त्रिशंकु / सुमित्रा महरोल
धीरे-धीरे थके उदास कदमों से मैं सीढियोँ चढने लगा, जीने के मन्द प्रकाश में दीवार पर पडती मेरी विशाल छाया मेरे साथ-साथ ही हिलती थी, सोसायटी फ्लैटों का जीने से कॉरिडोर व कॉरिडोर से फ्लैट के मुख्य द्वार तक का रास्ता मुझे बडा ही उदास अरुचिकर-सा लगा है, दोनों ओर बने फ्लैटों के बीच का सूना गलियारा अँधेरी सुरंग-सा हमेशा ही मुझे भयभीत करता है, किन्तु संजय गुप्ता के अप्रत्याशित व्यवहार ने बाह्म परिवेश के प्रति मुझे उदासीन कर दिया, पता ही न चला कि कब सीढ़ी गलियारा पार कर फ्लैट का ताला खोल मैं बिस्तर पर ढह गया हूँ।
चोटों का तो मैं अभ्यस्त हूँ अन्तर केवल इतना है कि यह चोट स्नेह, आदर, अपनत्व के झूठे पाशों में आबद्ध कर धोखे से मुझे पहुँचाई गयी है़। उद्विग्न मनः स्थिति में मुझसे न लेटा जा रहा था -- और ना ही बैठा, कोई भी तो ऐसा नहीं जिससे अपनी मनोव्यथा कह मैं तनिक हल्का शान्त व सुस्थिर हो पाता।
भावविह्नलता में बालकनी में खडे़ होकर मैं तारो भरे आसमान को निहारने लगा, खडे़-खडे़ पैर दुख गये तो वही पडी़ कुर्सी पर बैठ दोनों हाथों को सिर के पीछे टिका मैं अपलक सैकड़ो हजारों टिमटिमाते तारों को देखता हुआ विगत में खो गया।
ग्रामीण पृष्ठभूमि के एक दलित परिवार में मेरा जन्म हुआ। लगन, परिश्रम एवं छात्रवृत्तियों के दम पर मैने उच्च शिक्षा ग्रहण की व दस वर्ष पहले 'आरक्षित सीट' पर मेरा चयन इस कॉलेज में हुआ। 'आरक्षित' इस एक शब्द ने अन्यो के साथ मेरे भावी सम्बन्धों की सीमा निर्धारित कर दी। मुझे जाँचे, परखे, समझे बिना अपने पूर्वाग्रहों के आधार पर मेरी एक छवि गढ़ ली गयी व उसकी बिना पर मुझे समूह से बाहर हाशिए पर धकेल दिया गया।
व्यवहार कुशलता, सहयोग, सहृदयता, कार्य निष्ठा के बूते पर मैंने इस समूह में सेंध लगाने का प्रयास किया एकिन्तु उपेक्षा, अवमामना के धारदार औजारो से मेरे आत्मविश्वास को छलनी करते हुए मुझे हाशिए पर धकेलना जारी रहा।
तब भी मैने हार नहीं मानी। घोर परिश्रम कर अपने क्षेत्र में अपनी छोटी ही सही विशिष्ट पहचान बनायी पर उसकी गूँज कॉलेज की आसमान से भी ऊँची प्राचीरों को लाँघ न पायी। कभी उन्साह से भरकर मैं साथियों को कुछ बताना भी चाहता तो उस समय सपाट चेहरा लिये वह ऐसी भावहीन मुद्रा बनाते जैसे अचानक उनकी वाक् व श्रवण शक्ति कहीं चली गयी हो। ऊपरी तौर पर सब सामान्य दिखता पर अस्वीकृति की छाया उनकी आँखो में सदैव बनी रहती।
सबसे सहज निश्छल दोस्ताना व्यवहार के लिए मेरा मन छअपटाता मैं भी उन सबके बीच उन्मुक्त ठहाके लगाना चाहता था। कई बार मैने जबर्दस्ती घुसपैठ भी की पर तब भी मुझे अनसुना करते हुए चार जुडे सिरों की फुसफुसहाट जारी रहती। तब उनमें उपस्थित होने के बावजूद मैं अकेला हो जाता।
विभागीय इन्चार्जशिप मिलने पर मेरी व्यस्तताएँ बहुत बढ़ गयी। टीचिंग स्टाफ के बनते बिगडते समीकरणों से अब मैने स्वयं को दूर कर लेना ही बेहतर समझा। मैं खुद को उनकी आँखो से देख चुका था, बार-बार प्रयोग करके व्यथित हो यातना पाने से अच्छा कटु सच्चाई को स्वीकार कर लेना ही हैं।
अचानक मैने नोटिस किया कि एड्हॅाक स्टाफ में से एक व्यक्ति मेरे प्रति कुछ ज़्यादा ही आदर व स्नेह का प्रदर्शन कर रहा है। मेरे नजदीक आने का कोई अवसर वह हाथ से नहीं जाने देता। कॉलेज में मुझे देखते ही नमस्कार करता। विभागीय कार्यो में भी बढ-चढ कर उसने जिम्मेदारियाँ निभायीं। स्टाफ रुम में मेरे नजदीक बैठा वह बातचीत के अवसर ढूँढा करता। पहले के कटु अनुभवों को देखते हुए मैने उसे ज़्यादा तरजीह नहीं दी। किन्तु सितम्बर में मुझे पीलिया हो जाने पर उस संजय गुप्ता नामक शख्स ने बड़ी भागदौड की। मेरे कॉलेज ना जाने के पाँच छह दिन बाद ही हाल पूछने के बहाने अचानक वह घर आ धमका। बाद में भी किसी न किसी बहाने से वह घर आता जाता रहा। मैं असमंजस में पड़ गया। घर आये मेहमान से बेरुखी बरतना मेरा स्वभाव न था। औपचारिकतावश उसे चाय नाश्ता कराना पड़ता उसी दौरान बातचीत के दौर चल निकलते धीरे-धीरे मुझे उसका साथ अच्छा लगने लगा। किसी ने मुझे आज तक इतनी तवज्जो नहीं दी थी, भीतर से मैं बड़ा भरा-भरा महसूस करता। हालाँकि कभी-कभी आशंकित भी हो जाता था।
