया और उसके बाद दूसरी चीजें देखने लगा। जिस तरह की चीजें वहाँ थीं उनमें से किसी भी खास चीज में मेरी कोई विशेष दिलचस्पी नहीं हो सकती थी। पर मुझे लड़की से बातें करने का बहाना ढूँढ़ना था। दूसरी बार सिंदूर की एक बंद पुड़िया पर मेरा हाथ रुक गया। तत्काल लड़की बोल उठी-‘‘यह बहुत मशहूर सिंदूर है, बाबूजी, ले लीजिये। बीबीजी को यह बहुत पसंद आयेगा। यहाँ की सब औरतें यही सिंदूर खरीदती हैं।’’

मैं लड़की से कैसे कहता कि मेरे घर में कोई ‘बीबीजी’ नहीं हैं, मेरा विवाह ही नहीं हुआ है। वह कहती चली गयी-‘‘दूसरी तरह के सिंदूर माँग में भरे जाते हैं तो उनसे सिर में दर्द होने लगता है, ऐसा मैंने सुना है। पर इस सिंदूर के बारे में अभी तक कोई शिकायत सुनने में नहीं आयी है।’’ मैंने मौका पाकर कहा-‘‘तुम्हें कैसे मालूम कि सिंदूर माँग में भरी जाती है ? हिंदू औरतों के यहाँ के रीति-रस्मों की जानकारी तुम्हें कैसे हो गयी ? तुम तो तिब्बती हो न ?’’ लड़की मुस्करायी। उस निश्छल मुसकान की मोहकता का वर्णन करने में मैं असमर्थ हूँ, क्योंकि मैं कोई कवि नहीं हूँ। वह बोली-‘‘मैं तिब्बती नहीं हूँ। मेरा जन्म यहीं हुआ है और हिन्दू घरों में ही बड़ी हुई हूँ।’’

मैंने पूछा- ‘‘पर तुम यह तिब्बती पोशाक क्यों पहनती हो ?’’ ‘‘इसलिये कि मेरा बाप तिब्बती था।’’ ‘‘और माँ ?’’ ‘‘माँ यहीं की थी। राजपुर में उसका जन्म हुआ था।’’ राजपुर मसूरी के नीचे एक छोटा सा पहाड़ी स्थान है। मेरा कौतूहल उसके संबंध में घटने के बजाय बढ़ गया। मैं और भी बहुत सी बातें पूछना और जानना चाहता था, पर बीच सड़क में दुकान खोलकर बैठने वाली लड़की से उसके जन्म, कुल और जीवन के संबंध में अधिक बातें करना अशोभन जान-कर मैं अनिच्छापूर्वक वहाँ से उठकर जाने लगा। दो कदम आगे बढ़ा हूँगा कि लड़की पीछे से दौड़ी आयी और मुझे याद दिलाती हुई बोली-‘‘आप यह सिंदूर नहीं ले गये, बाबूजी।’’ ससंकोच मैंने सिंदूर की पुड़िया उसके हाथ से ले ली और जो दाम उसने माँगा वह देकर मैं चला गया। एक बार इच्छा हुई कि सिंदूर की उस पुड़िया को कोट की जेब में डाल कर अनमने भाव से लंधौर बाजार की ओर बढ़ा मन में एक अजीब सी बेचैनी समा गयी थी-ऐसी बेचैनी जैसी जीवन में दो-ही-एक बार अत्यंत असाधारण परिस्थितियों में ही संभव होती है। घटना केवल चार ही वर्ष पूर्व की है। पर चार वर्ष पूर्व मेरे मन में और शरीर में जो स्फूर्ति थी वह आज कल्पनातीत सी हो गयी है।

तब मैं अपने को पूर्ण युवा अनुभव करता था। मैं समस्त सांसारिक उत्तर दायित्वों से रहित था, मेरा स्वास्थ भी अच्छा था। पहाड़ पहली बार आया हुआ था। पहाड़ का शुभ्र समुज्ज्वल प्राकृतिक वातावरण और साथ ही आनन्दान्वेषी नर-नारियों से घिरा हुआ और रंगमय वातावरण मिलकर मेरे मन में जीवन के एक नये ही रस की धारा तंरगित कर रहे थे। अपनी ऐसी मनःस्थिति में जब उस लड़की को मैंने पहली बार देखा तब उस नये रस में भी एक अनोखी मंथन क्रिया आरंभ हो गयी और मैं समझ ही न पाया कि मेरे भीतर की कौन रहस्यमयी प्रवृत्ति इतने दिनों तक निष्क्रिय अवस्था में निश्चल पड़ी रहने के बाद आज सहसा किस असाधारण सी प्रेरणा से परिपूर्ण विस्फोट के साथ उभर उठी है। न जाने वह विस्फोट मुझे कहाँ लाकर पटकेगा।

