थाना-दिवस / राजेन्द्र वर्मा
आज 'थाना-दिवस' है। वैसे ही जैसे, हिन्दी-दिवस, बाल-दिवस, मातृ-दिवस, पितृ-दिवस, पृथ्वी-दिवस, पर्यावरण-दिवस आदि। एक 'नैतिकता दिवस' मनाने की देर है, सारे दिवस इकट्ठे ही मन जायेंगे!
उत्सवधर्मिता के बहाने ही सही, लेकिन पुलिस को संवेदनशील बनाने का सरकार का विनम्र प्रयास है-थाना दिवस! त्वरित न्यायायिक प्रक्रिया की क्रान्तिकारी शुरूआत! थाने में अगर एफ.आई.आर. ही न दर्ज हो, तो किसी आपराधिक मामले में जज साहब किसे दण्ड दें? इसलिए थाने का न्यायिक प्रक्रिया में सर्वाधिक महत्त्व है। इसलिए, थाना-दिवस मनाया जा रहा है।
अपराधियों से लेकर थानाध्यक्ष ने तैयारी पूरी कर ली है। सब-के-सब थाने में डटे हुए हैं। थानाध्यक्ष के चेहरे पर थोड़ा तनाव है। यह तनाव कुछ उसी प्रकार का है जो बिटिया की शादी में उसके पिता के चेहरे पर अनायास ही छा जाता है! लेकिन तनाव भी थानाध्यक्ष के चेहरे पर फ़ब रहा है। थाना-का-थाना मैसेंजर का इन्तज़ार कर रहा है। वह अभी तक मुख्यमंत्री का सन्देश नहीं लाया। अख़बार वाले अभी आ रहे होंगे। थानाध्यक्षजी उन्हें क्या मुँह दिखायेंगे?
अपराधियों ने तो कल से ही स्ट्राइक कर रखी है। वे जानते हैं आज किसी अपराध को संज्ञान में नहीं लिया जायेगा। जान जोखि़म में डाल वे किसी वारदात को अंजाम दें और उसका कोई नोटिस ही न ले, तो क्या फ़ायदा? इससे तो अच्छा है, एक दिन की स्ट्राइक पर चले जाएँ!
दोपहर होने को है। मुख़बिर के पेट में ऐंठन हो रही है। कांस्टेबिलों के डंडे अलसा रहे हैं। कुछ चले-फिरें, तो जि़न्दगी का लुत्फ़ आये! हेड कांस्टेबिल की राइटिंग अच्छी है। वह एफ.आई.आर. लिखने को बेताब है। सब-इंस्पेक्टर विवेचना करने के लिए व्यग्र है। कोई विवेचना भी नहीं पेंडिंग है ससुरी। एस.ओ. का बायाँ हाथ रह-रह कर फड़क रहा है। उसके दाहिने मुक्के में विवशता बँधी है। ... मुक्का उठते-उठते रह जाता है!
थानाध्यक्ष सोच में पड़ गया—कल अमावस जैसी काली रात बीत गयी और एक भी वारदात न हुई. कोई फ़रियादी नहीं! ग्राम-प्रधान, ब्लाक-प्रमुख, विधायक, सांसद और माफि़या के हुकुम बजाने वाले वकीलों में से एक भी नहीं फटका! किसी को कोई शिकायत नहीं! ... एक गँवार भी न आया कि उसकी भैंस का दूध सरपंच के लड़के ने दुह लिया! मूँगफली बेचने वाला भी नहीं आया कि फ़लां-फ़लां हुलिया वाले एक दबंग ने बिना पैसे दिये उसकी सौ ग्राम मूंगफली चला डाली! ... हरिजन-उत्पीड़न का कोई मामला भी नहीं आया। और-तो-और, डिग्री कालेज से भी कोई शिकायत नहीं आयी कि किसी बदमाश लड़के ने किसी लड़की की इज़्ज़त उतारने की कोशिश की! ... जि़ला अस्पताल से भी कोई नहीं फटका कि इमरजेंसी में 'मेडिको-लीगल' पेशियंट दम तोड़ने वाला है। ... सुरक्षा की माँग करने वाला एक भी प्रार्थनापत्र नहीं आया कि फ़लां जगह कोई आन्दोलन, धरना या प्रदर्शन होने वाला है जिसमें क़ानून-व्यवस्था बिगड़ने की आशंका हो! हिन्दू-मुस्लिम दंगे की भी कोई हवा नहीं मिल रही! ...