हमारे विभाग में लेक्वरर के लिए आवेदन मँगाए जा रहे थे। कुछ ही महीनो में साक्षात्कार की सम्भावना थी। इन्चार्ज होने के नाते साक्षात्कार में मुझे रहना ही था। संजय ने मुझसे मदद का आश्वासन चाहा पर साक्षात्कार की तिथि नियत ही न हो पायी व सत्र समाप्त भी हो गया। मेरे स्थान पर अब नया इन्चार्ज कॉलेज ने नियुक्त कर दिया।
ग्रीष्मकालीन अवकाश में कुछ समय के लिए मैं परिवार सहित बाहर चला गया। लौटने पर कुछ आवश्यक कार्यों में ऐसा व्यस्त रहा कि छुट्टियो कब बीत गईं पता ही नहीं चला। छुट्टियों में संजय बस एकाध बार ही घर आया। वह भी कहीं व्यस्त होगा, सोच मैने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया, मेरा मन जल्दी ही किसी पर अविश्वास नहीं करता।
नया सत्र आरम्भ होने पर संजय से मुलाकात हुई वह तफलील से बताने लगा छुट्टियों में क्या-क्या किया। उसके बाद भी कॉलेज में संजय से अकसर ही मिलना होता। ऊपरी सारे दिखावे के बाद भी कुछ रिक्तता-सी मैं महसूस करने लगा था सम्बन्ध में से जैसे ऊष्मा आत्मीयता धीरे-धीरे गायब होती जा रही हो, बातचीत के दौरान उसकी नजरें व ध्यान अब बार-बार भटकने लगा थाए पर किसी के स्नेह अपनत्व को आतुर मेरा मन जल्दी ही उस पर सन्देह न कर इस सबको अपना भ्रम ही मानता रहा।
तभी किसी आवश्यक कार्य से कुछ दिनो के लिए मेरी पत्नी बच्चों सहित अपने मायके चली गयी। उनकी अनुपस्थिति में खाली घर मुझे काटने को दौडता। एक इतवार घर में व्यापे मौन व खालीपन से मुक्ति पाने के लिए मैने संजय से मिलने की ठानी व उसे फोन किया।
"हेलो, हाँ भई क्या हालचाल है?"
"बस, दुआ है आपकी" संजय ने स्वर में भरसक मिठास घोलते हुए कहा।
"आज का तुम्हारा क्या प्रोग्राम है, घर पर ही हो?"
"हमारा क्या प्रोग्राम होना है सर, आप बताइए" संजय तपाक से बोला।
"दोपहर को मैं आ जाऊँ, आज पूरा दिन गपशप करेंगे।"
"जहे नसीब, नेकी और पूछ-पूछ ज़रूर आइए सर, लंच आप हमारे साथ ही करिएगा" संजय चहका।
"नहीं भाई लंच रहने दो क्यों
सीमा जी को परेशान करते हो।"
"सर कैसी बाते कर रहे हैं आप, हमे भी सेवा का मौका दीजिए और परेशानी कैसी, अपने लिए भी तो बनाना है। खाना आप हमारे साथ ही खाएँगे।"-जिद करते हुए संजय ने कहा।
"तुम नहीं मानते तो चलो ठीक है" कहने हुए मैने फोन रख दिया।
तय समय पर तैयार हो मैं निकलने को ही था कि सोसायटी का सचिव कुछ आकस्मिक मुद्दो पर मेरी राय लेने आ धमका। उसे कोल्ड ड्रिंक पिलाकर बातचीत करने में कुछ समय तो लगा ही होगा।
ताला लगा जैसे ही मैं नीचे आया, चिल-चिलाती तीखी धूप से आँखें चौंधिया गयी। रास्ते में ट्रैफिक जाम से जूझते हुए पसीने से तरबर मैं ढाई के लगभग संजय के घर पहुँचा व डोर बेल बजायी।
दरवाजा खुला, कानों तक मुस्कान खीचे संजय दरवाजे के पीछे मौजूद था।
"आइए सर" विनम्रता से मेरा स्वागत करते हुए संजय बोला।
"कुछ देर हो गयी, हम तो कब से आपकी राह देख रहे थे।"
ठंडे पानी का गिलास मेरे हाथ में थमाते हुए संजय ने कहा।
"हाँ, अचानक ही कोई मिलने आ गया था'" सोफे पर आराम से बैठते हुए मैने कहा।
