थर्टी मिनिट्स / विवेक मिश्र
कमरे की दीवार पर टँगी घड़ी में अभी नौ बजने में दस मिनट थे। कमरे की छत पर लटके पंखे पर एक नायलॉन की रस्सी का फंदा लटक रहा था। फंदे के ठीक नीचे एक पुरानी बिना हत्थे वाली प्लास्टिक की कुर्सी पड़ी थी। सामने स्टूल पर रखी स्टॉप वॉच तेजी से दौड़ रही थी। वह उल्टी भाग रही थी। उसमें समय चुकता जा रहा था। उसे शून्य पर आकर रुक जाने में दस मिनट बाकी थे। मुल्क बड़े इत्मिनान से मोबाइल पर गेम खेल रहा था। स्टॉपवॉच में तेजी से नंबर बदल रहे थे, उसे शून्य पर आकर कर रुक जाने में जब शायद तीन मिनट ही शेष रह गए, तब मुल्क अपना मोबाइल बेड पर रख कर खड़ा हो गया। स्टॉपवॉच भागते-भागते, जैसे हाँफने लगी। अब नौ बजने में दो मिनट ही रह गए थे। मुल्क ने कुर्सी पर चढ़ कर पंखे से लटकते फंदे को पकड़ लिया। स्टॉप वॉच में समय अब बहुत तेजी से बीत रहा था। बचा हुआ आखरी एक मिनट, बहते हुए पानी की तरह फिसल रहा था। मुल्क ने फंदा अपने गले में डाल लिया।
स्टॉपवॉच जैसे तेज ढलान पर लुढ़कती हुई गाड़ी थी, जो किसी खड्ड में गिरती जा रही थी। वह रुक जाना चाहती थी, पर कोई भी चीज उसे रोक नहीं पा रही थी। मुल्क अपने पैरों के अँगूठे सिकोड़ कर, जैसे ज़िन्दगी की नब्ज टटोल रहा था। अब उसकी आँखें घड़ी पर नहीं, दरवाजे पर थीं। तभी दरवाजे की घंटी बज उठी और एक खतरनाक खेल, मौत का खेल, एक क्षण के लिए थम गया।
मुल्क एक ऐसा छब्बीस-सत्ताईस साल का युवक, जो कई बार आपको पीछे छोड़कर सबको धकेलता हुआ बस में चढ़ गया होगा। वह कई बार भाग कर आपके सामने ठीक उस समय मेट्रो में चढ़ा होगा, जब उसके दरवाजे बस बंद होने ही वाले होंगे। ऐसा आदमी जिसके कंधे से आपको धक्का लग गया होगा, पर उसने पलट कर आपको नहीं देखा होगा। कई बार आपके सामने से जब वह गुजरा होगा अपने कानों में हेड फोन लगाए, तो आपको उसे देखकर लगा होगा कि उसको किसी की परवाह नहीं। दरसल उसे देखकर आपको लगा होगा कि उसे अपनी भी परवाह नहीं, खास तौर से तब, जब आप जेब्रा क्रोसिंग पर, पैदल चलने वालों के साथ खड़े, सड़क पार करने के लिए ग्रीन सिगनल का इंतजार कर रहे होंगे और वह मोबाइल पर बात करता हुआ, बिना सिगनल की परवाह किए व्यस्त सड़क को पार कर रहा होगा। आप उसके लिए चिंतित या परेशान हो गए होंगे, जब कोई तेज रफ्तार गाड़ी उसे छू्के निकली होगी। अचानक आपको उसकी शक्ल अपने किसी बहुत करीबी रिश्तेदार, दोस्त या पड़ोसी जैसी लगी होगी। आपने यह भी सोचा होगा कि इसे लगता है कि यहाँ किसी को इसकी परवाह नहीं। जबकि आप साँस साधे तब तक उसे देखते रहे होंगे जब तक उसने सड़क पार नहीं कर ली होगी।
