थोड़ा-सा प्रगतिशील / ममता कालिया
विनीत ने अपनी सहपाठी चेतना दीक्षित के साथ दोस्ती, मुहब्बत और विवाह की सीढ़ियाँ दो साल में कुछ इस तरह चढ़ लीं कि एक दिन चेतना उसके घर हमेशा के लिए आ बसी। अपनी सफलता पर अभिभूत हो गया विनीत। साथ ही सावधान। प्रेम का प्रथम ज्वार जरा धीमा पड़ा तो उसे सबसे पहले यह चिन्ता हुई कि जिस आसानी से उसने चेतना को पटा लिया उतनी ही आसानी से कोई और न उसे पटा ले। साल भर में चेतना की कमनीयता में कोई कमी नहीं आई, उलटे उसमें इजाफा ही हुआ था। शोखी अब बातों के साथ-साथ उसकी आँखों में भी उतर आई थी।
दरअसल विनीत आजाद भारत के अधिसंख्य शिक्षित नवयुवकों जैसा ही था, थोड़ा-थोड़ा सब कुछ -- थोड़ा-सा आधुनिक, थोड़ा-सा, पारम्परिक, थोड़ा-सा प्रतिभावान, थोड़ा-सा कुंद, थोड़ा-सा चैतन्य, थोड़ा-सा जड़, थोड़ा-सा प्रगतिशील, थोड़ा-सा पतनशील। सभी की तरह उसके सपनों की स्त्री वही हो सकती थी जो शिक्षित हो पर दब कर रहे, आधुनिक हो, लेकिन आज्ञाकारी, समझदार हो लेकिन अलग सोच-विचार वाली न हो।
विनीत देखता चेतना अपना पूरा दिन किसी न किसी बात या काम में मगन रह कर बिताती। ऐसा लगता जीवन की कोई सुरताल उसके हाथ लग गई है और वह एक लम्बी नृत्यमुद्रा में लीन है। विनीत ने सोचा उसे तौल लेना चाहिए चेतना के दिमाग में क्या चल रहा है।
उसने बात कुछ इस तरह शुरू की, 'चेतू, तुम्हारे सिवा और किसी से बात करना मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।' उसके कान यह सुनने का इंतजार कर रहे थे कि चेतना कहेगी उसे भी विनीत के सिवा किसी और लड़के से बोलना गवारा नहीं।
चेतना ने कहा, 'यह तो गंभीर समस्या है। कल को मेरे दोस्त घर आयेंगे तो तुम क्या करोगे?'
'मैं दूसरे कमरे में चला जाया करूँगा,' उसने जल-भुन कर जवाब दिया। 'देखो, मुझे तो सबसे बोलना अच्छा लगता है, बच्चों से, बड़ों से यहाँ तक कि मैं किताबों और टी.वी. से भी बोल लेती हूँ।'
'चेतना, दुनिया इस बीच बहुत खराब हो चली है। जब भी तुम किसी से बात करो, एक फासले से बोला करो। लोग लड़कियों के खुलेपन का गलत मतलब निकालते हैं।
'निकालने दो, यह उनकी समस्या है, मेरी नहीं।' चेतना ने कंधे उचका दिये।
मकान में नीचे के कमरे खाली पड़े थे। दरअसल यह विनीत के बाबा का बनाया हुआ मकान था। इसमें उन्होंने निचली मंजिल पर आँगन की बाहरी तरफ चार कमरे इसलिये बनवाये थे कि उन्हें दुकानों के लिए किराये पर उठा दिया जाए। बाबा तो रहे नहीं, उनके नीति-नियम भी उनके साथ ही विदा हुए। विनीत के माता-पिता यहाँ रहते नहीं थे। उनकी नियुक्ति इन दिनों जम्मू में थी। विनीत को यह पसंद नहीं था कि घर का कोई भी हिस्सा किराये पर चढ़ाया जाए। वे चारों कमरे खाली पड़़े थे। महीने में एक बार सफाई करवाने के लिए इनका ताला खोला जाता। घर की नौकरानी बड़बड़ाते हुए कमरों में झाड़ू लगाती। चेतना फौरन उसे पाँच का नोट पकड़ा देती।
इस साल दिसम्बर में ठंड इतनी बढ़ी कि आकाश से सूरज और धरती से धूप उड़नछू हो गये। लोगों ने अपने कुल जमा गरम कपड़े पहन लिये। लेकिन हर वक्त यही लगता जैसे हर अंग बर्फ में लिपटा हुआ है। ऐसी एक ठंडी शाम कॉफी हाउस से लौटते हुए विनीत और चेतना की नजर अपने रिक्शे वाले पर पड़ी। उसने एक सूती चादर ओढ़ रखी थी, लेकिन रिक्शा चलाने से वह बार-बार उड़ रही थी। चादर के नीचे कमीज भी सूती थी।