संजय मुझसे यहाँ वहाँ की बातें करने लगा। शांति से उसकी बातें सुनते हुए मैं उसके घर के मुआयने पर लग गया। अच्छा भला घर संजय ने ले लिया है। अपनी कमाई से तो वह इतना अच्छा घर अभी खरीदने की स्थिति में नहीं होगा या क्या मालूम घर किराये का हो या शायद उसके पिता ने उसके लिए पहले ही इस घर को खरीद लेने की प्लानिंग कर ली हो। सभी का भाग्य तो मेरी तरह नहीं होता। यहाँ तो सब कुछ खुद ही करना है। पीछे से सिर पर हाथ रखने वाला कोई भी तो नही। माँ-बाप कुछ समय पहले साथ छोड़ गये, भाई-बहन कोई है नही। गाँव में एक छोटा-सा घर है जो चचेरे भाई देखते भालते है। वह तो बस कभी-कभार ही गाँव जा पाता है।
"चलिए सर, खाना तैयार है।"
टेबल पर लगी प्लेटो की खनखनाहट व संजय की पत्नी के कदमों की आहट को सुनते हुए हम डाइनिग रूम की ओर बढ़े।
नजरें मिलने पर संजय की पत्नी ने उड़ता हुआ-सा नमस्कार किया, सौम्यता के बावजूद हल्की-सी तुर्शी चेहरे पर दिखाई दी।
दो सब्जी पूरी रायता इत्यादि टेबल पर सजा हमारी प्रतीक्षा कर रहा था। तला-हुआ कुछ भी खाने से मुझे परहेज था अभी कुछ महीनो पहले ही तो मुझे पीलिया हुआ था। तला-भुना खाते ही मुझे भयंकर एसिडिटी हो जाती थी पर संकोचवश कुछ न कह मैने थोड़ा बहुत खा ही लिया। पूरी को कम्पन्सेट करने के लिए भरपूर मात्रा में सलाद का सेवन मैने किया। क्या करता बीमार हो जाता तो तीमारदारी के लिए पत्नी भी तो पास नहीं थी।
तीन साढे़ तीन के लगभग हम भोजन से निपटे व पुनः ड्राइंग रुम में आ बैठे। पता नहीं क्यों बातों के सिलसिले आज जम ही नहीं रहे थे। चार बजते ही संजय की पत्नी सीमा ने चाय के कप लाकर मेज पर रख दिये। एक पल को मेरा माथा ठनका, चाय पीकर विदा हो जाने का कहीं यह संकेत तो नहीं था पर क्षण से अधिक यह विचार मन में नहीं टिका। मैं तो आराम से गुफ्तगू करने के आशय से पहले फोन कर समय ले संजय के यहाँ आया हूँ।
चाय पीने के थोडी देर बाद अचानक धड़ाक से गिरने की आवाज के साथ सीमा कि चीख से हम दोनों हड़बड़ा गये। संजय भागता हुआ अन्दर गया व उसके पीछे-पीछे मैं भी। लॉबी में संजय की पत्नी पैर को पकड़ते हुए दोहरी हुई जा रही थी।
"क्या हुआ, कैसे गिर गई, ज़्यादा चोट तो नहीं आई." चिन्ता से संजय के माथे पर बल पड़ गये।
पत्नी के पैर को कसकर दबाने के थोड़ी देर बाद संजय ने वहाँ मूव की मालिश की। मैं असमंजस में खड़ा उन दोनों को देखता रहा। तकलीफदेह स्थितियों में उन्हे छोड़ निर्लिप्त भाव से ड्राइंग रूम में बैठना भी उचित नहीं था।
मूव लगवाने के थोडी देर बाद सीमा ने फर्श से उठकर बेडरूम में जाने के आशय से जैसे ही पैर पर वजन डाला अतिशय पीडा से उसकी मुख मुद्रा विकृत हो गयी व वह कराहकर फिर नीचे बैठ गयी।
"शायद इन्हे ज़्यादा चोट आ गयी है, डॅाक्टर को दिखा लेना चाहिए, कहीं फ्रैक्चर न हो" - मैनें संजय को मशवरा दिया।
"हाँ, सर लगता तो मुझे भी यही है।"
"चलो मैं भी साथ चलता हूँ।"
"नहीं, आप क्यों तकलीफ करते है"-चिन्ता कि लकीरें संजय के माथे पर साफ देखी जा सकती थी।
"भइ एक से दो भले, तुम सीमा जी को संभालोगे या दवा गोली लेने जाओगे" सहयोग के आशय से मैने कहा।
"नहीं सर प्लीज, आप तकलीफ न करें, सीमा का भाई यहाँ पास ही रहता है मैं उसे बुला लेता हूँ"-बदले हुए तेवर और रूक्षता अनायास ही लक्षित की जा सकती थी।
मैं एकदम मौन हो गया। संकटग्रस्त स्थिति में मेरी सहायता को अस्वीकृत करना मुझे खल रहा था। इस समय संजय के साथ रह मैं भरसक उसे सहयोग करना चाह रहा था पर संजय के विरोध से दुविधा में पड़ गया। शायद पत्नी पर पूरा ध्यान देने के विचार से संजय उसकी मदद को अस्वीकार रहा है।