हाँ, बिलकुल, अब याद आया आपको। मैं उसी मुल्क की बात कर रहा हूँ। उसी का कमरा पूर्वी दिल्ली के लक्ष्मी नगर इलाके में है। आसमान से देखें तो पूर्वी दिल्ली में प्रवेश करते हुए विकास मार्ग के दोनों ओर बसे, घनी आबादी वाले इलाके, लक्ष्मी नगर और शकरपुर ऐसे लगते हैं, मानों किसी पेड़ के मोटे तने पर मधुमक्खियों के दो बड़े-बड़े छत्ते लगे हों। यहाँ से हजारों लोग सुबह जत्थों में निकल कर पूरे दिल्ली में फैल जाते हैं। सुबह से शाम तक ये इलाके इसी तरह भीड़ से बजबजाते रहते हैं। रात में बत्तियाँ जलने पर तो लगता है, जैसे करोड़ों जुगनू इन छत्तों पर आ बैठे हैं। एक बड़े अजगर-सी दिखने वाली मेट्रो, एक विशाल पेड़ के इस मोटे तने जैसे दिखनेवाले इस रास्ते के ऊपर बने पुल पर, दिन भर यहाँ से वहाँ रेंगती रहती है। यह थोड़ी-थोड़ी देर में अपने बीसियों मुँह खोलकर हजारों लोगों को अपने भीतर लीलती और फिर बाहर उगल देती है।
विकास मार्ग पर, पूरब की ओर जाने पर, बाईं तरफ पड़ने वाला इलाका, कुछ ज़्यादा बड़ा, सँकरी गलियों और घनी आबादी वाला है। यही लक्ष्मी नगर है। इसी की एक सँकरी गली के आखिर में एक पचास फुट के प्लॉट पर बनी पाँच मंजिला बिल्डिंग की चौथी मंजिल का, एक दड़बेनुमा कमरा-मुल्क का कमरा है।
मुल्क लगभग रोज ही आठ बजे अपने कमरे पर लौट आता है। आज भी जब वह लौटा तो वही समय था। उसने आते ही कमरे की बत्ती जला दी। रोशनी होने पर, जो दुनिया सामने उजागर हुई, उसमें सबसे पहले देखी जा सकने वाली चीजों में, दरवाजे के सामने वाली दीवार पर टँगी घड़ी और उसी के नीचे एक स्टूल पर रखी, स्टॉपवॉच थी, जिसमें मिनट के स्थान पर तीस और सेकेंड के स्थान पर दो शून्य रुके हुए थे। मुल्क ने अपना लैपटॉप बेग बेड पर फेककर कमरे का दरवाजा चौखट से भिड़ाया और बेड पर पड़ी मुचड़ी और सीली तौलिया उठाकर, कमरे से जुड़े बाथरुम में घुस गया।
बाथरुम से निकलने पर मुल्क के थके हुए चेहरे पर एक विचित्र-सी, विस्मित कर देने वाली चमक आ गई थी। वह अपने अकेलेपन में बहुत खुश लग रहा था। उसने बाहर निकलते ही एक नंबर डायल किया। दूसरी ओर से आवाज आई, 'न्यू पिज्जा सेंटर'। मुल्क ने ऑर्डर दिया "वन चिकन पिज्जा विद् एक्सट्रा चीज, पता लिखिए, डी-4 / 131, स्ट्रीट न। 8, रमेश पार्क, लक्ष्मी नगर। अभी टाइम हुआ है 8.30, डिलीवरी टाइम 9 पी.एम."। फोन काटने से पहले ही मुल्क ने स्टॉपवॉच का बटन दबा दिया।
स्टॉपवॉच में नंबर सरपट भागने लगे। जैसे-जैसे घड़ी में समय बढ़ता, स्टॉपवॉच में समय कम होता जाता। मुल्क के चेहरे पर आई चमक को उसकी आँखों के चारों ओर बने काले घेरे धीरे-धीरे मलिन करने लगते।