दूसरे दिन ठीक उसी समय उस लड़की की दुकान पर पहुँचा जिस समय पिछले दिन पहुँचा था। मुझे देखते ही उल्लास से उसका सुन्दर पीला सा चेहरा तमतमा उठा-कम से कम मेरी आँखों को ऐसा ही लगा। ‘‘आइये बाबूजी, आइये ! बीबीजी को सिन्दूर पसंद आया या नहीं ?’’ उसने कहा। मैं उसके उस प्रश्न का क्या उत्तर देता ! पर कुछ तो कहना ही था। बोला-‘‘सिन्दूर अच्छा था।’’ और फिर छड़ी के सहारे नीचे झुककर दुकान पर सजी हुई चीजों को देखने लगा। मेरे उत्तर से लड़की का उत्साह स्वभावतः दुगना बढ़ गया। उसने उल्लास भरे स्वर में कहा-‘‘और क्या चाहिये, बाबूजी ?’’ अनमने भाव से मेरा हाथ एक छोटी सी पुस्तिका पर गया। किसी रास्ते प्रेम में छपी हुई उस पुस्तिका के आवरण पृष्ठ पर बड़े-बड़े अक्षरों में छपा हुआ था-‘‘डाकुओं का सरदार।’’

लड़की झट बोल उठी-‘‘बड़ी अच्छी किताब है, बाबूजी, इसे खरीद लीजिये। इसमें डाकुओं के एक बड़े बहादुर सरदार की कहानी है जो गरीबों की मदद किया करता था।’’ मैंने उस पुस्तिका को खरीदने के उद्देश्य से बाएं हाथ में रख लिया। उसके बाद एक दूसरी पुस्तिका पर हाथ लगाया। वह भी उसी प्रेस में छपी हुई मालूम होती थी। ऊपर बड़े बड़े अक्षरों में नाम छपा था-‘‘नौलखा हार।’’

लड़की पहले की ही तरह सहज भाव से बोली-‘इसमें बहुत अच्छी कहानी है। एक राजा एक गरीब किसान की खूबसूरत लड़की को प्यार करने लगा था। उस लड़की से शादी करके उसने उसे अपनी पटरानी बना दिया और नौ लाख अशर्फियों की कीमत का एक जड़ाऊ हार उसे भेंट किया-’’ इस बार मैंने उत्सुक दृष्टि से उसकी ओर देखा-यह जानने के लिये कि प्यार की बात करते हुए उसके मुँह पर कोई नया रंग आता है या नहीं। एक विशेष प्रकार की चमक का एक विशेष प्रकार की चमक का एक बहुत ही हलका-प्रायः अव्यक्त सा-आभास मुझे उसकी आँखों के कोने में झलकता दिखायी दिया। मैं कह नहीं सकता कि वह चमक उसकी बात से किसी भी अंश में सम्बन्धित थी या नहीं।

मैंने पूछा-‘‘क्या तुम पढ़ना जानती हो ?’’ उत्साहित होकर उसने कहा-‘‘हाँ, बाबूजी, मैंने छठे दर्जे तक आर्य कन्या पाठशाला में पढ़ा है।’’ मेरे भीतर जो तूफानी भाव रह-रहकर हिलकोर उठे थे, उन्हें बाहर तनिक भी प्रकट न होने देने के लिए मैं पूरा प्रयत्न कर रहा था। आम सड़क पर उसके पास अधिक देर तक बैठे रहना भी शोभा नहीं था, विशेषकर जब दूसरे कुतूहली ग्राहण मेरे पीछे और अगर बगल में खड़े थे। इसलिये उस दिन भी उससे अधिक बातें न करके में उन दो पुस्तिकाओं के दाम उसे देकर उठ खड़ा हुआ और चल दिया। उस दिन-भर और रात-भर मैं अशांत हृदय से यह सोचता रहा कि किस उपाय से उसे अपने निकट संपर्क में लाया जाय। समस्त सांसारिक बंधनों से रहित मेरे युवा प्राणों में जो रोमानी रंग पूरे प्रवेश से चढ़ा हुआ था उसने एक विचित्र सूझ मेरे मस्तिष्क को दे दी।

यह रचना गद्यकोश मे अभी अधूरी है।
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