वे द्रवित हुए। विनीत ने कहा, 'घर में इतने पुराने गरम कपड़े पड़े हैं, इसे दो-एक कपड़े दे दें।‘
चेतना बोली, 'नीचे के कमरे में बड़े ट्रंक में होंगे।' घर पहुंचकर चेतना ने रिक्शे वाले से कहा, 'रुको तुम्हें स्वेटर देते हैं।'
वह ऊपर से कमरे और बड़े ट्रंक की चाबियाँ लाई। ट्रंक में वाकई बाबा आदम जमाने के रजाई-गद्दे और पुराने कपड़े भरे थे। उसने अच्छी हालत वाला एक गरम कुरता और ऊनी चादर निकाल कर रिक्शे वाले को दी।
रिक्शे वाला उनसे घर पहुंचाने का किराया नहीं लेना चाहता था। वह बार-बार हाथ जोड़ता, 'नहीं मालिक आपने कई दिनों की मजदूरी दे दी।' पर विनीत और चेतना ने जोर देकर उसे पैसे दिये।
रात को नीचे का मुख्य द्वार बन्द करते हुए चेतना ने देखा - रिक्शे वाला कहीं गया नहीं, वह वहीं उनके घर के आगे रिक्शे में ऊनी चादर ओढ़कर गुड़ीमुड़ी हुआ पड़ा था।
उसने विनीत को बताया। विनीत चिन्तित हो गया, 'यह बर्फानी रात में अकड़कर मर जाएगा, देख लेना।'
चेतना ने सुझाया, 'विनीत, क्यों न इसे नीचे के कमरे में रात काटने दें। सब के सब खाली तो पड़े हैं।'
विनीत ने नीचे जाकर रिक्शे वाले को उठाया और कमरा दिखा दिया।
शरण का आश्वासन मिलने पर रिक्शे वाले ने हाथ जोड़ कर विनीत के आगे झुक कर धन्यवाद किया। फिर उसने हाथ ऊपर उठाकर परवरदिगार का भी शुक्र अदा किया। विनीत ने उसका नाम पूछा। उसने बताया, 'रहमत'
यह सब सिर्फ एक रात का इन्तजाम था जो सारी सर्दियाँ जारी रहा।
इतनी ठण्ड में उससे यह कहना कि 'जाओ अपना रास्ता नापो' बड़ा कठिन था, खासकर तब जब रहमत सुबह उठ कर चारों कमरों के साथ आँगन, ड्योढी की भी झाड़ू लगा देता, पौधों में पानी डालता और बड़ी खुशी-खुशी विनीत को दफ्तर छोड़ आता। कभी-कभी चेतना भी उसके रिक्शे में बाजार चली जाती।
एक रात बहुत ज्यादा ठण्ड पड़ी। पहाड़ी कस्बों में बर्फ गिरी तो मैदानी कस्बे भी जमने लगे। चेतना को लगा रहमत को ठण्ड लग रही होगी। उसने अपने कमरे की खिड़की से आवाज लगाई, 'रहमत तुम्हें ठण्ड तो नहीं लग रही?'
रहमत ने जवाब दिया, 'नहीं मालकिन।'
विनीत की नींद टूट गई। उसने चिढ़ कर चेतना की तरफ देखा, 'यह बात दिन में भी पूछी जा सकती थी।'
'दिन में तो धूप की रजाई होती है। पाला तो रात में ही पड़ता है।'
'अगर उसे ठण्ड लग भी रही है तो क्या करोगी? क्या अपनी रजाई उसे दे दोगी?
'तुम तो बात का बतंगड़ बना देते हो। वह ऐसा कहेगा ही नहीं।'
विनीत बड़बड़ाया, 'मेरी अच्छी-भली नींद चौपट कर दी।'
दफ्तर की तरफ से स्कूटर खरीदने के लिए विनीत ने छह महीने से अर्जी लगा रखी थी। इसमें यह सुविधा थी कि सरकारी कर्मचारियों को निर्धारित मूल्य पर दस प्रतिशत की रियायत मिल जाती और माँगने पर प्राविधि खाते से पैसे निकालने की अनुमति भी।
जिस दिन स्कूटर आवंटन की खबर आई, विनीत खुश हुआ। उसने शाम को घर पहुँच कर चेतना को बताया। चेतना के मुँह से तत्काल निकला, 'बेचारे रहमत का क्या होगा?'
