त्रिलोचनःअनंत से थोड़ा सा / अभिज्ञात
त्रिलोचनजी से मेरी मुलाकात कोलकाता में हुई थी. पहली मुलाकात के बाद से ही वे मेरी अभिव्यक्ति के लिए चुनौती बन गए थे. आज भी बने हुए हैं. हालांकि, पत्रकारिता के पेशे से जुड़ा होने का सबसे बड़ा लाभ मेरे खयाल से किसी लेखक को यह होता है कि वह अभिव्यक्ति के संकट से उतना आक्रांत नहीं होता, जितने अन्य लेखक होते हैं. यों यही उसके साहित्य को कई बार उथला और तात्कालिक बना देता है. पत्रकार के सामने पेशागत मजबूरी होती है कि वह अपने अनुभूत को शब्द देने में विलम्ब न करे. डेड लाइन की तलवार हमेशा उसके सिर पर लटकी होती है.
इन सबके बावजूद लगभग पांच-सात सालों में मैं उन पर कुछ चाहकर भी न लिख पाया. जो कुछ लिखा वह इतना भर कि उन्होंने किसी सभा में क्या कहा समाचार कवरेज की जिम्मेदारी के निर्वहन के लिए, लेकिन और बहुत कुछ लिखने का रह ही गया. और मैं उन पर कुछ लिखने के आंतरिक दबाव को लगातार टालता गया हूं तो सिर्फ इसलिए कि उनकी साधारण दिखने वाली असाधरणता मेरी अभिव्यक्ति के लिए चुनौती रही है.
उन दिनों मैं लेखन के उस दौर से गुजर रहा था जब अपने लिखे पर लोगों की प्रतिक्रिया जानने की बड़ी उत्सुकता रहती है. विख्यात लेखकों से मिलना-जुलना और उनसे खतों-किताबत करना लिखने से कम महत्वपूर्ण नहीं लगता. उन्हीं पत्रों में एक पत्र मुक्तिबोध सृजन पीठ, सागर के अध्यक्ष त्रिलोचन शास्त्री का भी था. उन दिनों उनकी प्रतिक्रिया ने संबल दिया था. और उनका खत कई मायनों में मेरे लिए इसलिए भी अहम् था, क्योंकि वे केदारनाथ सिंह के काव्य गुर रह चुके थे, जिन पर मैं कोलकाता विश्ववि'ालय से पीएचडी क़े लिए शोध कर रहा था. मैंने केदारजी पर पढ़ने के उपक्रम में ही त्रिलोचनजी के साहित्य को किसी हद तक पढ़ डाला था. कहना न होगा कि यह उस शोध-प्रक्रिया के कारण भी हूआ था, जिसमें केदारजी पर उनके पूर्ववर्ती कवियों के प्रभाव की पड़ताल करनी थी. जिस केदारनाथ सिंह ने बनारस में अपने विदयार्थी जीवन में त्रिलोचनजी के प्रभाव में सॉनेट लिखे थे, उन पर त्रिलोचनजी के आरंभिक प्रभाव के बाद उसका सीधा असर परिलक्षित नहीं किया जा सकता है. त्रिलोचनजी की कविता अपना असर धीरे-धीरे करती है. पहली नजर में उसकी सादगी ऐेसी कि किसी कौशल का पता ही नहीं देती. वह लगातार इस बात का एहसास दिलाती है कि कौशल के बगैर भी कविता लिखी जा सकती है. केदारजी की कविता का स्वभाव दूसरा है. काफी हद तक उन्होंने त्रिलोचनजी से उल्टी राह पकड़ी है. केदारजी के यहां साधारण हमेशा असाधारण की तरह आता है. हर छोटी-मोटी हलचल एक विस्मय बन जाया करती है, लेकिन त्रिलोचनजी के यहां गंभीर से गंभीर बात सहजता का दामन नहीं छोड़ती, इसलिए वे पढ़ते समय काफी असहज लगे थे. बिम्ब जैसे विधान की वहां कोई गुंजाइश नहीं थी जो केदारजी और शमशेर में मुझे उन दिनों विशेष प्रभावित कर रहा था.