वहाँ दूसरे सिरे पर, जहाँ मुल्क का पिज्जा का ऑर्डर नोट किया जाता। उस जगह का साइन बोर्ड, विकास मार्ग पर किसी पजल के ब्लोक्स की तरह उलझी पड़ी गाड़ियों और आँखों को चुंधिया देने वाली रोशनी में सबसे ज़्यादा चमक रहा होता, जिस पर लिखा है-न्यू पिज्जा सेंटर। उस बोर्ड पर बड़े-बड़े अक्षरों में यह भी लिखा है, 'पिज्जा इन थर्टी मिनिट्स, ऐट योर प्लेस'। आठ से नौ बजे के बीच का समय, पिज्जा सेंटर के लिए सबसे व्यस्त समय होता। इस समय पिज्जा सेंटर की सारी टेबिलें भरी रहतीं। वहाँ जाकर लगता जैसे शहरों में रोटी खाना किसी बीते समय की बात हो चली है। कुछ लोग बाहर खड़े अपनी बारी का इंतजार करते रहते हैं। होम डिलीवरी के ऑर्डर बुक करने के लिए एक काउंटर अलग से बना है, जिस पर एक लाइन से कई फोन रखे हैं, जो लगातार बजते रहते हैं। काउंटर पर एक अधेड़ उम्र का नेपाली आदमी बैठा रहता है, जिसका रंग भूरा, मुँह बर्गर की तरह फूला हुआ और आँखें छोटी और धसी हुई, कहीं दूर ताकती हुई लगतीं हैं। शायद वह सामने बने आइसक्रीम पार्लर के उस बोर्ड को देखता होगा, जिस पर बर्फ से ढके पहाड़ बने हैं। वह अपनी जगह पर ऐसा रम गया है कि उसे देखकर लगता है, वह तभी से भारत में है, जब पहली बार यहाँ के किसी आम आदमी ने बर्गर, चौउमीन और पिज्जा का स्वाद चखा होगा। वह फोन पर ऑर्डर बुक करता और एक पर्ची पर ऑर्डर नंबर और डिलीवरी टाइम डालकर काउंटर के साथ की खिड़की, जो किचन में खुलती, से अंदर पास कर देता।
न्यू पिज्जा सेंटर के किचन में दस-बारह जोड़ी हाथ, किसी बड़े कारखाने में लगे मशीनी पुर्जों की तरह बिजली की फुर्ती से, एक साथ चलते। इन हाथों के शरीर, चेहरे और उन पर टकी हुई आँखें भी होतीं, पर वे दिखाई नहीं देतीं। कई बार इन चेहरों पर गलती से आ गई कोई मुस्कुराहट किसी पिज्जा के डिब्बे में गिर कर बंद हो जाती, पर वह कुछ ही देर में गर्मी और घुटन से वहीं छटपटा कर दम तोड़ देती।
ये मशीन की तरह चलते हाथ, खिड़की से ऑर्डर पकड़ने के बाद, आठ से दस मिनट में पिज्जा तैयार करके, उसे पैक करके वापस उसी खिड़की से काउंटर पर खिसका देते। काउंटर पर बैठा नेपाली आदमी तब तक अपने भीतर कहीं थोड़े-बहुत बचे रह गए पहाड़ और उस पर की पिघलती बर्फ को दूर किसी बहुमंजिला इमारत के शीर्ष पर अपनी धँसी हुई आँखों से देखता रहता। यह लाल-पीले रंग की टी-शर्ट पहने बैठा नेपाली आदमी, जो आपको पास से देखने पर, खुद भी पिघलता हुआ हिमालय ही लगेगा, डब्बे में बंद पिज्जा, बिल और पते के साथ एक पॉलीथिन में डाल कर, एक बटन दबा देता। बटन दबाते ही उसके सिर के ऊपर लगे इलेक्ट्रानिक बोर्ड पर एक नंबर उभरता और जोर से कानों को चुभने वाली घंटी बज उठती है।