मस्जिद में लाउडस्पीकर कान फोड़ रहा है, फिर भी हिन्दू संगठन की कोई विंग आगे नहीं आ रही। क्या अब कोई समस्या नहीं रह गयी? क्या अब कोई भी हिंसा के मार्ग पर चलने वाला न रहा? ... क्या होगा इस अभागे देश का? इतनी अकर्मण्यता तो पहले कभी नहीं देखी गयी। ... हे राम! क्या धरती वीरविहीन हो गयी है? अभागा 100 नम्बर भी ठंडा पड़ा है। हाय राम! अब क्या होगा इस देश का? हमारी तो जैसे नाक ही कट गयी!
थाने में चतुर्दिक सन्नाटा पसरा है। थानाध्यक्ष, एस.आई.की ओर असहाय देखता है। एस.आई., हेड कांस्टेबिल की ओर। अब कांस्टेबिल किसकी ओर देखे! मजबूरन वह सिर झुकाये-झुकाये मुर्दनी सन्नाटे को दाखि़ल-दफ़्तर कर देता है।
कोई कानी चिडि़या भी नहीं फटक रही थाने में! एक कुत्ता तक नहीं भौंकता ससुरा! ... सबको पता चल गया है कि आज 'थाना-दिवस' मनाया जा रहा है।
पाँच बजने को आ गये। पूरा दिन ऐसे निकल गया, जैसे थाने में किसी बड़े अधिकारी की ग़मी हो गयी हो। थानाध्यक्ष का दिल बैठा जा रहा है। उसके चेहरे पर चिंता की रेखाएँ गहराती जा रही हैं-एस.पी. साहब को कल वे क्या रिपोर्ट भेजेंगे? ... परसों ही मीटिंग है, क्या जवाब देंगे? अन्य थानेदारों ने, पता नहीं, क्या-क्या गुल खिलाये हैं? एस.पी. साहब का क्या ठिकाना? अपने किसी चमचे को मॉडल थानेदार बना देंगे और फिर हम सबको ज़लील करने लगेंगे!
कोई इन गुलाब की मालाओं को देखे। एक गर्दन नहीं नसीब हुई सवेरे से बिचारियों को! पेप्सी की बोतलें थाने के एक-एक आदमी को रह-रह कर देखती हैं, लेकिन बेचारियों का ढक्कन न खुला तो, न खुला!
(2)
अचानक एक आदमी ईद के चाँद की तरह थाना परिसर में आता दिखायी पड़ता है। उसके हाथ में एक अदद हैंडबैग है जिसमें बीस-पच्चीस रुपयों की रेजगारी और कुछ काग़ज़ों की फ़ोटोकापियाँ हैं। आगन्तुक के हृदय में रामायण की चौपाइयाँ हैं-प्रविसि नगर कीजै सब काजा। हृदय राखि कोसलपुर राजा॥
आगन्तुक को देखते ही सिपाहियों से लेकर थानाध्यक्ष की आँखें चमक उठती हैं। थाने में ख़ुशी का सूरज भकभका उठता है। हेड कांस्टेबिल झट से अपना क़लम खोलकर दाहिने हाथ के अँगूठे और तर्जनी व मध्यमा के चंगुल में फँसा लेता है। रजिस्टर के पन्ने पर जो धूल की पर्त जम आयी है, उसे वह बायें हाथ से हौले से झाड़ता है। इसी पन्ने पर ही तो उसे अभी एफ.आई.आर. लिखनी है। ... अन्य दिनों की तरह इन्फोर्मंट से शिकायत का काग़ज़ लेकर उसे भगा नहीं देना है। मौखिक शिकायती को शब्दशः लिखकर शिकायत को चिक की कापी उपलब्ध करानी है। लेकिन यह क्या? आगन्तुक किसी संज्ञेय अपराध की रिपोर्ट लिखवाने नहीं आया है। वह तो किसी का हैंडबैग, जो थाने के गेट पर गिरा पड़ा था, जमा कराने आया है। ... ठाकुरद्वारा जा रहा था मत्था टेकने। सोचा, एक नेक काम करते चलें!