यहां यह कहना समीचीन होगा कि बाद में त्रिलोचनजी ने केदारजी की कविता को समझने की एक कुंजी दी थी. उन्होंने बताया था कि केदार की कविता की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वे जो मुख्य रूप से कहना चाहते हैं, उसे कविता में जहां-तहां देते हैं. उनकी कविता पाठक पर अपना सम्मोहन जाल फेंक देती है और लोग नहीं समझ पाते आखिर क्या है उनकी कविता में और कहां है, जो उन्हें भा रहा है. दूसरे यह कि जिसने कई बेटियां ब्याही हों, वह अपने आप अच्छा कवि बन जाता है. कोई आसान काम नहीं अपने कलेजे के टुकड़ों को विदा करना. त्रिलोचन मुक्त कंठ से स्वीकार करते हैं कि केदार अपनी खूबियां के कारण हर युवा कवि के लिए चुनौती हैं और उसके नायक भी. हिन्दी में समकालीन कविता की जगह केदार के आस-पास ही है. इधर केदारजी ने भी मुझसे बातचीत में यह सहज स्वीकार किया कि त्रिलोचनजी गुर हैं पर आवश्यक नहीं कि शिष्य गुर की परंपरा को ही आगे बढ़ाए. उसे जो गुर से मिलता है वह चीजों को सही परिप्रेक्ष्य में देखने की तमीज.
अस्तु, यह एक इत्तफाक था कि कोलकाता से जनसत्ता' निकलने लगा तो त्रिलोचनजी के पुत्र अमित प्रकाश सिंह वहां समाचार सम्पादक होकर आ गए. उनसे धीरे-धीरे मित्रता होती गई. बहुत कम लोग जानते हैं कि वे भी प्यारी कविताएं लिख लेते हैं. यहां तक कि टालीगंज से जनसत्ता कार्यालय पहुंचने के दौरान मेट्रो रेल के संक्षिप्त सफर में उन्होंने कई कविताएं लिख डाली थीं. कई शास्त्रीय संगीत की महफिलों का लुत्फ हमने रात-रात एक साथ जागकर लिया है और उस पर लिखा भी है. बंगाल की नृत्य कलानाचनी' पर तो उन्होंने एक पुस्तक भी लिखी है कला समीक्षक वनिता झारखंडी के साथ मिलकर.
ह्नऔर त्रिलोचनजी जब भी अमितजी के यहां पारिवारिक कारणों से या कोलकाता के किसी साहित्यिक आयोजन में आते, मुलाकात के अवसर मिलते रहे. अमितजी के टालीगंज निवास पर मैं शास्त्री के यहां घंटों जम जाता. अमितजी उस वक्त हमारे लिए लगभग अनुपस्थित से दूसरे कमरे में रहते या कहीं निकल जाते. उस समय मैं केवल त्रिलोचनजी का परिचित होता अमितजी का नहीं. पिता पुत्र के बीच कुछ ऐेसा था कि वे एक-दूसरे के सामने बहूत सहज नहीं हो पाते थे. इस समय मैं त्रिलोचनजी को करीब पाता. हमारी दुनिया दूसरी हो जाती और अमितजी हमें दूसरी दुनिया के लगते. अमितजी में सहजता और सांसारिक छद्म के निर्वाह की व्यावहारिकता का किसी हद तक अभाव रहा है, जिसके कारण एक काबिल पत्रकार की तमाम खूबियों के बावजूद वे अपने सहकर्मियों के बीच लोकप्रिय नहीं रहे हैं. शायद उन्होंने इसकी कोई आवश्यकता भी महसूस नहीं की.
शास्त्रीजी बताते कैसे वे लाठी चलाने में कुशल थे. किस-किस भाषा को कब-कब और कैसे सीखा. दिवंगत पत्नी की चर्चा भी करते. जान कर अद्भुत लगता कि वे बनारस में अपने घर का पता भूल जाते थे. सावधानी से अपनी जेब में जेब में अपने घर का पता लिखकर रख लेते थे और अकसर अजनबी की तरह अपने घर का पता खोजते हुए लौटते. देर से लौटना गृह कलह का कारण बनता रहता. कई बार पर्ची खो जाती और अपने ऐसे परिचित को तलाशते जिसने उनका घर देखा हो. अपने घर लौटने के लिए उन्हें मार्गदर्शक की जरूरत पड़ती. बात को छिपाने के लिए परिचित को अपने घर न्योत ले जाते.
