थर्मस / जगदीश कश्यप
रुपए जेब में आते ही मैं बैंक वाले दोस्त की उपेक्षा और घटियापन वाली कड़बड़ाहट भूल गया था । मैंने उसे आश्वस्त कर दिया था कि मेरी ताज़ा छपी कहानी के पैसे आने ही वाले हैं । यद्यपि दोस्त को मेरी इस बात पर ज़्यादा यक़ीन नहीं आया पर उसने हिदायत दी कि मैं लेखन के चक्कर में न पड़कर कोई एग्ज़ाम क्वालीफ़ाई करूँ और मैंने इस संबंध में आश्वासन भी दे दिया था ।
मैं किसी तरह जनरल स्टोर पहुँचकर थर्मस ख़रीद लेना चाहता था । मेरे दिमाग़ में यह भी था कि कोई अच्छी पिक्चर देखी जाए और किसी अच्छे रेस्तराँ में बैठकर लज़ीज़ भोजन का आनंद लूँ । वैसे भी थर्मस ख़रीदना मेरी ज़िम्मेदारी नहीं थी । किसी के घर की परेशानी से मुझे क्या लेना-देना ! अलबत्ता पचास रुपए मैंने थर्मस ख़रीदने के लिए ही उधार लिए थे । दोस्त के तीन माह के बच्चे को रात-बिरात दूध चाहिए ही । एक दिन हड़बड़ी में दोस्त की पत्नी के हाथ से थर्मस फ़िसल गया था और अंदर का कांच चटख गया था ।
अब मेरे क़दम सिनेमा की ओर बढ़ रहे थे । अचानक मेरे सामने जनरल स्टोर की दुकान आ गई और मैं उसमें घुस गया । जब मैं बाहर निकला तो मेरे हाथ में 98 रुपये 50 पैसे की रसीद और सुंदर थर्मस का डिब्बा था । मैं बहुत ही भावुक हो उठा । थर्मस पाकर दोस्त की पत्नी आँसू निकाल लेगी और कहेगी-- 'भाई साहब, आप हमारे बारे में इतना सोच रहे हैं । इस मुश्किल काम में हर कोई हमारा साथ छोड़ गया ।'
'भाभीजी, भगवान से प्रार्थना करो कि मैं आपके किसी काम आ सकूँ । अभी तो मैं तीन वर्ष से बेरोज़गारी भोग रहा हूँ । मैंने धीरे-से दरवाज़ा खटखटाया । मायूस अंदाज़ में भाभी जी ने दरवाज़ा खोला । मैं अंदर दाख़िल होते ही बोला— 'रवि कहाँ चला गया ?'
'पता नहीं, काफ़ी देर हो गई गए हुए । क्या काम है ?'
'कुछ नहीं । मैंने थर्मस के फ़ीते को ऊँचा उठाते हुए कहा— 'यह रवि ने भेजा है, थर्मस है ।'
भाभी मेरी बात सुनकर बुरी तरह चौंक गई । उसने बेइत्मिनानी से मेरी ओर देखा और सामने मेज़ की ओर उँगली से संकेत करते हुए कहा— 'पर थर्मस तो वो दोपहर को ही ख़रीद लाए थे । दूसरा थर्मस उन्होंने क्यों भेजा है ?'