त्रिशंकु की कहानी / रघुनाथ सिंह

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लोक में प्रचलित रामकथा का काल लिखित रामायण के काल (1200 ई. पू.) से कहीं पहले का है - ‘महाभारत’ से भी पहले का। वाल्मीकि रामायण की एक कथा यहाँ दी जा रही है, जो आज भी आदमी की नियति के सन्दर्भ में अत्याधुनिक लगती है।

‘गुरुदेव!” इक्ष्वाकुकुल-वर्धन विख्यात महाराज त्रिशंकु ने गुरु वसिष्ठ को प्रणाम किया।

“राजन्! कुशल तो है?” महात्मा वसिष्ठ ने सस्नेह पूछा।

“भगवन्! यज्ञ करने की इच्छा है।”

“प्रयोजन?”

“मैं सशरीर देवताओं के यहाँ, स्वर्ग जाना चाहता हूँ।”

“राजन्!” विस्मयापन्न महात्मा वसिष्ठ ने कहा, “असमर्थ हूँ। इस यज्ञ का आयोजन नहीं करा सकता।”

त्रिशंकु उदास हो गये।

महातेजस्वी राजा त्रिशंकु ने दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थान किया। गुरु वसिष्ठ के एक सौ पुत्र वहाँ तपस्या कर रहे थे। राजा उनके समीप पहुँचकर बोले, “मुनिवर! यह अकिंचन आपकी शरणागत है!”

वसिष्ठपुत्र बोले, “आपका क्या उपकार कर सकते हैं?”

“गुरुपुत्र!” त्रिशंकु ने विनीत स्वर में कहा, “महात्मा वसिष्ठ से प्रार्थना की थी - सदेह स्वर्ग-गमन निमित्त यज्ञ का आयोजन कीजिए। गुरु ने असमर्थता प्रकट की। तपोधन! अब आप लोगों के अतिरिक्त और कौन सहायता करेगा!”

“इक्ष्वाकु-कुल के वसिष्ठ पुरोधा हैं। वही परम गति हैं। आपने उन सत्यवादी गुरुवचनों का अतिक्रमण कर उचित कार्य नहीं किया है,” वसिष्ठपुत्रों ने उग्र स्वर में कहा।

“महात्मन्! भगवान वसिष्ठ ने यज्ञ को अशक्य बताया है!”

“यज्ञ को कराने की क्षमता हममें फिर कैसे आ सकती है?”

“तपोधन!” राजा ने गम्भीरतापूर्वक कहा, “गुरु ने यज्ञ करना अस्वीकार किया। गुरुपुत्र! आप लोगों से निवेदन किया। आप लोगों ने भी अस्वीकार किया। मैं कहीं और जाऊँ?”

गुरुपुत्रों के मुख लाल हो गये। अभिप्राय-समन्वित राजा के वचनों को सुनकर वे बोल उठे, “चाण्डाल हो जा!”

“भागो! भागो!! भागो!!!” नागरिक व्याकुल थे। भगदड़ थी। नागरिक भाग रहे थे। किसी ने एक भागते हुए से पूछा, “क्या हुआ?”

“लोग गृहस्थी लिये भाग रहे हैं।”

“चाण्डाल-राज्य में कौन रहेगा?” रथों पर सामान लादे जाती हुई स्त्रियों ने चमककर कहा।

“मन्त्री ने राजा का साथ त्याग दिया,” अश्वारोही ने कहा।

राजा का वस्त्र नीला था। वर्ण नीला था। शरीर श्याम था। केश छोटे हो गये थे। चिता की भस्म बन गयी थी अंगराग, श्मशान माला कण्ठ की अशुभ शोभा हो गयी थी। आभूषण लौह हो गये थे।

राजा जितेन्द्रिय था। अधीर न हुआ। संयम से काम लिया। परिस्थिति से विचलित न हुआ। विवेक ने साथ नहीं त्यागा। भविष्यत की चिन्ता उसे घेरने लगी।

“राजन्!” विश्वामित्र की करुण वाणी मुखरित हुई, “अयोध्यापते, तुम्हारा यह रूप?”

राजा के नेत्रों में करुण याचना थी। उनमें जल छलछला आया। विफलीकृत राजा ने दुखान्त कहानी सुनायी।

“महाबल!” विश्वामित्र के स्वर में सान्त्वना थी। “क्या मनोरथ सिद्ध कर सकता हूँ?”