घंटी बजते ही, पिज्जा सेंटर से बाहर, ठीक तीस मिनट में, इलाके के किसी भी घर में पिज्जा पहुँचा देने के लिए तैयार खड़े, पिज्जा डिलीवरी बॉय हरकत में आ जाते। उन सभी ने भी लाल-पीले रंग की टी-शर्ट पहनी होती। पिज्जा सेंटर के अंदर बैठे नेपाली आदमी के बटन दबाने से, जो नंबर उसके सिर के ऊपर दीवार पर लगे इलेक्ट्रानिक बोर्ड पर उभरता, उसी नंबर की टी-शर्ट पहने बाहर खड़ा डिलीवरी बॉय लपक कर काउंटर पर पहुँच जाता।
इस बार काउंटर पर बैठा नेपाली अपने पेट से ताकत लगाते हुए बोला, "व्हेकिल नंबर 36" , ...बुकिंग टाइम आठ तीस, डिलीवरी टाइम नौ बजे"। नेपाली ने 36 नंबर की टी-शर्ट वाले लड़के को अपनी धँसी हुई आँखों से घूरते हुए कहा," 12 मिनट निकल चुके हैं, नौ बजे का मतलब नौ बजे, थर्टी मिनिट्स मतलब थर्टी मिनिट्स, नहीं तो इस राउंड का पैसा कटा समझो"।
लड़के ने उसकी तरफ देखे बगैर काउंटर पर रखा पैकेट उठाया और भाग कर उसे अपनी मोटर-साइकिल के पीछे लगे बॉक्स में डाल दिया।
हेलमेट पहन कर मोटर-साइकिल में किक मारते ही जैसे वह बाहर की दुनिया से पूरी तरह कट गया। उसका दिमाग मोटर-साइकिल के इंजन की आवाज के साथ घनघनाने लगा। उसका शरीर और मोटर-साइकिल एक हो गए. उसे आगे से सफल डिलीवरी पर मिलने वाले इन्सेंटिव के लालच और पीछे से असफल डिलीवरी पर ऑर्डर की पूरी कीमत के उसकी तनख्वाह में से काटे जाने के डर की कील एक साथ चुभने लगी। मोटर-साइकिल की तेज गति के कारण अब उसे अपने आस-पास जलती बत्तियाँ फैलकर लंबी होती प्रतीत हो रही थीं। आस-पास तैरती ट्रैफिक की आवाजें धीरे-धीरे तीखी और नुकीली होती जा रही थीं। वह लगभग उड़ता हुआ, अँधेरों और रोशनियों के बीच से मधुमक्खी-सा भिनभिनाता, हवा में तैर रहा था। वह केवल उस पते को देख पा रहा था जिस पर उसे तीस मिनट में पहुँचना था।
मुल्क गले में रस्सी का फंदा डाले स्टूल पर खड़ा, अपने पैर के अँगूठे को सिकोड़कर अभी ज़िन्दगी की आखिरी धड़कन को टटोल पाता, दरवाजे पर देखते हुए उसकी आँखें आखरी बार झपक पातीं, उससे पहले ही दरवाजे की घंटी बज गई थी। घंटी बजते ही स्टॉपवॉच में समय चुक गया। तीस मिनट से शुरू हुई घड़ी में समय शून्य हो गया। दीवार पर लगी घड़ी ने भी उसी क्षण नौ बजने का एलान कर दिया।
मुल्क खुशी और उन्माद से, अपने गले से फंदा उतारते हुए बोला, 'कमिंग' , फिर धीरे से बुद्बुदाया, 'आय हैव वन अगेन, फिर से घड़ी हार गई, मौत हार गई, ...नाव आई कैन लिव एनअदर डे'।
मुल्क ने मुस्कुराते हुए दरवाजा खोलकर पिज्जा लिया, पैसे दिए और दरवाजा बंद कर दिया।