'इसका क्या मतलब? हमने क्या उसका ठेका ले रखा है, जाये वह जहाँ से आया था।' विनीत झॅँझला गया।
'यकायक वह कहाँ सिर छुपायेगा? छह महीने से यहाँ टिका हुआ है।'
'स्कूटर आने के बाद हम रिक्शे वाले का क्या करेंगे। हमने कोई सरकारी रैनबसेरा तो खोला नहीं है।'
'इंसानियत की कोई चीज़ होती है।' चेतना बोले बिना नहीं रही।
'तुम उसकी इतनी फिक्र क्यों कर रही हो? तुम्हारा वह क्या लगता है? मैंने सोचा था तुम स्कूटर की खबर से खुश होगी।'
'खुश तो मैं हूँ पर एक गरीब का आसरा छिनेगा यह बात खराब है।'
'तो क्या करें। क्या हम एन.जी.ओ. खोल कर बैठ जायें और अपने इलाके के सारे भूखे, नंगों को शरण दें।'
'इसके लिए बड़ा कलेजा चाहिए, हम तो एक अदद बेघर के सिर पर छत नहीं दे पा रहे जबकि वह अपने पैरों पर खड़ा है।'
विनीत बहुत चिढ़ गया। उसने मन ही मन तय किया, आने दो आज रहमत को। उसे ऐसी झाड़ पिलाऊँगा कि खुद ही अपना बोरिया-बिस्तरा उठा कर भाग जायेगा।
यह चिढ़ केवल रिक्शे वाले तक सीमित न थी। छोटी-छोटी बातों में विनीत को ढेर-सा गुस्सा उमड़ता।
कई बार वह अपने दफ्तर के दोस्तों को घर लाता। वे तय करते, विनीत के घर बैठकर बियर-वियर पी कर थोड़ा रिलैक्स हुआ जाए। बाकी साथियों के घर में एकांत का अभाव था। किसी के यहाँ माँ-बाप की मौजूदगी तो किसी के घर में बच्चों की चिल्ल-पौं आराम का माहौल न बनने देती। विनीत का घर इस मामले में निरापद था।
इस तरह के कार्यक्रम के लिए सब खुशी से खर्च में हिस्सा बाँटते। चेतना नमकीन और सलाद का इंतजाम कर देती। लेकिन नमकीन की प्लेटें रखने के साथ-साथ वह खुद भी आ बैठती। विनीत किसी न किसी बहाने उसे उठाता रहता, 'नमक लाओ, नींबू लाओ, बर्फ लाओ।' वह फौरन सामान लाकर पुन: बैठ जाती। किसी तरह अपने गुस्से पर जब्त कर, विनीत रात में चेतना को समझाने की कोशिश करता, 'देखो चेतू, तुम मेरे दफ्तर के लोगों के सामने न बैठा करो, ये अच्छे लोग नहीं हैं।'
'मुझे तो उनमें कोई खराबी नहीं दिखती। कितनी इज्जत से बात करते हैं।' चेतना असहमत होती।
'यह सब दिखावा है। दफ्तर में ये लोग दूसरों की बीवियों पर भद्दे-भद्दे कमेन्ट करते हैं।
'अगर ये इतने खराब लोग हैं तो तुम्हें भी इनसे दूर रहना चाहिए।'
'मुझे उपदेश देने की जरूरत नहीं। मेरा कर्तव्य है कि तुम्हारी रक्षा करूँ।' विनीत ने बात समाप्त की।
विनीत ने पाया बाजार में कितनी ऐसी दुकानें थीं जिनके दुकानदार चेतना से हँसकर बात करते। उसके कहने पर दो-चार रुपये की छूट भी दे देते। कुछ विक्रेता तो उसकी पसंद ऐसे समझते कि उसके बोलने से पहले उसकी मर्जी का सामान निकालकर काउंटर पर रख देते।
विनीत ने एक दिन कहा, 'चेतू, तुम क्यों बाजार जाकर परेशान होती हो। ऑफिस से वापस आते हुए मैं ही ला दूँगा जो लाना हो। तुम सुबह लिस्ट बना कर मेरी जेब में रख दिया करो।'