भारी मन से संजय से विदा ले मैं बाहर आ गया। शाम होने को थी। अभी से घर जाकर दीवारो में कैद होने को मेरा मन नहीं चाहा। मैं नजदीक के एक पार्क में चला गया व वहाँ एक घण्टे तक बच्चो की अठखेलियाँ देखता रहा। वहाँ बैठा मैं मन ही मन सोचने लगा-किस मित्र रिश्तेदार या सहकर्मी केपास जाया जा सकता हैएस्नेह अपनत्व से भरा एक भी चेहरा सामने नहीं आया। इसी उहापोह में टहलने-टहलने मैं एकशापिंग मॉल में जा घुसा। चकाचौंध रोशनी में बडे़-बडे़ ब्रांडो के बडे़-बडे शोरूमों में स्त्री-पुरूष बच्चे आ जा रहे थे। अब इनमें से कितने वास्तविक खरीदार हैं व कितने केवल विंडोशॉपर कह पाना मुशिकल था। भाँति-भाँति की आवाजों से पूरा मॉल गुंजरित था। पति-पत्नी बच्चों अर्थात न्युक्लियर परिवारों के समूहों के समानान्तर प्रेमी युगल एक-दूसरे की बाहों में बाहें डाले अपनी ही दुनिया में खोये, सबसे अनजान, सीढ़ियों, बेंचों या रेस्तराओं की कुर्सियों पर विराजमान थे। गर्लफ्रेंड विहीन नवयुवक मॉल में आयी हर सुन्दर नवयुवती को निहार भावी सम्भावनाओं को तलाश रहे थे। हर कोई अपने आप में गुम प्रतीत हुआ ण्इस भीड़ में निपट अकेला मैं ही हुँ। मैने सोचा।
घूमते-घूमते मैं शॉपिंग मॉल के पी.वी.आर के सामने जा पहुँचा। फ़िल्म देखकर समय काटने का विचार मेरे मन में आया व टिकट लेने के लिए विंडो की ओर मेरे कदम बढने लगे।
अचानक मैं बुरी तरह चौका। ऊँची एडी़ के सैंडिल ठकठकाती संजय की पत्नी संजय के हाथों में हाथ डाले किसी बात पर खिलखिलाती हुई मेरी ओर आ रही थी।
मुझसे नजरें मिलते ही दोनों बेतरह घबरा गये। फक् सफेद पड़ गये चेहरों की जुबान भी गूँगी हो गयी।
गम्भीर कठोर मुद्रा में अर्थ पूर्ण दृष्टि से उन्हे घूरते हुए मैं ही बोला, "संजय आप तो बडे़ भाग्यशाली है। ऐसे करिश्माई डॉक्टर आपके नजदीक रहते है, देखो कैसे जादू की छडी़ घुमाते ही उन्होने सीमा जी का पैर तुरन्त ठीक कर दिया। भई हमें भी उसका पता देना"-व्यंग्य की कटार दोनों के सीनों को भेद गयी।
हकलाते हुए संजय बोला-"पेन किलर से दर्द काफी कम हो गया था तो हमने सोचा चलो पिक्चर ही..." हाँ-हाँ अच्छा किया, बहुत ही अच्छा किया, जल्दी करिये शो शायद शुरू होने को है। अच्छा चलता हूँ"-तमतमाये चेहरे पर उभर आये आक्रोश को दबाते हुए मैं तेजी से मॉल से बाहर निकलने वाले मार्ग की ओर लपका।
उपेक्षा अपमान की अब तक मिली चोटो पर यह चोट सबसे भारी थी क्योकि स्नेह सम्मान अपनत्व की आड़ में मुझे कमजोर कर मेरे मर्मस्थल पर धोखे से तीव्र आघात किया गया था। क्षुब्ध विमूढ़ता कि स्थिति में मैं मॅाल से निकल घर की ओर चल पडा.
नीचे सड़क पर जाती बस के तीव्र हॉर्न से मेरी तन्द्रा टूटी. रात काफी गहरा गयी थी। पूरी सोसायटी अन्धकार में डूबी थी। बहुत देर तक बालकनी में बैठे-बैठे थकान-सी अनुभव हुई. भीतर कमरे में ंआ बगैर कपडे़ बदले मैं बिस्तर पर लेट गया। न चाहते हुए भी कुछ कटु इसी तरह के दुखदायी प्रसंग जेहन में ताजा हो आये।
कॉलेज में किसी के न होने पर ही बातचीत के लिए सहकर्मी मुझसे मुखातिब होते थे पर अपने मित्र के आते ही उनकी नजरें भटकने लगती। कई बार तो मेरी बात को पूरा सुने बगैर ही वह अपने मित्र की ओर चले जाते। कुछेक बार तो मैने नजर-अन्दाज किया। शायद कोई बहुत ज़रूरी बात होगी इसीलिए मुझे अनसुना कर वह फलाँ-फलाँ की ओर चले गये पर अनेक बार यह घटना मेरे साथ हुई तो मैं समझा कि सहकर्मी महोदय सिर्फ़ समय काटने की नीयत से मेरे पास आये थे। बेहतर विकल्प मिलते ही भाग खडे़ हुए, मैं उनके लिए सिर्फ़ समय व्यतीत करने का एक जारिया भर था। उनके इस व्यवहार से मैं भीतर तक आहत हो जाता।