उसका यह खेल अजीब है न! शायद अब अगर वह आपको मिले तो आप उससे बात करना चाहेंगे। ऐसा नहीं है कि मुल्क से आपकी पहले कभी बात नहीं हुई होगी। ज़रूर कभी न कभी, पाँच साल से टेली कॉलर की जाब करते हुए, उसने आपको मोबाइल, क्रेडिट कार्ड, या फिर किसी फ्लैट की बुकिंग के लिए फोन किया होगा। उसने अपने बी.ए. ऑनर्स के दूसरे साल में ही कॉलेज छोड़कर नोएडा में एक कॉल सेंटर में नौकरी कर ली थी। पहले दो साल तो नौकरी लगती रही, छूटती रही। पर उसके बाद न्यूटोन-एक ऐसी कंपनी जो ठेके पर किसी भी आदमी को, किसी भी चीज के लिए केवल टेलीफोन पर कन्विन्स करने का ठेका लेती है, में आकर वह टिक गया। वजह थी यहाँ उससे साल भर बाद ज्वाइन करने वाली नीरू।
दोनों साथ काम शुरू करते, साथ में ब्रेक लेते और साथ ही काम खत्म करके, वर्क स्टेशन से निकलते। अपनी सीट पर कॉल करते हुए भी मुल्क की आँखें नीरू पर टिकी रहतीं। नीरू भी कभी-कभी नजर उठाकर मुल्क को देख लेती।
वह शायद सोमवार की दोपहर में मिले ब्रेक का समय था। जब मुल्क कैंटीन में अकेला बैठा था। उसकी आँखें कुछ ढूँढ़ती हुई यहाँ-वहाँ घूम रही थीं। इसी बीच उसने सिगरेट सुलगा ली और ढेर सारा धुआँ छत की ओर धकेल दिया। उसकी उँगलियाँ टेबिल पर पड़े लाइटर से खेल रही थीं। तभी लंबी, पतली उँगलियों वाले, एक खूबसूरत हाथ ने टेबिल पर घूमते हुए लाइटर को रोक दिया। यह नीरू थी। नीरू ने मुल्क के सामने अपने मोबाइल का इनबॉक्स खोलकर रख दिया। 'व्हॉट द हेल इज दिस, सेम मेसेज, टेन टाइम्स, लुक वी आर कॉलीग्स, मुल्क हम साथ काम करते हैं, बस' नीरू ने झल्लाते हुए कहा। मुल्क ने सिगरेट का कश खींचा और धुआँ छत की ओर धकेल दिया, फिर अपनी जेब से मोबाइल निकाल कर, वही मेसेज दोबारा नीरू को भेज दिया। नीरू के मोबाइल में मुल्क के मेसेज के रिसीव होने की घंटी बजी. मुल्क, नीरू को देखकर मुस्करा दिया। नीरू झुँझला गई. उसने अपना मोबाइल उठाया और मुल्क की ओर देखकर कहा 'यू आर इंपासिबल'। फिर पलट कर चली गई. मुल्क की आँखें दूर तक उसका पीछा करती रहीं।
नीरू चली गई, मुल्क वहीं बैठा नीरू को भेजा मेसेज पढ़ता रहा, जिसमें लिखा था-'एवरी इवनिंग ऐट नाइन, आई वेट फॉर यू ऐट मॉय प्लेस-डी-4 / 131, स्ट्रीट न।-8, रमेश पार्क, लक्ष्मी नगर' , आखिर में बोल्ड लेटर्स में लिखा था, 'प्लीज मेक इट दिस इवनिंग'।