यूं त्रिलोचनजी से बात करने का मतलब उन्हें सुनना ही होता. उनके पास बातों का अनन्त भंडार है और बातें भी ऐसी कि सुनते ही रह जाओ. वे हर शब्द की तह में पहुंच जाते हैं. कई भाषाओं, विभिन्न सब्जियों की विशेषताओं, विभिन्न देशों की ॠतुओं, विभिन्न पक्षियों के व्यवहार की जानकारी उन्हें थी. उनके अन्दर कई दुनिया मैंने महसूस की. कई बार तो मुझे लगा कि कोलकाता की नेशनल लाइब्रेरी के अधिक अकेले शास्त्रीजी में सूचनाएं भरी पड़ी हैैं. वे जीते जागते संदर्भ ग्रंथ हैं. वे बड़े कवि न भी होते तो भी उनका विद्वान उनसी स्मरण शक्ति का आदमी बिरला ही कोई होगा. या फिर संभव है हुआ ही न हो.
पहले-पहल तो उनकी बातचीत की शैली अजीब लगी. मैंने पाया कि बातों का तारतम्य सुनने वाले के लिए गड्ड-मड्ड हो जाता है. वे एक बात को शुरू करते हैं, फिर बीच में ही उसके संदर्भ पर चर्चा छेड़ देते हैं. मूल बात तो वहीं कुछ देर के लिए ठहर जाती है और संदर्भ भी मूल बात सा विस्तार पाने लगता है. वहां से फिर एक नया संदर्भ जुड़ जाता है. इस प्रकार चार प्रसंग एक साथ चलने लगते हैं. रह-रहकर सबको वे थोड़ा-थोड़ा विस्तार देते चलते हैं. यदि आपने मनोहरश्याम जोशी को पढ़ा हो तो आप कुछ-कुछ अनुमान लगा सकते हैं, कथानक के भीतर कथानकों का अनंत सिलसिला. जैसे कोई वादक कई वाद्य यंत्र एक ही साथ हेरफेर के साथ ऐक ही सुर धुन में बजाता है. बात की यह शैली सुनने वाले के लिए खासी दिक्कत का सबब बन सकता है पर एक अभूतपूर्व अनुभव तक भी उसे ले जाता है.
एक सुखद संयोग का था जब मुझे शास्त्रीजी की मौजूदगी में उनकी प्रिय कविताएं पढ़ने का अवसर मिला था. भारतीय भाषा परिषद की ओर से शायद उनकी 75 वीं वर्षगांठ के अवसर पर एक भव्य समारोह का आयोजन किया गया था. वहां शास्त्रीजी को अपनी प्रिय कविताएं भी सुनानी थीं. मैं अखबार से होने की वजह से आगे की पंक्ति में पत्रकारों के साथ बैठा था. अपनी एक कविता सुनाने के बाद शास्त्रीजी ने एकाएक मेरा नाम लेकर कहा था कि और कुछ कविताएं सुनाने का मन है जो अभिज्ञात पढ़कर सुनाएंगे. मेरे हाथ-पांव फूल गए थे, क्योंकि जिन कविताओं की अर्थतह तक पहुंचना किसी समय मेरे लिए चुनौतीपूर्ण था, अब मुझे उसका पाठ करना था. मुझे भरी महफिल में उनकी डांट सुनने के आसार भी नजर आए थे. इसके कुछ अरसा पहले मैं बुजुर्ग कवि नार्गाजुन से कई लोगों के सामने पिट चुका था. सो इस तरह की आशंका निर्मूल नहीं थी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हूआ. नागार्जुन व्यवहार में अराजक थे, लेकिन त्रिलोचन संयत. यहां तक कि मैंने पाया कि किसी सभा में ोता उनके लम्बे वक्तव्य से ऊबने लगते तो उन्हें अपनी बात समेटने के लिए पर्ची दे दी जाती. वे इसका बुरा नहीं मानते. वैसे भी वे बातों को जिस फलक तक ले जाने के आदी रहे हैं, उसे समेटने के लिए भी उन्हें काफी समय की आवश्यकता पड़ती है. खैर, शास्त्रीजी ने पुस्तकालय मेें उपलब्ध अपनी पसंद की कविताओं में पर्ची लगा रखी थी, सो कविताओं के चयन का संकट नहीं था. वह काव्य पाठ आज भी मेरे लिए सुख का विषय है.
