दंगा / लफ़्टंट पिगसन की डायरी / बेढब बनारसी
क्लब से आकर मैं भोजन कर रहा था। एकाएक फोन की घंटी बजने लगी। कर्नल साहब बोल रहे थे। बनारस में हिन्दू-मुसलमानों में दंगा हो गया था। चालीस गोरे सिपाहियों के साथ मुझे तुरन्त बनारस जाने की आज्ञा हुई। किसी प्रकार भोजन समाप्त कर एक कार पर मैं और मेरा अरदली और दो लारियों पर चालीस गोरे सिपाही एक बजे रात को कानपुर चल दिये।
(यहाँ कुछ फ्रेंच में लिखा है जिसका अनुवाद मैं नहीं कर सका। कुछ- कुछ गाली-सी है। - लेखक)
जनवरी का महीना था। अपने को ओवरकोट में लपेट रखा था और बीच-बीच में बोतल से ही थोड़ी-थोड़ी ब्रांडी के घूँट ले लेता था। कर्नल साहब पर बड़ी झुँझलाहट आ रही थी। मुझे ही क्यों भेजा? मैं बिल्कुल नया आदमी। कभी न बनारस देखा न उसके सम्बन्ध में कुछ जानता था। ऐसी जगह मुझे भेजने से क्या लाभ? यह भी नहीं बताया कि मुझे करना क्या होगा।
हम लोग ग्यारह बजे दिन को बनारस पहुँचे। बैरक में सब लोग ठहरे और मैं कलक्टर साहब के बँगले पर पहुँचा। कार्ड भेजा। अन्दर बुलाया गया। मैंने देखा कि कलक्टर साहब का चेहरा नार्वे के कागज के समान सफेद था। आँखों से जान पड़ता कि कई दिनों से सोये नहीं हैं। मेरा अभिवादन करने में ऐसे शब्द निकल रहे थे मानो वे रो रहे हों।
मैंने तो पहले समझा कि इनकी इतनी दयनीय दशा है कि सब प्राणी यहाँ के गत हो गये हैं।
फिर उन्होंने कहा - 'कल दस बजे यहाँ हिन्दू-मुसलमानों में दंगा हो गया।'
मैंने पूछा - 'क्यों?'
'यहाँ एक कब्र है...'
'एक ही कब्र है इतने बड़े शहर में...'
'नहीं। आप पहले पूरी बात तो सुन लीजिये... एक कब्र है, उसी के पास एक हिन्दू का मकान है, उस मकान में एक नीम का पेड़ है...'
मैंने कहा - 'मैं सफर से आ रहा हूँ, इसी काम के लिये आया हूँ। सब ठीक समझ लेने दीजिये। - यहाँ एक कब्र है उसमें एक मकान है...'
'उसमें नहीं, उसके पास।' कलक्टर साहब ने मुझे ठीक किया।
'हाँ, हाँ, उसके पास; देखिये कार से सफर करने से जाड़े की रात में दिमाग का खून जम जाता है और कुछ का कुछ समझ में आने लगता है। - और उसमें एक पेड़ है। किस चीज का पेड़ आपने बताया?'
'नीम का।'
'तब?'
'उस नीम की पत्ती उस कब्र पर गिर पड़ी।'
'पत्ती तो नीचे गिरेगी, ऊपर तो जा नहीं सकती।'
'मगर कब्र पर जो गिरी।'
'तो कहाँ गिरनी चाहिये थी?'
'कहीं गिरती, पर कब्र पर गिरी, इससे मुसलमानों के हृदय पर धक्का लगा।'
'पत्ती गिरने से धक्का लगा तो कहीं पेड़ गिर जाता तब क्या होता?'
'सुनिये, उसी समय मुसलमानों ने कहा कि पेड़ काट डाला जाये, हिन्दुओं ने कहा कि कब्र खोद डाली जाये।'
'तो इसके लिये तो साधारण दो-तीन मजदूरों की आवश्यकता थी। चालीस गोरे और मुझे बुलाने की कोई बात मेरी समझ में नहीं आयी।'
'वह बात नहीं है। हमें तो दोनों की रक्षा करनी है।'
'तो उसी के लिये हम लोग आये हैं?'
'नहीं, वहाँ तो हमने पहरा बिठा दिया है; ये लोग लड़ गये हैं।'
'तो लड़ने दीजिये, दूसरों की लड़ाई से हमें क्या काम?'
'हमें तो शान्ति करनी है।'
'लड़-भिड़कर स्वयं ही शान्त हो जायेंगे। जब यूरोप में सौ वर्ष की लड़ाई शान्त हो गयी, तीस वर्षीय युद्ध समाप्त हो गया, तब इनकी लड़ाई कितनी देर तक चल सकती है?'
'परन्तु हमें तो शासन करना है, शान्ति रखनी है। शान्तिप्रिय नागरिकों की रक्षा करनी है।'
'तो हम लोगों को इस सम्बन्ध में क्या करना है?'