मुल्क इस शहर में दिन-रात यहाँ-वहाँ भागते उन लाखों लोगों की भीड़ में एक ऐसा बनता-बिगड़ता चेहरा था, जिसका अपना एक चेहरा होते हुए भी कोई चेहरा नहीं था। उसकी आँखों के चारों ओर लगतार बड़े होते स्याह गोलों को नापने वाला उसके आसपास कोई नहीं था। उसका पूरे शहर में कोई दोस्त नहीं था। शायद दोस्त बनाने का समय नहीं था। मुल्क की ज़िन्दगी पिछले दो साल से अपने लक्ष्मी नगर के वन रूम सेट और नोएडा के कॉल सेंटर के बीच दौड़ रही थी। वह सेंटर से निकल कर कमरे पर पहुँचता, फोन पर पिज्जा का ऑर्डर देता और ऑर्डर बुक करते ही तीस मिनट पर रुकी हुई स्टॉपवॉच का बटन दबाता। स्टॉपवॉच उल्टी दिशा में भागने लगती और शून्य पर जाकर रुक जाती। इन तीस मिनटों में मुल्क अपने मोबाइल पर गेम खेलता, कभी नीरू को भेजा हुआ अपना मेसेज पढ़ता, कभी कमरे में रखे किताबों के रैक से कोई किताब निकाल कर उसके पन्ने पलटने लगता। कभी-कभी इसी बीच नीरू को फिर से वही मेसेज भेज देता। तीस मिनिट पूरे होने से कुछ मिनट पहले, मुल्क कुर्सी पर खड़ा हो पंखे से लटकते फंदे को गले में डाल लेता। आधा घंटा बीत जाता, नौ बज जाते। नीरू नहीं आती, पर तीस मिनट पूरा होने से पहले पिज्जा आ जाता। मुल्क के कमरे की घंटी बज जाती और वह गले से फंदा उतार देता।
करोड़ों की आबादी वाले इस शहर में, अपने कमरे में नितांत अकेला मुल्क, जिसे अब आप थोड़ा बहुत पहचानने लगे हैं। यह खेल कई महीनों से खेल रहा था। वह अभी तक इस खेल में जीतता आ रहा था। वह हर दिन जीत के बाद कलेंडर पर सही का एक निशान लगा देता। मुल्क का तीस मिनट का खेल घर और बाजार, प्यार और इंतजार और आखिर में ज़िन्दगी और मौत के बीच होता। उसकी ज़िन्दगी मौत से जीत जाती। हर बार तीस मिनट से पहले ही घंटी बज जाती।
नीरू तो नहीं आती, पर पिज्जा तीस मिनट पूरे होने से पहले आ जाता।
मुल्क ने आज भी अपने नियत समय पर पिज्जा आर्डर कर दिया। स्टॉपवॉच में समय तेजी से सरकने लगा। दीवार पर लगी घड़ी की सेकेंड की सुई बहुत तेजी से भागने लगी। न जाने क्यूँ मुल्क को लग रहा था कि आज नीरू ज़रूर आएगी। इसलिए आज वह स्टॉपवॉच को रोक देना चाहता था।
पिछले सात-आठ महीनों से नीरू, मुल्क के मेसेज के आते ही उसे अपने मोबाइल से डिलीट करती आ रही थी। उसने कभी मुल्क के मेसेज का जवाब नहीं दिया था, पर अब उसे मुल्क पर गुस्सा नहीं आता था।
वह फरवरी का महीना था। धीरे-धीरे कम होती सर्दी में बसंत की महक मिलने लगी थी। उस दिन शाम सात बजे अपने ऑफिस से निकल कर नीरू, नोएडा के सेक्टर-18 के बस स्टॉप पर खड़ी थी। आज वह बार-बार कोशिश करने पर भी मुल्क का मेसेज अपने मोबाइल से डिलीट नहीं कर पा रही थी। उसने हमेशा कि तरह आज भी उसे कई बार खोल कर पढ़ा था, पर आज घर जाने से पहले वह उसे मिटा नहीं पा रही थी। उस मेसेज का एक-एक शब्द जैसे नीरू के बदन पर रेंगता हुआ उसे गुदगुदा रहा था। आज पहली बार उसने मुल्क के मेसेज का जवाब देने का मन बनाया था, पर