कार्यक्रम की समाप्ति पर उन्होंने मेरे पीठ पर हाथ रखा था जो आज भी कहीं मेरे अनुभूतियों में है. उनके आने की अग्रिम खबर मुझे अमितजी से पहले ही मिल जाया करती थी. वे एक बार संजोग से कालीपूजा के अवसर पर कोलकाता पहूंचे थे. कोलकाता में दुर्गापूजा के बाद कालीपूजा ही सबसे बड़ा जनोत्सव है. कालीपूजा पंडालों के उद्धाटन की प्रथा भी चल निकली है. पूजा कमेटियां किसी विख्यात व्यक्ति से पंडाल का उद्धाटन करवाती हैं. यहां लोकप्रिय अभिनेता मिथुन चक्रवर्ती से लेकर राज्यपाल तक इन सबमें व्यस्त रहते हैं. मेरे एक रंगकर्मी मित्र और प्रतिभा के संगीत-शिष्य शिव जायसवाल के नेतृत्व में भी एक पूजा कमेटी थी. उन्हें किसी उपयुक्त उद्धाटक की तलाश थी, सो मैंने उन्हें अपने साथ लिया और शास्त्रीजी के यहां हाजिर हो गया. मैंने शास्त्रीजी से कहा कि मैं पहले ही आपकी ओर से हां कह चुका हूं, आयोजक को आपसे औपचारिक तौर पर मिलवाने लाया हूं. उद्धाटन आपको ही करना है. मेरे मन में चोर यह था कि शास्त्रीजी प्रगतिशीलता के हिमायती रहे हैं. पूजापाठ को कर्मकांड मानकर इनकार न कर बैठें, लेकिन उन्होंने इसमें प्रसन्नता जाहिर की थी. एक तो इसलिए कि बंगाल में दुर्गापूजा और कालीपूजा को जिस उत्साह से लोग मनाते हैं, इससे वे भी सहमत थे कि यह केवल एक मांगलिक कार्य या विधि-विधान नहीं है, बल्कि लोकोत्सव है. दूसरे वे काली की पूजा को मातृशक्ति की पूजा मानते हैं. यह स्त्री की सत्ता का स्वीकार है.
और शाम को उन्होंने पूरे उत्साह से कालीपूजा पंडाल का उद्धाटन किया था. उन्होंने कहा था कि यह उनके लिए एक सुखद अनुभव का अवसर है.
एक बार एक संस्था ने मुझसे सलाह ली कि कोई ऐसा आयोजन किया जाए जो थोड़ा लीक से हटकर हो. तय यह हुआ कि प्रेम पर साहित्य चिन्तकों से बुलवाया जाए. शास्त्रीजी कोलकाता में थे. मेरे प्रति आत्मीयता रखने वाली और मेरी शोध निर्देशिका डॉ ऌलारानी सिंह को भी पढ़ा चुकी ज्ञानोदय के दौर की कथाकार-कवयित्री डॉ सुकीर्ति गुप्ता भी टालीगंज रहती हैं. मैं त्रिलोचनजी के साथ टैक्सी से उनके यहां पहुंचा और उन्हें भी रिसीव करता हुआ आयोजन स्थल ठनठनियां कालीबाड़ी जायसवाल भवन के लिए निकला था. सुकीर्तिजी काफी पहले से सजधज कर तैयार बैठी थीं, सो मेरे विलम्ब से पहुंचने पर उन्होंने मुझे कोसना शुरू कर दिया था. त्रिलोचनजी कोलकाता में हम सबके प्रिय भाई मनमोहन ठाकौर के किस्से सुनाते रहे, लेकिन वह दिन ऐसा था कि जगह-जगह तीन संगठनों के जुलूस मिले और रास्ता जाम का सामना करना पड़ा. गलती मेरी थी कि मैं खुद तयशुदा समय से काफी देर से शास्त्रीजी के यहां पहुंचा था. सुकीर्तिजी हर जाम के बाद धमकाती रहीं. कार्यक्रम खत्म होने के बाद पहुंचे तो तुम्हारा कान उमेठूंगी वगैरह-वगैरह. शास्त्रीजी मेरी हालत पर मुस्कुराते रहे और चुटकियां लेते रहे.