अपने प्रेमी पति को तकलीफ नहीं देना चाहती थी चेतना लेकिन उसे अपनी आजादी भी प्रिय थी। अब वह बिना विनीत को बताये दोपहर में बाजार के लिए निकल पड़ती। कई बार बिना कुछ लिये लौट आती पर बाहर निकलने का सुख अपनी जगह था। दुकानों में सजे सामानों का वह पत्र-पत्रिकाओं में दिये गये सामानों से मिलान करती और मन ही मन तय करती कौन-सी जगह पिछड़ी है तो कौन-सी अधुनातन।
घर में आने वाले अखबार और पत्रिकाओं की संख्या मजे की थी, क्योंकि दोनों पढ़ने के शौकीन थे। विनीत जहाँ हर पत्रिका एक बार पलट कर सरसरी तौर पर पढ़ता, चेतना उसे आद्योपांत पढ़ती। उनमें प्रकाशित लेख, कहानी, कविता पर विचार करती और अपनी सहेलियों से या विनीत से उन पर चर्चा करती। विनीत कहता, 'देखो रचनाओं में तर्क से ज्यादा तन्मयता देखी जाती है।'
चेतना कहती, 'तर्क के बिना जीवन में कुछ भी स्वीकार नहीं किया जा सकता, साहित्य भी नहीं। सहेलियाँ समझातीं, 'तुम क्यों सारा दिन माथापच्ची करती हो। कहानियों में झूठ ही झूठ होता है।
चेतना अपनी सहमति और असहमति व्यक्त करने में जरा देर न लगाती।
वह सम्पादकों को लम्बे-लम्बे पत्र लिखती। जिन रचनाओं में लेखकों के फोन नम्बर या पते दिये होते, वह उनसे भी सम्पर्क करने की कोशिश करती।
ज्यादातर तो किसी का उत्तर नहीं आता, लेकिन हाँ, एक बार एक कहानी लेखक ने उसे जवाब दिया था। उसने बड़ी सादगी से चेतना के तर्क मान लिये और कहा, 'जहाँ तक मेरी बुद्धि की पहुँच थी मैंने कहानी लिखी। आप मुझसे ज्यादा प्रखर हैं।'
पति-पत्नी दोनों ने यह पत्र पढ़ा। दोनों की प्रतिक्रिया अलग थी।
विनीत ने कहा, 'कितना बड़ा लेखक है और कितना विनम्र। उसने तुम्हारे आगे हथियार डाल दिये।'
चेतना बोली, 'गलत। विनीत, यह लेखक बड़ा चालाक है। उसने ऐसा लिख कर अपना पीछा छुड़ाया है।'
'चलो छोड़ो, तुम्हें भी क्या पड़ी जो तुम लोगों को चिट्ठी लिखती फिरो या फोन करो। कहानियाँ पढ़ कर भूल जाने के लिए होती हैं।'
चेतना ने पाया इधर रोज रात विनीत उसका फोन उलट-पुलट करता है। ध्यान देने पर उसे समझ आया कि वह यह देखता है कि पत्नी के पास किसका फोन आया और उसने किसको किया।
'कितनी ओछी हरकत है। मैं तो इससे दफ्तर के हर मिनट का हिसाब नहीं लेती।' उसे महसूस हुआ।
चेतना का मन कुछ बुझ गया। उसे लगा जैसे उसके ऊपर एक अनदेखा कैमरा लगा हुआ है।
उसने किताबों के बजाय कम्प्यूटर में मन लगाना शुरू किया। यह क्या! चेतना को जैसे घर बैठे नयी निराली दुनिया मिल गई। हर विषय पर इतनी जानकारी और इतनी विविधता। सत्य और तथ्य जानने की उसकी उत्कंठा अब कहीं संतुष्ट होने लगी। विनीत हैरान रह गया। वह जैसे ही कोई बात कहता, चेतना उसके दस पहलू सामने रख देती। विनीत ने उसे नया नाम दे दिया, मिनीपीडिया।
चेतना की प्रखरता से विनीत प्रभावित भी था और प्रताड़ित भी। उसे लगता जिंदगी की दौड़ में चेतना उसे बहुत पीछे छोड़ सकती है।
फेसबुक पर चेतना के हजारों दोस्त बन गये। वह अब घर ही घर में एकदम मगन रहती। वह रात में जाग कर इंटरनेट पर कुछ न कुछ पढ़ती रहती। आजकल विनीत कुढ़ रहा है और मना रहा है कि कहीं चेतना नौकरी करने का इरादा न कर ले। लगता है वहाँ भी वह उसे पछाड़ गिरायेगी।