कुछेक सहकर्मियों का मुझे इस्तेमाल करने का तरीका अलग था। वह अपनी हर उपलब्धि का पूरा लेखा अति विस्तार से मुझे सुनाते। मुझे भ्रम हो जाता कि अमुक व्यक्ति शायद दोस्ती की नीयत से ऐसा कर रहा है। मैं अपने सभी ज़रूरी व गैरज़रूरी कामों को छोड़कर उन्हें प्राथमिकता देता, धैर्य से घंटो उनकी बात सुनता जो सही लगता वह मशवरा देता पर यदि मेरी कोई छोटी बडी़ उपलब्धि होती और मैं उन्हे विस्तार से बताना चाहता तो वह महाशय दस मिनट बाद ही उबासियाँ लेते हुए किसी न किसी बहाने से मुझ से पिंड छुड़ा खिसक लेते। मैं हतप्रभ रह जाता। यह क्या था यदि वह व्यक्ति वास्तव में सच्चे मन से मुझसे जुडा़ होता तो अवश्य ही मेरी बात सुनता पर ऐसे महानुभावों को तो श्रोता भाव से पूरी तन्मयता से केवल सुनने वाले व्यक्ति की दरकार होती थी जो उनकी उपलब्धियों पर वाह-वाह करके उन्हें आत्मतुष्ट कर सके. ऐसे छद्म आत्मलीन व्यक्तियों से दूरी बरतना ही मैने ठीक समझा।
व्यग्र व्यथिम मन को थामने के लिए लेटे-लेटे अपनी अस्थिरता पर मैं अपनी ही भर्त्सना करने लगा। किसी को भी भावनात्मक रूप से इतना कमजोर नहीं होना चाहिए. खुद को इतना मजबूत बनाओ कि दूसरे आपको परेशान करने में सफल ही न हो पाएँ। दूसरे के कृत्यों की सजा हम खुद को क्यों दें। क्यों दूसरो को इतना महत्त्व देता हुआ मैं उनकी स्वीेकृति का अभिलाषी हूँ। यदि मैं उनका मनचाहा नहीं हूँ तो इस सत्य को मैं स्वीकार कर लूँ, मन ने मुझसे तर्क किया। क्यो मैं उनका मनचाहा नहीं हूँ। क्या कमी है मुझमे, पढ़ा लिखा हूँ, अच्छी नौकरी घर परिवार सब कुछ तो है मेरे पास। भीतर से एक आवाज ने मुझे बताया। कमी मुझे में नहीं अन्यो की सोच में हैए और सोच-समाज व संस्कारो की देन । दीन-हीन गलाजत की स्थितियों में पडे व्यक्ति या समुदाय के प्रति समाज की घृणा या करूणा का भाव धीरे-धीरे की बदलता है। इस तरह के विचार मन में आ जा रहे थे कि मेरी दृष्टि दरवाजें के नीचे से सरकाए गये एक लिफाफे पर पड़ी। देखने पर पता चला कि गाँव में रहने वाले मेरे चचेरे भाई प्रेमपाल की बेटी का विवाह है। कार्ड के साथ रखे पत्र में कुशल क्षेम के बाद कुछ आर्थिक मदद का भी आग्रह किया गया था।
यह वही प्रेमपाल भाई है जो बचपन में मेरे साथ खूब गुल्ली डंडा खेलते थे। दोपहर में माँ और चाची की नजर बचा हम दोनों घंटो पोखर में नहाते व मछलियाँ पकड़ते कभी दिन-दिनभर अमराइयों में पडे रहते। चिन्तित हो माँ पिताजी को हमें ढूँढने भेजती। कुपित हो पहले जो वह सन्टी से हमारी खबर लेते। फिर धािकयाते हुए घर लाते। घर पर भी पहले तो माँ डाँटती फिर सन्टी की मार को सहलाते हुए कुछ खाने को देती। कैसे मस्त दिन थे। यहायक वह परिवेश वह संगी वह साथी वे परिजन मेरे सामने आ खडे़ हुए. बीता हुआ बचपन अचाानक सजीव हो उठा। सबसे मिलने भेंटने को मन तड़फने लगा।
भतीजी की शादी में मुझे अवश्य ही जाना चाहिए व जो बन पडे़ मदद भी करनी चाहिये। आखिर इस समय में उनके काम न आया तो अपनों के होने का मतलब ही क्या है।
मुझे लगा कि प्रेम अपनत्व की मेरी खोज अब तक ग़लत दिशा में थी। खून के रिश्ते ही वास्तविक रिश्ते होते है, हमारे हर दुख-सुख के सच्चे साथी। वास्तव में मैं अब तक मृगतृष्णा में भटकता रहा। मेरे बन्धु बाँधव सब गाँव में मौजूद हैं व मैं यहाँ इन पत्थरो से स्नेह की आकांक्षा में सिर फोड़ रहा हूँ। मन की उस दुर्बल अवस्था में गाँव जा अपनों से मिलने का मैने पक्का निश्चय कर लिया।
स्ुाबह होते ही फोन पर मैने पत्नी आशा से बात की, उसने भी शादी में जाने की उत्सुकता दिखाई इस सब में संजय गुप्ता वाले प्रकरण की चोट कहीं भीतर दब गयी।