सुकीर्तिजी को प्रकारांतर से और भड़काते भी रहे और उस समय शास्त्रीजी ने सीख दी थी आयोजक हमेशा पदाधिकारी' होता है. अर्थात पद यानी लात खाने का अधिकारी. इस पर हम तीनों देर तक हंसते रहे थे और गनीमत यह थी कि आयोजकों ने कार्यक्रम त्रिलोचनजी को ध्यान में रखते हुए शुरू ही नहीं किया था.
और इन्हीं सुकीर्तिजी को शास्त्रीजी ने किस तरह से दुःखी किया था, इसका शायद उन्हें आज भी भान न हो. मैंने अपना एक प्रकाशन भी शुरू किया था नाद प्रकाशन के नाम से, जो डूब गया. सुकीर्ति गुप्ता का एक कथा संग्रह दायरे' काफी पहले शायद मेरे जन्म के पहले 1960 में छपा था. उन्हें अफसोस था कि जिस नाम से वह किताब छपी थी, एक साजिश के चलते वह कहानी उस संग्रह में शामिल ही नहीं की गई थी. वे फिर किसी साजिश का शिकार नहीं होना चाहती थीं, सो पहला कविता संग्रह शब्दों से घुलते-मिलते हुए' उन्होंने मुझे प्रकाशित करने को दिया था. इसके पहले मैंने सकलदीप सिंह औरर् कीत्तिनारायण मिश्र के काव्य संग्रह प्रकाशित किए थे, जिसकी साहित्यिक हलके में ठीक-ठाक चर्चा हो गई थी. इस वजह से भी मेरा प्रकाशन उन्हें भाया था. सबसे बड़ी बात यह थी कि वे मुझ पर हर तरह से धौंस जमा सकती थीं. उनकी धौंस का मैं इस कदर कायल रहा कि कई-कई बार प्रूफ देखने के बाद भी कई गलतियां उन्होंने छोड़ दी थीं और मुझे उनकी हिदायत थी कि मैं ज्ञान बघारने के लिए उनकी भाषा से छेड़छाड़ न करूं, प्रूफ वे खुद ही देखेंगी. उन्हें इस बात का भान न था कि केवल शब्द ज्ञान की कला ही प्रूफ देखने की कला नहीं है. साधारण तौर पर बगैर अभ्यास के प्रूफ देखा जाए तो तमाम गलतियां छूट जाया करती हैं. वे गलतियां तब नजर आती हैं, जब अवसर निकल चुका होता है. नतीजतन गलतियों की एक सूची भी छापनी पड़ी उन्हीं के कहने पर. पुस्तक अभी पूरी छपी न थी और कि इस बीच त्रिलोचन जी कोलकाता आए. सुकीर्तिजी ने एकाएक ठान लिया उन्हीं से पुस्तक का लोकार्पण कराना है. आनन-फानन में तीन रात जगकर पुस्तक छपी. लोकार्पण के समय पुस्तक की जिल्द गीली थी. समारोह में भी सुकीर्तिजी ने गलतियों के लिए अपने इस नराधम प्रकाशक को फटकारा था. शास्त्रीजी ने पुस्तक का लोकार्पण तो किया,
दुनिया-जहान की तमाम बातें की और बैठ गए. यह उन्हें याद नहीं रहा या जानबूझ कर याद करना नहीं चाहा कि यह कार्यक्रम सुकीर्ति गुप्ता की पुस्तक पर है उन पर या उनकी पुस्तक पर दो शब्द बोलें. सुर्कीतिजी की मायूसी को मैंने उसी समय ताड़ लिया था. वह तो गनीमत है कि मनमोहन ठाकौरजी ने सुर्कीतिजी की तारीफ में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी, वह आखिरकार सुकीर्तिजी के वर्षों पुराने दोस्त थे और मुझे भी दिलासा दिया था कि अपनों की फटकार भी उसके सम्मान की भाषा है.