उसकी उँगलियाँ कुछ भी टाइप नहीं कर सकीं थी। आज बार-बार मुल्क की जादुई आँखें, नीरू के सामने आ रही थीं। नीरू के भीतर आज जो कुछ भी चल रहा था, उससे वह असहज हो उठी थी, पर आज उसे गुस्सा नहीं आ रहा था, वह अकेली खड़ी-खड़ी मुस्कुरा रही थी। तभी उसके मोबाइल पर मेसेज रिसीव होने की घंटी बज उठी। मुल्क का ही मेसेज था। आज पहली बार उसने उस मेसेज के रिसीव होते ही बड़ी बेसब्री से खोला था। आज उसे मुल्क का भेजा एक-एक शब्द, जो वह पहले भी सैंकड़ों बार पढ़ चुकी थी, बिल्कुल नया लग रहा था। उसके मेसेज के आखिरी शब्द 'प्लीज मेक इट दिस इवनिंग' , मोबाइल से निकल कर उसके चारों तरफ लगे बड़े-बड़े ग्लोसाईन बोर्डों पर चमकने लगे थे। अपने पागलपन पर नीरू मन ही मन हँस रही थी। तभी एक ऑटो के रुकने की आवाज ने नीरू को चौंका दिया था। नीरू ने ऑटो वाले कि तरफ देखे बिना ही कहा, 'भईया, लक्ष्मी नगर जाना है' और ऑटो वाले के जवाब का इंतजार किए बगैर ही वह उसमें बैठ गई. उसके बैठते ही ऑटो लक्ष्मी नगर की ओर दौड़ने लगा।
मुल्क के उस दस बाई बारह के कमरे में जितनी तेजी से घड़ी की सुइयाँ भाग रही थीं, उतनी ही तेजी से कमरे के बाहर की दुनिया भी भाग रही थी। उसी में घनघनाती हुई भाग रही थी पिज्जा डिलीवरी बॉय की मोटर-साइकिल और वह ऑटो, जिसमें नीरू सवार थी।
तीस मिनट पूरे होने में तीन मिनट बाकी थे। मुल्क कुर्सी पर खड़े होकर, पंखे से लटकते फंदे से खेल रहा था।
नीरू का ऑटो स्ट्रीट न।-8, प्लॉट न। 131 के आगे रुका तो उसकी आँखों के सामने मुल्क के अनगिनत एस.एम.एस. तेजी से गुजरने लगे जिसमें लगभग हर मेसेज में उसने अपना पता लिखा था। नीरू को लगा जैसे वह इस जगह को पहले से जानती है। मुल्क की बड़ी-बड़ी जादुई आँखें आज आखिरकार, उसे यहाँ तक खींच लाई थी। उसके पैर जैसे खुद-ब-खुद सीढ़ियाँ चढ़ने लगे थे। वह बिना वजह ही मुस्कुरा रही थी, पर उसने तो सोचा था कि वह मुल्क से मिलेगी तो बिल्कुल नहीं मुस्कुराएगी। वह उसे बहुत डाँटेगी, फिर थोड़े प्यार से समझाएगी, आखिर ऐसा पागलपन क्यूँ? किसलिए? कब तक चलेगा ऐसा? पर वह तो मुस्कुराए जा रही थी। कोई चुंबक उसे खींचे लिए जा रही थी। उसने घुमावदार सीढ़ियों से ऊपर की ओर देखा तो सामने दरवाजे पर लिखा था डी-4 / 131 उसके भीतर कुछ तेजी से पिघल रहा था। उसके मुँह का स्वाद बदल गया था। उसके हाथों के महीन, सुनहले रोंए खड़े हो गए थे। डी-4 / 131 उसके सामने था। नौ बजने में एक मिनट बाकी था। इस पते को वह अच्छी तरह जानती थी। फिर भी तेजी से लगभग दौड़ते हुए सीढ़ियाँ चढ़ते, एक पिज्जा डिलीवरी बॉय को रोक कर उसने पूछा था, 'डी-4 / 131 यही