गाँव जाने वाली बस ने ग्यारह के लगभग हमें स्टाप पर उतार दिया। हमारा मुहल्ला यहाँ से करीब एक किलोमीटर दूर था। कन्धे पर बैग और हाथ में अटैचीकेस थामे मैने चारो ओर देखा। वही चिर परिचित स्थान था जहाँ बचपन में संगी साथियो के साथ मटरगश्ती करता हुआ मैं दिन में कई-कई बार यहाँ तक आ जाता था सात और नौ वर्षीय मीनू-वीनू आशा कि उँगुली थामे मेरे साथ-साथ चल रहे थी। उनके प्रश्नो का अन्त न था।
टूटी फूटी सड़क के दोनों ओर चाय पान बीड़ी सिगरेट इन्यादि की छोटी मोटी दुकाने थी। दुकानो के कुछ आगे जमा हुए कीचड में से थोड़ी-थोड़ी देर बाद बैलगाड़ी या भैसाबुग्गी आदि निकल जाती। दुकानो से कुछ हटकर खाट बिछाकर लेटे या बैठे बुजुर्ग भी दिखाई पड़ रहे थे। थोड़ा आगे चलने पर मैंने गाँव की ओर जाने वाली पगडंडी पकड़ ली। कुछ और दूर जाने पर रास्ता खेतों से होकर जाता था। खेत की मेंड पर हम चले जा रहे थे। दूर-दूर जहाँ तक दृष्टि जाती हरियाली ही हरियाली थी। शुद्ध निर्मल हवा वह रही थी। चारो ओर देखता मैं यह सब कुछ भीतर तक पी जाना चाहता था। हवा बहने पर फसल सरसरा उठती। चलने के कारण थकी आशा भी यह देख उल्लिसित हो उठी। मीनू-वीनू एक-दूसरे से रेस लगातीं हमसे आगे-आगे दौड़ रही थी।
हमारा मोहल्ला अब समीप ही था। आशा कि साँस फूल रही थी, तनिक दम लेने के विचार से हम दो घड़ी को खडे़ हो गयें। अटैची मैने जमीन पर टिका दी।
मोहल्ले में कुछ घर नये बने प्रतीत हुए, तो कुछ ढहकर बिलकुल खंडहर में तब्दील हो गये थे। एक घर के बाहर खाट बिछाकर हुक्का पीते, स्याह काले, झुर्रीदार, बुजुर्ग का पहचानकर मैं उसकी ओर बढ़ लिया।
"राम राम चाचा" उसके पैरों को स्पर्श कर मैं बोला।
"कौन" आँखे मिचमिचाकर मुझे पहचानने की कोशिश में बुजुर्ग के माथे पर बल पड़ गये।
"चाचा, मैं रामपाल।'
"अरे तू कद आया, सुना है तू तो शहर में बहुत बड़ा मास्टर बन गया है।"
"हाँ, चाचा सब आप लोगों की दुआएँ है,"
"बहुत भलो कियो बेटा, माँ-बाप का नाम निकाड़ दियो। तभी बुजुर्ग के चेहरे पर विषाद की छाया आ गयी।"
"हमारे तो बेटा चारो कपूत निकडे़। सारा टैम जुए सट्टे शराब के पीछे बावड़ो की नाई पडै़ रहवै हैं। दिन की रोटी मिल जाए तो रात को मिलेगी कि ना चिन्ता सताणे लगै है"-फिर चेहरे पर ढेर विनम्रता पोत विनती के स्वर में बुजुर्ग पुनः बोला-'शहर में कोई छोटी-मोटी नौकरी हो तो ध्यान रखियो बेटा।'
बुजुर्ग की याचना पर मेरा मन भीग गया। उसे आश्वासन दे दुबारा राम-राम करता हुआ मैं आगे बढ़ा। गाँव की गालियों में स्त्रियाँ लम्बा घूँघट काढे़ आ जा रही थीं। ऐसे में मुँह उघाड़े मेरे साथ चलती आशा को सबने बडे़ अचरज से देखा।
मेरे मोहल्ले की गली कीचड़ गोबर से अटी पड़ी थी। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर पड़े कूडे़ करकट के ढेरों से भयकर दुर्गंध उठ रही थी। यूँ तो बचपन से मैं यह सब देखता आ रहा हूँ। पर अब साफ सफाई का अभ्यस्त हो जाने के कारण बदबू और गन्दगी असह्म प्रतीत होने लगी किन्तु अपनों से मिलने को आतुर मेरा मन यह सब देखकर भी न देखने का अश्वासन खुद को देता हुआ हुलसित कदमों से प्रेमपाल भाई के घर की ओर दौड़ने लगा। प्रेमपाल भाई के द्वार पर बंधे बकरे का देख मेरी बेटियाँ कौतूहल से चिल्लाने लगी।
"मम्मी गोट...गोट।"
"हाँ बेटा यह गोट है।"
बकरे के पास खडी़ हो मीनू-वीनू उसे देखने व डर-डर के छुने का प्रयास करने लगीं। खुशी, डर, आश्चर्य के मिले जुले भावों से बच्चियों के मासूम चेहरे चमक उठे। तभी मुर्गियों के पीछे फुदक-फुदक कर चलते चूजों ने उनका ध्यान आकर्षित किया व वह हर्षित हो उन्हे पकड़ने के लिए आशा से हाथ छुड़ाने को मचलने लगी। विवाह में देवता को भेंट देने के लिए शायद बकरा खरीदा गया है। बकरे की आँखो की तरल कातरता ने मुझे भीतर तक भेंद दिया। घर के भीतर शराब व अगरबत्तियों की मिली जुली गन्ध ने हमारा स्वागत किया। मुख्य द्वार पार कर हम आँगन में आ गये। भर-भर हाथ काँच की रंग बिरंगी चूड़ियाँ, लम्बे-लम्बे बिछुएए गिलट की रून-झुन करती पाजेबें सस्ते सूट या धोतियाँ पहने स्त्रियों का एक छोटा-सा समूह आँगन में बिछी दरी पर अड्डा जमाए ढोलक से जूझ रहा था।