...अरे, हतभागी! तुझे आज थाने में आने की ज़रूरत पड़ी तो इस खाली बैग और उसमें रखे पुडि़या बनाने वाले काग़ज़ को जमा कराने के लिए. अरे मूरख! आत तो तुझे गंभीर-से-गंभीर अपराध की सूचना देनी थी जिसके बारे में तूने सुना भर होता, उसे देखने या झेलने की कोई अनिवार्यता न थी! ... और यह सारा-का-सारा अमला फ़ौरन से पेशतर पीडि़त पक्ष को न्याय दिलाने में लग जाता! इससे अपराधियों का मनोबल चकनाचूर हो जाता और समाज से अपराध का नाता सदा-सदा के लिए टूट जाता। ... लेकिन तूने तो भई! कमाल कर दिया-यह बैग हमें सौंप दिया। वाह! पर कोई बात नहीं, आज हम तुझे कुछ नहीं कहेंगे। आ, इधर बैठ! हमें सेवा का मौक़ा दे!
आगन्तुक को कुर्सी पर बैठने के लिए कहा जाता है, पर वह घबरा उठता है। उसे ज़बरदस्ती कुर्सी पर बिठाया जाता है। इस महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए हालाँकि एक ही कांस्टेबिल काफी है, फिर भी दूसरा वाला बगल में मुश्तैदी से खड़ा है-पता नहीं, कब उसकी हेल्प की ज़रूरत पड़ जाए!
आगन्तुक के गले में मुरझायी हुई माला डाली जाती है जिसे वह फौरन मेज़ पर उतार रख देता है। थानाध्यक्ष अपने दाहिने कर-कमल से दूधिया प्लास्टिक के ग्लास में 'पेप्सी' पेश करता है। ... काश! कोई पेप्सी भेंट करने वाली उसकी एक फोटो निकाल देता, भले ही अकेले में उसे एक झापड़ मार लेता!
आगन्तुक बौखलाया हुआ इधर-उधर देखता है। उसकी समझ में नहीं आ रहा कि आज थाने को हो क्या गया है? प्यास महसूस करने के बावजू़द वह 'पेप्सी' पीने का साहस नहीं जुटा पाता। ... मौक़ा मिलते ही वह पेप्सी को मेज़ पर रख भाग खड़ा होता है। ... थानेदार उसके पीछे-पीछे भागता है। थानेदार के पीछे पूरा थाना! थानेदार के होठों तक गाली आते-आते रह जाती है। यही हाल पूरे थाने का है। ... आगन्तुक जब तक थाने के गेट से बाहर नहीं हो जाता, थाने की यह दौड़ जारी रहती है। ... जैसे ही वह गेट के बाहर होता है, सभी विवश हो रुक जाते हैं।
थाने के गेट पर एक कुत्ता चुपचाप बैठा है। भागते हुए आदमी को देख कुत्ता बैठे-बैठे ही भौंकता है। पहले वह एक ही बार भौंकता है-भुक्क! फिर उठकर पंचम स्वर में भौंकने लगता है-भौं-भौं! भौं-भौं-भौं! भौं-भौं-भौं-भौं! उसको पता नहीं कि आज 'थाना-दिवस' है, तभी वह थाने के सामने भौंक रहा है। ...