“सौम्य!” त्रिशंकु ने करुण वाणी द्वारा आँसू बहाते हुए कहा, “सशरीर स्वर्ग जाना चाहता हूँ। गुरु वसिष्ठ द्वारा ठुकरा दिया गया। गुरुपुत्रों ने ठुकरा दिया। गुरुपुत्रों के शाप द्वारा मेरी यह गति हुई है। स्वर्ग नहीं जा सका। चाण्डाल अवश्य बन गया। धारणा होने लगती है, भाग्य प्रधान है, पुरुषार्थ निरर्थक है।”

“भाग्य!” विश्वामित्र ने आकाश की ओर देखते हुए कहा।

“देव! भाग्य प्रधान है। भाग्य जीवन-संचालन करता है। मैंने क्या अपराध किया है? पुरुषार्थ द्वारा स्वर्ग जाना चाहता था। पुरुषार्थ में लगा था। पुरुषार्थ निमित्त जो फल मिला, उसे आप स्वयं देख रहे हैं। मेरे भाग्य ने पुरुषार्थ को नष्ट कर दिया है।”

विश्वामित्र चिन्तनशील हो गये।

“मुनिवर! मैं आर्त हूँ। आपके प्रसाद का आकांक्षी हूँ। क्या आप दैवोपहत इस अकिंचन पर प्रसन्न होंगे? मेरी और कहीं गति नहीं है। पुरुषार्थ से क्या भाग्य नहीं बदला जा सकता?”

“ऐक्ष्वाक!” विश्वामित्र की मधुर वाणी द्रवित हुई, “मैं आपका स्वागत करता हूँ। वत्स! मैं जानता हूँ, आप धार्मिक हैं, मैं शरण देता हूँ। भयभीत मत हो। पुण्यकर्मा महर्षियों को मैं आमन्त्रित करता हूँ। आमन्त्रित ऋषिगण यज्ञ में सहायता करेंगे। गुरु-शाप द्वारा प्राप्त इस चाण्डाल रूप से आप स्वर्ग जाएँगे। नराधिप! स्वर्ग तो आपके समीप है। आप कौशिक के शरणागत हैं। उनकी शरण आये हैं!”

राजा त्रिशंकु की उदासीन मुद्रा तिरोहित हो गयी। विश्वामित्र में पुरुषार्थ का उत्साह उठ रहा था। मुख कान्तिपूर्ण था।

“पुत्रो!” विश्वामित्र का सम्बोधन सुन सभी पुत्र परम धार्मिक मुनि के सम्मुख नत-मस्तक खड़े हो गये।

“वत्स!” विश्वामित्र उत्साह से बोले, “यज्ञ की सामग्री एकत्र करो।”

धार्मिक पुत्र आज्ञा शिरोधार्य कर चले गये। किंचित समय पश्चात विश्वामित्र ने शिष्यों को बुलाया।

“शिष्यो!” विश्वामित्र ने गम्भीरतापूर्वक कहा, “ऋषियों तथा वसिष्ठ को आमन्त्रित करो। उन बहुश्रुतों से कहना कि अपने शिष्यों, सुहृदयों तथा ऋषियों के साथ इस आश्रम में शुभागमन करें। यदि कोई मेरे विरुद्ध अनादरपूर्ण वाणी का प्रयोग करे, तो शान्तिपूर्वक सुन लेना।”

शिष्यगण समस्त दिशाओं में गुरु-आदेश के साथ प्रस्थित हुए।

ऋषियों के मध्य स्थित विश्वामित्र ने कहा, “महर्षिगण! आप धर्मिष्ठ, दानी एवं विश्रुत इक्ष्वाकु-कुलोत्पन्न राजा त्रिशंकु को देख रहे हैं। यह हमारे शरणागत हैं। इसी शरीर से देवलोक जाना चाहते हैं। इस प्रयोजन की जिस प्रकार सिद्धि हो, उस यज्ञ का मेरे साथ आयोजन कीजिए।”

धर्मज्ञ ऋषियों ने परस्पर मन्त्रणा की। विश्वामित्र क्रोधी हैं। संशयरहित वचन का पालन करना चाहिए, अन्यथा हम सब शाप के पात्र हो जाएँगे। महर्षियों ने यज्ञ आरम्भ करने का निश्चय किया।