मैं अभी दो सप्ताह पहले ही कोलकाता गया था. मेरे युवा चित्रकार और कवि मित्र नंदकिशोर ने बताया कि हाल ही में त्रिलोचनजी कोलकाता में थे. वे त्रिलोचनजी के साथ एक होटल में चले गए. वहां पाया कि शास्त्रीजी बातें किए जा रहे हैं और केवल रोटियां खा रहे हैं. उन्होंने टोका था- शास्त्रीजी सब्जी वगैरह भी लीजिए.' शास्त्रीजी का जवाब था-मुझे एक समय में एक ही चीज खाना पसंद है. सब्जियों की भी बारी आएगी.' इस तरह के किस्से भी त्रिलोचनजी पर खूब हैं, पर इसका प्रत्यक्ष अनुभव मुझे नहीं है. इधर समाचार पत्रों में खबर पढ़कर मर्माहत अवश्य हूआ कि जिस मुक्तिबोध सृजन पीठ का नाम त्रिलोचनजी की वजह से सुना था, उस पद पर आसीन इस महान विभूति को महज तीन हजार रपए मासिक दिए जाने का ही सरकारी प्रावधान था और उसके भुगतान में भी विलंब होता रंहा है. यह किसी भी संस्कृतिकर्मी के लिए सदमे से कम नहीं है. जिस पद से मुक्तिबोध और त्रिलोचन का नाम जुड़ा हो उसकी गरिमा यूं तार-तार है. इधर फिर राहत की खबर मिली कि अगस्त 2001 से मुक्तिबोध सृजन पीठ का मानदेय तीन हजार से बढ़ाकर दस हजार कर दिया गया है. हालांकि यह भी अपर्याप्त है.
हाल ही में फिर समाचारपत्रों से पता चला कि अस्वथता की वजह से उन्होंने सृजनपीठ का दायित्व छोड़ दिया है और वे बेटे के यहां हरिद्वार चले गए हैं. वे संभवतः उषा जी के साथ होेंगे, जहां उनका मायका है. अमित जी कुछ माह पहले कोलकाता जनसत्ता से ट्रांसफर होकर लखनऊ चले गए हैं. वहां से कभी-कभार उनके फोन मुझे यहां इंदौर में आते रहते हैं.
त्रिलोचनजी की कथा अनंत है. कभी साहस कर सका तो कुछ लिखूंगा. यह तो लिखने का उपक्रम भर है. शायद उनकी अनंतता से थोड़ा सा कुछ अभिव्यक्त कभी कर सकूं. मुझे याद आता है भैयाजी बनारसी का कथन जो अपनी मृत्यु से कुछ दिन पहले अपने इंटरव्यू में उन्होंने मुझसे कहा था. मैंने त्रिलोचनजी का उनसे जिक्र इसलिए किया था, क्योंकि त्रिलोचनजी ने उनके साथ आज' में भी पत्रकारिता की थी. ज्ञानमंडल लिमिटेड के शब्दकोष की रचना में भी त्रिलोचनजी की भूमिका रही है. भैयाजी बनारसी का कहना था कि त्रिलोचनजी ने कभी नौकरी की परवाह नहीं की. आज में कोई पढ़ने-लिखने वाला आ जाता तो उसके साथ बाहर किसी चाय आदि की दुकान पर निकल जाते थे और फिर उन्हें यह याद नहीं रहता था कि वे डयूटी पर हैं. जहां की योजना बन गई निकल जाते थे. कभी आज से खफा हो जाते तो जनवार्ता' में चले जाते थे और फिर वहां से खफा होकर आज में लौट आते. बंदिशें शास्त्रीजी के लिए नहीं थीं.
भैयाजी का मानना था कि त्रिलोचनजी को वह गरिमा नहीं मिल पाई है, जिसके वे हकदार हैं. उनके ज्ञान और प्रतिभा का दूसरों ने इस्तेमाल किया है. किसी जमाने में आलोचक उन्हें घेरे रहते थे और वे जो कुछ कहते-बोलते उसे लिख-लिख कर कई आलोचकों ने अपने ज्ञान का लोहा बौध्दिक समाज में मनवा लिया.