थाने से सरपट निकला आदमी बेतहाशा भाग रहा है। सामने से प्रेस-रिपोर्टर कैमरामैन के साथ आ रहा है। उनके साथ जींस और टॉप में पान मसाला चबाती हुई एक लम्बी-सी स्मार्ट महिला है। उसके चेहरे पर कोई स्त्रियोचित भाव नहीं! वह मर्दाना स्त्री है-पुलिस और पत्रकारों के बीच रहने लायक़!
भागता हुआ आदमी कैमरामैन से टकरा जाता है। कैमरामैन ज़मीन पर गिर जाता है। ... गिरते ही वह, आगन्तुक द्वारा माँ से वर्जित सम्बन्ध बनाती हुई भद्दी-सी गाली देने के साथ वह अपना कैमरा सँभालते हुए उठता है। ... कैमरे को आगे-पीछे, दाये-बायें घुमाते हुए देखता है-गनीमत है, टूटा नहीं!
प्रेस रिपोर्टर आदमी से पूछता है-क्यों भाग रहे हो? क्या थाने में कुछ गड़बड़ है? आज तो 'थाना-दिवस' था? वह हांफते हुए उत्तर देता है-हाँ, वे लोग मुझे जबरन...पेप्सी पिलाना चाहते थे...उसमें कुछ मिलाकर! मुझे जाने दो, प्लीज़! वे मुझे मार देंगे! मुझे जाने दो! कहते हुए वह स्त्री के बगल से भाग निकलता है।
प्रेस रिपोर्टर टीम सहित थाने पहुँचता है। पीछे-पीछे मुख्यमंत्री का संदेश लिये हुए कांस्टबिल वैसे ही आ जाता है। थानेदार सहित सभी लोगों के चेहरे वैसे ही खिल जाते हैं, जैसे रामलीला के दर्शकों के, जब वे लक्ष्मण को बाण लगने के बाद हनुमान को संजीवनी लिए पहुँचते देखते हैं।
थानाध्यक्ष की बांछें खिल जाती हैं। ... दो कांस्टेबिलों को छोड़ सभी थानाध्यक्ष के कमरे में विराजमान हैं। रंगीन गिलासों में विलायती भरी है। ... यह तीसरा दौर है। मुर्गा तो साला कब से ठंडा हो रहा था!
(3)
रात के आठ बजे हैं। थाने के सामने एक बैलगाड़ी आकर रुकती है। उसमें से एक अधेड़ घायल अवस्था में अचेत पड़ा है। उसकी गर्दन पर गहरा घाव है। घायल के पास उसकी पत्नी बैठी है। वह मध्यम स्वर में रो रही है।
बैलगाड़ी हाँकने वाला नौजवान, बैलों को अलग करके थाने में घुसता है। वह घायल का पुत्र है। नामज़द रिपोर्ट कराने आया है-दबंग प्रधान के लड़के के खि़लाफ़! हेड कांस्टेबिल को वह घटना बयान करता है—
"शाम के चार बजे होंगे। हम नहर के पानी से अपना खेत सींच रहे थे कि अभियुक्त और उसके भाई ने पिताजी को पानी बंद करने को कहा। लेकिन जब उन्होंने पानी नहीं बंद किया तो वे दोनों पिताजी से गली-गलौज और हाथापाई करने लगे। मैं जब तक मौके पर पहुँचता, अभियुक्त ने लपककर पिताजी की गर्दन पर बांके से वार कर दिया। पिताजी जब ज़मीन पर गिर पड़े, तब भी उसने गर्दन पर कई वार किये। मैंने दौड़कर उन्हें बचने की कोशिश की, तो उसने मुझ पर भी वार किया। ... ज़रा-सा बच गया, नहीं तो मैं भी अच्छा-ख़ासा घायल हो जाता! ... यह देखो!" अपनी गर्दन के पास वह किसी धारदार हथियार से लगा हल्का-सा कट दिखाता है। अपना घाव दिखाते-दिखाते नौजवान को क्रोध आ जाता है। ... फिर क्रोध पर क़ाबू पाकर कहता है-"साहेब! हमारी रिपोर्ट लिखो!"