"देवर अब टाइम मिला है तुम्हें आने का"-पीछे से पीठ पर धौल जमाती हुई भाभी बोली।
मैने व आशा ने झुककर उनके चरण स्पर्श किये।
"जीते रहो और सब ठीक हो" आशा से हाथ छुड़ाकर बकरे मुर्गियों के पास जाने को मचलती मीनू-वीनू को दुलारती हुई भाभी बोली।
मैने व आशा ने झुककर उनके चरण स्पर्श किये।
"हाँ, भाभी"
मुँह खोले आधुनिक दिखने वाली, सुन्दर सलोनी मेरी पत्नी से आकर्षित हो औरतों को समूह ढोलक छोड़ हमारी ओर देखने लगा था। मेरी चचेरी, फुफेरी बहनें, बुजुर्ग चाची, ताइयाँ इत्यादि हमें घेरकर खड़ी हो गयी। हम रिश्ते के अनुसार उनके चरण स्पर्श कर हाल चाल पूछने लगे। बच्चों में हमें नमस्कार करने की होड़ लग गयी।
आशा व मीनू-वीनू को ले भाभी आँगन में चली गयी। आशा स्त्रियों के आकर्षण का केन्द्र थी। उसकी साडी़, बाल, गहने, हल्के मेकअप से सुसज्जित चिकना चेहरा स्त्रियों को लुभा रहा था। वे आशा से शहर की बातें खोद-खोद कर पूछने लगी। कनखियों से मुझे देखती पसीना-पसीना होती हुई आशा उनका जवाब दे रही थी।
बगल के कमरे में चल रही पूजा कि आवाजों को सुनता मैं उस तरफ चल दिया। विवाह सम्बन्धी किसी अनुष्ठान के निमित्त देवता के आह्मन के लिए जलते उपले पर हूम (ज्वाला या लौ) उठाने के लिए घी डाला गया... पूरा कमरा उपले से उठते धुएँ व शराब की गन्ध से महक गया। देवता को चढाने के बाद शराब वहाँ उपस्थित पुरूषों में बाँट दी गयी। तभी भगत के सिर देवता आ गया। अजीब ढंग से सिर को हिलाते हुए जीभ निकाल-निकालकर वह विचित्र मुद्राएँ बनाने लगा।
क्षणांश में यह दृश्य मैंने देख लिया। कमरे में उपस्थित रिश्तेदार, मित्र, परिचित मुझ पर ध्यान दिये बगैर अपनी दारूबाजी में व्यस्त रहे। मुझे देखकर न उनके चेहरे चमके न उठकर मिलने की आतुरता ही किसी ने दिखायी। मेरा मन तनिक बुझ-सा गया। प्रेमपाल भाई की दृष्टि मुझ पर पड़ी।
"और भाई पहुँच गया"-आँखे लाल किये नशे में झूमते हुए वे बोले।
"ये आप क्या कर रहे है, कब तक ढकोसलो में पड़े रहेंगे आप लोग" - मैं शुरू से ही इन स्याने भगतों, पाखंडों के खिलाफ था।
"चुप्प" भाई मेरा हाथ पकड़कर वहाँ से दूर ले गये।
"देख भई, ऐसा है जो जहाँ रहवै है वहाँ की रीत तो उसे निभाती ही पडै है... तेरे विघ्न, अपसुगन ते देवता रूठ गया तो तू मनान आवगा कै...छोड़ तू इस ने बता घर ते कद चला... वह जो बात मन्ने कही थी उसका कै हुआ'-मेरी बात को टालते हुए भाई बोले।"
तभी कोई दो पुरूष रिश्तेदार पीकर झूमते हुए पहले तो एक दूसरे पर गालियों की बौछार करते रहे फिर देखते ही देखते गुत्थम-गुत्था हो गये। उनकी स्त्रियाँ व बच्चे चीखकर रोते हुए अन्यों से बीच-बचाव की गुहार करने लगे। बड़े जोरो का कोलाहल मचा।
घर में ग्रामीण दलित परिवेश में होने वाले विवाह का चिर परिचित माहौल था। अपनी शिक्षा व चेतना के कारण मैं दारूबाजी, पशुबलि, भगतपूजा व दलित समाज को पतन की ओर ले जाने वाली ऐसी ही अन्य कुप्रथाओं को हृदय से अस्वीकार कर चुका था। दूसरो को भी रोकना चाहता था पर एक दिन में यह सम्भव न था। इस कारण फूल में खुशबू की मानिन्द उन सबमें घुल मिल जाने की अदम्य लालसा के बावजूद उनसे कटा खुद को अकेला-सा मैंने महसूस किया।
"रामपाल ज़रा दो हजार रूपये निकालियो"-हड़बडी में बाहर से आते ही प्रेमलाल भाई बोले। मुझसे रूपये ले वह द्वार पर खडे व्यक्ति से चुपके-चुपके बतियाने लगे।