है'। लड़के ने हड़बड़ी में कहा, 'हाँ डी-4 / 131 का ही ऑर्डर है'। नीरू के चेहरे कि मुस्कान जैसे उसके पूरे शरीर में फैल गई. नीरू ने कहा, 'ऑर्डर मुझे दे दीजिए, मैं डी-4 / 131 में जा रही हूँ'। नीरू ने पिज्जा लेकर थैंक्स कहकर और एक बड़ी-सी मुस्कुराहट के साथ उसके हाथों में पैसे थमा दिए. लड़के ने बचे हुए पैसे वापस देने चाहे पर नीरू ने संक्षिप्त-सा जवाब दिया, 'इट्स ओ.के.'। लड़का खुश था। वह लगभग कूदता हुआ सीढ़ियों से नीचे उतर गया।
नीरू का दिल जोरों से धड़क रहा था उसने दरवाजे पर लगी घंटी बजानी चाही, पर उसकी ऊँगलियों ने जैसे उसकी बात मानने से इनकार कर दिया। उसने अपना काँपता हाथ दरवाजे पर रख दिया, मानो भीतर बैठे मुल्क की धड़कनें हाथ से टटोल लेना चाहती हो। नीरू के दरवाजे पर हाथ रखते ही दरवाजा अपने आप खुल गया।
मोटी-मोटी किताबें रैक में एक-दूसरे के कंधे पर सिर टिकाए खड़ी थीं। उनकी अब किसी को ज़रूरत नहीं थी। सालों से घूमती घड़ी की सूइयाँ अभी भी घूमती जा रही थीं, पर वहाँ उनकी गति को तोलने वाला कोई नहीं था। स्टॉपवॉच शून्य पर आकर रुक गई थी। कमरे के भीतर का आकाश स्थिर हो गया था। कमरे के भीतर किसी एक पल ने एक लंबी साँस लेकर, उसे अपने भीतर रोक लिया था। कमरे की हरेक चीज उस पल के साँस छोड़ने का इंतजार कर रही थी, पर उस पल ने साँस नहीं छोड़ी। उस पल का, उस साँस के साथ यकायक इस पृथ्वी से लोप हो गया था। वह पल, वह साँस, किसी एक घड़ी में, किसी पुच्छ्ल तारे-सी चमक कर अंतरिक्ष में विलीन हो गई थी।
दीवारों पर झूलती परछाइयाँ, धीरे-धीरे टूट कर गिरने लगीं, पर मुल्क का शरीर जमीन से ढाई फुट ऊपर झूलता ही रहा।
नीरू मुल्क की बड़ी-बड़ी जादुई आँखों को एकटक देख रही थी। मुल्क की आँखें कमरे के बीचों-बीच हवा में तैर रही थीं। उन काली आँखों में अनंत विस्तार लिए हुए, एक ब्लैकहोल था, जो कमरे के भीतर की हरेक चीज को अपने भीतर खींच रहा था। नीरू भी किसी बेजान वस्तु-सी उस ब्लैकहोल में खिची चली जा रही थी।
न्यू पिज्जा सेंटर के काउंटर पर गूँजती फोन की घंटियाँ तेज हो गई थीं। ट्रैफिक का शोर और भी ज़्यादा तीक्ष्ण और कानों के पर्दे फाड़ देने वाला हो गया था। मुल्क की आँखों के चारों ओर सैंकड़ों पिज्जा डिलीवरी बॉय मधुमक्खियों की तरह भुनभुनाते उड़ रहे थे, वे भी उसी ब्लैकहोल समाते जा रहे थे।
तभी नीरू के मोबाइल पर मुल्क का कुछ मिनटों पहले भेजा हुआ, वह मेसेज रिसीव हुआ, जो आसमान के रास्ते में कहीं, कुछ देर के लिए फँस गया था। जिसके आखिर में लिखा था, 'प्लीज मेक इट दिस इवनिंग' , पर अपने होशोहवास खो चुकी नीरू उसे पढ़ नहीं पाई थी।