थोड़ी-सी देर का सफर / योगेश गुप्त

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उन्होंने सड़क पार की ही थी कि विनीता ने कहा, "वह देखो, वह है हमारी कोठी।"

सुरेश ने एक नजर उधर देखा है।

फर्लांग लंबी सड़क के अंत की तरफ विनीता की पतली गोल उंगली अभी भी इशारा करती ठहरी है।

सुरेश ने सामने देखा, पूछा, "कौन-सी?"

"वह" "वहां" ... तुम कहाँ देख रहे हो?

"तुम्हारी तरफ। कपड़े पहनने का सलीका तुम्हें है। कहाँ सीखा?"

विनीता ने उंगली खींच ली। कोई जवाब नहीं दिया। वह फुटपाथ पर चढ़ गई. संभलकर चल रही है। सुरेश अभी नीचे सड़क पर ही है। वह भी आज खूब सजा-संवरा है। उसे अंदर कुछ खुरच रहा है। इतनी बेचैनी क्यों है? विनीता को ऊपर ही चलने दो।

"सुरेश!"

सुरेश पास खिसक आया है।

"कल मिल रहे हो?"

"हो" , उसने कहा है।

"क्या सोच रहे हो?"

"मैं? ... यों ही, आज तुम बहुत खूबसूरत लग रही हो।"

"झूठ।"

सुरेश ने न विनीता का "झूठ" सुना है, न उसके चेहरे पर आते-आते रंगे देखे हैं। वह इधर-उधर देख रहा है। क्या कोठियों की कतार है। हर कोठी के बाहर लॉन है। उनमें पेड़ खड़े हैं, छोटे और कंटे-छंटे। कुछ में पौधे उग रहे हैं। कुछ में पौधे बोये जा रहे हैं। माली बो रहा है। कुछ-उखड़े पौधों को वह उखाड़ रहा है।

दस मिनिट में विनीता का घर आ जायेगा।

छोटे पर वाले भुनगे सुरेश के दिमाग में फड़फड़ा उठे हैं।

एक टूटा पेड़ फुटपाथ पर पड़ा है। दोनों नीचे सड़क पर उतर आये हैं। अब मन नहीं है कि फिर ऊपर फुटपाथ पर चढ़ें-दोनों का।

दोनों एक-दूसरे से कुछ कहना चाह रहे हैं। पता नहीं किस बारे में?

"सुरेश, बोलते क्यों नहीं?"

अचानक सुरेश ने कहा है, "इस मकान को देखते ही मुझे डर लगने लगता है।"

"क्यों?"

"कितना शानदार है पर हर समय बंद रहता है। आंधी तूफान में ऊपर की खिड़की कभी-कभी खुलती है। कोई पेड़ नीचे गिरा हो तो नया-नया-सा लगता है।" डराता है। तुम्हें मालूम नहीं इसमें कोई नहीं रहता। "

"क्यों?"

"क्यों क्या, कोई यहाँ नहीं रहता, बस! ब्हुत से मकान इसी की तरह खाली पड़े रहते हैं। व् डराते नहीं क्या?"

"कोई झगड़ा होगा।"

"हो सकता है।" पर है मकान शानदार। "

सुरेश ने हाथ-पैर फैलाकर अंगड़ाई तोड़ी है। फिर पहले से सुस्त चाल से चलने लगा है, विनीता ने भी कदम छोट कर दिये हैं। वह पहल से अधिक मोहक लग रही है।

"तुम्हें यह मकान पसंद है? कैसा गहरा भूरा रंग है। जैसे किसी ने दीवारों पर पिघलाकर ऊब चिपका दी हो और दीवारें कैसी रेतीली हैं और इसका खालीपन और..."

"हां बिनी, मुझे यह मकान अच्छा लगता है।"

"किसलिए?"