कांस्टेबिल कुछ नहीं बोलता। उसके सपाट चेहरे पर कोई भाव नहीं! जैसे उसने न कुछ देखा, न सुना। जन्म का अन्धा और बहरा! या फिर, जैसे दीन-दुनिया से उपर उठा हुआ, पूर्ण वीतरागी!
नौजवान को शायद मालूम नहीं कि सपाट चेहरे पर सजी संवेदनशून्यता का नाम ही तो 'पुलिस' है। यह वह शै है जो तनख़्वाह पाने के बदले सिर्फ़ वर्दी पहन पाती है। यह वह बीमार शै है कि अगर उससे काम लेना हो, तो उसे या तो रिश्वत की दारू पिलानी पड़ती है, या फिर, बड़े अधिकारी या मंत्री की डाँटन की दवा! क्योंकि बिना दवा-दारू के कोई बीमार भला कैसे हिल-डुल सकता है? उससे किसी काम की अपेक्षा कैसे की जा सकती है!
आधे घंटे की झक-झक के बाद 'स्क्राइब' कहता है-"अगर कुछ लिखकर लाया है, तो छोड़ जा। रिपोर्ट हम छान-बीन के बाद लिख लेंगे! घायल को तू सरकारी अस्पताल ले जा। हम वहाँ फोन करे देते हैं।"
नौजवान गु़स्साने लगता है-"जब हम कह रहे हैं, रिपोर्ट लिखो, तो लिखो। ... आपका काम रिपोर्ट लिखना नहीं है क्या?" लेकिन स्क्राइब कुछ नहीं कहता, बस अपनी तनी हुई भौंहों से उसे देखता है। इससे पहले मामला तूल पकड़े, थानाध्यक्ष कमरे से बाहर निकल आता है।
थानेदार ने अपने कमरे से ही सारा माज़रा समझ लिया है। ... वह हेड कांस्टेबिल को कुछ समझाता है। ... हेड कांस्टेबिल, कांस्टेबिल को और कांस्टेबिल नौजवान को!
थोड़ी देर तक नौजवान असमंजस में रहता है पर जब कांस्टेबल उसके हाथ में काग़ज और क़लम थमा देता है, तो वह भुनभुनाते-भुनभुनाते अपनी तहरीर लिखकर कांस्टेबिल को दे देता है। ... फिर मन-ही-मन पछताता है कि अगर उसने हज़ार रुपये पहले ही कांस्टेबिल के हाथ पर रख दिये होते, तो इतना वक़्त क्यों बरबाद होता?
हेड कांस्टेबिल कहीं फोन लगा रहा है-शायद अस्पताल को!
थाने से बाहर निकल नौजवान गाड़ी की ओर लपकता है। बैलगाड़ी में बैठी स्त्री का रुदन अचानक बढ़ गया है। वह बेटे को पुकार-पुकारकर रो रही है। नौजवान लपककर गाड़ी पर पहुँचता है। गाड़ी पर उसके वापस आने तक घायल की साँसें रुक गयी हैं। वह छाती पर कान लगाता है। कोई धुकधुकी नहीं! नाड़ी भी नहीं मिल रही! स्त्री का रुदन विलाप में बदल गया है। लड़के की आँखों-तले अँधेरा छा रहा है। ...
सवेरे समाचार-पत्रों में 'थाना-दिवस' सफलतापूर्वक मनाये जाने की ख़बर छपी है। दो कॉलमों में फैली छोटी-सी ख़बर में थानाध्यक्ष का मूँछों में मुस्कुराता हुआ फोटो भी छपा है।