अल सुबह के हम घर से निकले थे। भूख जोरो से सताने लगी थी पर पकते भोजन की सुगंध और बरतनो की खनखनाहट कहीं सुनाई न दी।
अकेले बैठे-बैठे ऊबकर मैने सोचा दारू वाली टोली में शामिल हो जाऊँ पर अगले ही पल खुद ही इस विचार को खारिज कर दिया।
"रामपाल भाई नमस्कार" आप तो हमें भूल ही गये। मैने चौंककर देखा बडे़ वाले ताऊ की बेटी थी। शहर में ब्याही थी।
"जीजी नमस्कार"
"हाँ भई अब तुम बडे़ आदमी हो गये। हमें क्यों याद करोगे ए पर आते बैसाख मेरी चन्दा का ब्याह हैं, भारत नौतने आऊँगी मैं, नाक कान की सोने की चीजें तेरे ते ही लेनी हैं मामा होने के नाते। हाँ नहीं तो..." नाक सिकोड़कर उँगली नचाती हुई जीजी बोली
"ठीक है जीजी"-और मैं क्या बोलता तनखा से फ्लैट की किस्त, बेटियों के अंग्रेज़ी स्कूलों की मोटी फीसें, राशन, बिजली पानी टेलीफोन के बिल के बाद कुछ विशेष नहीं बचता था पर गाँव में मेरी छवि धन्ना सेठ से कम न थी।
अढाई तीन का समय हो गया मन न लगने पर अन्य परिचितों से मिलने गली के गोबर कीचड़ से बचता-बचता मैं निकल पड़ा, पर निराशा ही हाथ लगी। बहुत से लोग तो रोजी की तलाश में शहरो की ओर चले गये थे। नई पीढ़ी के लिए मैं अनजान अपरिचित था। चाचा ताऊ की उम्र के बुजुर्ग या तो गुजर चुके थे या वर्तमान स्थितियों से असंतुष्ट अति दयनीय अवस्था में मुझे मिले। कुछ परिचित मिले भी तो लगा अनेक गहरी खाइयों को लाँघ मैं तो उनके समीप आना चाहना हूँ पर वह अपने कटघरे से बाहर निकलने को तैयार नही। स्नेह आत्मीयता के पुराने तार जुड़ ही न पाये, कुछ था जो हमारे बीच आ गया था।
गाँव में या तो मैं अति सम्मानीय था या अति निंदनीय। सम्मानित समझने वालों की गहरी अपेक्षाएँ थीं। पर सभी की अपेक्षाओं पर अभी खरा उतरना मेरे वश से बाहर था। उस समय निराश परिजन की आँखो से झाँकती उदासी मुझे कचोट डालती व कोई अपराध न करते हुए भी एक अपराध बोध-सा मुझे उनसे नजरें चुराने को बाध्य कर देता। निन्दा करने वालो का अपना दृष्टिकोण था। -हूँ होगा बड़ा आदमी तो अपने घर में होगा... इसके बड़ा आदमी होने से हमें क्या फायदा... ऐसा ही बड़ा है तो पटा दे हमारा कर्जा, लगवा दे हमारी भी नौकरी, आया है बड़ा ये न करो, वह न करो, दारू मत पियो, पूजा पाठ मत करा, जात मुराद मत करो, कर्जा मत लो, भूत प्रेत मत मानो। उनके और मेरे बीच फासले स्थानों के ही नहीं बल्कि सोच के, समझ के, चेतना के भी थे।
बोझिल कदमों से लौटते समय अपने पैतृक घर में कुछ देर आराम करने को जी चाहा। वहाँ की मिट्टी में मेरी ममतामयी माँ की पदचापें समाई थीं जिनकी गोद में खेलकर मैं इतना बड़ा हुआ बचपन व किशोरावस्था के सैकड़ो चित्र उस घर में चस्पाँ थे। वह घर तो अवश्य ही अपने अंक में लेकर मुझे दुलारेगा।
घर का द्वार भिड़ा था।
ठेलकर मैं भीतर जाने लगा।
"किससे मिलना है आपको"-बाहर को आ रहे एक युवक ने मुझसे पूछा
शायद विवाह में आया कोई सम्बन्धी होगा। सोचते हुए मैंने युवक को देखा।
"मैने पूछा आपको किससे मिलना है"-मुझे मौन सोचते देख युवक पुनः बोला
"क्या मतलब...ये मेरा ही तो घर है...मैं रामपाल, रहता शहर में हूँ पर घर तो मेरा ही है।"
"पर हमने तो इसे कुछ समय पहले प्रेमपाल जी से खरीदा है। दो लाख रूपये में, कागज अभी बनने है।"
युवक के ये जहर बुझे शब्द नुकीली तलवारों से मेरे हृदय में उतर गये। ये शब्द नहीं लपलपाती ज्वालाएँ थीं जो मेरे तन मन को भस्म कर गयीं... छले जाने का भीषण अहसास... विश्वासघात... मन में कोमल जो भी कुछ भी था क्षण भर में कुचला गया... लगा पैरों के नीचे से जमीन निकल गयी। न आसमान ही सिर पर हैए व न पाँव ही जमीन पर टिके हैं। त्रिशंकु के समान मैं दोनों के बीच लटका हूँ। एकाकी व्यथित, विवश, उदास, निरूपाय।