"इसलिए कि यह खाली है और इसका विशाल लोहे का दरवाजा हमेशा बंद रहता है।"

"पगल हो।"

दोनों फिर फुटपाथ पर आ गये हैं। कदम और छोटे हो गये हैं। कितने लोग सड़क पर चल-फिर रहे हैं। आगे कोई पेड़ गिरा नहीं पड़ा। उन्हें विश्वास है सड़क के आखिर तक वे फुटपाथ पर ही चल सकेंगे। एक तिहाई रास्ता पार कर लिया है। दोनों अपने-अपने कपड़ों को बार-बार परख रहे हैं।

र्दाइं तरफ बड़ी-बड़ी कोठियों के गहरे-गहरे छज्जों पर बहुत से लोग खड़े हैं।

"तुम्हारी पसन्द बहुत बढि़या है।" विनीता ने कहा है।

"क्या हुआ?"

"अपने कपड़ों का रंग देखो।"

"क्या है इस रंग में?"

"कितना अच्छा लग रहा है तुम पर। हल्का भूरा और सीपिया... और कितना गोरा शरीर है।"

"हां और कितने घने बाल हैं।"

"रीछ जैसे।"

"हां।"

छज्जे पर खड़ी एक बहुत मोटी औरत ने आवाज के साथ नाक साफ किया है। फिर धोती के छोर से नाक रगड़ लिया है।

दोनों को धुड़धुड़ी-सी आई है।

"देखकर चलो विनीता, सड़कें यहाँ भी साफ नहीं रहतीं।"

"हां।"

"तुम कुछ परेशान हो?"

"नहीं।"

" मैं कभी तुम्हारे बारे में नहीं पूछता। तुम कैसी हो? पढ़ाई कैसी चल रही है? तुम्हारे घर के लोग तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार करते हैं?

तुम खुश भी हो... दरअसल विनीता, मेरी नजरों में धुंध है। कुछ भी साफ नहीं दीखता। "

" क्यों?

"मैं नहीं जानता। बस धुंध है। साफ दीखे कैसे।"

विनीता ने जमीन पर से एक छोटा-सा कंकर उठाया है और कसकर मुट्ठी में बंद कर लिया है।

"विनीता, बहुत बार मैंने सोचा, मुझे तुम्हारी तारीफ करनी चाहिए-तुम्हारा स्वभाव, तुम्हारी चतुराई, तुम्हारी शालीनता... पर..."

"पर? पर क्या?"

"कुछ मुझे अंदर से काटता है। जब भी मैं तुम्हारी तारीफ करने की सोचता हूँ, अंदर गहरे में कुछ चिरता है। तुम बता सकती हो..."

"मुझे कैसे मालूम।"

"जब तुम्हें मालूम नहीं है तो मैं कैसे जानूंगा समझती हो?"

"नहीं तो।"

"जो भी अंदर चीरता होगा उसका सम्बंध तुमसे ही तो होगा। नहीं तो और वक्त भी महसूस होता।"

विनीता चुप है।

उसने चुपके से हाथ का कंकर सुरेश की जेब में डालना चाहा है। कंकर नीचे गिर गया है। विनीता ने उसकी तरफ कोई ध्यान नहीं दिया है। वह चल रही है।

"सुरेश।"

"हां।"

"एक बात बताओ?"

"हां।"

"तुम मुझे अब भी प्रेम करते हो?"

सुरेश ने विनीता की तरफ घूमकर देखा है। शरीर ने हल्की-सी घुड़धुड़ी ली है। पूरी सड़क को एक नजर में देखा है। कोठी अब दूर नहीं है। पहुंचने तक जवाब दे सकेगा? शायद नहीं। पहले पहुंच जायेंगे। तब क्यों दे जवाब? इस प्रश्न को महत्त्व ही क्यों दे? इसका उत्तर क्या वाकई दिया जा सकता है? और यह भी कोई सवाल है? पर कुछ तो कहना चाहिए और उसने कहा है-