महातेजस्वी विश्वामित्र यज्ञ के याजक थे। मन्त्रादि-कोविद ऋषि ऋत्विज हुए। पूर्व-कल्पित यथाविध कर्म किये गये। महातपस्वी विश्वामित्र ने यज्ञ-समाप्ति कर यज्ञीय भाग लेने के लिए देवताओं का आवाहन किया। देवता भाग लेने नहीं आये। विश्वामित्र कोप-समाविष्ट हो गये। स्रुवा उठा ली, त्रिशंकु को सम्बोधित किया, “नरेश्वर, स्वार्जित मेरी तपस्या के वीर्य को देखो। मैं तुम्हें इसी शरीर से शक्तिपूर्वक स्वर्ग भेजता हूँ।”

विश्वामित्र की वाणी शान्त हुई। महाराज त्रिशंकु सशरीर स्वर्ग चल पड़े।

“चाण्डाल! चाण्डाल!! चाण्डाल!!!” देवलोक में कोलाहल था।

“त्रिशंकु!” इन्द्र ने कहा, “स्वर्ग में निवास-योग्य तुमने अपना स्थान नहीं बनाया है। पुनः भूमि पर लौट जाओ।”

“देवेन्द्र! कारण?” त्रिशंकु ने चकित मुद्रा में पूछा।

“मूढ़, तुम पर गुरु-शाप है।”

“किन्तु मैं विश्वामित्र के पुरुषार्थ द्वारा, उनकी तपस्या एवं तेज द्वारा, आया हूँ।”

“देवलोक में तुम्हारा स्थान नहीं। तुम अधोशिर गिर जाओ।”

“मरा! मरा!! मरा!!! भगवन्! कश्यप! रक्षा कीजिए!” स्वर्ग से पतित त्रिशंकु करुण क्रन्दन करने लगा।

विश्वामित्र आश्रम में थे। स्वर्ग से पतित राजा को देखकर क्रोधित हो गये। “ठहरो! ठहरो!!” विश्वामित्र ने रोषपूर्वक कहा। त्रिशंकु अधर में ठहर गये।

विश्वामित्र ने आश्रमस्थ ऋषियों के सहयोग से दक्षिण दिशा में दूसरे सप्तर्षियों का सर्जन किया। नवीन सृष्टि की रचना आरम्भ कर दी। महान तपोबल द्वारा अनेक नक्षत्र-वंशों की सृष्टि कर डाली।

विश्वामित्र ने ऋषियों से कहा, “मैं दूसरा इन्द्र बनाऊँगा। हमारा लोक बिना इन्द्र भी स्थित रह सकेगा।” मुनिपुंगव विश्वामित्र देवताओं की सृष्टि करने लग गये। अदम्य उत्साह तथा पुरुषार्थ द्वारा विश्वामित्र की सृष्टि-रचना देखकर सुरगण विकल हो गये। वे विश्वामित्र के आश्रम में आये। नम्रतापूर्वक निवेदन किया, “तपोधन! शाप युक्त व्यक्ति स्वर्ग में किस प्रकार रह सकता है?”

“पुरुषार्थ-बल से वह स्वर्ग में रहेगा,” विश्वामित्र ने साधिकार उत्तर दिया। “किन्तु,” देवगण कह ही रहे थे कि मुनि बोले, “देवो! सुनिए! सशरीर त्रिशंकु को स्वर्ग भेजने की प्रतिज्ञा की है। प्रतिज्ञा-भंग का दोषी नहीं बन सकता। त्रिशंकु इसी शरीर से स्वर्ग में रहेंगे। जिन नक्षत्रों की मैंने रचना की है, वे स्थायी होंगे। महाप्रलय तक मेरी रचित सृष्टि रहेगी।”

“भगवन्! आपका पुरुषार्थ, आपका तेज अलौकिक है। इस अकिंचन ने आपकी महत्ता से, आपके कर्म से, आपके पुरुषार्थ से स्वर्ग प्राप्त किया है। भगवन्, मेरा नमस्कार ग्रहण कीजिए” त्रिशंकु ने नमन करते हुए कहा। विश्वामित्र शान्त हो गये। देवगण उनकी स्तुति करने लगे।