'पहला काम तो यह है कि आप अपने सैनिकों सहित नगर के चारों ओर चक्कर लगाइये।'
'इससे क्या होगा?' मैंने पूछा, क्योंकि चक्कर लगाने से आज तक कोई दंगा बन्द होते मैंने नहीं सुना था।
कलक्टर साहब ने कहा - 'इससे आंतक फैलेगा और लोग डर जायेंगे और घर से बाहर नहीं निकलेंगे।'
मुझे तो आज्ञा पालन करनी थी। बाहर आया। सबको आज्ञा दी। हमारे साथ एक देशी डिप्टी कलक्टर भी कर दिया गया। हम लोग सैनिकों को लिये एक-दो-तीन करते घूमने लगे।
पहली बार मैंने बनारस देखा। परन्तु इसके बारे में मैं आगे लिखूँगा। इस समय मैंने देखा कि सड़कें बिल्कुल खाली हैं। घर सब बन्द हैं। कोई दिखायी नहीं पड़ता है। हम लोगों को कोई देखता है तो किसी गली में भाग जाता है, जैसे कोई शेर या चीते को देख ले।
मेरी समझ में नहीं आया कि दंगा कहाँ हो रहा है। मैं देखना चाहता था कि हिन्दू-मुसलमान कैसे लड़ते हैं। केवल मुँह से गालियाँ देते हैं कि मुक्केबाजी करते हैं, कि लाठियों से लड़ते हैं। क्योंकि यहाँ तो हथियार कानून लागू है। किसी के पास बंदूक या तलवार तो होगी नहीं। किसी के पास चोरी से होगी तो वह भी एकाध। मैं तो सेना विभाग का आदमी हूँ। मुझे इस प्रकार के युद्ध की प्रणाली पर विश्वास नहीं।
मैंने बहुत सोचा, परन्तु समझ में नहीं आया कि कब्र पर पत्ती गिरने से लड़ाई क्यों आरम्भ हो गयी। मुर्दे को चोट भी नहीं लग सकती। कानपुर लौटूँगा तक मौलवी साहब से पूछूँगा कि क्या बात है। कोई और वस्तु हो तो निरादर या अपमान भी हो। नीम की पत्ती से क्यों मुसलमान लोग बिगड़ें?
सन्ध्या समय जब नगर के चारों ओर घूम चुके तब हम लोगों को छुट्टी मिली। सब सैनिक बैरक में गये। मैं कलक्टर साहब के बँगले पर गया। मैंने कहा - 'मुझे तो कोई कहीं दिखायी नहीं दिया।'
वह बोले - 'यही तो ब्रिटिश शासन का रौब है। हिंदोस्तानी लोग हम लोगों से बहुत डरते हैं।' बैरक से लौट आया और सोचने लगा कि भारतवासी क्यों अंग्रेजों से डरते हैं। काली चीज देखकर भय लगता है। हम लोग भारतवासियों से डरें तो स्वाभाविक है, परन्तु सफेद चीज से डर लगना! हम लोगों का भारतवासियों से डरना एक बात थी।
मैं सोचने लगा कि सचमुच बात क्या है जिससे हम लोगों से हिदुस्तानवाले डरते हैं; वीर तो ये लोग बड़े होते हैं। यहाँ के सैनिकों की वीरता की धाक यूरोप में जम चुकी है, बुद्धि में भी यहाँ के लोग किसी प्रकार कम नहीं, क्योंकि बहुधा हिन्दुस्तानियों के नाम सुनता हूँ, जिनके ज्ञान-विज्ञान की प्रशंसा यूरोप के विद्वान भी करते हैं। यहाँ के रहनेवाले अंग्रेजी भी अच्छी बोलते हैं। असेम्बली के भाषण छपा करते हैं, अंग्रेजी बिल्कुल व्याकरण से शुद्ध होती है। इतना ही नहीं, आई.सी.एस. की परीक्षा भी पास कर लेते हैं, बढ़िया सूट भी पहनते हैं; सुनते हैं बहुत-से लोग मेज पर खाते भी हैं; फिर भी हम लोगों से डरते हैं, बात क्या है?
मैंने मनोविज्ञान तो कभी पढ़ा नहीं, इसलिये बहुत सोचने पर भी कोई बात ठीक मन में नहीं आयी। एक बात केवल समझ में आयी कि ईश्वर जब हिन्दुस्तान में रहनेवालों को पैदा करता है, तब जान पड़ता है भय का कोई डोज मिला देता है क्योंकि तीन-चार महीने मुझे यहाँ आये हो गये, मैंने देखा कि सभी लोग यहाँ डरते हैं। हिन्दू मुसलमानों से डरते हैं। मुसलमान हिन्दुओं से; मारे डर के ये लोग स्त्रियों को घर के बाहर नहीं निकालते; सुनता हूँ - मारे डर के रुपयेवाले रुपया बैंक में नहीं रखते, पृथ्वी के नीचे गाड़कर रखते है। गाँववाले पुलिस के अफसर-थानेदार से डरते हैं, नगरवाले कलक्टर से डरते हैं, मूँछवाले बेमूँछवालों से डरते हैं, स्त्रियाँ पुरुषों से डरती हैं, पुरुष स्त्रियों से डरते हैं। मैंने तो जो देखा और सुना वह यही कि यहाँ के लोगों का मूलमन्त्र डर ही डर है। जीवित लोगों से ही नहीं मुर्दों से भी ये लोग डरते हैं, भूत से ये लोग डरते हैं, पिशाच से ये लोग डरते हैं। तब हम लोगों से डरते हैं तो कोई आश्चर्य नहीं।