"विनीता, मैं भ्रम में हूँ। मैं नहीं जानता, मैं क्या हूँ। मैं बंदी हूँ, मैं सोचने को बाध्य हूँ। अपने कमरे में होता हूँ, शाम के वक्त तो हमेशा मुझे लगता है, कोई बाहर से दरवाजा बंद करके धीरे-धीरे चला गया है। सच, मैंने इस स्थिति को सच मान लिया है। यह नहीं है कि अंधेरे से मैं बाहर आना नहीं चाहता, पर दरअसल, चाहकर भी कुछ नहीं पाता। या शायद मैं दीवारों की तरफ से रास्ता ढूंढ़ता हूँ ... और मैं तुम्हें बताऊंगा विनीता, कमरे में होता हूँ, तब भी मुझे कमरा खाली ही लगता है। एकदम खाली, शून्य से भरा कमरा, जिसे कोई बाहर से बंद कर गया है। इस वक्त भी..."

"तुम मुझे डरा रहे हो, सुरेश।"

"नहीं, सही स्थिति बता रहा हंू। मैं मानता हूँ, यह स्वस्थ स्थिति नहीं है। इसीलिए बता रहा हंू। दमा होता, टी.वी. या कैंसर होता तो शायद ना भी बताता, पर यह" विनीता, मैं बीमार हंू। "

"तुम्हें वहम है, झूठ को सच मान रहे हो।"

" हो सकता है।

"क्या हो सकता है, बात से बच क्यों रहे हो?"

"नहीं।"

नहीं-नहीं, तुम्हें बताना होगा।

"क्या?"

"कि यह वहम है।"

"यह बहम नहीं है विनीता। यह सच है। यह नियति है। तुमने पूछा था, मैंने बता दिया। मुझे अँधेरा प्रिय है। रोज सूरज डूबने के बाद ही मुझे अपने अस्तित्व का भास होता है। मेरे अंदर छिपा अतिथि शाम होने के बाद ही उभरकर सामने आता है। मैं चाहता हूँ, दूर किसी कोने में दुबक जाऊं। पर अंधेरे में सैकड़ों आँखें मुझे देखती होती हैं, और..."

"शायद यह अपराध-बोध हो। तुमने कभी कोई अपराध..."

"हां।"

"क्या?"

अचानक सुरेश जोर से हंस पड़ा-ठहाका मारकर।

"बताओ ना।"

सुरेश हंसे जा रहा है, जोर-जोर से।

"पागल करके छोड़ोगे। बताओ ना।"

सुरेश ने हंसना बंद कर दिया है। अचानक बोला है, "तुम्हारी कोठी आ गई. यही है ना?"

"तुम..." झुंझलाकर विनीता ने उसका हाथ पकड़ लिया है।

सुरेश ने आगे कहा है, "चौकीदार ने गेट खोल दिया है। तुम्हारे अंदर आने की प्रतीक्षा कर रहा है, जिससे दोबारा बंद कर सके."

"तो, तुम नहीं बताओगे?"

"चौकीदार को अपनी ड्यूटी करने दो विनीता और सुनो, मुझे ऐसे मकानों से बहुत डर लगता है बल्कि शायद मैं उनसे नफरत करता हूँ जो आदमी को निगल कर पहले की तरह सहज हो जाते हैं।"

"और...?"

"और जब से-यानी कुछ ही दिन पहले से-मुझे अपने अस्तित्व का बोध हुआ है, मुझे लगने लगा है, रोशनी मेरे कमरे में आने से कतराती है। वह बंद है... बाहर से..."

विनीता ने डरकर सुरेश का हाथ छोड़ दिया है। उसने कोठी में घुसने के लिए कदम बढ़ा दिये हैं।

सड़क के इस किनारे विनीता की कोठी है। वह निगली जा चुकी है। चौकीदार ने दरवाजा बंद कर लिया है। सुरेश दाईं तरफ घूम गया है। ज़रा घूमकर घर जायेगा। यह दूसरा रास्ता भी सुरेश के घर की तरफ जाता है।

घुप्प अँधेरा है। कोई चेहरा पहचान नहीं पड़ता।

हर कोई रोशनी से कतरा रहा है।